सन १९५८ -५९ के आस पास अमृता और इमरोज़ की मुलकात हुई ,एक किताब के सिलसिले में जब उन्हें उसका मुखपृष्ट बनवाना था ,तब उन्हें किसी ने इन्द्रजीत चित्रकार के बारे में बताया था ,तब इमरोज़ का नाम इन्द्रजीत ही था ,आगे चल कर यह मुलाक़ात .दोस्ती में तब्दील हो गयी ,दोस्ती दिल के रिश्तों में बदल गयी और यह रिश्ता फिर उम्र भर में ..उन दिनों अमृता ने इमरोज़ के लिए काफी कवितायें लिखी ..
अरे ! किस्मत को कोई आवाज़ दो
करीब से गुजरती जा रही है ..........
यह गीत उन्होंने रेडियो के लिए दिवाली फीचर में लिखा था ,और लिखते समय सिर्फ इमरोज़ आँखों के सामने थे ,तब यह उम्मीद नहीं थी कि वह उन्हें मिल जायेंगे ,और उनके साथ उनके लिए खुदा के साथ रहने के बराबर था ...इमरोज़ की एक कलाकृति पर सफेद काले अंगूठे का एक चित्र है और उस अंगूठे की रेखाओं के नीचे अमृता का चित्र है ..ऐसा लगता है देखने में जैसे अमृता जी के चित्र पर इमरोज़ ने अंगूठा लगा दिया है .और उस पर यह पंक्तियाँ लिखी हुई है ..
रब बख्शे ,न बख्शे
उस दी रजा
असी यार नूं
सजदा कर बैठे ..
(रब माफ़ करे या न करे
उसकी मर्ज़ी
हम तो यार को
सजदा कर बैठे )
यह कृति अपने आप में पूरी कहानी समेटे है ,जब इमरोज़ अमृता की ज़िन्दगी में आये तो अमृता ने बहुत एहसास के साथ लिखा
उम्रा दे कागज़ उत्ते
इश्क तेरे अंगूठा लाया
कौन हिसाब चुकाएगा ....
पंजाबी में एक लोक गीत है ...
सद्द पटवारी नूं ज़िन्द माहिए दे नां लावा ....
(पटवारी को बुला लो .मैं अपनी जान तेरे नाम कर दूँ )
पुराने समय में पंजाब और सारे भारत में यही चलन था इसी के चलते सारी खरीद फरोख्त होती थी ,पटवारी की मौजदूगी में दोनों पक्षों के अंगूठे लगते थे ...
अमृता ने इमरोज़ के लिए लिखा उम्र के इस कागज पर तेरे इश्क ने अंगूठा लगा दिया ,अब कौन हिसाब चुकाएगा...और इन्ही पक्तियों को इमरोज़ ने अपनी तुलिका से कैनवास पर उतार दिया .लेकिन जब अमृता जी के उम्र के कागज़ पर इमरोज़ के इश्क ने अंगूठा लगाया तो वहां कोई पटवारी मौजूद नहीं था .न कोई धार्मिक रस्म .न कोई क़ानूनी विधान ......न कोई समाज की रस्म ....सिर्फ गैर जिम्मे दार आदमी को मजहब ,कानून की जरुरत होती है ,जिम्मेदार आदमी इन दोनों से मुक्त होता है ....
पहले शादियाँ आदमी तय करते थे ,अब अखबार तय करते हैं ,तब आदमी से आदमी अधिक जुडा था ,आज इंसान अखबार से जुडा है ...आज आपसी रिश्तों में कमी आ गयी है ,एक दूसरे से कोई सरोकार नहीं रहा ,अखबार से सरोकार अधिक हो गया है ..ऐसी बात कहने वाले इमरोज़ समाज से गहरा सरोकार रखते हैं यही महसूस होता है ....
उन्होंने अपनी बात एक शेर के जरिये कही ...
या तो मौजों के सनाशां न बनो
या किनारों को बहा कर गुजरो ........
अरे ! किस्मत को कोई आवाज़ दो
करीब से गुजरती जा रही है ..........
यह गीत उन्होंने रेडियो के लिए दिवाली फीचर में लिखा था ,और लिखते समय सिर्फ इमरोज़ आँखों के सामने थे ,तब यह उम्मीद नहीं थी कि वह उन्हें मिल जायेंगे ,और उनके साथ उनके लिए खुदा के साथ रहने के बराबर था ...इमरोज़ की एक कलाकृति पर सफेद काले अंगूठे का एक चित्र है और उस अंगूठे की रेखाओं के नीचे अमृता का चित्र है ..ऐसा लगता है देखने में जैसे अमृता जी के चित्र पर इमरोज़ ने अंगूठा लगा दिया है .और उस पर यह पंक्तियाँ लिखी हुई है ..
रब बख्शे ,न बख्शे
उस दी रजा
असी यार नूं
सजदा कर बैठे ..
(रब माफ़ करे या न करे
उसकी मर्ज़ी
हम तो यार को
सजदा कर बैठे )
यह कृति अपने आप में पूरी कहानी समेटे है ,जब इमरोज़ अमृता की ज़िन्दगी में आये तो अमृता ने बहुत एहसास के साथ लिखा
उम्रा दे कागज़ उत्ते
इश्क तेरे अंगूठा लाया
कौन हिसाब चुकाएगा ....
पंजाबी में एक लोक गीत है ...
सद्द पटवारी नूं ज़िन्द माहिए दे नां लावा ....
(पटवारी को बुला लो .मैं अपनी जान तेरे नाम कर दूँ )
पुराने समय में पंजाब और सारे भारत में यही चलन था इसी के चलते सारी खरीद फरोख्त होती थी ,पटवारी की मौजदूगी में दोनों पक्षों के अंगूठे लगते थे ...
अमृता ने इमरोज़ के लिए लिखा उम्र के इस कागज पर तेरे इश्क ने अंगूठा लगा दिया ,अब कौन हिसाब चुकाएगा...और इन्ही पक्तियों को इमरोज़ ने अपनी तुलिका से कैनवास पर उतार दिया .लेकिन जब अमृता जी के उम्र के कागज़ पर इमरोज़ के इश्क ने अंगूठा लगाया तो वहां कोई पटवारी मौजूद नहीं था .न कोई धार्मिक रस्म .न कोई क़ानूनी विधान ......न कोई समाज की रस्म ....सिर्फ गैर जिम्मे दार आदमी को मजहब ,कानून की जरुरत होती है ,जिम्मेदार आदमी इन दोनों से मुक्त होता है ....
पहले शादियाँ आदमी तय करते थे ,अब अखबार तय करते हैं ,तब आदमी से आदमी अधिक जुडा था ,आज इंसान अखबार से जुडा है ...आज आपसी रिश्तों में कमी आ गयी है ,एक दूसरे से कोई सरोकार नहीं रहा ,अखबार से सरोकार अधिक हो गया है ..ऐसी बात कहने वाले इमरोज़ समाज से गहरा सरोकार रखते हैं यही महसूस होता है ....
उन्होंने अपनी बात एक शेर के जरिये कही ...
या तो मौजों के सनाशां न बनो
या किनारों को बहा कर गुजरो ........
12 comments:
प्रेम का अहसास करा गयी।
बहुत अच्छा लिखा है। उनके बारे में जितना लिखा जाए वो कम है, जितना पढ़ा जाए वो थोड़ा है
kuch bhi kehna sahbdon se pare hai..
पहले शादियाँ आदमी तय करते थे ,अब अखबार तय करते हैं
kya baat kahi imroz ne...
Amrita ji ki punjabi ki nazmo ka koi jod nahi......hamein hindi version jara bhi nahi bhate....Shukra hai aapne hamari request ek arse baad hi suni....atleast kuch to hai punjabi mein. Plzzzzzzzzzzzzzzzz complete nazm bhi post karein
काश उस पेंटिंग का फ़ोटो,उस नज्म की रेकोर्डिंग भी एड कर दी होती पोस्ट मे चार चाँद लग जाते पोस्ट पर.
एक तारतम्य जुड जाता इन् सब मे.मैं ही जोड़ लेती.
मुझे र्ब्ने भेजा एक खाली पेपर पर अंगूठे के निशाँ ले लिए मुझसे भी.पूछा क्या लिखा है इस पर मुझे दिख नही रहा.'
'उसने' कहा-'तू जा. इबारत तो मैं बाद मे लिखूंगा'
'पर...मैंने तुझ पर यकीन करके अपना अंगूठा लगा दिया.तूने बताना तक जरूरी नही समझा,धोखेबाज़!'
'वो'मुस्कराया.खाली कागज पर लिखा था 'प्यार' और 'परिवार'.
प्यार साथ लिए हूं मैं रंजू! परिवार???? ढूंढती फिरती हूं.और हर कहीं पाती हूं फिर कोई अपना.
ऐसिच हूं मै ,क्या करूँ.
शायद अमृता जैसा इन्सान सदियों बाद इस धरती पर आता है। पता नहीं दिल की किन गहराईयों तक उनमे प्रेम ही प्रेम था। बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट। बधाई
पूरी औरत थी...अमृता! जीना जानती थी......सांस लेना भी....
अच्छा लगा यह पढ़कर
अच्छा लगा यह पढ़कर
बहुत बढ़िया प्रस्तुति, इसके लिए बहुत बहुत आभार !
Amruta jee ke bare men jitana padhen utana hee aur achcha lagta hai. Painting ki copy laga detin to char chand aur lag jate is sunder post men.
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