Friday, January 22, 2010

लोगों के मन का कोई रिश्ता नहीं होता |सिर्फ घडी दो घडी के लिए वे रिश्ते का भ्रम डालना चाहते हैं | इसलिए लोग चुप रहते हैं ...पर जब किसी को रिश्ते से डर लगता हो .तो ख़ामोशी इस डर को बढ़ा देती है ,इसलिए उसको बोलना पड़ता है ,डर को तोडना पड़ता है ..पर कई रिश्ते ऐसे होते हैं जो न लफ़्ज़ों की पकड में आते हैं न किसी और की पकड में ...

मैंने पल भर के लिए --आसमान को मिलना था
पर घबराई हुई खड़ी थी ....
कि बादलों की भीड़ से कैसे गुजरूंगी ..

कई बादल स्याह काले थे
खुदा जाने -कब के और किन संस्कारों के
कई बादल गरजते दिखते
जैसे वे नसीब होते हैं राहगीरों के

कई बादल शुकते ,चक्कर खाते
खंडहरों के खोल से उठते ,खतरे जैसे
कई बादल उठते और गिरते थे
कुछ पूर्वजों कि फटी पत्रियों जैसे

कई बादल घिरते और घूरते दिखते
कि सारा आसमान उनकी मुट्ठी में हो
और जो कोई भी इस राह पर आये
वह जर खरीद गुलाम की तरह आये ..

मैं नहीं जानती कि क्या और किसे कहूँ
कि काया के अन्दर --एक आसमान होता है
और उसकी मोहब्बत का तकाजा ..
वह कायनाती आसमान का दीदार मांगता है

पर बादलों की भीड़ का यह जो भी फ़िक्र था
यह फ़िक्र उसका नहीं --मेरा था
उसने तो इश्क की कानी खा ली थी
और एक दरवेश की मानिंद उसने
मेरे श्वाशों कि धुनी राम ली थी
मैंने उसके पास बैठ कर धुनी की आग छेड़ी
कहा ---ये तेरी और मेरी बातें ....
पर यह बातें --बादलों का हुजूम सुनेगा
तब बता योगी ! मेरा क्या बनेगा ?

वह हंसा ---
नीली और आसमानी हंसी
कहने लगा --
ये धुंए के अम्बार होते हैं ---
घिरना जानते
गर्जना भी जानते
निगाहों की वर्जना भी जानते
पर इनके तेवर
तारों में नहीं उगते
और नीले आसमान की देही पर
इल्जाम नहीं लगते ..

मैंने फिर कहा --
कि तुम्हे सीने में लपेट कर
मैं बादलों की भीड़ से
कैसे गुजरूंगी ?
और चक्कर खाते बादलों से
कैसे रास्ता मागूंगी?

खुदा जाने --
उसने कैसी तलब पी थी
बिजली की लकीर की तरह
उसने मुझे देखा ,
कहा ---
तुम किसी से रास्ता न मांगना
और किसी भी दिवार को
हाथ न लगाना
न ही घबराना
न किसी के बहलावे में आना
बादलों की भीड़ में से
तुम पवन की तरह गुजर जाना ....

अमृता ( मैं तुम्हे फिर मिलूंगी से )

Thursday, January 7, 2010

कन्नड़ के एक माने हुए अदीब श्री शिवराम कारंत से जब किसी ने कहा कि अगर आप इजाजत दें ,तो मैं आपका ज़िन्दगी नामा लिखना चाहता हूँ तो उसी वक़्त कारंत हँस दिए कहने लगे भाई !तुम्हे मेरा कत्ल करने की क्या जरुरत है ,जबकि मैं खुद अपना कत्ल कर सकता हूँ ....दुनिया के किसी हथियार को कोई कत्ल मुआफ नहीं किया जा सकता .लेकिन कलम वह हथियार है जिसको इखलाक की अदालत में कलमकार को अपन कत्ल मुआफ होता है ...हम जो भी अपनी दास्तान लिखते हैं ज़िन्दगी की खुद अपने कातिल होते हैं ,लेकिन इखलाक की अदालत में हम बाइज्जत बरी होते हैं ......
यही वजह थी कि जब सारा ने अमृता को बहुत उदास ख़त लिखे तो उन्होंने सारा से कहा तुम अपनी कलम से पूरी दास्तान लिखो ...दुनिया में बहुत थोड़े अदीब हैं ,जो अपने हाथों पर अपने खून की मेहँदी लगा सकते हैं और अमृता का यह मानना था कि सारा उन थोड़े गिने चुने लोगों में से थी ..उसने लिखा ..अमृता !!सदियों से मुझे एक आंसू की तलाश है, लेकिन अगर बुत रोया तो मैं कंकरों से भर जाऊँगी ....
काश !मेरे लहू में कोई आवाज़ न खिले !
छाओं का दर्द पेड़ों में रह गया है
मैं मिटती जा रही हूँ !काश .कोई मुझे लिख दे ,मैं पागल नहीं होना चाहती
कोई है ,जो मेरे मौसम सहे !कोई है ,जो मेरे दिल के अंधेरों पर जबान रख दे
पानियों पर मेरे कदम की मोहर सब्त है और रवानी मेरी रूह है
मैं एडी से लेकर आँख तक पहुंची हूँ ,मगर बहुत प्यासी हूँ
तन्हाई मुझे तारीक कर रही है --
वक़्त का सांप मिटटी पे लहराया है ,और जख्मों की कोई मौत नहीं होती ...

हमारी जमीन से दो तरह की गर्द उठती है ,एक सुर्ख रंग की है और एक स्याह रंग की ॥सुर्ख रंग की गर्द वह होती है ,जिसको शोहरत कहते हैं और स्याह रंग की गर्द वह जिसको इल्जाम कहते हैं ..जिनके बदन यह गर्द लिपटती है अगर स्याह रंग की हो तो लोग अपना बदन चुरा कर चलते हैं और सुर्ख रंग की हो तो लोग उसको कीमखाब की तरह तरह पहन कर चलते हैं ...

लेकिन दुनिया में थोड़े से लोग होते हैं जो उस गर्द को चाहे वह स्याह हो या सुर्ख ,अपनी आत्मा के पानी से ।अपने बदन को धो सकते हैं .और सारा उन दुनिया के थोड़े लोगों में से एक थी ....

अमृता !!जी चाहता है मौत का घुंघट अपने हाथों से उठा दूँ और आँखों की कचहरी से दूर निकल जाऊं .काश मेरी मिटटी रूठ जाए !सुनसान आँखों में कौन रहने आएगा |आँखों की स्याही से बन्दों को लिख रही हूँ .....आंसू तो दिल की धड़कन में चुभ रहे हैं ,और आँखे हैं कि करबला का मैदान बनी हुई है ...
खुदा की इबादत का इतिहास उतना लम्बा है ,जितना इंसान के जिहन में खुदा के तस्सुवर का ..इस इतिहास में कुछ बदलता है अगर तो वह है इबादत का अंदाज़ .बुत पूजा से बुत शिकनी तक का यह अंदाज़ बदलता रहता है ,लेकिन हर अंदाज़ को इबादत का लकब जरुर नसीब होता है .।

अगर हर्फ नहीं नसीब हुआ होता सारा की इबादत को तो जिसने सजदे में झुक कर नहीं खुद सजदा हो कर कहा ....

ऐ खुदा ! क्या मैं तेरी जकाह हूँ ?या एक सजदा हूँ ?
ऐ खुदा ! तू मेरा इनकार है .और मैं तेरा इकरार हूँ ..
ऐ खुदा ! छातियों से एडी तक मैं तेरी हूँ
मैं नादानी से बच्चे जनती हूँ
और तू फजल से हुक्म जनता है
ऐ खुदा ! मैं अपनी कोख से चलती
और तेरा नाम जनती
ऐ खुदा ! मैंने अपनी नस्ल पर तेरा नाम लिखा है ...

सारा शायद जानती थी कि जिसने अपनी नस्ल पर खुदा का नाम लिखा है ,उसकी इस जुरुत को इबादत का नाम नहीं दिया जायेगा और इस लिए वह हँस दी और कहने लगी ..

ऐ खुदा ।मैं बहुत कडवी हूँ ,पर तेरी शराब हूँ !

और इस शराब का घूंट पीने के लिए होंठो को उस इंसानकी जरुरत थी ,जिस इंसान में खुदा बसता हो ..और वह इंसान कहीं नहीं था ..

सारा ने जाने किस इलहाई मोहब्बत से कहा था .."ऐ खुदा !तू चाँद की स्याही से रात लिखता है ....लेकिन खुदा के बन्दों ने रात की स्याही से सारा के दिन लिख दिए

Saturday, January 2, 2010

सारा का पहला ख़त अमृता को १६ सितम्बर १९८० में मिला उस में लिखा था ...

अमृता बाजी ! मेरे तमाम सूरज आपके
मेरे परिंदों की शाम भी चुरा ली गयी है !आज दुःख भी रूठ गया है कहते हैं ...

फैसले कभी भी फासलों के सपुर्द मत करना !
मैंने तो फासला आज तक नहीं देखा
यह कैसी आवाजें हैं जैसे रात जले कपड़ों में घूम रही है
जैसे कब्र पर कोई आँखे रख गया हो !

मैं दीवार के करीब मीलों मील चली और इंसानों से आज़ाद हो गयी
मेरा नाम कोई नहीं जानता ..दुश्मन इतने वसीह क्यों हो गए हैं
मैं औरत --अपने चाँद में आसमान का पैबंद क्यों लगाऊं !

मील पत्थर ने किसका इन्तजार किया !
औरत रात में रच गयी अमृता बाजी !
आखिर खुदा अपने मन में क्यों नहीं रहता !

आग पूरे बदन को छू गयी है
संगे मील .मीलों चलता है और साकत है
मैं अपनी आग में एक चाँद रखती हूँ
और नंगी आँख से मर्द कमाती हूँ
लेकिन मेरी रात मुझसे पहले जाग गयी है
मैं आसमान बेच कर चाँद नहीं कमाती .....

ख़त उर्दू में था .अमृता इमरोज़ की मदद से इसको पढ़ रही थी उन्होंने ख़त पर हाथ रख दिया ..और इमरोज़ से कहा ठहरो और नहीं ...और वह लड़की कह रही थी ..मैं आसमान बेचकर चाँद नहीं कमाती ..अमृता की रगों में उतरने लगी ...लगा आसमान फरोशों की इस दुनिया में यह सारा नाम की लड़की कहाँ से आ गयी ? आ गयी है तो इस दुनिया में जीएगी कैसे ?आगे लिखा था उस ख़त में ...

कदम कदम पर घूँघट की फरमाइश है ,
लेकिन मेरे नजदीक शर्म का एक अँधेरा है ........."

सारा की एक नज्म में ठीक इसी अँधेरे की तफसील है "शर्म क्या होती है औरत ! शर्म मरी हुई गैरत होती है "
इमरोज़ ख़त पढ़ रहे थे --जिस्म के अलावा मैं शेर भी कहती हूँ .शहवत में मरे हुए लोग मुझे दाद देते हैं तो मेरे गुनाह जल उठते हैं ...अमृता बाजी ! दिल बहुत उदास है ,सो आपसे बात कर ली आज कल मेरे पास दीवारें हैं और वक़्त है ...हमने तो आपकी मोहब्बत में किनारे गंवा दिए और समुन्द्र की हामी भर ली .....आँखे मुझे क्यों नापती है ?क्या इंसान के जिस्म में ही सारे राज रह गए हैं ?
मिटटी बोली लगाती है मौसम की ...सच्च है .कायनात के खातमे पर जो चीज रह जायेगी ,वह सिर्फ वक़्त होगा ...मैं अपने रब का ख्याल हूँ ,और मरी हुई हूँ ...

अमृता ने तड़प कर ख़त रख दिया और जैसे कभी खुद से कहती थी ..आओ अमृता मेरे पास आओ ..वैसे कहा आओ !सारा मेरे पास आओ ...
और सारा की एक नजम अमृता ने यूँ पढ़ी ....

अभी औरत ने सिर्फ रोना ही सीखा है
अभी पेड़ों ने फूलों की मक्कारी ही सीखी है
अभी किनारों ने सिर्फ समुन्द्र को लूटना सीखा है
औरत अपने आंसुओं से वुजू कर लेती है
मेरे लफ़्ज़ों ने कभी वुजू नहीं किया
और रात खुदा ने मुझे सलाम किया ...

अमृता के साथ मेरे दिल ने भी सारा से कहा ! आज खुदा से मिल कर मैं भी तुम्हे सलाम कहती हूँ ....