अमृता प्रीतम की याद में.....

Amrita Pritam and her Books

Saturday, August 31, 2013

रास्ते कठिन हैं। तुम्हें भी जिस रास्ते पर मिला, सारे का सारा कठिन है, पर यही मेरा रास्ता है।.....मुझ पर और भरोसा करो, मेरे अपनत्व पर पूरा एतबार करो। जीने की हद तक तुम्हारा, तुम्हारे जीवन का जामिन, तुम्हारा जीती।....ये अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य का पल्ला तुम्हारे आगे फैलाता हूँ, इसमें अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को डाल दो।.....इमरोज़


मेरी सारी ज़िन्दगी मुझे ऐसी लगती है जैसे
मैंने तुम्हे एक ख़त लिखा हो। मेरे दिल की हर धड़कन एक अक्षर है, मेरी हर साँस जैसे
कोई मात्रा, हर दिन जैसे कोई वाक्य और सारी ज़िन्दगी जैसे एक ख़त। अगर कभी यह ख़त
तुम्हारे पास पहुँच जाता, मुझे किसी भी भाषा के शब्दों की मोहताजी न होती।

..... अमृता प्रीतम



आज ३१ अगस्त है ...अमृता जन्मदिन तुम्हे मुबारक ....हर जन्मदिन पर लगता है क्या लिखूं तुम्हारे लिए ...सब कुछ कह के भी अनकहा है वक़्त बीत रहा है ...तलाश जारी है खुद में तुमको पाने की ..तुम जो .मेरे प्रेरणा रही ..मेरी आत्मा में बसी मुझे हमेशा लगा जैसे जो प्यास .जो रोमांस ,जो इश्क की कशिश तुम में थी वह तुमसे  कहीं कहीं बूंद बूंद मुझ में लगातार रिस रही है ...इमरोज़ भी एक ही है और अमृता भी एक थी ..पर ..फिर भी अमृता तुम्हारे लिखे ..को पढ़ के ...अमृता तुम्हारी तरह जीने की आस टूटती नहीं ..जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक  अमृता

Monday, August 5, 2013

मर्द ने अपनी पहचान मैं लफ़्ज़ में पानी होती है, औरत ने मेरी लफ़्ज़ में...
‘मैं’ शब्द में ‘स्वयं’ का दीदार होता है, और ‘मेरा’ शब्द ‘प्यार’ के धागों में लिपटा हुआ होता है...

लेकिन अंतर मन की यात्रा रुक जाए तो मैं लफ़्ज़ महज अहंकार हो जाता है और मेरा लफ़्ज़ उदासीनता। उस समय स्त्री वस्तु हो जाती है, और पुरुष वस्तु का मालिक।
मालिक होना उदासीनता नहीं जानता, लेकिन मलकियत उसकी वेदना जानती है।

रजनीश जी के लफ़्ज़ों में ‘‘वेदना का अनुवाद दुनिया की किसी भाषा में नहीं हो सकता। इसका एक अर्थ ‘पीड़ा’ होता है, पर दूसरा अर्थ ‘ज्ञान’ होता है। यह मूल धातु ‘वेद’ से बना है, जिस से विद्वान बनता है—ज्ञान को जानने वाला। वेदना का अर्थ हो जाता है —जो दुख के ज्ञान को जानता है।’’ सो इस वेदना के पहलू से कुछ उन गीतों को देखना होगा, जो धरती की और मन की मिट्टी से पनपते हैं।

लोकगीत बहुत व्यापक दुख से जन्म लेता है, वह उस हकीकत की ज़मीन पर पैर रखता है, जो बहुत व्यापक रूप में एक हकीकत बन चुकी होती है।
इसी तरह कहावतें भी ऐसे संस्कारों से बनती हैं, जि पर्त दर पर्त बहुत कुछ अपने में लपेट कर रखती हैं। जैसे कभी बंगाल में कहावत थी—‘‘जो औरत पढ़ना लिखना सीखती है, वह दूसरे जन्म में वेश्या होकर जन्म लेती है।’’*

हमारे देश की अलग-अलग भाषाओं के होठों पर ऐसी कितनी कहावतें और गीत सुलगते हैं। आम स्त्री की हालत का अनुमान कुछ उन्हीं से लगाना होगा...

अमृता प्रीतम की इस कृति दीवारों के साए से यह पंक्तियाँ जिस में  संसार में नारी की स्थिति, पीड़ा, विडम्बना और विसंगतियों को मुखर किया गया है। इसमें वास्तविक नारी चरित्रों पर लिखी अनेक कहानियां भी हैं। जिनमें अमृता ने  समाज की और मन की दीवारों से आरंभ करके कारागार की दीवारों तक इन सभी में बंद स्त्री-पुरुषों का मार्मिक चित्रण किया है। 

Thursday, July 18, 2013

अमृता जब छोटी-सी थी, तब सांझ घिरने लगती, तो वह खिड़की के पास खड़ी-कांपते होठों से कई बार कहती-अमृता ! मेरे पास आओ।
शायद इसलिए कि खिड़की में से जो आसमान सामने दिखाई देता, देखती कि कितने ही पंछी उड़ते हुए कहीं जा रहे होते...ज़रूर घरों को-अपने-अपने घोंसलों को लौट रहे होते होंगे...और उनके होठों से बार-बार निकलता-अमृता, मेरे पास आओ ! लगता, मन का पंछी जो उड़ता-उड़ता जाने कहां खो गया है, अब सांझ पड़े उसे लौटना चाहिए...अपने घर-अपने घोसले में मेरे पास... अमृता के शब्दों में "वहीं खिड़की में खड़े-खड़े तब एक नज़्म कही थी-कागज़ पर भी उतार ली होगी, पर वह कागज़ जाने कहां खो गया, याद नहीं आता...लेकिन उसकी एक पंक्ति जो मेरे ओठों पर जम-सी गई थी-वह आज भी मेरी याद में है। वह थी-‘सांझ घिरने लगी, सब पंछी घरों को लौटने लगे, मन रे ! तू भी लौट कर उड़ जा ! कभी यह सब याद आता है-तो सोचती हूं-इतनी छोटी थी, लेकिन यह कैसे हुआ-कि मुझे अपने अंदर एक अमृता वह लगती-जो एक पंछी की तरह कहीं आसमान में भटक रही होती और एक अमृता वह जो शांत वहीं खड़ी रहती थी और कहती थी-अमृता ! मेरे पास आओ !
अब कह सकती हूं-ज़िंदगी के आने वाले कई ऐसे वक़्तों का वह एक संकेत था-कि एक अमृता जब दुनिया वालों के हाथों परेशान होगी, उस समय उसे अपने पास बुलाकर गले से लगाने वाली भी एक अमृता होगी-जो कहती होगी-अमृता, मेरे पास आओ !"

बरसों की राहें चीर कर
तेरी आवाज़ आयी है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाई है...

आज किसी के सिर से
जैसे हुमा गुज़र गया
चाँद ने रात के बालों में
जैसे फूल टाँक दिया

नींद के होठों से जैसे
सपने की महक आती है
पहली किरण रात की
जब माँग में सिन्दूर भरती है...


Thursday, June 6, 2013


अमृता की कुछ बातें उनके कागज और अक्षर किताब से ........

नज़्म, कहानी या नावल,  एक माध्यम है, बात को कहने का। अमृता का  एक नावल था ‘दिल्ली की गलिया’ जिसका किरदार नासिर एक मुसव्विर है, और एक अखबार के लिए कार्टून भी बनाता है। उसी के एक कार्टून में, अंग्रेज़ी का एक प्रोफेसर अपने विद्यार्थियों से पूछता है, ‘आजकल कौन-सा लफ़्ज आम जिंदगी में सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है ?’’ तो एक गंभीर विद्यार्थी उठकर कहता है, ‘‘सह ! यह ‘ऐंटी’ लफ़्ज है, क्योंकि आजकल लोग ऐंटी मैरिट होते जा रहे हैं, ऐंटी विमैन, ऐंटी माईंड।’’बोधी गुंपा की तरफ से जब किसी कुसूरवार को सजा दी जाती है, तो वह पत्थरों पर, महात्माबुद्ध के श्लोक अंकित करने की सजा होती है। वह कितने दिन, कितने महीने या कितने साल हाथ में हथौड़ा-छेनी लेकर, पत्थरों पर वह श्लोक अंकित करता रहेगा उसके कसूर की गंभीरता से तय होता है।

मुझे लगता है मुहब्बत ने अपने सुनहरी गुंपा में बैठकर, बोधी गुंपा की तरह, मेरे लिए भी यही सज़ा सुना दी  और शायद मेरे तसव्वुर में मेरी मुहब्बत का कसूर बहुत बड़ा है, संगीन जुर्म, इसलिए पूरी जिन्दगी के लिए यह सज़ा मुझे दी गई, और मैं तमाम ज़िंदगी हाथ में कलम लेकर, कागज़ों पर वही लिखती रही जो मेरे चिंतन का और मेरे तरवैयुत का फरमान था....
अपने तरवैयुत से मेरी मुहब्बत का रिश्ता क्या है ? उसी की बात कहने के लिए कुछ पंक्तियाँ सामने आती हैं—
हमारे देश की तकसीम के वक्त बहुत कुछ भयानक हुआ। मेरे उपन्यास ‘डाक्टर देव’ के किरदार को जब ज़ख्मी लोगों की महरम पट्टी के लिए बुलाया जाता है तो वह तड़प कर कहता है, ‘‘मनु ! कौन–सा मुंह लेकर उन जख्मियों के पास जाऊं ? वे कहेंगे—आज इन्सान हमें पट्टी बांधने  के लिए आया है, इनकी मरहम पट्टी तब कहां थी, जब रास्ता चलते, इसने पीछे से हमारी पीठ पर छुरा घोंप दिया था ? कातिल का चेहरा भी तो मेरे चेहरे जैसा रहा होगा.....’’

इसी तरह ‘पिंजर’ नावल की पूरो, दो मज़हबों की टक्कर में टूट जाती है। लेकिन जानती है कि नफरत के दाग को, नफरत के पानी से नहीं धोया जा सकता, और जब दोनों देशों की अगवाशुदा लड़कियां, अपने-अपने देश को लौटाई जाती हैं, तो पूरो कहती है, ‘‘चाहे कोई लड़की हिन्दू हो या मुसलमान जो भी अपने ठिकाने पर पहुँच रही है, उसी के साथ मेरी आत्मा भी ठिकाने पर पहुंच रही है....’’औरत की पाकीज़गी का ताल्लुक, समाज ने कभी भी, औरत के मन की अवस्था से नहीं पहचाना, हमेशा उसके तन से जोड़ दिया। इसी दर्द को लेकर मेरे ‘एरियल’ नावल की किरदार ऐनी के अलफाज़ हैं, ‘‘मुहब्बत और वफा ऐसी चीज़ें नहीं है, जो किसी बेगाना बदन के छूते ही खत्म हो जाएं। हो सकता है—पराए बदन से गुज़र कर वह और मज़बूत हो जाएं जिस तरह इन्सान मुश्किलों से गुज़र कर और मज़बूत हो जाता है.....’’
औरत और मर्द का रिश्ता और क्या हो सकता था, मैं इसी बात को कहना चाहती थी कि एक कहानी लिखी, ‘मलिका’। मलिका जब बीमार है, सरकारी अस्पताल में जाती है, तो कागज़ी कार्रवाई पूरी करने के लिए डाक्टर पूछता है तुम्हारी उम्र क्या होगी ?

मलिका कहती है, ‘‘वही, जब इन्सान हर चीज के बारे में सोचना शुरू करता है, और फिर सोचता ही चला जाता है.....’’
डाक्टर पूछता है, ‘‘तुम्हारे मालिक का नाम ?’’
मलिका कहती है, ‘‘ मैं घड़ी या साइकिल नहीं, जो मेरा मालिक हो, मैं औरत हूं....’’
डाक्टर घबराकर कहता है, ‘‘मेरा मतलब है—तुम्हारे पति का नाम ?’’
मलिका जवाब देती है, ‘‘मैं बेरोज़गार हूं।’’
डाक्टर हैरान–सा कहता है, ‘‘भई, मैं नौकरी के बारे में नहीं पूछ रहा...’’
तो मलिका जवाब देती है, ‘‘वही तो कह रही हूं। मेरा मतलब है किसी की बीवी नहीं लगी हुई’’, और कहती है, ‘‘हर इन्सान किसी-न-किसी काम पर लगा हुआ होता है, जैसे आप डाक्टर लगे हुए हैं, यह पास खड़ी हुई बीबी नर्स लगी हुई है। आपके दरवाजे के बाहर खड़ा हुआ आदमी चपरासी लगा हुआ है।

इसी तरह लोग जब ब्याह करते हैं—जो मर्द शाविंद लग जाते हैं, और औरतें बीवियां लग जाती हैं...’’
समाज की व्यवस्था में किस तरह इन्सान का वजूद खोता जाता है, मैं यही कहना चाहती थी, जिसके लिए मलिका का किरदार पेश किया। जड़ हो चुके रिश्तों की बात करते हुए, मलिका कहती है, ‘‘क्यों डाक्टर साहब, यह ठीक नहीं ? कितने ही पेशे हैं—कि लोग तरक्की करते हैं, जैसे आज जो मेजर है, कल को कर्नल बन जाता है, फिर ब्रिगेडियर, और फिर जनरल। लेकिन इस शादी-ब्याह के पेशे में कभी तरक्की नहीं होती। बीवियां जिंदगी भर बीवियां लगी रहती है, और खाविंद ज़िंदगी भर खाविंद लगे रहते हैं....’’

उस वक्त डाक्टर पूछता है, ‘इसकी तरक्की हो तो क्या तरक्की हो ?’’
तब मलिका जवाब देती है, ‘‘डाक्टर साहब हो तो सकती है, पर मैंने कभी होते हुए देखी नहीं। यही कि आज जो इन्सान शाविंद लगा हुआ है, वह कल को महबूब हो जाए, और कल जो महबूब बने वह परसों खुदा हो जाए....’’
इसी तरह-समाज, मजहब और रियासत को लेकर वक्त के सवालात बढ़ते गए, तो मैंने नावल लिखा, ‘यह सच है’ इस नावल के किरदार का कोई नाम नहीं, वह इन्सान के चिन्तन का प्रतीक है, इसलिए वह अपने वर्तमान को पहचानने की कोशिश करता है, और इसी कोशिश में वह हज़ारों साल पीछे जाकर—इतिहास की कितनी ही घटनाओं में खुद को पहचानने का यत्न करता है—

उसे पुरानी घटना याद आई, जब वह पांच पांडवों में से एक था, और वे सब द्रौपदी को साथ लेकर वनों में विचर रहे थे। बहुत प्यास लगी तो युधिष्ठीर ने कहा था, ‘जाओ नकुल पानी का स्रोत तलाश करो !’’
जब उसने पानी का स्रोत खोज लिया था, तो किनारे पर उगे हुए पेड़ से आवाज़ आई थी, ‘‘हे नकुल ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी मत पीना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी’’—लेकिन उसने आवाज़ की तरफ ध्यान नहीं दिया, और जैसे ही सूखे हुए हलक से पानी की ओक लगाई, वह मूर्च्छित होकर वहीं गिर गया था....

और मेरे नावल का किरदार, जैसे ही पानी का गिलास पीना चाहती है, यह आवाज़ उसके मस्तक से टकरा जाती है, ‘‘हे आज के इन्सान ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना गिलास का पानी मत पीना....’’
और उसे लगता है—वह जन्म-जन्म से नकुल है, और उसे मूर्च्छित होने का शाप लगा हुआ है...वह कभी भी तो वक्त के सवालों का जवाब नहीं दे पाया...

इसी नावल में उसे याद आता है, ‘‘मैंने एक बार जुआ खेला था। सारा धन, हीरे, मोती दांव पर लगा दिए थे, और मैं हार गया था मैंने अपनी पत्नी भी दांव पर लगा दी थी...’’
और हवा में खड़ी हुई आवाज़ उससे पूछती है, ‘‘मैं दुर्योधन की सभा में खड़ी हुई द्रौपदी हूं, पूछना चाहती हूं—कि युधिष्ठिर जब अपने आपको हार चुके, तो मुझे दांव पर लगाने का उन्हें क्या अधिकार था ?’’
मैं इस सवाल के माध्यम से कहना चाहती हूं, कि जब इन्सान अपने आपको दांव पर लगा चुका, और हार चुका है—तो समाज के नाम पर दूसरे इन्सानों को मजहब के नाम पर खुदा की मखलूक को, और रियासत के नाम पर अपने-अपने देश के वर्तमान भविष्य को दांव पर लगाने का उसे क्या अधिकार है ?

इन्सान जो है, और इन्सान जो हो सकता है—यही फासला ज़हनी तौर पर मैंने जितना भी तय किया, उसी की बात ज़िंदगी भर कहती रही....बहुत निजी अहसास को कितनी ही नज़्मों के माध्यम से कहना चाहा—
हथेलियों पर इश्क की मेंहदी का कुछ दावा नहीं
हिज्र का एक रंग है, खुशबू तेरे जिक्र की....
एक दर्द, एक ज़ख्म एक कसक दिल के पास थी
रात को सितारों की रकम—उसे ज़रब दे गई...

और वक्त-वक्त पर जितने भी सवालात पैदा होते रहे—उसी दर्द का जायज़ा लेते हुए कितनी ही नज़्में कहीं—
गंगाजल से लेकर, वोडका तक—यह सफरनामा है मेरी प्यास का...
सादा पवित्र जन्म के सादा अपवित्र कर्म का—सादा इलाज....
किसी महबूब के चेहरे को—एक छलकते हुए गिलास में देखने का यत्न....
और अपने बदन पर—बिलकुल बेगाना ज़ख्म को भूलने की ज़रूरत...
यह कितने तिकोन पत्थर हैं

जो किसी पानी की घूंट से—मैंने गले में उतारे हैं
कितने भविष्य हैं—जो वर्तमान से बचाए हैं
और शायद वर्तमान भी—वर्तमान से बचाया है....
इलहाम के धुएं से लेकर, सिगरेट की राख तक....
हर मज़हब बौराए
हर फलसफा लंगड़ाए
हर नज़्म तुतलाए—
और कहना-सा चाहे—

कि हर सल्तनत के सिक्के की होती है, बारूदी की होती है
और हर जन्मपत्री—आदम की जन्म की एक झूठी गवाही देती है...
बहुत दिनों से सोच रही थी-
रसीदी टिकट का कायाकल्प कर दूं
कई घटनाएं जब घट रही होती हैं ?
अभी-अभी लगे ज़ख्मों-सी
तब उनकी कोई कसक अक्षरों में उतर जाती है....
लेकिन वक़्त पा कर अहसास होता है कि ये बातें
लम्बे समय के लिए साहित्य को कुछ नहीं दे पाएंगी.
ये वक़्ती आंधिया होती हैं
इसलिए कई बातें इस तरह लगने लगीं,
जो मेरी अपनी नज़र में-
अपनी उम्र बिता चुकी हैं-
इस नज़र सानी से-
‘रसीदी टिकट’ के चिंतन में कोई कमी नहीं आई,
बल्कि कई और बातें, जो स्मरण हो आईं,
उसके साथ-साथ चल दी हैं....

Friday, May 24, 2013

कुछ किस्से किताब से
औरत की पाकीज़गी का ताल्लुक, समाज ने कभी भी, औरत के मन की अवस्था से नहीं पहचाना, हमेशा उसके तन से जोड़ दिया। इसी दर्द को लेकर मेरे ‘एरियल’ नावल की किरदार ऐनी के अलफाज़ हैं, ‘‘मुहब्बत और वफा ऐसी चीज़ें नहीं है, जो किसी बेगाना बदन के छूते ही खत्म हो जाएं। हो सकता है—पराए बदन से गुज़र कर वह और मज़बूत हो जाएं जिस तरह इन्सान मुश्किलों से गुज़र कर और मज़बूत हो जाता है.....’’
औरत और मर्द का रिश्ता और क्या हो सकता था, मैं इसी बात को कहना चाहती थी कि एक कहानी लिखी, ‘मलिका’। मलिका जब बीमार है, सरकारी अस्पताल में जाती है, तो कागज़ी कार्रवाई पूरी करने के लिए डाक्टर पूछता है तुम्हारी उम्र क्या होगी ?

मलिका कहती है, ‘‘वही, जब इन्सान हर चीज के बारे में सोचना शुरू करता है, और फिर सोचता ही चला जाता है.....’’
डाक्टर पूछता है, ‘‘तुम्हारे मालिक का नाम ?’’
मलिका कहती है, ‘‘ मैं घड़ी या साइकिल नहीं, जो मेरा मालिक हो, मैं औरत हूं....’’
डाक्टर घबराकर कहता है, ‘‘मेरा मतलब है—तुम्हारे पति का नाम ?’’
मलिका जवाब देती है, ‘‘मैं बेरोज़गार हूं।’’
डाक्टर हैरान–सा कहता है, ‘‘भई, मैं नौकरी के बारे में नहीं पूछ रहा...’’
तो मलिका जवाब देती है, ‘‘वही तो कह रही हूं। मेरा मतलब है किसी की बीवी नहीं लगी हुई’’, और कहती है, ‘‘हर इन्सान किसी-न-किसी काम पर लगा हुआ होता है, जैसे आप डाक्टर लगे हुए हैं, यह पास खड़ी हुई बीबी नर्स लगी हुई है। आपके दरवाजे के बाहर खड़ा हुआ आदमी चपरासी लगा हुआ है।

इसी तरह लोग जब ब्याह करते हैं—जो मर्गद शाविंद लग जाते हैं, और औरतें बीवियां लग जाती हैं...’’
समाज की व्यवस्था में किस तरह इन्सान का वजूद खोता जाता है, मैं यही कहना चाहती थी, जिसके लिए मलिका का किरदार पेश किया। जड़ हो चुके रिश्तों की बात करते हुए, मलिका कहती है, ‘‘क्यों डाक्टर साहब, यह ठीक नहीं ? कितने ही पेशे हैं—कि लोग तरक्की करते हैं, जैसे आज जो मेजर है, कल को कर्नल बन जाता है, फिर ब्रिगेडियर, और फिर जनरल। लेकिन इस शादी-ब्याह के पेशे में कभी तरक्की नहीं होती। बीवियां जिंदगी भर बीवियां लगी रहती है, और खाविंद ज़िंदगी भर खाविंद लगे रहते हैं....’’

उस वक्त डाक्टर पूछता है, ‘इसकी तरक्की हो तो क्या तरक्की हो ?’’
तब मलिका जवाब देती है, ‘‘डाक्टर साहब हो तो सकती है, पर मैंने कभी होते हुए देखी नहीं। यही कि आज जो इन्सान शाविंद लगा हुआ है, वह कल को महबूब हो जाए, और कल जो महबूब बने वह परसों खुदा हो जाए....’’
इसी तरह-समाज, मजहब और रियासत को लेकर वक्त के सवालात बढ़ते गए, तो मैंने नावल लिखा, ‘यह सच है’ इस नावल के किरदार का कोई नाम नहीं, वह इन्सान के चिन्तन का प्रतीक है, इसलिए वह अपने वर्तमान को पहचानने की कोशिश करता है, और इसी कोशिश में वह हज़ारों साल पीछे जाकर—इतिहास की कितनी ही घटनाओं में खुद को पहचानने का यत्न करता है—

उसे पुरानी घटना याद आई, जब वह पांच पांडवों में से एक था, और वे सब द्रौपदी को साथ लेकर वनों में विचर रहे थे। बहुत प्यास लगी तो युधिष्ठीर ने कहा था, ‘जाओ नकुल पानी का स्रोत तलाश करो !’’
जब उसने पानी का स्रोत खोज लिया था, तो किनारे पर उगे हुए पेड़ से आवाज़ आई थी, ‘‘हे नकुल ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी मत पीना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी’’—लेकिन उसने आवाज़ की तरफ ध्यान नहीं दिया, और जैसे ही सूखे हुए हलक से पानी की ओक लगाई, वह मूर्च्छित होकर वहीं गिर गया था....

और मेरे नावल का किरदार, जैसे ही पानी का गिलास पीना चाहती है, यह आवाज़ उसके मस्तक से टकरा जाती है, ‘‘हे आज के इन्सान ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना गिलास का पानी मत पीना....’’
और उसे लगता है—वह जन्म-जन्म से नकुल है, और उसे मूर्च्छित होने का शाप लगा हुआ है...वह कभी भी तो वक्त के सवालों का जवाब नहीं दे पाया...

यह कागज़ यह कलम यह अक्षर किताब से कुछ अंश .........

Wednesday, September 26, 2012

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की बिलकुल नयी बीवी है। एक तो नयी इस बात से कि वह अपने पति की दूसरी बीवी है, सो उसका पति ‘दुहाजू’ हुआ। जू का मतलब अगर ‘जून’ हो तो इसका मतलब  निकला ‘दूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाह की जून में, और अंगूरी क्योंकि अभी विवाह की पहली जून में ही है, यानी पहली विवाह की जून में, इसलिए नयी हुई। और दूसरे वह इस बात से भी नयी है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे।

पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नी की ‘किरिया’ करने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरियावाले दिन इस अंगूरी के बाप ने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था। किसी भी मर्द का यह अँगोछा भले ही पत्नी की मौत पर आंसुओं से नहीं भीगा होता, चौथे दिन या किरिया के दिन नहाकर बदन पोंछने के बाद वह अँगोछा पानी से ही भीगा होता है, इस पर साधारण-सी गाँव की रस्म से किसी और लड़की का बाप उठकर जब यह अँगोछा निचोड़ देता है तो जैसे कह रहा होता है—‘‘उस मरनेवाली की जगह मैं तुम्हें अपनी बेटी देता हूँ और अब तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं, मैंने तुम्हारा आँसुओं भीगा हुआ अँगोछा भी सुखा दिया है।’’

इस तरह प्रभाती का इस अंगूरी के साथ दूसरा विवाह हो गया था। पर एक तो अंगूरी अभी आयु की बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठिया के रोग से जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौने की बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी।...फिर एक-एक कर पाँच साल भी निकल गये थे। और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छु्ट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहू को भी साथ लाएगा और शहर में अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गांव से नहीं लौटेगा। मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभाती की जगह अपनी रसोई में से वे दो जनों की रोटी नहीं देना चाहते थे। पर जब प्रभाती ने यह बात कही कि वह कोठरी के पीछेवाले कच्ची जगह को पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गये थे। सो अंगूरी शहर आ गयी थी। चाहे अंगूरी ने शहर आकर कुछ दिन मुहल्ले के मर्दों से तो क्या औरतों से भी घूँघट न उठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था। वह पैरों में चाँदी के झाँझरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गयी थी। एक झाँजर उसके पाँवों में पहनी होती, एक उसकी हँसी में। चाहे वह दिन के अधिकरतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक़ उसके पाँवों के साथ-साथ चलती थी।

‘‘यह क्या पहना है,  अंगूरी ?’’
‘‘यह तो मेरे पैरों की छैल चूड़ी है।’’
‘‘और यह उँगलियों में ?’’
‘‘यह तो बिछुआ है।’’
‘‘और यह बाहों में ?’’
‘‘यह तो पछेला है।’’
‘‘और माथे पर ?’’
‘‘आलीबन्द कहते हैं इसे।’’
‘‘आज तुमने कमर में कुछ नहीं पहना ?’’

‘‘तगड़ी बहुत भारी लगती है, कल को पहनूंगी। आज तो मैंने तौक भी नहीं पहना। उसका टाँका टूट गया है कल शहर में जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाक कील भी लाऊँगी। मेरी नाक को नकसा भी था, इत्ता बड़ा, मेरी सास ने दिया नहीं।’’
इस तरह अंगूरी अपने चाँदी के गहने एक नख़रे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी।

पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरी का अपनी छोटी कोठरी में दम घुटने लगा था। वह बहुत बार मेरे घर के सामने आ बैठती थी। मेरे घर के आगे नीम के बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ों के पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है। चाहे मुहल्ले का कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़क के मज़दूर कई बार इस कुएँ को चला लेते हैं जिससे कुएँ के गिर्द अकसर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है।


‘‘क्या पढ़ती हो बीबीजी ?’’ एक दिन अंगूरी जब आयी, मैं नीम के पेड़ों के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी ।
‘‘तुम पढ़ोगी ?’’
‘‘मेरे को पढ़ना नहीं आता।’’
‘‘सीख लो।’’
‘‘ना।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।’’
‘‘औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘ना, मर्द को नहीं लगता ?’’
‘‘यह तुम्हें किसने कहा है ?’
‘‘मैं जानती हूँ।’’
फिर तो मैं पढ़ती हूँ मुझे पाप लगेगा ?’’
‘‘सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गांव की औरत को पाप लगता है।’’

मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न कहा। वह अगर हँसती-खेलती अपनी जिन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था। वैसे मैं अंगूरी के मुँह की ओर ध्यान लगाकर देखती रही। गहरे साँवले रंग में उसके बदन का मांस गुथा हुआ था। कहते हैं—औरत आंटे की लोई होती है। पर कइयों के बदन का मांस उस ढीले आटे की तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदन का मांस बिलकुल ख़मीरे आटे जैसा, जिसे बेलने से फैलाया नहीं जा सकता। सिर्फ़ किसी-किसी के बदन का मांस इतना सख़्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो।...मैं अंगूरी के मुँह की ओर देखती रही, अंगूरी की छाती की ओर, अंगूरी की पिण्डलियों की ओर .....वह इतने सख़्त मैदे की तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने क़द का, ढलके हुए मुँह का, कसोरे जैसा और फिर अंगूरी के रूप की ओर देखकर उसके ख़ाविन्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आंटे की इस घनी गुथी लोई को पकाकर खाने का हक़दार नहीं—वह इस लोई की ढककर रखने वाला कठवत है।....इस तुलना से मुझे खुद ही हंसी आ गई। पर मैंने अंगूरी को इस तुलना का आभास नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए उससे मैं उसके गाँव की छोटी-छोटी बातें करने लगी।

माँ-बाप की, बहन-भाइयों की, और खेतों-खलिहानों की बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘अंगूरी, तुम्हारे गांव में शादी कैसे होती है ?’’
‘‘लड़की छोटी-सी होती है। पाँच-सात साल की, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है।’’
‘‘कैसे पूजती है पाँव ?’’
‘‘लड़की का बाप जाता है, फूलों की एक थाली ले जाता है, साथ में रुपये, और लड़के के आगे रख देता है।’’
‘‘यह तो एक तरह से बाप ने पाँव पूज लिये। लड़की ने कैसे पूजे ?’’
‘‘लड़की की तरफ़ से तो पूजे।’’
‘‘पर लड़की ने तो उसे देखा भी नहीं ?’’
‘‘लड़कियाँ नहीं देखतीं।’’
‘‘लड़कियाँ अपने होने वाला ख़ाविन्द को नहीं देखतीं।’’
‘‘ना।’’
‘‘कोई भी लड़की नहीं देखती ?’’
‘‘ना।’’

पहले तो अंगूरी ने ‘ना’ कर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, ‘‘जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं।’’
‘‘तुम्हारे गाँव में लड़कियाँ प्रेम करती हैं ?’’
‘‘कोई-कोई।’’
‘‘जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता ?’’ मुझे असल में अंगूरी की वह बात स्मरण हो आयी थी कि औरत को पढ़ने से पाप लगता है। इसलिए मैंने सोचा कि उस हिसाब से प्रेम करने से भी पाप लगता होगा।
‘‘पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है।’’ अंगूरी ने जल्दी से कहा।
‘‘अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं ?’’
‘‘जे तो...बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसी की छोकरी को कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है।’’

‘‘कोई क्या खिला देता है उसको ?’’
‘‘एक जंगली बूटी होती है। बस वही पान में डालकर या मिठाई में डाल कर खिला देता है। छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है। फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनिया का और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘सच ?’’
‘‘मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’
‘‘किसे देखा था ?’’
‘‘मेरी एक सखी थी। इत्ती बड़ी थी मेरे से।’’
‘‘फिर ?’’

‘‘फिर क्या ? वह तो पागल हो गयी उसके पीछे। सहर चली गयी उसके साथ।’’
‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलायी थी ?’’
‘‘बरफी में डालकर खिलायी थी। और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बाप को छोड़कर चली जाती ? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था। सहर से धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशे की, और मोतियों की माला भी।’’
‘‘ये तो चीज़ें हुईं न ! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलायी थी !’’
‘‘नहीं खिलायी थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गयी ?’’
‘‘प्रेम तो यों भी हो जाता है।’’
‘‘नहीं, ऐसे नहीं होता। जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है ?’’
‘‘तूने वह जंगली बूटी देखी है ?’’

‘‘मैंने नहीं देखी। वो तो बड़ी दूर से लाते हैं। फिर छिपाकर मिठाई में डाल देते हैं, या पान में डाल देते हैं। मेरी माँ ने तो पहले ही बता दिया था कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाना।’’
‘‘तूने बहुत अच्छा किया कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खायी। पर तेरी उस सखी ने कैसे खा ली ?’’
‘‘अपना किया पाएगी।’’
‘‘किया पाएगी।’’ कहने को तो अंगूरी ने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेली का स्नेह याद आ गया या तरस आ गया, दुखे मन से कहने लगी, ‘‘बावरी हो गयी थी बेचारी ! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी। रात को उठ-उठकर गाती थी।’’
‘‘क्या गाती थी ?’’

‘‘पता नहीं, क्या गाती थी। जो कोई जड़ी बूटी खा लेती है, बहुत गाती है। रोती भी बहुत है।’’
बात गाने से रोने पर आ पहुँची थी। इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ न पूछा।
और अब थोड़े ही दिनों की बात है। एक दिन अंगूरी नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप मेरे पास आ खड़ी हुई। पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनाई दे जाती थी, पर आज उसके पैरों की झाँझरें पता नहीं कहाँ खोयी हुई थीं। मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, ‘‘क्या बात है, अंगूरी ?’’
अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही और फिर धीरे से बोली मुझे पढना सीखा दो बीबी जी !!..और चुप चाप फिर मेरी आँखों में देखने लगी .....
लगता है इसने भी जंगली बूटी खा ली ...........
क्यूँ अब तुम्हे पाप नहीं लगेगा अंगूरी ...यह दोपहर की बात थी शाम को जब मैं बाहर आई तो वह वही नीम के पेड के नीचे बैठी थी और उसके होंठो पर गीत था पर बिलकुल सिसकी जैसा ......मेरी मुंदरी में लागो नागीन्वा ,हो बैरी कैसे काटूँ जोबनावा ..अंगूरी ने मेरे पैरों की आहत सुन ली और चुप हो गयी ..
तुम तो बहुत मीठा गाती हो ..आगे सुनाओ न गा कर...
अंगूरी ने आपने कांपते आंसू वही पलकों में रोक लिए और उदास लफ़्ज़ों में बोली मुझे गाना नहीं आता है 
आता तो है ..
यह तो मेरी सखी गाती थी उसी से सुना था ..
अच्छा मुझे भी सुनाओ पूरा ..

ऐसे ही गिनती है बरस की ..चार महीने ठंडी होती है ,चार महीने गर्मी और चार महीने बरखा ..और उसने बारह महीने का हिसाब ऐसे गिना दिया जैसे वह अपनी उँगलियों पर कुछ गिन रही हो ...
अंगूरी ?
और वह एक टक मेरे चेहरे की तरफ देखने लगी ..मन मैं आया की पूछूँ की कहीं तुमने जंगली बूटी तो नहीं खा ली है ...पर पूछा की तुमने रोटी खायी ..?

अभी नहीं
सवेरे बनायी थी ? चाय पी तुने ?
चाय ? आज तो दूध ही नहीं लिया
क्यों नहीं लिया दूध ?
दूध तो वह रामतारा ............."
वह हमारे मोहल्ले का चौकीदार था ,पहले वह हम से चाय ले कर पीता था पर जब से अंगूरी आई थी वह सवेरे कहीं से दूध ले आता था अंगूरी के चूल्हे पर गर्म कर के चाय बनाता और अंगूरी ,प्रभाती और रामतारा तीनो मिल कर चाय पीते ..और तभी याद आया की रामतारा तो तीन दिन से अपने गांव गया हुआ है ....

मुझे दुखी हुई हंसी आई और कहा की क्या तुने तीन दिन से चाय नही पी है ?
न और रोटी भी नहीं खायी है .न ..
अंगूरी से कुछ बोला न गया ..बस आँखों में उदासी भरे वही खड़ी रही ..
मेरी आँखों के सामने रामतारे की आकृति घूम गयी ....बड़े फुर्तीले हाथ पांव ,अच्छा बोलने ,पहनने का सलीका था ..........
अंगूरी ...कहीं जंगली बूटी तो नहीं खा ली तुने ?
अंगूरी के आंसू बह निकले और गीले अक्षरों से बोली मैंने तो सिर्फ चाय पी थी ..कसम लगे न कभी उसके हाथ से पान खाया ,न मिठाई ...सिर्फ चाय ...जाने उसने चाय में ही ...और अंगूरी की बाकी आवाज़ आंसुओ में डूब गयी



अमृता प्रीतम के लिखे का यह असाधारण गुण है कि जब वह कविता लिखती हैं तो अपनी अनुभूति की तरलता को ऐसा रूप देती हैं जो गद्य की तरह सहजता से हृदय में उतर जाती है, और जब वह उपन्यास या कहानी लिखती हैं तो भाषा में कविता की लय लहराने लगती है।उनकी यह जंगली बूटी कुछ इस तरह की ही कहानी है जो हर पढने पर एक अलग अंदाज़ से सामने आती है और जंगली बूटी के मायने समझ आने लगते हैं ....

Thursday, August 30, 2012

वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….
तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
          
     तुम मुझे उस जादुओं से भरी वादी में बुला रहे हो जहाँ मेरी उम्र लौटकर नहीं आती। उम्र दिल का साथ नहीं दे रही है। दिल उसी जगह पर ठहर गया है, जहाँ ठहरने का तुमने उसे इशारा किया था। सच, उसके पैर वहाँ रूके हुए हैं। पर आजकल मुझे लगता है, एक-एक दिन में कई-कई बरस बीते जा रहे हैं, और अपनी उम्र के इतने बरसों का बोझ मुझसे सहन नहीं हो रहा है.....अमृता

.......यह मेरा उम्र का ख़त व्यर्थ हो गया। हमारे दिल ने महबूब का जो पता लिखा था, वह हमारी किस्मत से पढ़ा न गया।.......तुम्हारे नये सपनों का महल बनाने के लिए अगर मुझे अपनी जिंदगी खंडहर भी बनानी पड़े तो मुझे एतराज नहीं होगा।......जो चार दिन जिंदगी के दिए हैं, उनमें से दो की जगह तीन आरजू में गुजर गए और बाकी एक दिन सिर्फ इन्तजार में ही न गुजर जाए। अनहोनी को होनी बना लो मिर्जा।..... .अमृता
राम चलाना और बर्मन की आवाज सुनना- सुन मेरे बंधु रे। सुन मेरे मितवा। सुन मेरे साथी रे। और मुझे बताना, वे लोग कैसे होते हैं, जिन्हें कोई इस तरह आवाज देता है। मैं सारी उम्र कल्पना के गीत लिखती रही, पर यह मैं जानती हूँ - मैं वह नहीं हूँ जिसे कोई इस तरह आवाज दे। और मैं यह भी जानती हूँ, मेरी आवाज का कोई जवाब नहीं आएगा। कल एक सपने जैसी तुम्हारी चिट्ठी आई थी। पर मुझे तुम्हारे मन की कॉन्फ्लिक्ट का भी पता है। यूँ तो मैं तुम्हारा अपना चुनाव हूँ, फिर भी मेरी उम्र और मेरे बन्धन तुम्हारा कॉन्फ्लिक्ट हैं। तुम्हारा मुँह देखा, तुम्हारे बोल सुने तो मेरी भटकन खत्म हो गई। पर आज तुम्हारा मुँह इनकारी है, तुम्हारे बोल इनकारी हैं। क्या इस धरती पर मुझे अभी और जीना है जहाँ मेरे लिए तुम्हारे सपनों ने दरवाज़ा भेड़ लिया है। तुम्हारे पैरों की आहट सुनकर मैंने जिंदगी से कहा था- अभी दरवाजा बन्द नहीं करो हयात। रेगिस्तान से किसी के कदमों की आवाज आ रही है। पर आज मुझे तुम्हारे पैरों का आवाज सुनाई नहीं दे रही है। अब जिंदगी को क्या कहूँ? क्या यह कहूँ कि अब सारे दरवाजे बन्द कर ले......। ....अमृता
देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूँ
मेरे हाथ से हिज्र का काँटा निकाल दे

जिसने अँधेरे के अलावा कभी कुछ नहीं बुना
वह मुहब्बत आज किरणें बुनकर दे गयी

उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो
राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी...

रास्ते कठिन हैं। तुम्हें भी जिस रास्ते पर मिला, सारे का सारा कठिन है, पर यही मेरा रास्ता है।.....मुझ पर और भरोसा करो, मेरे अपनत्व पर पूरा एतबार करो। जीने की हद तक तुम्हारा, तुम्हारे जीवन का जामिन, तुम्हारा जीती।....ये अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य का पल्ला तुम्हारे आगे फैलाता हूँ, इसमें अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को डाल दो।.....इमरोज़

मेरी सारी ज़िन्दगी मुझे ऐसी लगती है जैसे
मैंने तुम्हे एक ख़त लिखा हो। मेरे दिल की हर धड़कन एक अक्षर है, मेरी हर साँस जैसे
कोई मात्रा, हर दिन जैसे कोई वाक्य और सारी ज़िन्दगी जैसे एक ख़त। अगर कभी यह ख़त
तुम्हारे पास पहुँच जाता, मुझे किसी भी भाषा के शब्दों की मोहताजी न होती।

..... अमृता प्रीतम



आज ३१ अगस्त है ...अमृता जन्मदिन तुम्हे मुबारक ....हर जन्मदिन पर लगता है क्या लिखूं तुम्हारे लिए ...सब कुछ कह के भी अनकहा है वक़्त बीत रहा है ...तलाश जारी है खुद में तुमको पाने की ..तुम जो .मेरे प्रेरणा रही ..मेरी आत्मा में बसी मुझे हमेशा लगा जैसे जो प्यास .जो रोमांस ,जो इश्क की कशिश तुम में थी वह तुमसे  कहीं कहीं बूंद बूंद मुझ में लगातार रिस रही है ...इमरोज़ भी एक ही है और अमृता भी एक थी ..पर ..फिर भी अमृता तुम्हारे लिखे ..को पढ़ के ...अमृता तुम्हारी तरह जीने की आस टूटती नहीं ..जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक  अमृता

Monday, July 9, 2012

मौहब्बत की कच्ची दीवार
लिपी हुई, पुती हुई
फिर भी इसके पहलू से
रात एक टुकड़ा टूट गिरा

बिल्कुल जैसे एक सूराख़ हो गया
दीवार पर दाग़ पड़ गया...

यह दाग़ आज रूँ रूँ करता,
या दाग़ आज होंट बिसूरे
यह दाग़ आज ज़िद करता है...
यह दाग़ कोई बात न माने

टुकुर टुकुर मुझको देखे,
अपनी माँ का मुँह पहचाने
टुकुर टुकुर तुझको देखे,
अपने बाप की पीठ पहचाने

टुकुर टुकुर दुनिया को देखे,
सोने के लिए पालना मांगे,
दुनिया के कानूनों से
खेलने को झुनझुना मांगे

माँ! कुछ तो मुँह से बोल
इस दाग़ को लोरी सुनाऊँ
बाप! कुछ तो कह,
इस दाग़ को गोद में ले लूँ

दिल के आँगन में रात हो गयी,
इस दाग़ को कैसे सुलाऊँ!
दिल की छत पर सूरज उग आया
इस दाग़ को कहाँ छुपाऊँ! 


जिसके साथ होकर भी तुम अकेले रह सको, वही साथ करने योग्य है। जिसके साथ होकर भी तुम्हारा अकेलापन दूषित न हो। तुम्हारी तन्हाई तुम्हारा एकांत बना रहे। जो अकारण तुम्हारी तन्हाई में प्रवेश न करे। जो तुम्हारी सीमाओं का आदर करे। जो तुम्हारे एकांत पर आक्रामक न हो। तुम बुलाओ तो पास आये । इतना ही पास आये, जितना तुम बुलाओ और जब तुम अपने भीतर उतर जाओ तो तुम्हे अकेला छोड़ दे।  अमृता .............