Friday, November 6, 2009

डेढ़ घंटे की मुलाक़ात

अमृता की कवितायेँ खुद में एक कहानी है ,एक एक लफ्ज़ अपनी बात इस तरह से कहता है जैसे ज़िन्दगी का एक सच मुकम्मल रूप से सच है ..और हर बार उनका लिखा कोई न कोई नया अर्थ दे जाता है ...आज इसी श्रृंखला में उनकी एक और कविता ..डेढ़ घंटे की मुलाकात ..जैसे ज़िन्दगी इसी लिखे में पूरी गुजर गयी हो ..और एक नया अर्थ दे गयी हो ....

डेढ़ घंटे की मुलाक़ात
जैसे बादल का एक टुकडा
आज सूरज के साथ टांका ,
उधेड़ हारी हूँ
पर कुछ नहीं बनता
और लगता है
कि सूरज के लाल कुरते में
यह बादल किसी ने बुन दिया है |

डेढ़ धंटे की मुलाक़ात
सामने उस चौक में
एक संतरी कि तरह खड़ी
और मेरी सोचों का गुजरना
उसने हाथ दे कर रोक दिया
खुदा जाने मैंने क्या कहा था
और जाने खुदा
तूने क्या सुन लिया |

डेढ़ घंटे की मुलाक़ात
सोचती हूँ
आदिवासी औरत की तरह
मैं एक चिलम सुलगा लूँ
और डेढ़ घंटे का तम्बाकू
इस आग में रख कर पी लूँ

इस से पहले
कि मेरी सोच घबरा जाए
और गलत मोड़ मुड जाए
इस से पहले
कि बादल को उतारते
यह सूरज टूट जाए
इस से पहले कि
मुलाक़ात की याद
एक नफरत में बदल जाए

डेढ़ धंटे का धुंआ
कुछ मैं पी लूँ
कुछ पवन पी ले
इस से पहले
कि इसका लफ्ज़
मेरी या तेरी जुबान पर आये
इससे पहले
कि मेरा या तेरा कान
इस जिक्र को सुने

और इस से पहले की मर्द
औरत जात की तौहीन बन जाए
और इस से पहले कि औरत
मर्द जात की ताक का का कारण बने
इस से पहले ......इस से पहले ........!!!!!!

9 comments:

sharda arora said...

इस से पहले और इस से पहले
और Amrita Pritam ki dhadkanon ne ise jubaan de dee. adbhut

"अर्श" said...

aur isase pahale... :) :)


arsh

ताऊ रामपुरिया said...

डेढ़ घंटे की मुलाक़ात
सोचती हूँ
आदिवासी औरत की तरह
मैं एक चिलम सुलगा लूँ
और डेढ़ घंटे का तम्बाकू
इस आग में रख कर पी लूँ


उनका लिखा पढना स्तब्ध भी कर जाता है जैसे जादू कर दिया हो.

रामराम.

सागर said...

सोचती हूँ
आदिवासी औरत की तरह
मैं एक चिलम सुलगा लूँ
और डेढ़ घंटे का तम्बाकू
इस आग में रख कर पी लूँ

... क्या ख्वाहिश है... सुभानाल्लाह

Rajeysha said...

और इस से पहले की मर्द
औरत जात की तौहीन बन जाए
और इस से पहले कि औरत
मर्द जात की ताक का का कारण बने
इस से पहले ......इस से पहले ........!!!!!!

इससे पहले संभल जाना चाहि‍ए।

vandana gupta said...

bahut hi gahan...........hamesha ki tarah........padhwane ka shukriya.

सदा said...

और डेढ़ घंटे का तम्बाकू
इस आग में रख कर पी लूँ

अमृता जी की लिखी हर पंक्ति अपने आपमें अनमोल है और आपके पास वह अनमोल खजाना है, जिन्‍हें आप हम सब के बीच बांटती है, इस रचना के लिये भी और आगामी अन्‍य रचनाओं के लिये भी आभार ।

हरकीरत ' हीर' said...

डेढ़ घंटे की मुलाक़ात
जैसे बादल का एक टुकडा
आज सूरज के साथ टांका ,
उधेड़ हारी हूँ
पर कुछ नहीं बनता
और लगता है
कि सूरज के लाल कुरते में
यह बादल किसी ने बुन दिया है |

लाजवाब.....रंजू जी बहुत कुछ सिखने को मिला अमृता की इस नज़्म से .....चौथी पंक्ति को देखें क्या 'हारी' शब्द ही है ....??

विधुल्लता said...

इस से पहले
कि मेरी सोच घबरा जाए
और गलत मोड़ मुड जाए
इस से पहले
कि बादल को उतारते
यह सूरज टूट जाए
इस से पहले कि
मुलाक़ात की याद
एक नफरत में बदल जाए.....बहुत बढिया कविता ढूँढ कर लाई हो कभी- कभी मन कुछ भी पढने का नहीं करता ...और लग रहा है कुछ लिखूं ...भोपाल में आज हलकी बूंदा-बांदी है मौसम में ठंडक और माहौल में रूमानियत ....तुम कैसी हो बहुत दिनों बाद तुम्हे पढ़ रही हूँ ...आमीन