"पता नहीं, कौन कौन कहां कहां कब कब अपने प्रेम की चादर कम्बल या ओवर कोट पहना कर चला जाता है। कई बार जानते हैं, कई बार नहीं भी। कई बार जानकर भी नहीं जानते और कई बार नहीं जानकर भी जानते हैं...."बिल्कुल सही लगते हैं यह ज़िन्दगी के जुड़े हुए जज्बात ...आप सब के स्नेह के कारण ही मैं अमृता की कही बातें अपनी कलम से लिख पाती हूँ ...
चेतन- अचेतन मन से जुड़े हुए यह किस्से कभी कभी कलम तक पहुँचने में बरस लगा देते हैं ..इस का सबसे अच्छा उदाहरण अमृता ने अपनी कहानी "दो औरतों" में दिया है ...जो वह पच्चीस साल बाद अपनी कलम से लिख पायी ....इस में एक औरत शाहनी है और दूसरी वेश्या शाह की रखेल यह घटना उनकी आँखों के सामने लाहौर में हुई थी ....वहां एक धनी परिवार के लड़के की शादी थी और घर की लडकियां गा बजा रही थी ...उस शादी में अमृता भी शामिल थी ...तभी शोर मचा कि लाहौर की प्रसिद्ध गायिका तमंचा जान वहां आ रही है ,,जब वह आई तो बड़ी ही नाज नखरे वालीं लगीं ...उसको देख कर घर की मालकिन का रंग उड़ गया पर थोडी में ठीक भी हो गया ,आख़िर वह लड़के की माँ थीं ...तमंचा जान जब गा चुकी तो शाहनी ने सौ रूपये का नोट उसके आँचल में डाल दिया ...यह देख कर तमंचा जान का मुहं छोटा सा हो गया ..पर अपना गरूर कायम रखने के लिए उसने वह नोट वापस करते हुए कहा कि ..."रहने दे शाहनी आगे भी तेरा ही दिया खाती हूँ ."....इस प्रकार ख़ुद को शाह से जोड़ कर जैसे उसने शाहनी को छोटा कर दिया ....अमृता ने देखा कि शाहानी एक बार थोड़ा सा चुप हो गई पर अगले ही पल उसको नोट लौटा कर बोली ...."न न रख ले री ,शाह से तो तुम हमेशा ही लेगी पर मुझसे फ़िर तुझे कब मिलेगा ""...यह दो औरतों का अजब टकराव था जिसके पीछे सामाजिक मूल्य था ,तमंचा चाहे लाख जवान थी कलाकार थी पर शाहनी के पास जो माँ और पत्नी का मान था वह बाजार की सुन्दरता पर बहुत भारी था ...अमृता इस घटना को बहुत साल बाद अपनी कहानी में लिख पायी ...
अमृता के लिखे पात्र कई पाठकों के इतने सजीव हो उठते हैं कि वह कई बार अमृता को पत्र लिखते और कहते वह अनीता .अलका जहाँ भी हो उन्हें हमारा प्यार देना ...
जब अमृता ने" एक थी अनीता "उपन्यास लिखा तो उन्हें हैदराबाद से एक वेश्या घराने की औरत ने पत्र लिखा की यह तो उसकी कहानी है .उसकी आत्मा भी अनीता की तरह पवित्र है ,सिर्फ़ इसकी घटनाएँ भिन्न है .यदि अमृता उस पर कहानी लिखना चाहे तो वह दिल्ली आ सकती है ..अमृता ने उसको पत्र लिखा पर उसका उसके बाद कोई जवाब नहीं आया ....पर उनके एरियल उपन्यास की मुख्य पात्र अमृता के पास कई दिन तक आ के रहीं थी ताकि वह सही सही उसके बारे में उस उपन्यास में लिख सकें
जेबकतरे उपन्यास को जब अमृता ने लिखा तो उस में एक वाकया जिस में जेल में एक पात्र एक कविता लिख कर जेल के बाहर भिजवाता है और उस कविता के नीचे अपने नाम की बजाय कैदी नम्बर लिखता है ..अमृता ने यह नम्बर अचेतन रूप से लिखा पर बाद में उन्हें याद आया कि यह गोर्की का नम्बर था .जब वह क़ैद था और अमृता ने मास्को में उसके स्मारक में घूमते हुए वह नम्बर अपन डायरी में नोट कर लिया था ...इस के आगे की कहानी अमृता ने अपने चेतन तौर पर लिखी ....
इस प्रकार कहाँ कौन सा पात्र लिखने वाले के दिल से कलम में उतर जाए कौन जाने ..१९७५ में अमृता के एक उपन्यास "धरती सागर और सीपियाँ "पर जब कादम्बरी फ़िल्म बन रही थी तो उसके उन्हें एक गीत लिखना था ..उस वक्त का सीन था जब चेतना इस उपन्यास की पात्र समाजिक चलन के ख्याल को परे हटा कर अपने प्रिय को अपने मन और तन में हासिल कर कर लेती है ..यह बहुत ही हसीं लम्हा था मिलन और दर्द का ....जब अमृता इसको लिखने लगीं तो अमृता को अचानक से वह अपनी दशा याद आ गई जब वह पहली बार इमरोज़ से मिली थी और उन्होंने उस लम्हे को एक पंजाबी गीत लिखा था ...उन्होंने उसी का हिन्दी अनुवाद किया और जैसे १५ बरस पहले की उस घड़ी को फ़िर से जी लिया ...गाना वह बहुत खुबसूरत था ...आज भी बरबस एक अजब सा समां बाँध जाता है इसको पढने से सुनने से ...
अम्बर की एक पाक सुराही ,बादल का एक जाम उठा कर
घूंट चांदनी की पी है हमने .बात कुफ्र की की है हमने ...
कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं .मांग के मौत के हाथों
यह जो ज़िन्दगी ली है हमने .बात कुफ्र की की है हमने
अपना इस में कुछ भी नहीं है ,रोजे -अजल से उसकी अमानत
उसको वही तो दी है हमने ,बात कुफ्र की की है हमने ....
यात्री उपन्यास की सुन्दरा का अस्तित्व अमृता ने चेतन रुप में नही लिखा था वह पात्र जब जब अमृता के सामने आता तो एक कसक उनके दिल को दे जाता और वह समझ न पाती की यह क्या है ....और जब वह पहचान में आया तो वह ख़ुद अमृता थी ..जो कहानी में जब सुन्दरा मन्दिर जा कर शिव पार्वती के चरणों में फूल डाल कर माथा नवाती है तो साथ ही मूर्ति के पास खडे अपने प्रिय के पैरों को भी इस तरह से छू लेती है कि दुनिया की नजर में न आ सके ...उसी तरह अमृता भी अनेक वर्ष तक एक चेहरे की इस प्रकार कल्पना करती रहीं और अपने लफ्ज़ -अक्षर कविता के रूप में उस पर चढाती रहीं साथ ही उनकी कोशिश रही कि इस के जरिये वह चुप चाप अपने प्रिय के अस्तित्व को छूती रहे और दुनिया न देख पाये ..पर जिस तरह सुन्दरा की छुहन का एहसास उसका प्रिय नही नही कर पाता उसी तरह अमृता के मन का सेंका भी एक पत्थर जैसी चुप से टकराता और उन्हीं के पास सुलगता बुझता लौट के आ जाता ..सुन्दरा जब शरीर पर विवाह का जोड़ा और नाक में सोने की नथ पहन कर अन्तिम प्रणाम करने जाती है मन्दिर तो उसके आंसू उसकी आँखों से नथ की तार पर इस तरह अटक जाते हैं ..जैसे नथ की आँखों में आंसू हों ..अमृता को उस पल ख़ुद के वहां होने का एहसास होता है जब उनकी आंखों में इसी तरह से आंसू भर आए थे ..यह अवचेतन मन के खेल हैं जिस में अपना आप भी इस तरह से लिखा जाता है .....और हम कब ख़ुद से कह उठते हैं ..बात कुफ्र की की है हमने ..घूंट चाँदनी पी है हमने .....
चेतन- अचेतन मन से जुड़े हुए यह किस्से कभी कभी कलम तक पहुँचने में बरस लगा देते हैं ..इस का सबसे अच्छा उदाहरण अमृता ने अपनी कहानी "दो औरतों" में दिया है ...जो वह पच्चीस साल बाद अपनी कलम से लिख पायी ....इस में एक औरत शाहनी है और दूसरी वेश्या शाह की रखेल यह घटना उनकी आँखों के सामने लाहौर में हुई थी ....वहां एक धनी परिवार के लड़के की शादी थी और घर की लडकियां गा बजा रही थी ...उस शादी में अमृता भी शामिल थी ...तभी शोर मचा कि लाहौर की प्रसिद्ध गायिका तमंचा जान वहां आ रही है ,,जब वह आई तो बड़ी ही नाज नखरे वालीं लगीं ...उसको देख कर घर की मालकिन का रंग उड़ गया पर थोडी में ठीक भी हो गया ,आख़िर वह लड़के की माँ थीं ...तमंचा जान जब गा चुकी तो शाहनी ने सौ रूपये का नोट उसके आँचल में डाल दिया ...यह देख कर तमंचा जान का मुहं छोटा सा हो गया ..पर अपना गरूर कायम रखने के लिए उसने वह नोट वापस करते हुए कहा कि ..."रहने दे शाहनी आगे भी तेरा ही दिया खाती हूँ ."....इस प्रकार ख़ुद को शाह से जोड़ कर जैसे उसने शाहनी को छोटा कर दिया ....अमृता ने देखा कि शाहानी एक बार थोड़ा सा चुप हो गई पर अगले ही पल उसको नोट लौटा कर बोली ...."न न रख ले री ,शाह से तो तुम हमेशा ही लेगी पर मुझसे फ़िर तुझे कब मिलेगा ""...यह दो औरतों का अजब टकराव था जिसके पीछे सामाजिक मूल्य था ,तमंचा चाहे लाख जवान थी कलाकार थी पर शाहनी के पास जो माँ और पत्नी का मान था वह बाजार की सुन्दरता पर बहुत भारी था ...अमृता इस घटना को बहुत साल बाद अपनी कहानी में लिख पायी ...
अमृता के लिखे पात्र कई पाठकों के इतने सजीव हो उठते हैं कि वह कई बार अमृता को पत्र लिखते और कहते वह अनीता .अलका जहाँ भी हो उन्हें हमारा प्यार देना ...
जब अमृता ने" एक थी अनीता "उपन्यास लिखा तो उन्हें हैदराबाद से एक वेश्या घराने की औरत ने पत्र लिखा की यह तो उसकी कहानी है .उसकी आत्मा भी अनीता की तरह पवित्र है ,सिर्फ़ इसकी घटनाएँ भिन्न है .यदि अमृता उस पर कहानी लिखना चाहे तो वह दिल्ली आ सकती है ..अमृता ने उसको पत्र लिखा पर उसका उसके बाद कोई जवाब नहीं आया ....पर उनके एरियल उपन्यास की मुख्य पात्र अमृता के पास कई दिन तक आ के रहीं थी ताकि वह सही सही उसके बारे में उस उपन्यास में लिख सकें
जेबकतरे उपन्यास को जब अमृता ने लिखा तो उस में एक वाकया जिस में जेल में एक पात्र एक कविता लिख कर जेल के बाहर भिजवाता है और उस कविता के नीचे अपने नाम की बजाय कैदी नम्बर लिखता है ..अमृता ने यह नम्बर अचेतन रूप से लिखा पर बाद में उन्हें याद आया कि यह गोर्की का नम्बर था .जब वह क़ैद था और अमृता ने मास्को में उसके स्मारक में घूमते हुए वह नम्बर अपन डायरी में नोट कर लिया था ...इस के आगे की कहानी अमृता ने अपने चेतन तौर पर लिखी ....
इस प्रकार कहाँ कौन सा पात्र लिखने वाले के दिल से कलम में उतर जाए कौन जाने ..१९७५ में अमृता के एक उपन्यास "धरती सागर और सीपियाँ "पर जब कादम्बरी फ़िल्म बन रही थी तो उसके उन्हें एक गीत लिखना था ..उस वक्त का सीन था जब चेतना इस उपन्यास की पात्र समाजिक चलन के ख्याल को परे हटा कर अपने प्रिय को अपने मन और तन में हासिल कर कर लेती है ..यह बहुत ही हसीं लम्हा था मिलन और दर्द का ....जब अमृता इसको लिखने लगीं तो अमृता को अचानक से वह अपनी दशा याद आ गई जब वह पहली बार इमरोज़ से मिली थी और उन्होंने उस लम्हे को एक पंजाबी गीत लिखा था ...उन्होंने उसी का हिन्दी अनुवाद किया और जैसे १५ बरस पहले की उस घड़ी को फ़िर से जी लिया ...गाना वह बहुत खुबसूरत था ...आज भी बरबस एक अजब सा समां बाँध जाता है इसको पढने से सुनने से ...
अम्बर की एक पाक सुराही ,बादल का एक जाम उठा कर
घूंट चांदनी की पी है हमने .बात कुफ्र की की है हमने ...
कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं .मांग के मौत के हाथों
यह जो ज़िन्दगी ली है हमने .बात कुफ्र की की है हमने
अपना इस में कुछ भी नहीं है ,रोजे -अजल से उसकी अमानत
उसको वही तो दी है हमने ,बात कुफ्र की की है हमने ....
यात्री उपन्यास की सुन्दरा का अस्तित्व अमृता ने चेतन रुप में नही लिखा था वह पात्र जब जब अमृता के सामने आता तो एक कसक उनके दिल को दे जाता और वह समझ न पाती की यह क्या है ....और जब वह पहचान में आया तो वह ख़ुद अमृता थी ..जो कहानी में जब सुन्दरा मन्दिर जा कर शिव पार्वती के चरणों में फूल डाल कर माथा नवाती है तो साथ ही मूर्ति के पास खडे अपने प्रिय के पैरों को भी इस तरह से छू लेती है कि दुनिया की नजर में न आ सके ...उसी तरह अमृता भी अनेक वर्ष तक एक चेहरे की इस प्रकार कल्पना करती रहीं और अपने लफ्ज़ -अक्षर कविता के रूप में उस पर चढाती रहीं साथ ही उनकी कोशिश रही कि इस के जरिये वह चुप चाप अपने प्रिय के अस्तित्व को छूती रहे और दुनिया न देख पाये ..पर जिस तरह सुन्दरा की छुहन का एहसास उसका प्रिय नही नही कर पाता उसी तरह अमृता के मन का सेंका भी एक पत्थर जैसी चुप से टकराता और उन्हीं के पास सुलगता बुझता लौट के आ जाता ..सुन्दरा जब शरीर पर विवाह का जोड़ा और नाक में सोने की नथ पहन कर अन्तिम प्रणाम करने जाती है मन्दिर तो उसके आंसू उसकी आँखों से नथ की तार पर इस तरह अटक जाते हैं ..जैसे नथ की आँखों में आंसू हों ..अमृता को उस पल ख़ुद के वहां होने का एहसास होता है जब उनकी आंखों में इसी तरह से आंसू भर आए थे ..यह अवचेतन मन के खेल हैं जिस में अपना आप भी इस तरह से लिखा जाता है .....और हम कब ख़ुद से कह उठते हैं ..बात कुफ्र की की है हमने ..घूंट चाँदनी पी है हमने .....