Friday, June 20, 2008

जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है

अमृता ने जब होश संभाला तो ख़ुद को अकेला ही पाया ..अमृता बचपन से अकेली पली बड़ी है ...जब वह मात्र दस साल की थी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया !उनका बचपन वैसा नही था जैसा एक आम बच्चे का होता है ....उनके पिता लेखक थे जो रात में लिखते और दिन में सोया करते थे ....घर में सिर्फ़ किताबे और किताबे ही थी जिनमें वह दब कर रह गई थी! कई बार उन्हें लगता था कि वह ख़ुद एक किताब है मगर कोरी किताब सो उन्होंने उसी कोरी किताब में लिखना शुरू कर दिया

तब उनके पिता ने उनकी प्रतिभा को पहचाना उसको संवारा तुक और छन्द का ज्ञान करवाया उन्हें भगवान की प्रशंसा के गीत और इन्सान के दुःख दर्द की कहानी लिखने को प्रेरित किया वह चाहते थे कि अमृता मीरा बाई की तरह लिखे पर यह नही हो सका !

अमृता ने चाँद की परछाई में से निकल कर अपने लिए एक काल्पनिक प्रतिमा बना ली थी जिसे वह घंटो चाँद की परछाई में देखा करती थी उसका काल्पनिक नाम उन्होंने राजन रखा था ....ग्यारह साल की अमृता ने अपनी पहली प्रेम कविता उसी राजन के नाम लिखी जो उनेक पिता ने उनकी जेब में देख ली थी ,अमृता डर गई थी और यह नही कह पायी की कविता उन्होंने ही लिखी है ......पिता ने उनके मुहं पर थप्पड़ मारा इसलिए नही कि उन्होंने कविता लिखी इस लिए कि उन्होंने झूठ बोला था !

पर उनकी कविता कोई दोष न ले सकी कि उसने झूठ बोला और बिना रोक टोक के कविता उमड़ पड़ी और बहने लगी ....

इसी राजन को याद करके जब उन्होंने इमरोज़ को ख़त लिखा उस दिन उस ख़त में उन्होंने इमरोज़ से कहा कि..

मेरी तक़दीर ,

राजन का अस्तित्व इस धरती पर कहीं नही था उसने सिर्फ़ मेरे सपनों को अपना बना रखा था और जिस दिन तुमने अशु पढ़ कर मुझे फ़ोन किया ""मैं तुम्हारा राजन बोल रहा हूँ ,उस दिन यह धरती की बात बन गई इस बात ने कर्म भी किया है और कहर भी ..तुम्हारी नज़र ने मेरे ऊपर से बरसों का पडा हुआ कोहरा झाड़ दिया है और आज जब मैं उस नज़र को नौ सौ मील की दूरी पर भेज कर आई हूँ एक कोहरा सा फ़िर मुझ पर पड़ता जा रहा है यह नज़र जिन मजबूर हालातों में मुझसे बिछुडी है उसका एहसास भी मेरे पास है और उसी के सहारे तुम्हारे विछोह के दिनों में पड़ने वाली कोहरे को मैं अपने ऊपर से झाडती रहूंगी और जब मेरे सामने फ़िर तुम्हारी नज़र होगी मेरे मन का रंग उसी तरह गुलाबी हो जायेगा
तुम्हारी बेगम

२१ -१ - ६०

एक गुफा हुआ करती थी --
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजूओं में ले कर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह कसम !
यही महक थी -
जो उसके होंठो से आई थी -
यह कैसी माया .कैसी लीला
कि शायद तुम भी कभी वह योगी थे
या वही योगी है --
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूँ --और वही महक है ...


इसी प्यार की महक के साथ फ़िर मिलती हूँ आपसे उनके अगले लिखे ख़त में

9 comments:

कुश said...

कोटि कोटि धन्यवाद रंजू जी.. अमृता जी की लेखनी की बूंदे यहा बरसाने के लिए.. बहुत सुंदर

mamta said...

अच्छा लग रहा है अमृता जी को पढ़ना । अगले ख़त का इंतजार रहेगा।

Anonymous said...

thanks amrata pritam ko padhane ke liye.

Anonymous said...

योगी ने जब बाजूओं में ले कर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह कसम !
यही महक थी -
जो उसके होंठो से आई थी -
यह कैसी माया .कैसी लीला
कि शायद तुम भी कभी वह योगी थे
या वही योगी है --
bahut khubsurat ehsaas hai kavita mein,uski mehek to dil tak hi jati hai,wah

dpkraj said...

अमृता प्रीतम की रचनाएं प्रस्तुत कर आप बहुत अच्छा काम कर रहीं हैं। बधाई।
दीपक भारतदीप

pallavi trivedi said...

शुक्रिया रंजू...अम्रता को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है!

डॉ .अनुराग said...

वो जो इश्क था वो जनून था
ये जो हिज्र है वो नसीब है......

shivani said...

रंजना अमृता प्रीतम को पढने और जानने की अभिलाषा मेरे मन में बहुत सालों से थी !आज ये नेक कार्य तुम्हारे माध्यम से हुआ है !बहुत बहुत धन्यवाद !अमृता जी को पढना बहुत अच्छा लगा !अगली कड़ी का मुझे इंतज़ार रहेगा !

Dr. Chandra Kumar Jain said...

कई बार उन्हें लगता था कि वह ख़ुद एक किताब है मगर कोरी किताब सो उन्होंने उसी कोरी किताब में लिखना शुरू कर दिया
=================================
बहुत सुंदर वर्णन.
अगली कड़ी शीघ्र पोस्ट कीजिए
=========================
बधाई
डा.चन्द्रकुमार जैन