रात आधी बीती होगी
थकी हारी
नींद को मनाती आँखे
अचानक व्याकुल हो उठीं
कहीं से आवाज़ आई --
अरे ,अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैर कर जाना है "
मैं हैरान हो कर बोली --
मैं तैरना नहीं जानती
पर ले चलो ,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूंगी |"
एक खामोशी --हलकी हँसी
नहीं डूबना नहीं ,तैरना है ...
मैं हूँ न ,....
और फ़िर जहाँ तक कान पहुँचते थे
एक बांसुरी की आवाज़ आती रही ......
अमृता प्रीतम का जीवन और लेखन दोनों लीक से हट कर है ...दोनों में परम्परा को नकार कर सच को पाने कीतड़प है ..शायद इस लिए दोनों ही जोखिम से भरपूर हैं .और समाज के आंखों की किरकिरी बन गए ...अमृता जी कीसर्जनात्मक प्रतिभा किसी के विधा में बाँध कर नही रह गई ..उसका विकास हर तरफ़ से हुआ ...उन्हें वैसे मूलतःकवयित्री ही माना जाता है पर कोई विधा नहीं है जिस में उनकी सफल लिखी हुई कृतियाँ न मिले अब चाहे वहकविता हो चाहे उपन्यास ,कहानी .या लेख सब में नारी की व्यथा खूब अच्छे से उभर कर आई है ...पर इस सबकेबावजूद अमृता जी के सारे साहित्य का मूल स्वर जीवन ही है ...वह कहीं भी ज़िन्दगी से भागती हुई नहीं दिखी .नही कहीं विरक्त दिखी ...उनके लेखन में उनके व्यक्तित्व में जीवन की हर बाधा से हर विपदा से जूझने का साहस है वोभी बिना किसी जोखिम और किसी भी परिणाम की चिंता किए बिना ...जीवन को भरपूर जी लेने की तड़प है जीवनमें भी और उनके लिखे साहित्य में भी .......इस लिए एक बात और जो उनके लेखन में दिखायी देती है वह यह है किअपने जीवन और जगत ,इस संसार के प्रति बेपनाह आक्रोश होते हुए भी उनका साहित्य समूची मानवता , इंसानियत के लिए प्यार ही प्यार समेटे हुए हैं .....
अमृता ने जो समय समय पर लेख लिखे व पहले "नागमणि "में छपते रहे .फ़िर यह एक पुस्तक के रूप में छपेजिसका नाम था सफर नामा ..इस पुस्तक को अमृता ने किताबों .मुलाकातों और विचारों की सड़क का सफरनामाकहा ..इसी किताब से कुछ चुनी हुई पंक्तियाँ यहाँ पढ़े ..
यह धरती बहुत विशाल है .यहाँ हर कौम के .हर नस्ल के .हर मजहब के और हर विश्वास के लोग अमन चैन से बससकते हैं ..यहाँ किसी को हथियार बनाने की भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी ..और यह धरती बड़ी उपजाऊ हैयहाँ किसी मनुष्य को भूखे सोने की नौबत नही आणि चाहिए ..जिंदगी के बहते पानी का नाम है .इसका कोई भीपल जोहड़ की तरह ठहरा हुआ सड़ना नही चाहिए .और मोहब्बत महज एक रौशनी का नाम है .ईश्वर के नाम जैसीबेबाकी का नाम है ..इसे छातियों की गुफाओं में पड़कर दिन बिताने की आवश्यकता नहीं है ..और दोस्ती मनुष्य केगुणों में एक कुदरती गुण है बड़े खूबसूरत अंगोंवाला ,इसे अपाहिज कर के चौराहे पर भिखमंगों की तरह खड़ा करनेकी आवश्यकता नहीं है ..और मनुष्य एक गौरव से चमकते .ऊँचे सिरवाले जीव का नाम है .इस माथे को कभीमजहब की दहलीज पर कभी मज़बूरी की दहलीज पर झुकाने की जरुरत नही हैं ......
आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है ,जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती ..सामाजिक और राजनितिकयथार्थ के हाथों मनुष्य रोज़ कंपता है टूटता है ..सोचती हूँ .कोई भी रचना .कोई भी कृति .धूप की एक कटोरी पीने केसमान है या धूप का एक टुकडा कोख में डालने की तरह है .और कुछ नही .सिर्फ़ ज़िन्दगी का जाड़ा काटने का एकसाधन ......
जहाँ मान्यताये खतम होती हैं वहां अश्लीलता शुरू होती है और जहाँ से यह मानसिक नपुसंकता शुरू होती है वहांलेखक ख़त्म हो जाता है और जहाँ लेखक ख़त्म हो जाता है वहां उसकी रचना साहित्य की सीमा के बाहर हो जाती है
रूह का एक जख्म एक आम रोग है
जख्म की नग्नता से
जो बहुत शर्म आए
तो सपने का टुकडा फाड़कर
उस जख्म को ढांप ले ...
इस जेल की यह बात
कोई कभी नही करता
और न कोई कभी कहता
की दुनिया की हर बगावत
एक ज्वर की तरह चढ़ती
ज्वर चढ़ते और उतर जाते
काश कभी इंसान को
आशा का कैंसर न होता ....... . ....
थकी हारी
नींद को मनाती आँखे
अचानक व्याकुल हो उठीं
कहीं से आवाज़ आई --
अरे ,अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैर कर जाना है "
मैं हैरान हो कर बोली --
मैं तैरना नहीं जानती
पर ले चलो ,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूंगी |"
एक खामोशी --हलकी हँसी
नहीं डूबना नहीं ,तैरना है ...
मैं हूँ न ,....
और फ़िर जहाँ तक कान पहुँचते थे
एक बांसुरी की आवाज़ आती रही ......
अमृता प्रीतम का जीवन और लेखन दोनों लीक से हट कर है ...दोनों में परम्परा को नकार कर सच को पाने कीतड़प है ..शायद इस लिए दोनों ही जोखिम से भरपूर हैं .और समाज के आंखों की किरकिरी बन गए ...अमृता जी कीसर्जनात्मक प्रतिभा किसी के विधा में बाँध कर नही रह गई ..उसका विकास हर तरफ़ से हुआ ...उन्हें वैसे मूलतःकवयित्री ही माना जाता है पर कोई विधा नहीं है जिस में उनकी सफल लिखी हुई कृतियाँ न मिले अब चाहे वहकविता हो चाहे उपन्यास ,कहानी .या लेख सब में नारी की व्यथा खूब अच्छे से उभर कर आई है ...पर इस सबकेबावजूद अमृता जी के सारे साहित्य का मूल स्वर जीवन ही है ...वह कहीं भी ज़िन्दगी से भागती हुई नहीं दिखी .नही कहीं विरक्त दिखी ...उनके लेखन में उनके व्यक्तित्व में जीवन की हर बाधा से हर विपदा से जूझने का साहस है वोभी बिना किसी जोखिम और किसी भी परिणाम की चिंता किए बिना ...जीवन को भरपूर जी लेने की तड़प है जीवनमें भी और उनके लिखे साहित्य में भी .......इस लिए एक बात और जो उनके लेखन में दिखायी देती है वह यह है किअपने जीवन और जगत ,इस संसार के प्रति बेपनाह आक्रोश होते हुए भी उनका साहित्य समूची मानवता , इंसानियत के लिए प्यार ही प्यार समेटे हुए हैं .....
अमृता ने जो समय समय पर लेख लिखे व पहले "नागमणि "में छपते रहे .फ़िर यह एक पुस्तक के रूप में छपेजिसका नाम था सफर नामा ..इस पुस्तक को अमृता ने किताबों .मुलाकातों और विचारों की सड़क का सफरनामाकहा ..इसी किताब से कुछ चुनी हुई पंक्तियाँ यहाँ पढ़े ..
यह धरती बहुत विशाल है .यहाँ हर कौम के .हर नस्ल के .हर मजहब के और हर विश्वास के लोग अमन चैन से बससकते हैं ..यहाँ किसी को हथियार बनाने की भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी ..और यह धरती बड़ी उपजाऊ हैयहाँ किसी मनुष्य को भूखे सोने की नौबत नही आणि चाहिए ..जिंदगी के बहते पानी का नाम है .इसका कोई भीपल जोहड़ की तरह ठहरा हुआ सड़ना नही चाहिए .और मोहब्बत महज एक रौशनी का नाम है .ईश्वर के नाम जैसीबेबाकी का नाम है ..इसे छातियों की गुफाओं में पड़कर दिन बिताने की आवश्यकता नहीं है ..और दोस्ती मनुष्य केगुणों में एक कुदरती गुण है बड़े खूबसूरत अंगोंवाला ,इसे अपाहिज कर के चौराहे पर भिखमंगों की तरह खड़ा करनेकी आवश्यकता नहीं है ..और मनुष्य एक गौरव से चमकते .ऊँचे सिरवाले जीव का नाम है .इस माथे को कभीमजहब की दहलीज पर कभी मज़बूरी की दहलीज पर झुकाने की जरुरत नही हैं ......
आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है ,जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती ..सामाजिक और राजनितिकयथार्थ के हाथों मनुष्य रोज़ कंपता है टूटता है ..सोचती हूँ .कोई भी रचना .कोई भी कृति .धूप की एक कटोरी पीने केसमान है या धूप का एक टुकडा कोख में डालने की तरह है .और कुछ नही .सिर्फ़ ज़िन्दगी का जाड़ा काटने का एकसाधन ......
जहाँ मान्यताये खतम होती हैं वहां अश्लीलता शुरू होती है और जहाँ से यह मानसिक नपुसंकता शुरू होती है वहांलेखक ख़त्म हो जाता है और जहाँ लेखक ख़त्म हो जाता है वहां उसकी रचना साहित्य की सीमा के बाहर हो जाती है
रूह का एक जख्म एक आम रोग है
जख्म की नग्नता से
जो बहुत शर्म आए
तो सपने का टुकडा फाड़कर
उस जख्म को ढांप ले ...
इस जेल की यह बात
कोई कभी नही करता
और न कोई कभी कहता
की दुनिया की हर बगावत
एक ज्वर की तरह चढ़ती
ज्वर चढ़ते और उतर जाते
काश कभी इंसान को
आशा का कैंसर न होता ....... . ....
19 comments:
काश कभी इंसान को
आशा का कैंसर न होता ....... . ....
बहुत ही सुन्दर ...
"मैं तैरना नहीं जानती
पर ले चलो ,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूंगी "
साहस की ऊचाइंयों की अदभुत मिसाल है। हम तक इसे पहुंचाने के लिए शुक्रिया..
bahut sunder rachana
bahut sunder abhivyakti .
'काश कभी इंसान को
आशा का कैंसर न होता'
बहुत बढ़िया ! इंसान सब कुछ छोड़ देता है आशा नहीं.
अचानक व्याकुल हो उठीं
कहीं से आवाज़ आई --
अरे ,अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैर कर जाना है "
बहुत ही सुन्दर ...
''आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है ,जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती ..सामाजिक और राजनितिकयथार्थ के हाथों मनुष्य रोज़ कंपता है टूटता है--- ..''
वह क्या लिखा है अमृता जी ने सफरनामे में--
आप ने भी सच कहा है कि 'अमृता जी के लिखे में 'जीवन को भरपूर जी लेने की तड़प है'
और चिंतन भी---
इस जेल की यह बात
कोई कभी नही करता
और न कोई कभी कहता
की दुनिया की हर बगावत
एक ज्वर की तरह चढ़ती
ज्वर चढ़ते और उतर जाते
" again a beautiful expresions and artical to read"
Regards
एक खामोशी --हलकी हँसी
नहीं डूबना नहीं ,तैरना है ...
मैं हूँ न ,....
kitna gehra vishswas,bahut sundar,ek aur khubsurat si post ke liye shukran,jitnapadhe kam ha.
भाव भीनी अभिव्यक्ति.
अमृताजी में एक बहुत ही परिष्कृत रूमानीपन है। इसी रूमानीपन के झीने परदे में वे जीवन का सच देखती हैं , दिखाती हैं। वह जीवन जिसमें सपने और सच में ज्यादा फर्क नहीं था। आपने उसी की एक बानगी प्रस्तुत की, इसके लिए आभार।
सिर्फ़ इतना ही कहूंगा , मेरी नजर में अमृता जी अमृत हैं ! उनकी रचनाओं पर कमेन्ट करना हँसी खेल नही है ! ना उनकी जड़ो की गहराई हम जानते हैं और ना उनका आकाश में कितना उंचा वजूद है , वो हम जानते हैं ! उनको पढ़ना ही खुदा की इबादत है ! बहुत शुभकामनाएं आपको !
काश कभी इंसान को
आशा का कैंसर न होता ....
speechless!
अमृता जी ने कितनी सुंदर बातें लिखी हैं-
धरती पर किसी को हथियार बनाने की भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी ... मनुष्य को भूखे सोने की नौबत नही आनी चाहिए ..मोहब्बत महज एक रौशनी का नाम है .ईश्वर के नाम जैसी बेबाकी का नाम है।.. मनुष्य को अपने माथे को कभी मजहब की दहलीज पर, कभी मज़बूरी की दहलीज पर झुकाने की जरुरत नही हैं ......
आपने खूबसूरत पंक्तियों से हमें रूबरू करवाया। शुक्रिया।
..और मनुष्य एक गौरव से चमकते .ऊँचे सिरवाले जीव का नाम है .इस माथे को कभीमजहब की दहलीज पर कभी मज़बूरी की दहलीज पर झुकाने की जरुरत नही हैं ......
यकीं नही होता यह आज के दौर के इंसान की अभिव्यक्ति है. नायाब काम कर रही हैं आप. स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.
अमृता प्रीतम मुझे कभी पसंद आती हैं, कभी नहीं. रवींद्र भाई के मुताबिक जो परिष्कृत रुमानीपन है, वो बहुत भाता है. लेकिन वो नाहक रहस्य बनाने लगती हैं तो बोर करती हैं
Good Job Dear
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dukhdaee jaroor hai par sahara bhee to hai.......jene ka....
.........ati sundar
जख्म की नग्नता से
जो बहुत शर्म आए
तो सपने का टुकडा फाड़कर
उस जख्म को ढांप ले ...
..अमृता तो अमृता हैं ना....और उनके शब्द......अमृत.....अमृत को जो चख ले...वो ख़ुद भी अमृता हो जाए...हमेशा इक हथेली की तरह पसीजा हुआ-सा....हाँ...सच...!!..........
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