Friday, July 4, 2008

तू ही मेरा सागर तू ही मेरा मल्लाह

अमृता जब इमरोज़ से मिली थी तो नही जानती थी कि यह सफर जिंदगी के आखिर तक चलेगा ..उनके खतों में उनके लिए तड़प और प्यार है वह उनके उन दिनों का है जब वह विदेश यात्रा या इमरोज़ से दूर थी पर क्या वह सच दूर हो कर भी दूर थी उनसे ..बकोल उनके ..वह लिखती है एक जगह शायद १९५८ की बात है वह दिल्ली के रेडियो स्टेशन में काम करती थी और वापसी में उन्हें दफ्तर की गाड़ी मिलती थी ..उस दिन पूरे चाँद की रात थी .और दफ्तर की गाड़ी अभी तक नही आई थी इमरोज़ उनसे मिलने वही दफ्तर आए हुए थे ..जब गाड़ी बहुत देर तक नही आई तो उन्होंने कहा कि चलो मैं तुम्हे घर छोड़ आता हूँ ...

वहां से जब वह चले तो पूरे चाँद की रात देख कर पैदल ही चल पड़े कोई स्कूटर या टैक्सी लेने का दिल नही हुआ पैदल वहां से पटेल नगर तब अमृता वहां रहा करती थी ..पहुँचते पहुँचते बहुत देर हो गई ..घर जा कर नौकर से कहा कि जो खाना बना है वह ले आओ दो थालियों में डाल कर और जब थाली आई तो उसमें बहुत छोटी छोटी दो तंदूर की लगी रोटियाँ थी अमृता को तब लगा कि इस एक रोटी से इमरोज़ का क्या होगा इस लिए उन्होंने आँख बचा कर अपनी थाली में से आधी रोटी इमरोज़ की थाली में डाल दी .बहुत बरसो बाद इमरोज़ ने कहीं इस घटना को लिखा आधी रोटी ..पूरा चाँद पर उस दिन वह कहती है कि हम दोनों में से किसी ने नही सोचा था कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब वह दोनों मिल कर कमाएंगे और आधा आधा बाँट लेंगे ...

अमृता के लिखे खतों में इमरोज़ के लिए जो प्यार छलकता है वह रूह को छू जाता है .कई बार पढ़ा है इनको और हर बार इनके अलग अलग अर्थ मिलते हैं ..बहुत ही साधारण लफ्जों में लिखे यह ख़त प्यार भी है मनुहार भी विरह की तड़प भी है इन में और रूठने कि अदा भी ...आईये फ़िर चलते हैं इस सफर पर जहाँ अमृता अपने खतो के जरिये इमरोज़ से दिल की बात बांटी है ..वह ख़त आज भी उतने ही हर किसी की रूह को छुते हैं जितने लिखतेवक्त अमृता और इमरोज़ की रूह को ....

५-२ - ६०

आज तुम्हारा ख़त नसीब हुआ है ..मैं जिंदगी की शुक्रगुजार हूँ जिसने मेरे खतों के जवाब मुझे ला कर दिए पर मेरे सारे ख़त तुम्हे क्यूँ नही मिले ? यह मेरा सातवाँ ख़त है तीन नेपाल जाने से पहले लिखे थे

एक तो उसी दिन लिखा था जिस दिन मैं अपन चैन नौ सौ मील दूर जा कर भेज आई थी २१ तारीख को और फ़िर रोज़ ख़त लिखती रही ..

कभी मेरे दिल के सारे उल्हाने के साथ लिखा था यह मेरा उम्र का ख़त व्यर्थ हो गया हमारे दिल ने महबूब का जो पता लिखा था वह हमारी किस्मत से पढ़ा नही गया पर आज जब वह पता हमारे सामने है इन डाक खाने वालों ने लगता है किस्मत से मिली भगत कर ली है इनसे भी पता नही पढ़ा जा रहा है ..

नेपाल में टैगोर का एक गीत सुना था

तू ही मेरा सागर तू ही मेरा मल्लाह
और मैं ही एक नाव हूँ तुम्हे किनारे लगाने के लिए क्यूँ कहूँ ?
डूब भी जाऊं तो तुझ में ही डुबुंगी
क्यूंकि तू मेरा सागर भी है ...

इस गीत ने बड़ा सहारा दिया ..

तुम्हारी आशी

9 comments:

श्रद्धा जैन said...

आपकी ही तरह मैं भी अमृता जी की दीवानी हो गयी हूँ, उनको पढ़ कर मन भावुक सा हो जाता है

सुशील छौक्कर said...

इनके खत भी रुहानी अंदाज लिऐ रहते थे।

कुश said...

एक और दिलकश पोस्ट.. शुक्रिया रंजू जी

अमिताभ मीत said...

क्या बात है रंजू जी, बहुत बढ़िया. बहुत अच्छी पोस्ट.

डॉ .अनुराग said...

कहते रहिये....इश्क की दास्तान कभी उबाती नही है....

mehek said...

adhi roti pura chand,tujh mein hi dubungi tuhi mera saagar,bahut bahut sundar bhav,aur aapne is lamhe ko ine khubsurati se likha hai ranju ji ke aapke hathon ko chum lene ka ji kiya aaj,maafi chahti hu is gustakhi ke liye,magar mohobbat ka itna sundar lamha ke ankohn ke samne jaise zinda ho aaj bhi.bahut badhai.

Manvinder said...

तू ही मेरा सागर तू ही मेरा मल्लाह
और मैं ही एक नाव हूँ तुम्हे किनारे लगाने के लिए क्यूँ कहूँ ?
डूब भी जाऊं तो तुझ में ही डुबुंगी
क्यूंकि तू मेरा सागर भी है ...
in pnaktiyon mai athaah prem or usme doob jaane ki athaah chahna hai jo her pyaar kerne waake ki hoti hai.
kuch jaadain taaja karane kai liye shukeriya
Manvinder

Anonymous said...

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Anonymous said...

Very nicce!