Tuesday, July 29, 2008

बरसों की राहें चीरकर
तेरा स्वर आया है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाया है ...

मेरे मजहब ! मेरे ईमान !

तुम्हारे चेहरे का ध्यान कर के मजहब जैसा सदियों पुराना शब्द भी ताजा लगता है |और तुम्हारे ख़त ? लगता है जहाँ गीता ,कुरान , ग्रन्थ और बाइबिल आ कर रुक जाते हैं ,उसके आगे तुम्हारे ख़त चलते हैं .....

अवतार दो तीन दिन मेरे पास रह कर गई है ,कल शाम गई |मेरी मेज पर खलील जिब्रान का स्केच देख कर पूछने लगी ,''यह इंदरजीत का स्केच है न ?"" मुझे अच्छा लगा उसने तुम्हारा धोखा भी खाया तो खलील जिब्रान के चेहरे से | नक्शों में फर्क हो सकता है , पर असल बात तो विचारों की होती है |सचमुच तुम्हारे इस नए ख़त को पढ़ कर तुम्हारा और खलील जिब्रान का चेहरा मेरे सामने एक हो गया है |

एक पाकीजगी जो तुममें देखी है वह किताबों में पढ़ी तो जरुर है ,पर किसी परिचित चेहरे पर नही देखी है |

तुम्हारे जाने के बाद एक कविता लिखी है ---रचनात्मक क्रिया , एक आर्टिकल ---एक कहानी भी ! पर यह सब मेरी छोटी छोटी कमाई है ,मेरी जिंदगी की असली कमाई तो मेरा इमरोज़ है |

अब कब घर आओगे ? मुझे तारीख लिखो ,ताकि मैं ऊँगलियों पर दिन गिन सकूँ तो मुझे अपनी यह उँगलियाँ भी अच्छी लगने लगें |

तुम्हारी
जोरबी


इतना पाक इतना सच्चा प्रेम , जो पढ़े उसको यह इस प्रेम की हुक लगा दे ,यह थी हमारी अमृता |...वह अपने बारे में कहती है कि..मैं औरत थी ,चाहे बच्ची सी ,और यह खौफ -सा विरासत में पाया था कि दुनिया के भयानक जंगल में से मैं अकेले नही गुजर सकती .शायद इसी भय से अपने साथ मर्द के मुहं की कल्पना करना मेरी कल्पना का अन्तिम साधन था ...

पर इस मर्द शब्द के मेरे अर्थ कहीं भी पढ़े ,सुने या पहचाने हुए अर्थ नही थे |अंतर में कहीं जानती अवश्य थी ,पर अपने आपको भी बता सकने का समर्थ मुझ में नहीं थी | केवल एक विश्वास सा था कि देखूंगी तो पहचान लूंगी |

पर मीलों दूर तक कहीं भी कुछ भी नही दिखायी देता था |और इसी प्रकार वर्षों के कोई अडतीस मील गुजर गए |

मैंने जब उसको पहली बार देखा ..तो मुझसे भी पहले मेरे मन ने उसको पहचान लिया | उस वक्त मेरी उम्र अड़तालीस वर्ष थी ...

यह कल्पना इतने साल जिन्दा रही और इसके अर्थ भी जिन्दा रहे ..इस पर मैं चकित हो सकती हूँ ,पर हूँ नहीं क्यूंकि जान लिया था कि यह मेरे "मैं" की परिभाषा थी ..."थी भी और है भी |"

मैं उन वर्षों में नही मिटी,इसलिए वह भी नहीं मिटी ...

यह नही कि कल्पना से शिकवा नही किया ,उस दौर की कई कविताएं निरी शिकवा ही हैं जैसे --

लख तेरे अम्बरां बिच्चों ,दस्स की लभ्भा सानूं
इक्को तंद प्यार दी लभ्भी ,ओह वीं तंद इकहरी ..

[हिन्दी ]
तेरे लाखों अम्बारों में से बताओ हमें क्या मिला
प्यार का एक ही तार मिला ,वह भी इकहरा ..

पर यह इकहरा तार वर्षों बीत जाने पर भी क्षीण नही हुआ | उसी तरह मुझे अपने में लपेटे हुए मेरी उम्र के साथ चलता रहा ...

कई हादसे हुए पर कल्पना जो मेरे अंगों की तरह मेरे बदन का हिस्सा थी, वह मेरे बदन में निर्लेप हो कर बैठी रही ...

उसे कई वर्ष समाज ने भी समझाया और कई वर्ष मैंने भी पर उसने पलक नही झपकाई | वह कई वर्षों के पार उस विरानगी की ओर देखती रही जहाँ कुछ भी नज़र नही आता था ..और जब उसने पलक झपकाई ,तब मेरी उम्र को अडतीसवां वर्ष लगा हुआ था ..और तब मैंने जाना कि क्यूँ ....उस से अलग ,या आधा ,या लगभग सा कुछ भी नही चाहिए था |

अमृता ने इमरोज़ का इन्तजार किस शिद्दत से किया ,वह प्यार जब बरसा तो फ़िर दीन दुनिया की परवाह किए बिना बरसा और खूब बरसा ..

यह कैसी चुप है
कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है
कोई चुपके से आया है --
चुप से टूटा हुआ --
चुप का टुकडा --
किरण से टूटा हुआ
किरण का कोई टुकडा
यह एक कोई "'वह'' है
जो बहुत बार बुलाने पर भी
नही आया था |
और अब मैं अकेली नहीं
मैं आप अपने संग खड़ी हूँ
शीशे की सुराही में
नज़रों की शराब भरी है --
और हम दोनों जाम पी रहे हैं
वह टोस्ट दे रहा उन लफ्जों के
जो सिर्फ़ छाती में उगते हैं |
यह अर्थों का जश्न है ---
मैं हूँ ,वह है ..
और शीशे की सुराही में --
नज़रों की शराब है ...

मैं तो इसको लिखते लिखते इसी में खो जाती हूँ ..दिल करता है कि बस सुनती- सुनाती रहूँ यह दास्तान और कभी खत्म न हो यह ... पर आज के लिए इतना डूबना काफ़ी है .फ़िर मिलते हैं अगली कड़ी में जहाँ मैं हूँ ,आप है और अमृता -इमरोज़ की बेपनाह मोहब्बत है ...

Sunday, July 27, 2008

अमृता जी की रसीदी टिकट का एक छोटा सा अंश जिसमें उन्होंने अपने जीवन के सोलहवें साल के आगमन और कविताएं लिखने की शुरुआत का जिक्र अपने खास अंदाज में किया है:

 

घर में पिताजी के सिवाय कोई नहीं था- वे भी लेखक जो सारी रात जागते थे, लिखते थे और सारे दिन सोते थे। माँ जीवित होतीं तो शायद सोलहवाँ साल और तरह से आता- परिचितों की तरह, सहेलियों की तरह। पर माँ की गैर हाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैर हाजिरी हो गया था। आसपास के अच्छे-बुरे प्रभावों से बचाने के लिए पिता को इसमें ही सुरक्षा समझ में आई थी कि मेरा कोई परिचित न हो, न स्कूल की कोई लड़की, न पड़ोस का कोई लड़का।

सोलहवाँ बरस भी इसी गिनती में शामिल था और मेरा ख्याल है, इसीलिए वह सीधी तरह का घर का दरवाजा खटखटाकर नहीं आया था, चोरों की तरह आया था।

आगे देखिये

कहते हैं ऋषियों की समाधि भंग करने के लिए जो अप्सराएँ आती थीं, उनमें राजा इंद्र की साजिश होती थी। मेरा सोलहवाँ साल भी अवश्य ही ईश्वर की साजिश रहा होगा, क्योंकि इसने मेरे बचपन की समाधि तोड़ दी थी। मैं कविताएँ लिखने लगी थी और हर कविता मुझे वर्जित इच्छा की तरह लगती थी। किसी ऋषि की समाधि टूट जाए तो भटकने का शाप उसके पीछे पड़ जाता है- ‘सोचों’ का शाप मेरे पीछे पड़ गया…

Tuesday, July 22, 2008



-साहिर से अमृता का जुडाव किसी से छिपा नही है |उन्होंने कभी किसी बात को लिखने में कोई बईमानी नही कि इस लिए यह दिल को छू जाता है और हर किसी को अपनी जिन्दगी से जुडा सच लगता है | अपनी लिखी आत्मकथा रसीदी टिकट में उन्होंने एक वाकया तब का ब्यान किया है जब उनका पहला बेटा नवरोज़ होने वाला था |

उन्ही के शब्दों में ,जिंदगी में एक समय ऐसा भी आया ,जब अपने हर ख्याल पर मैंने अपनी कल्पना का जादू चढ़ते हुए देखा है ..
जादू शब्द केवल बचपन कि सुनी हुई कहनियों में कभी पड़ा था .पर देखा - एक दिन अचानक वह मेरी कोख में आ गया था .और मेरे ही शरीर के मांस की ओट में पलने लगा था |

यह उन दिनों की बात है ,जब मेरा बेटा मेरे की आस बना था १९४६ के अन्तिम दिनों की बात |

अखबारों और किताबों में अनेक ऐसी घटनाएं पढ़ी हुई थीं - की होने वाली माँ कमरे में जिस तरह की तस्वीरे हो या जैसे रूप की वह मन में कल्पना करती हो,बच्चे की सूरत वैसी ही हो जाती है ..और मेरी कल्पना जैसे दुनिया से छिप कर धीरे से मेरे कान में कहा -अगर में साहिर के चेहरे का हर समय ध्यान करूँ .तो मेरे बच्चे की सूरत उस से मिल जायेगी ..."


जो जिंदगी में नही पाया था ,जानती हूँ यह उस पा लेने का एक चमत्कार जैसा यत्न था ..ईश्वर की तरह सृष्टि रचने का यत्न ..शरीर का स्वंतंत्र कर्म .केवल संस्कारों से स्वंतंत्र नहीं .लहू मांस की हकीकत से भी स्वंतत्र ...

दीवानगी के इस आलम में जब ३ जुलाई १९४७ को बच्चे का जन्म हुआ ,पहली बार उसका मुहं देखा ,अपने ईश्वर होने का यकीन हो गया ,और बच्चे के पनपते हुए मुहं के साथ यह कल्पना भी पनपती रही की उसकी सूरत सचमुच साहिर से मिलती है ..

खैर ,दीवाने पन एक अन्तिम शिखर पर पैर रख कर खड़े नही रहा जा सकता है ,पैरों पर बैठने के लिए धरती का टुकडा चाहिए .इस लिए आने वालों वर्षों में इस का एक परी कथा की तरह करने लगी ..

एक बार मैंने यह बात साहिर को भी सुनाई थी अपने आप हँसते हुए |उसकी और प्रतिकिर्या का पता नही ,केवल इतना पता है की वह सुन कर हंसने लगा और सिर्फ़ इतना कहा ..वैरी पुअर टेस्ट !"

साहिर को जिंदगी का एक सबसे बड़ा काम्प्लेक्स है कि वह सुंदर नहीं है इसी कारण उसने पुअर टेस्ट की बात की |

इस से पहले भी एक बात हुई थी |एक दिन उसने मेरी लड़की को गोद में बैठा कर कहा था -- तुम्हे एक कहानी सुनाऊं ?" और उसने कहानी सुनाई एक लकडहारा था | वह दिन रात जंगलों में लकड़ी काटता था | फ़िर एक दिन उसने जंगल में एक राजकुमारी को देखा ,बड़ी सुंदर | लकड़हारे का जी किया कि वह उस राजकुमारी को ले कर भाग जाए .."

फ़िर ? मेरी लड़की कहानी सुनते सुनते हुंकारा भर रही थी .और मैं केवल हंस रही थी, कहानी में दखल नहीं दे रही थी |

और वह सुना था --पर वह तो लकड़हारा था न वह राजकुमारी को सिर्फ़ देख सकता था दूर से और वह देखता रहा उसको दूर से सच्ची कहानी है न ?

'हाँ '
'मैंने भी देखा था न जाने बच्ची ने क्यूँ कहा |

साहिर हँसते हुए मेरी तरफ़ देखने लगा -देख लो यह भी जानती है और बच्ची से उसने पूछा तुम वहीँ थी न जंगल में ?

बच्ची ने सिर हिला कर 'हाँ '
अच्छा तो फ़िर तो तुमने उस लकड़हारे को भी देखा होगा ? कौन था वह

बच्ची के ऊपर उस घड़ी कोई देव वाणी उतरी हुई थी शायद .बोली 'आप ..'!!

साहिर ने फ़िर पूछा कि -'और वह राजकुमारी कौन थी ?'

'मामा !' कह कर वह हंसने लगी
साहिर मुझे बोला कि ''देखा भी सब कुछ जानते हैं "|

फ़िर इस बात को कई साल बीत गए |१९60 में जब मैं बम्बई आई तो उन दिनों राजेंदर सिंह बेदी बड़े मेहरबान दोस्त थे |अकसर मिलते थे | एक शाम बैठे बातें कर रहे थे कि अचानक उन्होंने पूछा प्रकाश पंडित के मुहं से एक बात सुनी थी कि '' नवराज साहिर का बेटा है ..."'

उस शाम मैंने बेदी साहब को अपनी दीवानगी की कहानी सुनाई थी और कहा यह कल्पना का सच है .हकीकत का नही |"

उन्ही दिनों एक दिन नवरोज़ ने भी पूछा था जब उसकी उम्र कोई तेरह साल की होगी की मामा एक बात पूछूँ ,सच सच बताओगी ?

हाँ

क्या मैं साहिर अंकल का बेटा हूँ ?

नहीं

पर अगर हूँ तो बता दो सच | मुझे साहिर अंकल बहुत अच्छे लगते हैं "'
हाँ बेटे अच्छे तो मुझे भी लगते हैं ,पर अगर यह सच होता तो मैंने तुम्हे जरुर बता दिया होता

सच का अपना एक बल होता है बच्चे को यकीन आ गया
सोचती हूँ कल्पना का सच छोटा नही था ,पर केवल मेरे लिए था इतना की वह सच साहिर के लिए नही"|

कल्पना की दुनिया सिर्फ़ उसी की होती है .जो इसे सिरजता है ,और जहाँ इसे सिरजने वाला ईश्वर भी अकेला होता है |

आख़िर यह तन मिटटी का बना है .उस मिटटी का इतिहास मेरे लहू की हरकत में है -सृष्टि .. की रचना के समय जो आग का एक गोला हजारों वर्ष जल में तैरता रहा था .उसमें हर गुनाह को भस्म करके जो जीव निकला .वह अकेला था | उस में न अकेलेपन का भय था .न अकेलेपन की खुशी |फ़िर उसने अपने ही शरीर को चीर कर .आधे को पुरूष बना दिया ,आधे को स्त्री और इसी में से उसने सृष्टि को रचा ...

संसार का यह आदि कर्म मात्र मिथ नही है ,न केवल अतीत का इतिहास |यह हर समय का इतिहास है |चाहे छोटे छोटे मनुष्यों का छोटा छोटा इतिहास ..और यह मेरा भी है ..


मैं --एक निराकार मैं थी

यह मैं का संकल्प था
जो पानी का रूप बना
और यह तू का संकल्प था
जो आग की तरह नुमायाँ हुआ
और आग का जलवा
पानी पर चलने लगा
पर वह
पुरा -एतिहासिक समय की बात है ....


यह मैं की मिटटी की प्यास थी
कि उसने तू का दरिया पी लिया
यह मैं की मिटटी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
या मैं की माटी की गंध थी
और तू के अम्बर का इश्क था
कि तू नीला सा सपना
मिटटी की सेज पर सोया |
और यह तेरे मेरे मांस की सुंगंध थी ...
और यही हकीकत की आदि रचना थी

संसार की रचना
तो बहुत बाद की बात है !!





Thursday, July 17, 2008

अमृता के लिए इमरोज़ ने लिखा है ..

ओ कविता ज्युंदी है,
ते ज़िंदगी लिखदी है..
ते नदी वांग चुपचाप वसदी
सारे पासियां नूं जरखेजी वंडदी
जा रही है सागर वल
सागर होण....

[हिन्दी में ]

वह कविता जीती
और ज़िंदगी लिखती
और नदी सी चुपचाप बहती
ज़रखेजी
बाँटती
जा रही है सागर की ओर
सागर बनने !!


अमृता जी अपने आखिरी दिनों में बहुत बीमार थी | जब इमरोज़ जी से पूछा जाता कि आपको जुदाई कीहुक नही उठती ? वह आपकी ज़िंदगी है ,आप उनके बिना क्या करोगे ? वह मुस्करा के बोले जुदाई कीहुक ? कौन सी जुदाई? कहाँ जायेगी अमृता ? इसे यहीं रहना है मेरे पास ,मेरे इर्द गिर्द ..हमेशा | हमचालीस साल से एक साथ हैं हमे कौन जुदा कर सकता है ? मौत भी नही | मेरे पास पिछले चालीस सालोंकी यादे हैं, .शायद पिछले जन्म की भी ,जो मुझे याद नहीं ,इसे मुझ से कौन छीन सकता है ...|

और यह बात सिर्फ़ किताबों पढी नही है ,
जब मैं इमरोज़ जी से मिलने उनके घर गई थी तब भी यह बातशिद्दत से महसूस की थी कि वह अमृता से कहीं जुदा नही है ...वह आज भी उनके साथ हर पल है ..उस घरमें वैसे ही रची बसी ..उनके साथ बतयाती और कविता लिखती ..|""

एक बार उनसे किसी ने पूछा की मर्द और औरत् के बीच का रिश्ता इतना उलझा हुआ क्यों है ? तब उन्होंनेजवाब दिया क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही !"" इमरोज़ पंजाब के गांव मेंपले बढे थे वह कहते हैं कि प्यार महबूबा की जमीन में जड़ पकड़ने का नाम है और वहीं फलने फूलने कानाम है |""जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारा अहम् मर जाता है ,फ़िर वह हमारे और हमारे प्यारके बीच में नही सकता .|..उन्होंने कहा कि जिस दिन से मैं अमृता से मिला हूँ हूँ मेरे भीतर का गुस्साएक दम से शान्त हो गया है |मैं नही जानता यह कैसे हुआ .|शायद प्यार की प्रबल भावना इतनी होती हैकि वह हमे भीतर तक इतना भर देती है कि हम गुस्सा नफरत आदि सब भूल जाते हैं .| हम तब किसी केसाथ बुरा व्यवहार नही कर पाते क्यूंकि बुराई ख़ुद हमारे अन्दर बचती ही नही ...| "'


महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता ,और ही भगवान श्री कृष्ण के आगे सिरझुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता है | केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं | हमेअपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरतशैतानियत कहाँ रह जाती है ?""

यह था प्यार को जीने वाले का एक और अंदाज़ ...जो ख़ुद में लाजवाब है ..

उनका एक ख़त .जो २६ - ६० को इमरोज़ को लिखा गया ..

. मेरे अच्छे जीती !

आज मेरे कहने से ,अभी ,अपने सोने के कमरे में जाना .रेडियोग्राम चलाना .और बर्मन की आवाज़ सुनना -- सुन मेरे बन्धु रे ! सुन मेरे मितवा ! सुन मेरे साथी रे !"और मुझे बताना कि वह लोग कैसे होते हैं .जिन्हें कोई इस तरह आवाज़ देता है |""मैं सारी उम्र कल्पना के गीत लिखती रही .पर यह मैं जानती हूँ ---मैं वह नही हूँ .जिसे कोई इस तरह आवाज़ दे |और यह भी जानती हूँ .तुम वह हो जिसे मैं आवाज़ दे रही हूँ |और यह भी जानती हूँ .मेरी इस आवाज़ का कोई जवाब नही आएगा |

कल एक सपने जैसी तुम्हारी चिट्ठी आई थी ,पर मुझे तुम्हारे मन की कानिफ्ल्क्ट का भी पता है | यूँ तो मैं तुम्हारा अपना चुनाव हूँ .फ़िर भी मेरी उम्र .मेरे बंधन .तुम्हारे कानिफ्लिक्ट हैं | तुम्हारा मुहं देखा ., बोल सुने तो मेरी भटकन ख़त्म हो गई |पर आज तुम्हारा मुहं इनकारी है |क्या इस धरती पर मुझे अभी और जीना है ,जहाँ मेरे लिए तुम्हारे सपनों ने दरवाज़ा भेड़ लिया है ?


तुम्हारे पैरों की आहट सुन कर मैंने जिंदगी से कहा था --अभी दरवाज़ा बंद मत करो हयात !रेगिस्तान से किसी के क़दमों की आहट की आवाज़ आरही है |" पर आज तुम्हारे पैरों की न आहट न आवाज़ सुनाई दे रही है | अब जिंदगी को क्या कहूँ ? क्या यह कहूँ कि अब सारे दरवाज़े बंद कर ले ...?

कई बरसो के बाद
अचानक एक मुलाकात ,
हम दोनों के प्राण
एक नज्म की तरह कांपे..

सामने एक पूरी रात थी ..
पर आधी नज्म
एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज्म
एक कोने में बैठी रही ....

फ़िर सुबह सुबह --
हम कागज के फटे हुए
टुकडों कि तरह मिले
मैंने अपने हाथ में
उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाहँ में
मेरी बाहँ डाली ..

और हम दोनों
एक सेंसर की तरह हँसे
और कागज को
एक ठंडी मेज पर रख कर
उस सारी नज्म पर
लकीर फेर दी.......

Sunday, July 13, 2008

आज की बात अमृता के अपने लफ्जों में ..क्यूंकि मैं इसको पढ़ कर कितनी देर तक खामोश बैठी रह जाती हूँ ..कुछ कहने को बोलने को दिल नही चाहता है। बस यही ख्याल कि रब्बा यह इश्क कि कैसी इन्तहा है जो खुदा से मिला देती है ...।

कोरा कागज ..

पच्चीस और छब्बीस अक्तूबर की रात २ बजे जब फ़ोन आया कि साहिर नही रहे, तो पूरे बीस दिन पहले की वह रात, उस रात में मिल गई ,जब मैं बल्गारिया में थी ,डाक्टर ने कहा था कि दिल की तरफ़ मुझे खतरा है ,और उस रात मैने  नज्म लिखी थी ,"'अज्ज आपणे दिल दरिया दे विच्च मैं आपणे फुल्ल प्रवाहे...."" अचानक मैं अपने हाथो की तरफ़ देखने लगी कि इन हाथों से मैंने अपने दिल के दरिया में अपनी हड्डियाँ प्रवाहित की थी , पर हड्डियां बदल कैसे गई ? यह भुलावा मौत को लग गया कि हाथो को ?

साथ ही वह समय सामने आ गया, जब दिल्ली में पहली एशियन राइटर्स कांफ्रेंस हुई थी, शायरों -आदीबों को उनके नाम के बैज मिले थे,  जो सबने अपने कोटों में लगाए थे, और सहिर ने अपने कोट पर से अपना नाम का बैज उतार कर मेरे कोट पर लगा दिया था और मेरे कोट से मेरे नाम का बैज उतार कर अपने कोट पर लगा लिया था। उस समय किसी की नज़र पड़ी, उसने कहा था की हमने बैज ग़लत लगा रखे हैं, तो साहिर हंस पड़ा था कि बैज देने वाले से गलती हो गई होगी, पर इस गलती को हमें न दुरुस्त करना न हमने किया। ....अब बरसों बाद जब रात को दो बजे ख़बर सुनी कि साहिर नही रहे तो लगा जैसे मौत ने अपना फ़ैसला उसी बैज को पढ़ कर किया है, जो मेरे नाम का था, पर साहिर के कोट पर लगा हुआ था ...."'

मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी भी लफ्ज़ घायल नही हुए थे। यह खामोशी का हसीन रिश्ता था। मैंने जो नज्में लिखी तो उस मजमुए को जब अवार्ड मिला,एक रिपोटर ने मेरी तस्वीर लेते हुए चाहा कि मैं कुछ कागज़ पर लिख रही हूँ वैसे तस्वीर ले वह।|तस्वीर ले कर जब वह प्रेस वाले चले गए तो मैंने उस कागज को देखा कि मैंने उस पर बार बार एक ही लफ्ज़ लिखा था -साहिर ...साहिर ......साहिर। इस दीवानगी के आलम के बाद घबराहट हुई कि सवेरे जब यह तस्वीर अखबार में छपेगी, तो तस्वीर वाले कागज पर यह नाम पढ़ा जायेगा, तो न जाने कैसी कयामत आ जायेगी? ...पर कयामत नही आई तस्वीर छपी, पर वह कागज कोरा ही नजर आया वहां।

यह और बात है कि बाद में यह हसरत आई दिल में कि ओ ! खुदाया! जो कागज कोरा दिखायी दे रहा है , वह कोरा नही था.....
कोरे कागज की आबरू आज भी उसी तरह है |रसीदी टिकट में मेरे इश्क की दास्तान दर्ज़ है ,साहिर ने पढ़ी थी ,पर उसके बाद किसी मुलाक़ात में न रसीदी टिकट का जिक्र मेरी जुबान पर आया न साहिर कि जुबान पर।

याद है ,एक एक मुशायरे में साहिर से लोग आटोग्राफ ले रहे थे। लोग चले गए मैं अकेली उसके पास रह गई ,तो मैंने हंस कर उसके आगे अपनी हथेली कर दी थी ,कोरे कागज की तरह। और उसने मेरी हथेली पर अपना नाम लिख कर कहा था -यह कोरे चेक पर मेरे दस्तखत है ,जो रकम चाहे भर लेना और जब चाहे कैश करवा लेना। वह कागज चाहे मांस की हथेली थी, पर उसने कोरे कागज का नसीब पाया था ,इस लिए कोई भी हर्फ उस पर नही लिखे जा सकते थे ...

हर्फ आज भी मेरे पास कोई नही हैं। रसीदी टिकट में जो भी कुछ भी है ,और आज यह सतरें भी ,कोरे कागज की दास्तान है ...

इस दास्तान की इब्तदा भी खामोश थी ,और सारो उम्र उसकी इन्तहा भी खमोश रही |आज से चालीस बरस पहले लाहौर में जब साहिर मुझसे मिलने आता था ,बस आ कर चुपचाप सिगरेट पीता ,मेरा और उसके सिगरेट का धुंआ सिर्फ़ हवा में मिलता था ,साँस भी हवा में मिलते रहे और नज्मों के लफ्ज़ भी हवा में ...

सोच रही हूँ हवा कोई भी फासला तय कर सकती है ,वह आगे भी शहरों का फासला तय किया करती थी,अब इस दुनिया और उस दुनिया का फासला भी जरुर तय कर लेगी .....

२ नवम्बर १९८०


एक दर्द था --
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पीया है
सिर्फ़ कुछ नज्में हैं ---
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाडी है _।

Thursday, July 10, 2008

जब मैं अमृता के घर गई थी तो वहाँ की हवा में जो खुशबू थी वह महक प्यार की एक एक चीज में दिखती थी इमरोज़ की खूबसूरत पेंटिंग्स ,और उस पर लिखी अमृता की कविता की पंक्तियाँ ..देख कर ही लगता है जैसे सारा माहौल वहाँ का प्यार के पावन एहसास में डूबा है ..और दिल ख़ुद बा ख़ुद जैसे रूमानी सा हो उठता है

...इमरोज़ ने साहिर के नाम को भी बहुत खूबसूरती से केलीगार्फी में ढाल कर अपने कमरे की दीवार पर सजा रखाहै .. इमरोज़ से इसके बारे में पूछा तो इमरोज़ जी ने कहा कि जब अमृता कागज़ पर नही लिख रही होती थी तो भी उसके दायें हाथ की पहली ऊँगली कुछ लिख रही होती थी ...कोई शब्द कोई नाम कुछ भी चाहे किसी का भी हो भले ही अपना ही नाम क्यों हो वह चाँद की परछाई में भी शब्द ढूँढ़ लेती थी !बचपन से उनकी ऊँगली उन चाँद की परछाई में भी कोई कोई लफ्ज़ तलाश कर लेती थी

इमरोज़ बताते हैं कि हमारी जान पहचान के सालों में वह उस को स्कूटर में बिठा कर रेडियो स्टेशन ले जाया करतेथे ,तब अमृता पीछे बैठी मेरी पीठ पर ऊँगली से साहिर का नाम लिखती रही थी ,मुझे तभी पता चला था कि वह साहिर से कितना प्यार करती थी ..और जिसे अमृता इतना प्यार करती थी उसकी हमारे घर में हमारे दिल में एक ख़ास जगह है इस लिए साहिर का नाम यूं दिख रहा है ..साहिर के साथ अमृता का रिश्ता खामोश रिश्ता था मन के स्तर का ,उनके बीच शारीरिक कुछ नही था जो दोनों को बाँध सकता वह अमृता के लिए एक ऐसा इंसान था जिसके होने के एहसास भर से अमृता को खुशी और जज्बाती सकून मिलता रहा !!

चौदह साल तक अमृता उसकी साए में जीती रही . दोनों के बीच एक मूक संवाद था ,वह आता अमृता को अपनी नज्म पकड़ा के चला जाता कई बार अमृता की घर की गली में पान की दुकान तक आता पान खाता और अमृता कीखिड़की की तरफ़ देख के चला जाता .... अमृता के लिए वह एक हमेशा चमकने वाला सितारा लेकिन पहुँच सेबहुत दूर ..अमृता ने ख़ुद भी कई जगह कहा है कि साहिर घर आता कुर्सी पर बैठता ,एक के बाद एक सिगरेट पीता और बचे टुकड़े एशट्रे में डाल कर चला जाता .उसके जाने के बाद वह एक -एक टुकडा उठाती और उसको पीने लगतीऐसा करते करते उन्हें सिगरेट की आदत लग गई थी !!


अमृता प्यार के एक ऐसे पहलू में यकीन रखती थी जिस में प्रेमी एक दूजे में लीन होने की बात नही करते वह कहती थी कि कोई किसी में लीन नही होता है दोनों ही अलग अलग इंसान है एक दूजे से अलग रह कर ही वह एकदूजे को पहचान सकेंगे अगर लीन हो जाए तो फ़िर प्यार कैसे करोगे ?

इमरोज़ जी के लफ्जों में अमृता के लिए कुछ शब्द ..

कैसी है इसकी खुशबु
फूल मुरझा गया ,
पर महक नही मुरझाई
कल होंठो से आई थी
आज आंसुओं से आई है
कल यादो से आएगी
सारी धरती हुई वैरागी
कैसी है ये महक जो इसकी
फूल मुरझा गया पर महक नही मुरझाई !!
--

Tuesday, July 8, 2008

अमृता जी की लिखी पंक्तियाँ दिल पर असर करती है उनका लिखा यदि यह कहा जाए कि इन में कहावत बन सकनेकी शक्ति है तो ग़लत नही होगा ..उनके लिखे को उनके एक पाठक ने इन को एक डायरी का रूप दिया वह मैं आपकेसामने जल्द ही ले कर आउंगी ......अभी उन्ही के लफ्जों में उन्ही कि बतायी बात करते हैं अमृता ने एक जगहलिखा है की उनकी जिंदगी में तीन वक्त ऐसे आए जब उन्होंने अपन अन्दर की औरत को सिर्फ़ औरत को जी भरकर देखा ..उसका रूप उनकी नज़रो में इतना भरा पूरा था कि उनेक अन्दर का लेखक का अस्तित्व उस वक्त उनेकध्यान से विस्मृत हो गया .पर वह उसको सिर्फ़ याद ही कर पायी कुछ वर्षों की दूरी पर खड़े हो कर ..उनके अनुसार

पहला वक्त तब देखा था जब वह २५ वर्ष की थी उस वक्त उनक कोई बच्चा नही था और उन्हें रोज़ रात को सोते हुएएक सपना आता एक छोटा सा चेहरा बहुत ही तराशे हुए नकश सीधा टुकुर टुकुर उनको तरफ देख रहा होता औरकई बार सपने में उस बच्चे को देखने के कारण उस बच्चे के चहरे से उनकी पक्की जान पहचान हो गई सपने मेंवह उस से कई बातें करती उस से पूछती तू कहाँ था में तुझे ढूढ रही थी ..वह चेहरा हंस के जवाब देता कि में तो यहींथा छिपा हुआ था ...और वह लिखती है की में जैसे ही उसको उठाने को झुकती वह गायब हो जाता और मेरी नींदखुल जाती उस वक्त वह औरत जाग जाती जो माँ नही बन पायी थी उस वक्त तक तो उसको अपनी दुनिया वीराननज़र आती और जब उन्होंने आपने पहले बच्चे को गोद में उठाया तो उनके भीतर की वह औरत हैरानी और खुशीसे उसको देखती रह गई थी ...
दूसरी बार ऐसा ही समय के बारे में वह बताती है कि एक दिन साहिर आया था तो उसको हलका बुखार था उसकेगले में दर्द था साँस भी सही से नही ले पा रहा था तब उस दिन उन्होंने साहिर के गले और छाती पर विक्स मला थाऔर तब उन्हें लगा कि इसी तरह पैरों पर खड़े खड़े वह पौरों से उँगलियों से और हथेली से उसकी छाती को मलतेहुए सारी उम्र गुजार सकती हूँ मेरे अन्दर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की जरुरतनही थी


और तीसरी बार वह औरत उन्होंने तब देखी जब अपने स्टूडियो में बैठे हुए इमरोज़ ने अपना पतला सा ब्रश अपनेकागज से उठा कर उस को एक बार लाल रंग में डुबो कर उनके माथे पर बिंदी लगा दी थी ..

वह कहती है की मेरे भीतर की इस सिर्फ़ औरत को सिर्फ़ लेखक से अदावत नही उसने अपने आप ही उसके उसकेओट में खड़े होनास्वीकार कर लिया अपने बदन से आँखे चुराते हुए और शायद अपनी आँखों से भी और जब तकतीन बार उसने अपनी अगली जगह आना चाहा मेरे भीतर एक सिर्फ़ लेखक ने उसके लिए वह जगह खाली कर दीथी ...
अम्बर के आले में सूरज जलाकर रख दू
पर मन की ऊँची ममती पर दिया कैसे रखूं

आँखों में धुंध का गिलाफ लिए किसकी पग धूलि चूमने
सूरज की परिकर्मा करती ठहर गई धरती

नजर के आसामन से है चल दिया सूरज कहीं
पर चाँद में अभी उसकी खुशबु आ रही है ...

अमृता ......




..........रंजू ..........

Saturday, July 5, 2008

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के उपर उभर आयीं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें

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रात कुडी ने दावत दी,
सितारों के चावल फाटक पर
यह डेग किसने चढा दी

चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पीकर
आकाश की आँखे गहरा गईं

धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान आए हैं.

आगे क्या लिखा है
अब इन तकदीरों से
कौन पूछने जाए

उम्र के काग़ज़ पर
तेरे इश्क का अंगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकाएगा !
किस्मत ने एक नगमा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वही नगमा गाएगा

कल्प वृक्ष की छाव में बैठ कर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोनी भारी !!

हवा की आहे कौन सुने,
चलूँ .........
तकदीर बुलाने आई है !!!!!!!!

अमृता प्रीतम

Friday, July 4, 2008

अमृता जब इमरोज़ से मिली थी तो नही जानती थी कि यह सफर जिंदगी के आखिर तक चलेगा ..उनके खतों में उनके लिए तड़प और प्यार है वह उनके उन दिनों का है जब वह विदेश यात्रा या इमरोज़ से दूर थी पर क्या वह सच दूर हो कर भी दूर थी उनसे ..बकोल उनके ..वह लिखती है एक जगह शायद १९५८ की बात है वह दिल्ली के रेडियो स्टेशन में काम करती थी और वापसी में उन्हें दफ्तर की गाड़ी मिलती थी ..उस दिन पूरे चाँद की रात थी .और दफ्तर की गाड़ी अभी तक नही आई थी इमरोज़ उनसे मिलने वही दफ्तर आए हुए थे ..जब गाड़ी बहुत देर तक नही आई तो उन्होंने कहा कि चलो मैं तुम्हे घर छोड़ आता हूँ ...

वहां से जब वह चले तो पूरे चाँद की रात देख कर पैदल ही चल पड़े कोई स्कूटर या टैक्सी लेने का दिल नही हुआ पैदल वहां से पटेल नगर तब अमृता वहां रहा करती थी ..पहुँचते पहुँचते बहुत देर हो गई ..घर जा कर नौकर से कहा कि जो खाना बना है वह ले आओ दो थालियों में डाल कर और जब थाली आई तो उसमें बहुत छोटी छोटी दो तंदूर की लगी रोटियाँ थी अमृता को तब लगा कि इस एक रोटी से इमरोज़ का क्या होगा इस लिए उन्होंने आँख बचा कर अपनी थाली में से आधी रोटी इमरोज़ की थाली में डाल दी .बहुत बरसो बाद इमरोज़ ने कहीं इस घटना को लिखा आधी रोटी ..पूरा चाँद पर उस दिन वह कहती है कि हम दोनों में से किसी ने नही सोचा था कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब वह दोनों मिल कर कमाएंगे और आधा आधा बाँट लेंगे ...

अमृता के लिखे खतों में इमरोज़ के लिए जो प्यार छलकता है वह रूह को छू जाता है .कई बार पढ़ा है इनको और हर बार इनके अलग अलग अर्थ मिलते हैं ..बहुत ही साधारण लफ्जों में लिखे यह ख़त प्यार भी है मनुहार भी विरह की तड़प भी है इन में और रूठने कि अदा भी ...आईये फ़िर चलते हैं इस सफर पर जहाँ अमृता अपने खतो के जरिये इमरोज़ से दिल की बात बांटी है ..वह ख़त आज भी उतने ही हर किसी की रूह को छुते हैं जितने लिखतेवक्त अमृता और इमरोज़ की रूह को ....

५-२ - ६०

आज तुम्हारा ख़त नसीब हुआ है ..मैं जिंदगी की शुक्रगुजार हूँ जिसने मेरे खतों के जवाब मुझे ला कर दिए पर मेरे सारे ख़त तुम्हे क्यूँ नही मिले ? यह मेरा सातवाँ ख़त है तीन नेपाल जाने से पहले लिखे थे

एक तो उसी दिन लिखा था जिस दिन मैं अपन चैन नौ सौ मील दूर जा कर भेज आई थी २१ तारीख को और फ़िर रोज़ ख़त लिखती रही ..

कभी मेरे दिल के सारे उल्हाने के साथ लिखा था यह मेरा उम्र का ख़त व्यर्थ हो गया हमारे दिल ने महबूब का जो पता लिखा था वह हमारी किस्मत से पढ़ा नही गया पर आज जब वह पता हमारे सामने है इन डाक खाने वालों ने लगता है किस्मत से मिली भगत कर ली है इनसे भी पता नही पढ़ा जा रहा है ..

नेपाल में टैगोर का एक गीत सुना था

तू ही मेरा सागर तू ही मेरा मल्लाह
और मैं ही एक नाव हूँ तुम्हे किनारे लगाने के लिए क्यूँ कहूँ ?
डूब भी जाऊं तो तुझ में ही डुबुंगी
क्यूंकि तू मेरा सागर भी है ...

इस गीत ने बड़ा सहारा दिया ..

तुम्हारी आशी

Wednesday, July 2, 2008

 

एक घटना

तेरी यादें
बहुत दिन बीते
जलावतन हुईं
जीतीं हैं या मर गयीं-
कुछ पता नहीं

सिर्फ एक बार एक घटना हुई थी
ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी
और इतनी स्तब्ध थी
कि पत्ता भी हिले
तो बरसों के कान चौंक जाते..

फिर तीन बार लगा
जैसे कोई छाती का द्वार खटखटाये
और दबे पांव छत पर चढ़ता कोई
और नाखूनों से पिछली दीवार को कुरेदता…..

तीन बार उठ कर
मैंने सांकल टटोली
अंधेरे को जैसे एक गर्भ पीड़ा थी
वह कभी कुछ कहता
और कभी चुप होता
ज्यों अपनी आवाज को दांतों में दबाता
फिर जीती जागती एक चीज
और जीती जागती आवाज
“मैं काले कोसों से आयी हूं
प्रहरियों की आंख से इस बदन को चुराती
धीमे से आती
पता है मुझे कि तेरा दिल आबाद है
पर कहीं वीरान सूनी कोई जगह मेरे लिये?”

“सूनापन तो बहुत है,
पर तूं जलावतन है, कोई जगह नहीं,
मैं ठीक कहती हूं कोई जगह नहीं तेरे लिये,
यह मेरे मस्तक,
मेरे आका का हुक्म है!”

और फिर जैसे सारा अंधेरा कांप जाता है
वह पीछे को लौटी
पर जाने से पहले कुछ पास आयी
और मेरे वजूद को एक बार छुआ
धीरे से
ऐसे, जैसे कोई वतन की मिट्टी को छूता है…..

इक घटना

तेरियां यादां
बहोत देर होई
जलावतन होईयां
ज्युंदियां कि मोईयां
कुछ पता नईं
सिर्फ इक वारी
इक घटना वापरी

ख्यालां दी रात
बड़ी डूंगी सी
ते ऐणी चुप सी
कि पता खड़कयां वी
वरयां दे काण तरभकदे
फिर तिन वारां जापिया
छाती दा बुहा खड़किया
पोले पैर छत्त ते चड़दा
ते नऊंआ दे नाल
पिछली कांद खुर्चदा
तिण वारां उठ के मैं कुंडियां टोईयां
अंधेरे नूं जिसतरा इक गर्भपीड़ सी
ओ कदे कुझ कैंदा ते कदे चुप होंदा
ज्यूं अपणी आवाज नूं दंदा दे विच पींदा

ते फेर ज्यूंदी जागदी इक शै
ते ज्यूंदी जागदी आवाज
“मैं कालेयां कोहां तो आई हां,
पाहरों आंदी आख तों इस बदन नूं चुरांदी बड़ी मांदी
पता है मैनूं कि तेरा दिल आबाद है
पर किथे सुन्जी सखनी कोई थां, मेरे लई?

“सुन्ज सखन बड़ी है, पर तूं….?
तूं जलावतन हैं, नहीं कोइ थां नहीं तेरे लई
मैं ठीक कैंदी हां कि कोइ थां नहीं तेरे लई
ए मेरे मस्तक, मेरे आका दा हुक्म है”

ते फेर जीकण सारा हनेरा ही कांब जांदा है
ओ पिछां नूं परती पर जाण तो पहलां
ओ उरां होई ते मेरी होंद नूं ओस इक वार छोहिया
होली जही…
ऐंज जिवें कोई वतन दी मिट्टी नूं छूंदा है…..

तेरियां यादां
बहोत देर होई
जलावतन होईयां…

(”अमृता प्रीतम-चुनी हुई कवितायें” से साभार)

आप इस पंजाबी कविता को अमृता जी की आवाज में यहां सुन सकते हैं।