Wednesday, January 4, 2012

वह बांसुरी जाने कहां गई जो मुहब्बत का गीत गाती थी...

घर, क़बीला, समाज, मज़हब और सिसायत भी हमारे चाँद-सूरज होते हैं, और इनको लगे ग्रहण के वक़्त जब किसी शायर, आशिक और दरवेश का जन्म होता है तो यह हकीकत है कि दर्द का मोती उसके मस्तक में पड़ जाता है...
चेतना की यात्रा बहुत लम्बी होती है-
घर, क़बीले को जब टूटते रिश्तों का ग्रहण लगता है, तो जिस चेतना का जन्म होता है, उसके दर्द की इन्तहाँ अपनी तरह की होती है..
समाज को जब तरह-तरह की नाइन्साफ़ियों का ग्रहण लगता है, तो चेतना के अहसास की शिद्दत अपनी तरह की होती है..
मज़हब के चाँद को जब फ़िरक़ापरस्ती का ग्रहण लगता है, तो आसमान की आत्मा कैसे तड़पती है,यह चेतना अपनी तरह की होती है...
और सिसायत के सूरज को जब सत्ता की हवस का ग्रहण लगता है, तो धरती की आत्मा कैसे बिलखती है, यह चेतना अपनी तरह की होती है..
दुनिया के अदबी इतिहास को दर्द के मोती मिलते हैं, पर कोई नहीं जानता कि किसी कलमवाले की चेतना को ज़िन्दगी के कितने ग्रहण देखने और झेलने पड़ते हैं....अमृता का लिखा अक्षरों की लीला से ..
 
जब छोटी-सी थी, तब सांझ घिरने लगती, तो मैं खिड़की के पास खड़ी-कांपते होठों से कई बार कहती-अमृता ! मेरे पास आओ।
शायद इसलिए कि खिड़की में से जो आसमान सामने दिखाई देता, देखती कि कितने ही पंछी उड़ते हुए कहीं जा रहे होते...ज़रूर घरों को-अपने-अपने घोंसलों को लौट रहे होते होंगे...और मेरे होठों से बार-बार निकलता-अमृता, मेरे पास आओ ! लगता, मन का पंछी जो उड़ता-उड़ता जाने कहां खो गया है, अब सांझ पड़े उसे लौटना चाहिए...अपने घर-अपने घोसले में मेरे पास... वहीं खिड़की में खड़े-खड़े तब एक नज़्म कही थी-कागज़ पर भी उतार ली होगी, पर वह कागज़ जाने कहां खो गया, याद नहीं आता...लेकिन उसकी एक पंक्ति जो मेरे ओठों पर जम-सी गई थी-वह आज भी मेरी याद में है। वह थी-‘सांझ घिरने लगी, सब पंछी घरों को लौटने लगे, मन रे ! तू भी लौट कर उड़ जा ! कभी यह सब याद आता है-तो सोचती हूं-इतनी छोटी थी, लेकिन यह कैसे हुआ-कि मुझे अपने अंदर एक अमृता वह लगती-जो एक पंछी की तरह कहीं आसमान में भटक रही होती और एक अमृता वह जो शांत वहीं खड़ी रहती थी और कहती थी-अमृता ! मेरे पास आओ !
अब कह सकती हूं-ज़िंदगी के आने वाले कई ऐसे वक़्तों का वह एक संकेत था-कि एक अमृता जब दुनिया वालों के हाथों परेशान होगी, उस समय उसे अपने पास बुलाकर गले से लगाने वाली भी एक अमृता होगी-जो कहती होगी-अमृता, मेरे पास आओ !..
गले से गीत टूट गए
चर्खे का धागा टूट गया
और सखियां-जो अभी अभी यहां थीं
जाने कहां कहां गईं...

हीर के मांझी ने-वह नौका डुबो दी
जो दरिया में बहती थी
हर पीपल से टहनियां टूट गईं
जहां झूलों की आवाज़ आती थी...

वह बांसुरी जाने कहां गई
जो मुहब्बत का गीत गाती थी
और रांझे के भाई बंधु
बांसुरी बजाना भूल गए...

ज़मीन पर लहू बहने लगा-
इतना-कि कब्रें चूने लगीं
और मुहब्बत की शहज़ादियां
मज़ारों में रोने लगीं...

सभी कैदों में नज़र आते हैं
हुस्न और इश्क को चुराने वाले
और वारिस कहां से लाएं
हीर की दास्तान गाने वाले...अक्षरों के साए से कुछ अंश ...

3 comments:

सदा said...

सभी कैदों में नज़र आते हैं
हुस्न और इश्क को चुराने वाले
और वारिस कहां से लाएं
हीर की दास्तान गाने वाले..
एक बार फिर ...आपकी कलम से अमृता जी की बेहतरीन प्रस्‍तुति पढ़ने का अवसर मिला ... आभार ।

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

ranju ji aapke madhyam se amrita ko padhne ka aasan tareeka mil gaya sukriya.......

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

ranju ji aapke madhyam se amrita pritam ji ko padhne ka aasan tareeka mil gaya sukriya.......