Thursday, March 8, 2012


सोचती हूँ-खुद के तखै़युल से, अपने देश से, अपने देश के लोगो से, और तमाम दुनिया के लोगों से-यानी खुदा की तखलीक से मेरी मुहब्बत का गुनाह सचमुच बहुत बड़ा है, बहुत संगीन.....
यह मुहब्बत- नज़्मों कहानियों, उपन्यासों और वक्त-वक्त पर लिखे गए मज़मूनों के अक्षरों में  उतरती रहीअपने लेखन के शुरुआती दिनों से जुड़ा एक प्रसंग अमृता प्रीतम ने एक पत्रिका के स्तम्भ में बताया:-
“वो दिन आज भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है… और मुझे दिखती है मेरे पिता के माथे पर चढ़ी हुई त्यौरी. मैं तो बस एक बच्ची ही थी जब मेरी पहली किताब 1936 में छपी थी. उस किताब को बेहद पसंद करते हुए मेरी हौसलाफजाई के लिए महाराजा कपूरथला ने मुझे दो सौ रूपये का मनीआर्डर किया था. इसके चंद दिनों बाद नाभा की महारानी ने भी मेरी किताब के लिए उपहारस्वरूप डाक से मुझे एक साड़ी भेजी.
कुछ दिनों बाद डाकिये ने एक बार फिर हमारे घर का रुख किया और दरवाज़ा खटखटाया. दस्तक सुनते ही मुझे लगा कि फिर से मेरे नाम का मनीआर्डर या पार्सल आया है. मैं जोर से कहते हुए दरवाजे की ओर भागी – “आज फिर एक और ईनाम आ गया!”
इतना सुनते ही पिताजी का चेहरा तमतमा गया और उनके माथे पर चढी वह त्यौरी मुझे आज भी याद है.
मैं वाकई एक बच्ची ही थी उन दिनों और यह नहीं जानती थी कि पिताजी मेरे अन्दर कुछ अलग तरह की शख्सियत देखना चाहते थे. उस दिन तो मुझे बस इतना लगा कि इस तरह के अल्फाज़ नहीं निकालने चाहिए. बहुत बाद में ही मैं यह समझ पाई कि लिखने के एवज़ में रुपया या ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है.”