Monday, August 30, 2010

दो फूल

जब कोई कबीर होता है
कोई वारिस शाह सा फ़कीर होता है
कहीं मोहब्बत का फूल खिलता है
कोई अफसाना -ए हीर होता है
तब .वक़्त अमीर होता है ...

मोहब्बत
इबादत
और अकीदत
ये वक़्त की दौलत हैं
जब यह फूल खिलते हैं
फ़िज़ा महकती है
वक़्त मुस्कराता है
कुछ गुनगुनाता है
अपनी किस्मत पे इठलाता है

आज वक़्त अमीर हुआ है
क्या कोई फिर से
कबीर हुआ है ?
कहीं अकीदत का  फूल खिला है
मोहब्बत का सिलसिला है
या वक़्त को
इबादत का मोती मिला है ?
नहीं
सूरज  की  सातवीं किरण मिली है
इस बार हमारे वक़्त को
एक कबिरन मिली है |
मोहब्बत ,इबादत ,अकीदत  की  कलियाँ
उसकी ज़िन्दगी में खिली हैं ....

वह कबिरन
अपनी काया की रुई को
चिन्तन की धुनकी पर
धुनती है
अक्षरों के फूल

चुनती है
अपनी कलम की पूनी  से
कहानियों के ताने कातती है
नज्मों की चुनर बुनती है
और अनहद नाद
सुनती है

उसकी इबादत
कुछ यूँ होती है
उसकी खुद से
गुफ्तगुं होती है ...

बुद्धि के शिखर पर
खड़ी हो कर भी
कहती है जज्बाती हूँ ,
मैं कबिरन हुई जाती हूँ
मैं कबिरन हुई जाती हूँ ....

देखा है उसने ज़िन्दगी को
बेहद निकट से
इसकी कुछ झलक मिलती है
रसीदी टिकट से
उसकी चेतना में
कोई पीर है
या कोई फ़रिश्ता
कि वह ढूंढ़ लेती है
कभी लाल धागे का रिश्ता
कभी हरे धागे का रिश्ता
उसकी बातें होती हैं
बात से आगे
और नजर देख पाती है
कायनात से आगे

अपनी कलम की पूनी  से
इस कबिरन ने
अदब की झीनी झीनी
चदरिया बुनी है
उसने
अक्षरों की  अंतर्ध्वनि सुनी है
न ताप न योग न प्रणायाम
उसने जपा है बस
इश्क सहस्त्रनाम

और एक रंग साज है
जो तितलियों के पंखों से
फूलों की पंखुड़ियों से
सूर्य किरण की लड़ियों से
बिजली की चमक से
पारिजात की महक से
रंग लाता है
मुस्काराता है
एक जादू सा  कर देता है
और कबिरन की चुनर में
रंग भर देता है
वह रंगोली बनाता है
कहानियों के आंगन में
और श्रृंगार करता है
काया के दामन में
कबिरन हाथों में रचाती है
दरवेशों की मेहँदी
चेहरे हो जाते हैं गुलाबी
महक उठता है
दिल का चमन
हवा में गूंजता है संगीत सा
मोहब्बत दोस्ती और अमन

यह फूल रोज़ खिलते नहीं है
रोज़ रोज़
यह खुशकिस्मत है वक़्त की
कि हमें मिले हैं
अमृता और इमरोज़ !




साक्षी चेतना से अमृता जी के जन्मदिन पर लिखी गयी यह पंक्तियाँ