Sunday, November 23, 2008

"पता नहीं, कौन कौन कहां कहां कब कब अपने प्रेम की चादर कम्बल या ओवर कोट पहना कर चला जाता है। कई बार जानते हैं, कई बार नहीं भी। कई बार जानकर भी नहीं जानते और कई बार नहीं जानकर भी जानते हैं...."बिल्कुल सही लगते हैं यह ज़िन्दगी के जुड़े हुए जज्बात ...आप सब के स्नेह के कारण ही मैं अमृता की कही बातें अपनी कलम से लिख पाती हूँ ...

चेतन- अचेतन मन से जुड़े हुए यह किस्से कभी कभी कलम तक पहुँचने में बरस लगा देते हैं ..इस का सबसे अच्छा उदाहरण अमृता ने अपनी कहानी "दो औरतों" में दिया है ...जो वह पच्चीस साल बाद अपनी कलम से लिख पायी ....इस में एक औरत शाहनी है और दूसरी वेश्या शाह की रखेल यह घटना उनकी आँखों के सामने लाहौर में हुई थी ....वहां एक धनी परिवार के लड़के की शादी थी और घर की लडकियां गा बजा रही थी ...उस शादी में अमृता भी शामिल थी ...तभी शोर मचा कि लाहौर की प्रसिद्ध गायिका तमंचा जान वहां आ रही है ,,जब वह आई तो बड़ी ही नाज नखरे वालीं लगीं ...उसको देख कर घर की मालकिन का रंग उड़ गया पर थोडी में ठीक भी हो गया ,आख़िर वह लड़के की माँ थीं ...तमंचा जान जब गा चुकी तो शाहनी ने सौ रूपये का नोट उसके आँचल में डाल दिया ...यह देख कर तमंचा जान का मुहं छोटा सा हो गया ..पर अपना गरूर कायम रखने के लिए उसने वह नोट वापस करते हुए कहा कि ..."रहने दे शाहनी आगे भी तेरा ही दिया खाती हूँ ."....इस प्रकार ख़ुद को शाह से जोड़ कर जैसे उसने शाहनी को छोटा कर दिया ....अमृता ने देखा कि शाहानी एक बार थोड़ा सा चुप हो गई पर अगले ही पल उसको नोट लौटा कर बोली ...."न न रख ले री ,शाह से तो तुम हमेशा ही लेगी पर मुझसे फ़िर तुझे कब मिलेगा ""...यह दो औरतों का अजब टकराव था जिसके पीछे सामाजिक मूल्य था ,तमंचा चाहे लाख जवान थी कलाकार थी पर शाहनी के पास जो माँ और पत्नी का मान था वह बाजार की सुन्दरता पर बहुत भारी था ...अमृता इस घटना को बहुत साल बाद अपनी कहानी में लिख पायी ...

अमृता के लिखे पात्र कई पाठकों के इतने सजीव हो उठते हैं कि वह कई बार अमृता को पत्र लिखते और कहते वह अनीता .अलका जहाँ भी हो उन्हें हमारा प्यार देना ...

जब अमृता ने" एक थी अनीता "उपन्यास लिखा तो उन्हें हैदराबाद से एक वेश्या घराने की औरत ने पत्र लिखा की यह तो उसकी कहानी है .उसकी आत्मा भी अनीता की तरह पवित्र है ,सिर्फ़ इसकी घटनाएँ भिन्न है .यदि अमृता उस पर कहानी लिखना चाहे तो वह दिल्ली आ सकती है ..अमृता ने उसको पत्र लिखा पर उसका उसके बाद कोई जवाब नहीं आया ....पर उनके एरियल उपन्यास की मुख्य पात्र अमृता के पास कई दिन तक आ के रहीं थी ताकि वह सही सही उसके बारे में उस उपन्यास में लिख सकें

जेबकतरे उपन्यास को जब अमृता ने लिखा तो उस में एक वाकया जिस में जेल में एक पात्र एक कविता लिख कर जेल के बाहर भिजवाता है और उस कविता के नीचे अपने नाम की बजाय कैदी नम्बर लिखता है ..अमृता ने यह नम्बर अचेतन रूप से लिखा पर बाद में उन्हें याद आया कि यह गोर्की का नम्बर था .जब वह क़ैद था और अमृता ने मास्को में उसके स्मारक में घूमते हुए वह नम्बर अपन डायरी में नोट कर लिया था ...इस के आगे की कहानी अमृता ने अपने चेतन तौर पर लिखी ....

इस प्रकार कहाँ कौन सा पात्र लिखने वाले के दिल से कलम में उतर जाए कौन जाने ..१९७५ में अमृता के एक उपन्यास "धरती सागर और सीपियाँ "पर जब कादम्बरी फ़िल्म बन रही थी तो उसके उन्हें एक गीत लिखना था ..उस वक्त का सीन था जब चेतना इस उपन्यास की पात्र समाजिक चलन के ख्याल को परे हटा कर अपने प्रिय को अपने मन और तन में हासिल कर कर लेती है ..यह बहुत ही हसीं लम्हा था मिलन और दर्द का ....जब अमृता इसको लिखने लगीं तो अमृता को अचानक से वह अपनी दशा याद आ गई जब वह पहली बार इमरोज़ से मिली थी और उन्होंने उस लम्हे को एक पंजाबी गीत लिखा था ...उन्होंने उसी का हिन्दी अनुवाद किया और जैसे १५ बरस पहले की उस घड़ी को फ़िर से जी लिया ...गाना वह बहुत खुबसूरत था ...आज भी बरबस एक अजब सा समां बाँध जाता है इसको पढने से सुनने से ...

अम्बर की एक पाक सुराही ,बादल का एक जाम उठा कर
घूंट चांदनी की पी है हमने .बात कुफ्र की की है हमने ...

कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं .मांग के मौत के हाथों
यह जो ज़िन्दगी ली है हमने .बात कुफ्र की की है हमने

अपना इस में कुछ भी नहीं है ,रोजे -अजल से उसकी अमानत
उसको वही तो दी है हमने ,बात कुफ्र की की है हमने ....

यात्री उपन्यास की सुन्दरा का अस्तित्व अमृता ने चेतन रुप में नही लिखा था वह पात्र जब जब अमृता के सामने आता तो एक कसक उनके दिल को दे जाता और वह समझ न पाती की यह क्या है ....और जब वह पहचान में आया तो वह ख़ुद अमृता थी ..जो कहानी में जब सुन्दरा मन्दिर जा कर शिव पार्वती के चरणों में फूल डाल कर माथा नवाती है तो साथ ही मूर्ति के पास खडे अपने प्रिय के पैरों को भी इस तरह से छू लेती है कि दुनिया की नजर में न आ सके ...उसी तरह अमृता भी अनेक वर्ष तक एक चेहरे की इस प्रकार कल्पना करती रहीं और अपने लफ्ज़ -अक्षर कविता के रूप में उस पर चढाती रहीं साथ ही उनकी कोशिश रही कि इस के जरिये वह चुप चाप अपने प्रिय के अस्तित्व को छूती रहे और दुनिया न देख पाये ..पर जिस तरह सुन्दरा की छुहन का एहसास उसका प्रिय नही नही कर पाता उसी तरह अमृता के मन का सेंका भी एक पत्थर जैसी चुप से टकराता और उन्हीं के पास सुलगता बुझता लौट के आ जाता ..सुन्दरा जब शरीर पर विवाह का जोड़ा और नाक में सोने की नथ पहन कर अन्तिम प्रणाम करने जाती है मन्दिर तो उसके आंसू उसकी आँखों से नथ की तार पर इस तरह अटक जाते हैं ..जैसे नथ की आँखों में आंसू हों ..अमृता को उस पल ख़ुद के वहां होने का एहसास होता है जब उनकी आंखों में इसी तरह से आंसू भर आए थे ..यह अवचेतन मन के खेल हैं जिस में अपना आप भी इस तरह से लिखा जाता है .....और हम कब ख़ुद से कह उठते हैं ..बात कुफ्र की की है हमने ..घूंट चाँदनी पी है हमने .....

Sunday, November 16, 2008

अमृता के लेखन में उनकी कलम से जो कुछ उतरा वह उनकी ज़िन्दगी से गुजरा हुआ है ...ज़िन्दगी की देखी सुनी या बीती घटनाएं कब और कैसे किस प्रकार लेखन का हिस्सा बन जाती है .कभी जानते हुए कभी अनजाने में ..पर यह कैसे कब होता है कोई सिरा इसका पकड़ में नही आता है ...

सबसे अधिक हैरानी तब होती है जब वह हम कुछ अचेतन तौर पर अनुभव करते हैं पर वह अनुभव जब किसी हमारी ही लिखी रचना का अंश बन जाता है तो वह कई बार हैरानी का विषय बन जाता है ..

इस तरह के अनुभवों को अमृता ने अपने लिखे कई कविताओं और उपन्यासों में लिखा है ...वह लिखती हैं जब वह पहली बार रविन्द्रनाथ टैगोर से मिली तो बहुत छोटी थी ,कवितायें तब भी लिखती थी पर कुछ बचकानी सी ..पर उन्होंने जब उन्हें कोई अमृता को ही उनकी लिखी कविता सुनाने के लिये कहा तो वह कविता अमृता ने बहुत सकुचा कर उन्हें सुनाई ..उस को सुन कर रविन्द्रनाथ टैगोर ने जो उन्हें प्यार दिया वह कविता के अनुरूप नही था पर उनके अपने व्यक्तितव के अन्रुरूप जरुर था ...उसका बहुत गहरा प्रभाव अमृता पर हुआ ..इस से वह बहुत प्रभावित हुई .और जब रविन्द्रनाथ टैगोर की जन्मशताब्दी मनाई जाने वाले थी ..तब उन्होंने एक कविता रविन्द्रनाथ टैगोर पर लिखनी चाही कुछ पंक्तियाँ लिखी भी पर उनको उस से तस्सली नही हुई ...

उसके बाद वह मास्को चली गयीं ...१९69 में ...वहां वह जिस होटल में ठहरी थी वहां मायकोवस्की का बुत बना हुआ था और जिस जगह वह होटल था ,उसका नाम गोर्की स्ट्रीट था ..एक रात कोई दस बजे उन्होंने होटल की खिड़की से देखा कि बहुत से लोग मायकोवस्की के बुत के इर्द गिर्द खड़े हैं ..ज्ञात हुआ कि कई नौजवान कवि अक्सर रात को वहां आ कर मायकोवस्की की कवितायें पढ़ते हैं और कभी अपनी .तब रास्ता चलते लोग भी वहां एकत्र हो जाते हैं और इन कवियों से कई कविताये सुनते हैं और अपनी फरमाइश भी उनके सामने रखते हैं ....इस प्रकार यह खुला कवि सम्मलेन लगभग आधी रात तक चलता रहता है ..हवा ठंडी लगने लगे तो यह लोग अपने कोटों के कालर ऊपर पलट लेतें हैं .बारिश होने लगे तो छतरी तान लेतें हैं ...अमृता भी उत्सुकता वश इस कवि सम्मलेन में चलीं गयीं ...उन्हें रुसी भाषा का एक लफ्ज़ भी समझ में नही आ रहा था .पर उनके स्वर में जो गर्माहट थी वह उसको महसूस कर पा रही थी ...जब वह सब सुन कर अपने कमरे में लौटी तो उनकी आँखों के सामने रविंद्रनाथ का चेहरा भी था मायकोवस्की का भी और गोर्की का भी ..सारे चेहरे जैसे एक हो गए ...और उस रात उनसे वह अधूरी कविता जो उन्होंने रविन्द्रनाथ पर लिखनी शुरू की थी वह पूरी हो गई ..

महरम इलाही हुस्न दी ,कासद मानुखी इश्क दी ,
एह कलम लाफानी तेरी .सौगात फानी जिस्म दी ...

इसी तरह अचेतन मन की एक घटना उन्होंने अपन एक उपन्यास "आक के पत्ते "में लिखी है ..जब उस उपन्यास का मुख्य पात्र रोज शाम के समय स्टेशन पर जा कर आने वाली गाड़ियों में अपनी खोयी बहन का चेहरा तलाश करने की कोशिश करता है तो एक दिन अनायास ही उसके पैर उसको अपने गांव वाली गाड़ी के अन्दर ले जाते हैं .सर्दी के दिन ,कोई गर्म कपड़े पास नहीं .वह रात की ठण्ड में गुच्छा सा बन कर एक कौने में बैठ जाता है ..विचारों में डूबा उसका मन नींद में भी डूब जाता है ...एक स्टेशन पर जब गाड़ी रूकती है तो उतरने चढ़ने वाली सवारियों की आहट से वह उठ जाता है .जब उठता है तो देखता है कि एक रजाई उसके ऊपर है और सामने वाली सीट पर एक नर्म से चेहरे वाला एक बुजुर्ग आदमी बैठा हुआ है ..एक खेस लपेटे .अपनी रजाई उसने उसको दे दी है ..यह घटना यूँ ही उपन्यास में नही आ गई ..इस से अमृता की एक याद जुड़ी है ..जब वह यह उपन्यास लिखने से चार साल पहले रोमानियां से बल्गारिया जा रही थी ..वह रात बहुत ठंडी थी .पास में उनके कोट के सिवा कुछ भी नही था उन्होंने वही घुटने जोड़ कर अपने ऊपर कर लिया ..फ़िर भी जब वह उसको सिर की और करती तो पैरों में ठण्ड लगती और जब वह पैरों की तरफ़ करती तो सिर और कंधे ठिठुर जाते ....इस तरह ख़ुद को ढकते ढकते न जाने उन्हें कब नींद आ गई ...पर एक गर्माइश सी वह उस नींद में भी महसूस करती रहीं ...जब सुबह उठीं तो देखा की उनके साथ सफर करने वाले एक ब्ल्गारियन आदमी ने अपना ओवर कोट अमृता पर रजाई की तरह डाल दिया था ....

यह घटना उन्होंने चेतन तौर पर उस उपन्यास में नहीं डाली थी ,पर लिख चुकने के कितने वर्ष बाद जब उन्होंने उसको पढ़ा तो लगा कि रात की जो गर्माइश थी वह उनको रगों में कहीं अमानत की तरह पड़ी हुई थी जो उस उपन्यास में उतर गई ....

कुछ घटनाएं बहुत थोड़े समय में रचना का अंश बन जाती है पर कुछ घटनाओं को कलम तक पहुँचने में बरसों का फासला तय करना पड़ता है ..इसी तरह की एक घटना है जब वह १९६० में नेपाल गई थी ..उन्हें वहां पाँच दिन रहना था ..और रोज किसी न किसी कवि सम्मलेन में शामिल होना था ..वहां कुछ नेपाली कवि रोज मिलते उन्हें ..उन में एक कवि रोज उनसे मिलते और उनकी एक ख़ास कविता ही उनसे सुनाने की फरमाइश करते ...इस से अधिक कुछ नहीं ..पर जिस दिन उन्होंने वापस दिल्ली आना था तो कई कवियों के साथ वह कवि भी उनको छोड़ने एयरपोर्ट तक आए और सारे समय जब तक जाने का समय नही आया उनका गर्म कोट उठाये रहे ..जब वह जाने लगीं तो उन्होंने धीरे से अमृता से कहा कि ...." जो भार आपको दिखायी देता है यह तो आप ले लीजिये पर जो नहीं दिखायी दे रहा है वह मैं हमेशा लिए रहूँगा .."यह सुन कर अमृता चौंक गयीं ..दिल्ली पहुँच कर उन्होंने के उपन्यास लिखा "हुंकारा" उनके बारे में नहीं ..पर उनका कहा वाक्य अनायास ही उस कहानी में आ गया ...

चेतन अचेतन मन के किस्से कब हमारी कलम का हिस्सा बन जाते हैं ,कब हम जान पाते हैं ...इस तरह के उनके उपन्यासों .कहानी और कविता से जुड़े किस्सों की बात जारी रहेगी अगली कड़ी में भी ...मुझे यह बहुत सहज और रोचक लगे . इनको पढ़ना जानना अपनी ही किसी ज़िन्दगी का हिस्सा जैसे हों ....और यह हमेशा इस तरह फिजा में रहेंगे ..जैसे उनकी लिखी यह कविता .....

आज धरती से कौन विदा हुआ है
कि आसमान ने बाहें फैला कर
धरती को गले लगा लिया है
त्रिपुरा ने हरी चादर कफ़न पर डाली
और सुबह की लालिमा ने
आंखों का पानी पोंछ कर
धरती के कंधे पर हाथ टिका लिया
और कहा ....
थोडी सी महक विदा हुई है
पर दिल से न लगाना
कि आसमान ने तुम्हारी महक को ..
सीने में संभाल लिया है ....

यही चर्चा जारी अगली कड़ी में भी

Sunday, November 9, 2008

रात आधी बीती होगी
थकी हारी
नींद को मनाती आँखे

अचानक व्याकुल हो उठीं
कहीं से आवाज़ आई --
अरे ,अभी खटिया पर पड़ी हो !
उठो ! बहुत दूर जाना है
आकाश गंगा को तैर कर जाना है "

मैं हैरान हो कर बोली --
मैं तैरना नहीं जानती
पर ले चलो ,
तो आकाश गंगा में डूबना चाहूंगी |"

एक खामोशी --हलकी हँसी
नहीं डूबना नहीं ,तैरना है ...
मैं हूँ न ,....

और फ़िर जहाँ तक कान पहुँचते थे
एक बांसुरी की आवाज़ आती रही ......

अमृता प्रीतम का जीवन और लेखन दोनों लीक से हट कर है ...दोनों में परम्परा को नकार कर सच को पाने कीतड़प है ..शायद इस लिए दोनों ही जोखिम से भरपूर हैं .और समाज के आंखों की किरकिरी बन गए ...अमृता जी कीसर्जनात्मक प्रतिभा किसी के विधा में बाँध कर नही रह गई ..उसका विकास हर तरफ़ से हुआ ...उन्हें वैसे मूलतःकवयित्री ही माना जाता है पर कोई विधा नहीं है जिस में उनकी सफल लिखी हुई कृतियाँ मिले अब चाहे वहकविता हो चाहे उपन्यास ,कहानी .या लेख सब में नारी की व्यथा खूब अच्छे से उभर कर आई है ...पर इस सबकेबावजूद अमृता जी के सारे साहित्य का मूल स्वर जीवन ही है ...वह कहीं भी ज़िन्दगी से भागती हुई नहीं दिखी .ही कहीं विरक्त दिखी ...उनके लेखन में उनके व्यक्तित्व में जीवन की हर बाधा से हर विपदा से जूझने का साहस है वोभी बिना किसी जोखिम और किसी भी परिणाम की चिंता किए बिना ...जीवन को भरपूर जी लेने की तड़प है जीवनमें भी और उनके लिखे साहित्य में भी .......इस लिए एक बात और जो उनके लेखन में दिखायी देती है वह यह है किअपने जीवन और जगत ,इस संसार के प्रति बेपनाह आक्रोश होते हुए भी उनका साहित्य समूची मानवता , इंसानियत के लिए प्यार ही प्यार समेटे हुए हैं .....

अमृता ने जो समय समय पर लेख लिखे पहले
"नागमणि "में छपते रहे .फ़िर यह एक पुस्तक के रूप में छपेजिसका नाम था सफर नामा ..इस पुस्तक को अमृता ने किताबों .मुलाकातों और विचारों की सड़क का सफरनामाकहा ..इसी किताब से कुछ चुनी हुई पंक्तियाँ यहाँ पढ़े ..


यह धरती बहुत विशाल है .यहाँ हर कौम के .हर नस्ल के .हर मजहब के और हर विश्वास के लोग अमन चैन से बससकते हैं ..यहाँ किसी को हथियार बनाने की भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी ..और यह धरती बड़ी उपजाऊ हैयहाँ किसी मनुष्य को भूखे सोने की नौबत नही आणि चाहिए ..जिंदगी के बहते पानी का नाम है .इसका कोई भीपल जोहड़ की तरह ठहरा हुआ सड़ना नही चाहिए .और मोहब्बत महज एक रौशनी का नाम है .ईश्वर के नाम जैसीबेबाकी का नाम है ..इसे छातियों की गुफाओं में पड़कर दिन बिताने की आवश्यकता नहीं है ..और दोस्ती मनुष्य केगुणों में एक कुदरती गुण है बड़े खूबसूरत अंगोंवाला ,इसे अपाहिज कर के चौराहे पर भिखमंगों की तरह खड़ा करनेकी आवश्यकता नहीं है ..और मनुष्य एक गौरव से चमकते .ऊँचे सिरवाले जीव का नाम है .इस माथे को कभीमजहब की दहलीज पर कभी मज़बूरी की दहलीज पर झुकाने की जरुरत नही हैं ......


आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है ,जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती ..सामाजिक और राजनितिकयथार्थ के हाथों मनुष्य रोज़ कंपता है टूटता है ..सोचती हूँ .कोई भी रचना .कोई भी कृति .धूप की एक कटोरी पीने केसमान है या धूप का एक टुकडा कोख में डालने की तरह है .और कुछ नही .सिर्फ़ ज़िन्दगी का जाड़ा काटने का एकसाधन ......

जहाँ मान्यताये खतम होती हैं वहां अश्लीलता शुरू होती है और जहाँ से यह मानसिक नपुसंकता शुरू होती है वहांलेखक ख़त्म हो जाता है और जहाँ लेखक ख़त्म हो जाता है वहां उसकी रचना साहित्य की सीमा के बाहर हो जाती है



रूह का एक जख्म एक आम रोग है

जख्म की नग्नता से
जो बहुत शर्म आए
तो सपने का टुकडा फाड़कर
उस जख्म को ढांप ले ...

इस जेल की यह बात
कोई कभी नही करता
और कोई कभी कहता
की दुनिया की हर बगावत
एक ज्वर की तरह चढ़ती
ज्वर चढ़ते और उतर जाते

काश कभी इंसान को
आशा का कैंसर होता ....... . ....

Monday, November 3, 2008

तवारीख ........

इतिहास ने दहलीज पर खड़े हो कर
विज्ञान का मस्तक चूमा
और विज्ञान था कि मस्तक को
कितनी ही देर टटोलता रहा
तवारीख हँसी --
जो जाना गया ,वही तुम
जो नही जाना गया
वह न मैं ,न तुम ..
विज्ञान ने शीश झुकाया
और कहने लगा --एक सवाल है
जो कई बार मस्तक से निकल जाता है
मैं हैरान होता --कि वह रास्ता किस तरह का
जहाँ से कोई दो आत्माएं गुजरती हैं
और रास्ते के सीने में फूल खिलते हैं
तवारीख हँसी --हाँ
और दुनिया के कुएं पर इल्जाम गिड़ते (घूमते ) हैं ..

हाँ ऐसा होता है ,
वह कौन सा रास्ता या पुल है
जिससे गुजर कर ---
वे आत्माओं के मालिक दर्शन दीदार करते हैं ?"

तवारीख मुस्कराई --
जब कोई मरुस्थल-सी तपती आत्मा
पानी का सपना देख लेती है
पर तडपती हुई को रास्ता नहीं मिलता
तब एक इलाही करम होता है --
कि हवाओं में से कोई रास्ता तामीर होता है
पर रास्ते के चिन्ह
इधर बनते --और उधर मिटते हैं ..

फ़िर कैसे तलाशूँ ? विज्ञान बोला
तवारीख हँसी ."न ऋषि जाने .न मुनि जाने "
तुमने अगर वह रास्ता तलाशना है
तो किसी कैस(राँझा ) से एक किनका मांगना
कि तुम्हे वह दीवानगी मिले --
जो हर काल में किसी एक को मिलती है
जो हर काल में कोई एक होता है ...



सच में वह कोई एक एक हो होता है जो इस तपते मरुथल में पानी का सपना देख लेता है ,सबके बस में कहाँ है प्रेम की इस ऊंचाई को पाना ...तभी तो हम आज दैहिक प्रेम से आगे कुछ सोच ही नही पाते हैं ....दिल्ली रेडियो से देविंदर ने एक बार अमृता के इंटरव्यू लिया था ,जो बाद में एक लम्बी मुलाकात की शक्ल में उन्होंने अपनी किताब "कलम के भेद" में शामिल किया ।यह किताब १९६६ में पब्लिश हुई थी ..उसी इंटरव्यू के कुछ अंश यहाँ दे रही हूँ ..यह अंश अमृता के और करीब ले जाते हैं ...

देविंदर ----सबसे पहला तजुर्बा ?लिखने का ..

अमृता ----सबसे पहला तजुर्बा ? वह बड़ी कच्ची उम्र की बड़ी अल्हड रचना थी |

देविंदर --- और उसके बाद ?

अमृता ---और उसके बाद कुदरत भूल गई कि मैं हाड मांस की एक जीती जागती चीज हूँ ..उसने मुझे एक अच्छी सी मशीन समझ लिया .एक हादसा मेरे भीतर डाल दिया .और एक रचना मेरे भीतर से निकाल ली ...

देविंदर --- उसके इस जुल्म में रहम भी मिला हुआ होता है .चाहे जुल्म कलाकार के लिए हो .और रहम लोगों केलिए ...

अमृता --सिर्फ़ लोगों के लिए नहीं , कलाकार के लिए भी ..जिस तरह धीरे- धीरे हमें अपनी ही कहानियो के कल्पितपात्र असली लगने लगते हैं .उसी तरह हम ख़ुद ,कहानियों के असली पात्र ,समय पा कर अपनी ही नजरों में कल्पितहो जाते हैं ..हमारी रचनाएं सही अर्थों में हमारा दुःख बांटती हैं .और धीरे धीरे हमें यह लगने लगता है कि यह हादसा हमारे साथ नही बीता था ,हमारी कहानी के किसी पात्र पर बीता था ...किसी कम्मो पर , किसी रेखा परऔर इस तरह हम अपनी कहानियो में अपनी जगह जो भी नाम रखते हैं ,वह हमारी पीड़ा को झेल लेता है ... असल में आगे बढ कर हादसे को झेलना भी और परे हट कर उसको देखना भी एक अजीब तजुर्बा है ...


देविंदर -----आपने जब " गीतों वाले किताब "लिखी थी तो उसको पढ़ कर बहुत सी कहानियां बनायी गयीं बहुत से लोगों ने आपके नाम के साथ उसको जोड़ना चाहा और वह बाद में भी टूटी फूटी किस्सों में सुनाई जाती रही

अमृता ----इस जोर जबरदस्ती के युग में जो सबसे आसन बात होती है वह होती है, किसी औरत के नाम के साथ जो जी में आए जड़ दो ..वे टूटी फूटी बातें आज भी मेरी ज़िन्दगी के बदन में कंकडों की तरह चुभती हैं ..जब कभी सभ्यता का युग आएगा तब सच्चाई इस तरह जख्मी नही होगी ..आज विज्ञान कहाँ का कहाँ पहुँच जाए .मैं इस को सभ्यता का युग नही मानती ...सभ्यता का युग तब आएगा ,जब औरत की मर्ज़ी के बिना उसका नाम भी होंठों पर नही लाया जा सकेगा ..अभी तो लोग इस युग में लेखक भी डंडे के जोर पर बनना चाहते हैं और आशिक भी डंडे के जोर से ....

देविंदर ---आपने "व्यापार" जैसी कविता लिखी ---शरीर का व्यापार ,तराजू के दो पलडों की तरह ,एक मर्द और एक औरत रोज़ मांस तोलते ..यह आपकी कितनी बड़ी जुरुअत थी ?

अमृता ----क्या करूँ माथे में सोच का श्राप ले कर जन्मी हूँ ..हमारी दुनिया में एक वह बाजार होता है ,जहाँ जिस्मों का सौदा रात की स्याह अंधेरे में होता है ,और दूसरा बाजार होता है विवाह की संस्था ,जहाँ सौदा दिन दिहाडे होता है

देविंदर ---आपकी एक कविता है"हर बाड़े की भेडें "..यह महजबी कीमतों पर कितना सख्त व्यंग था ?

अमृता ----.पाल गोंगा ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले अपने एक दोस्त से कहा था कि मैंने अपनी आधी ज़िन्दगी सिर्फ़ एक ख्याल को पूरा करने में लगा दी ..वह ख्याल था साहस ,.जरुरत .... किसी भी कला के विकास के यह एक बुनयादी चीज है ..जब उसको आधी ज़िन्दगी लगानी पड़ी वो भी शायद इस लिए कि बहुत सारे साहस का अधिकार तो उसको मर्द होने के नाते समाज से पहले ही मिला हुआ था ...पर मैं तो औरत हूँ ..मुझे तोअपनी सारी ज़िन्दगी इस साहस के लिए लगानी पड़ेगी .आधी औरत होने के नाते .आधी कलाकार होने के नाते ...

देविंदर ---मेरा ख्याल है कि निरी इंसानी खूबसूरती आपके लिए कोई अर्थ नही रखती है ...?

अमृता --इस बात पर मुझे कृष्ण चंदर की कही हुई एक बात याद आती है कि निरी इंसानी खूबसूरती एक छोटी कहानी जैसी होती है ,जो एक ही बैठक में खत्म हो जाती है ......

देविंदर --और मानसिक खूबसूरती ....?
अमृता --मेरे ख्याल में समय का इतिहास ,जिसका कोई भी कांड अन्तिम कांड नही होता ......
.. .... . ...