आज की बात अमृता के अपने लफ्जों में ..क्यूंकि मैं इसको पढ़ कर कितनी देर तक खामोश बैठी रह जाती हूँ ..कुछ कहने को बोलने को दिल नही चाहता है। बस यही ख्याल कि रब्बा यह इश्क कि कैसी इन्तहा है जो खुदा से मिला देती है ...।
कोरा कागज ..
पच्चीस और छब्बीस अक्तूबर की रात २ बजे जब फ़ोन आया कि साहिर नही रहे, तो पूरे बीस दिन पहले की वह रात, उस रात में मिल गई ,जब मैं बल्गारिया में थी ,डाक्टर ने कहा था कि दिल की तरफ़ मुझे खतरा है ,और उस रात मैने नज्म लिखी थी ,"'अज्ज आपणे दिल दरिया दे विच्च मैं आपणे फुल्ल प्रवाहे...."" अचानक मैं अपने हाथो की तरफ़ देखने लगी कि इन हाथों से मैंने अपने दिल के दरिया में अपनी हड्डियाँ प्रवाहित की थी , पर हड्डियां बदल कैसे गई ? यह भुलावा मौत को लग गया कि हाथो को ?
साथ ही वह समय सामने आ गया, जब दिल्ली में पहली एशियन राइटर्स कांफ्रेंस हुई थी, शायरों -आदीबों को उनके नाम के बैज मिले थे, जो सबने अपने कोटों में लगाए थे, और सहिर ने अपने कोट पर से अपना नाम का बैज उतार कर मेरे कोट पर लगा दिया था और मेरे कोट से मेरे नाम का बैज उतार कर अपने कोट पर लगा लिया था। उस समय किसी की नज़र पड़ी, उसने कहा था की हमने बैज ग़लत लगा रखे हैं, तो साहिर हंस पड़ा था कि बैज देने वाले से गलती हो गई होगी, पर इस गलती को हमें न दुरुस्त करना न हमने किया। ....अब बरसों बाद जब रात को दो बजे ख़बर सुनी कि साहिर नही रहे तो लगा जैसे मौत ने अपना फ़ैसला उसी बैज को पढ़ कर किया है, जो मेरे नाम का था, पर साहिर के कोट पर लगा हुआ था ...."'
मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी भी लफ्ज़ घायल नही हुए थे। यह खामोशी का हसीन रिश्ता था। मैंने जो नज्में लिखी तो उस मजमुए को जब अवार्ड मिला,एक रिपोटर ने मेरी तस्वीर लेते हुए चाहा कि मैं कुछ कागज़ पर लिख रही हूँ वैसे तस्वीर ले वह।|तस्वीर ले कर जब वह प्रेस वाले चले गए तो मैंने उस कागज को देखा कि मैंने उस पर बार बार एक ही लफ्ज़ लिखा था -साहिर ...साहिर ......साहिर। इस दीवानगी के आलम के बाद घबराहट हुई कि सवेरे जब यह तस्वीर अखबार में छपेगी, तो तस्वीर वाले कागज पर यह नाम पढ़ा जायेगा, तो न जाने कैसी कयामत आ जायेगी? ...पर कयामत नही आई तस्वीर छपी, पर वह कागज कोरा ही नजर आया वहां।
यह और बात है कि बाद में यह हसरत आई दिल में कि ओ ! खुदाया! जो कागज कोरा दिखायी दे रहा है , वह कोरा नही था.....
कोरे कागज की आबरू आज भी उसी तरह है |रसीदी टिकट में मेरे इश्क की दास्तान दर्ज़ है ,साहिर ने पढ़ी थी ,पर उसके बाद किसी मुलाक़ात में न रसीदी टिकट का जिक्र मेरी जुबान पर आया न साहिर कि जुबान पर।
याद है ,एक एक मुशायरे में साहिर से लोग आटोग्राफ ले रहे थे। लोग चले गए मैं अकेली उसके पास रह गई ,तो मैंने हंस कर उसके आगे अपनी हथेली कर दी थी ,कोरे कागज की तरह। और उसने मेरी हथेली पर अपना नाम लिख कर कहा था -यह कोरे चेक पर मेरे दस्तखत है ,जो रकम चाहे भर लेना और जब चाहे कैश करवा लेना। वह कागज चाहे मांस की हथेली थी, पर उसने कोरे कागज का नसीब पाया था ,इस लिए कोई भी हर्फ उस पर नही लिखे जा सकते थे ...
हर्फ आज भी मेरे पास कोई नही हैं। रसीदी टिकट में जो भी कुछ भी है ,और आज यह सतरें भी ,कोरे कागज की दास्तान है ...
इस दास्तान की इब्तदा भी खामोश थी ,और सारो उम्र उसकी इन्तहा भी खमोश रही |आज से चालीस बरस पहले लाहौर में जब साहिर मुझसे मिलने आता था ,बस आ कर चुपचाप सिगरेट पीता ,मेरा और उसके सिगरेट का धुंआ सिर्फ़ हवा में मिलता था ,साँस भी हवा में मिलते रहे और नज्मों के लफ्ज़ भी हवा में ...
सोच रही हूँ हवा कोई भी फासला तय कर सकती है ,वह आगे भी शहरों का फासला तय किया करती थी,अब इस दुनिया और उस दुनिया का फासला भी जरुर तय कर लेगी .....
२ नवम्बर १९८०
एक दर्द था --
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पीया है
सिर्फ़ कुछ नज्में हैं ---
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाडी है _।
कोरा कागज ..
पच्चीस और छब्बीस अक्तूबर की रात २ बजे जब फ़ोन आया कि साहिर नही रहे, तो पूरे बीस दिन पहले की वह रात, उस रात में मिल गई ,जब मैं बल्गारिया में थी ,डाक्टर ने कहा था कि दिल की तरफ़ मुझे खतरा है ,और उस रात मैने नज्म लिखी थी ,"'अज्ज आपणे दिल दरिया दे विच्च मैं आपणे फुल्ल प्रवाहे...."" अचानक मैं अपने हाथो की तरफ़ देखने लगी कि इन हाथों से मैंने अपने दिल के दरिया में अपनी हड्डियाँ प्रवाहित की थी , पर हड्डियां बदल कैसे गई ? यह भुलावा मौत को लग गया कि हाथो को ?
साथ ही वह समय सामने आ गया, जब दिल्ली में पहली एशियन राइटर्स कांफ्रेंस हुई थी, शायरों -आदीबों को उनके नाम के बैज मिले थे, जो सबने अपने कोटों में लगाए थे, और सहिर ने अपने कोट पर से अपना नाम का बैज उतार कर मेरे कोट पर लगा दिया था और मेरे कोट से मेरे नाम का बैज उतार कर अपने कोट पर लगा लिया था। उस समय किसी की नज़र पड़ी, उसने कहा था की हमने बैज ग़लत लगा रखे हैं, तो साहिर हंस पड़ा था कि बैज देने वाले से गलती हो गई होगी, पर इस गलती को हमें न दुरुस्त करना न हमने किया। ....अब बरसों बाद जब रात को दो बजे ख़बर सुनी कि साहिर नही रहे तो लगा जैसे मौत ने अपना फ़ैसला उसी बैज को पढ़ कर किया है, जो मेरे नाम का था, पर साहिर के कोट पर लगा हुआ था ...."'
मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी भी लफ्ज़ घायल नही हुए थे। यह खामोशी का हसीन रिश्ता था। मैंने जो नज्में लिखी तो उस मजमुए को जब अवार्ड मिला,एक रिपोटर ने मेरी तस्वीर लेते हुए चाहा कि मैं कुछ कागज़ पर लिख रही हूँ वैसे तस्वीर ले वह।|तस्वीर ले कर जब वह प्रेस वाले चले गए तो मैंने उस कागज को देखा कि मैंने उस पर बार बार एक ही लफ्ज़ लिखा था -साहिर ...साहिर ......साहिर। इस दीवानगी के आलम के बाद घबराहट हुई कि सवेरे जब यह तस्वीर अखबार में छपेगी, तो तस्वीर वाले कागज पर यह नाम पढ़ा जायेगा, तो न जाने कैसी कयामत आ जायेगी? ...पर कयामत नही आई तस्वीर छपी, पर वह कागज कोरा ही नजर आया वहां।
यह और बात है कि बाद में यह हसरत आई दिल में कि ओ ! खुदाया! जो कागज कोरा दिखायी दे रहा है , वह कोरा नही था.....
कोरे कागज की आबरू आज भी उसी तरह है |रसीदी टिकट में मेरे इश्क की दास्तान दर्ज़ है ,साहिर ने पढ़ी थी ,पर उसके बाद किसी मुलाक़ात में न रसीदी टिकट का जिक्र मेरी जुबान पर आया न साहिर कि जुबान पर।
याद है ,एक एक मुशायरे में साहिर से लोग आटोग्राफ ले रहे थे। लोग चले गए मैं अकेली उसके पास रह गई ,तो मैंने हंस कर उसके आगे अपनी हथेली कर दी थी ,कोरे कागज की तरह। और उसने मेरी हथेली पर अपना नाम लिख कर कहा था -यह कोरे चेक पर मेरे दस्तखत है ,जो रकम चाहे भर लेना और जब चाहे कैश करवा लेना। वह कागज चाहे मांस की हथेली थी, पर उसने कोरे कागज का नसीब पाया था ,इस लिए कोई भी हर्फ उस पर नही लिखे जा सकते थे ...
हर्फ आज भी मेरे पास कोई नही हैं। रसीदी टिकट में जो भी कुछ भी है ,और आज यह सतरें भी ,कोरे कागज की दास्तान है ...
इस दास्तान की इब्तदा भी खामोश थी ,और सारो उम्र उसकी इन्तहा भी खमोश रही |आज से चालीस बरस पहले लाहौर में जब साहिर मुझसे मिलने आता था ,बस आ कर चुपचाप सिगरेट पीता ,मेरा और उसके सिगरेट का धुंआ सिर्फ़ हवा में मिलता था ,साँस भी हवा में मिलते रहे और नज्मों के लफ्ज़ भी हवा में ...
सोच रही हूँ हवा कोई भी फासला तय कर सकती है ,वह आगे भी शहरों का फासला तय किया करती थी,अब इस दुनिया और उस दुनिया का फासला भी जरुर तय कर लेगी .....
२ नवम्बर १९८०
एक दर्द था --
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पीया है
सिर्फ़ कुछ नज्में हैं ---
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाडी है _।
21 comments:
एक दर्द था --
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पीया है
सिर्फ़ कुछ नज्में हैं ---
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाडी है _
bahut khoob..
रंजू जी 'एल दर्द था' को एक दर्द कर दीजिये...
"साँस भी हवा में मिलते रहे और नज्मों के लफ्ज़ भी हवा में "
दर्द को जलाकर झाडी गई नज़्म दिल को छू गई.
कर दिया है जी :)आपके कहने से पहले ही शुक्रिया :)
अम्रता जी को अभी तक नहीं पढ़ पाया हूँ लगता है पढ़ना ही पड़ेगा। यह विचार सिर्फ़ इस छोटे से संस्मरण को पढ़कर पैदा हुआ है।
Amrita ji ka lekh padhane ke liye aabhar.
एक दर्द था --
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पीया है
सिर्फ़ कुछ नज्में हैं ---
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाडी है _
je pyaara sa dard, je pyaara sa ahsaas..... pyaar karne waala hi jaan sakta hai.
Manvinder
रंजू दी
क्या कमाल के लोग थे.
लगता है ज़िन्दगी का असली रस तो इन्हीं
लोगों ने चखा. संचार के कितने कम थे उन दिनों पर फ़िर भी अपने संबधों को कितनी शिद्दत से जिया अमृताजी ने.
अमृताजी के मुरीदों के लिये आपका ब्लॉग सहरा में मीठे पानी के चश्मे जैसा है.
रंजू जी , अमृता प्रीतम के प्रति आपके लगाव को नमन् करता हूं।
अमृता वो नाम हैं जिन्हें शायद बारह बरस की उम्र से पढ़ना मैने शुरु कर दिया था। वजह एक तो उनकी खूबसूरती दूसरे अपने आसपास के बड़े लोगों को मैंने अमृताजी की लेखनी का शैदाई पाया , सोचता था ऐसा क्या है इनके लिखे में ?
धीरे - धीरे मैने भी इन्हें पूरा पढ़ डाला । कुछ समझा , कुछ नहीं । उम्र का तकाज़ा था। किसी भी संदर्भ के टकराने पर दिमाग में कौंध उठती है और अमृता प्रीतम याद आ जाती हैं।
कमोबेश यही हाल मंटो, साहिर,बेदी, कृशनचंदर जैसे लेखकों के साथ भी रहा। इनका चस्का भी उसी उम्र में लग गया था । आज तक समझ में आ रहे हैं ?
शुक्रिया....एक यादगार संस्मरण पढ़वाने का । अगली मेल का इंतजार है।
अजीत जी की बात का समर्थन करते हुए मैं भी ये कहूँगा की ये साहित्यकार लगता है इस दुनिया के नहीं थे.....ऐसे संवेदनाएं प्रेम त्याग अब कहाँ दिखाई देता है...अगर है भी तो उसे इस शिद्दत के साथ बताने वाली कलम किसी के पास नहीं है...रसीदी टिकट जितनी बार पढो नयी लगती है. अमृता जी को 1969 या शायद उस से पहले से पढ़ रहा हूँ और अभी तक पढता हूँ. उनकी कोई भी कृति अभी तक पुरानी नहीं हुई है.
नीरज
amritaa ka likha padhnaa nahi padtaa....padhtey padhtey jeena pad jata hai
Vaah!! Bahut aabhar is prastuti ka.
खामोशी के रिश्ते
और
कोरे कागज़ की आबरू की तरह
साफ़....सुंदर पोस्ट.
बधाई
===============
डा.चन्द्रकुमार जैन
अमृता जी प्रीतम के प्रति आपका स्नेह को प्रणाम.....
प्यारा सा दर्द, प्यारा सा अहसास.....
प्रेम करने वाला ही जान सकता है....
यही ख्याल कि रब्बा यह इश्क ...........
"एक दर्द था कोरा कागज".... पढ़वाने का शुक्रिया.............
आदर और सम्मान सहित ...
जुगल गौड़
अमृता की आँखों में साहिर को देख लिया ....
बस खामोश हूँ ओर पढ़ रहा हूँ...
Aapki badaulat Amritaji ko thoda aur jan rahe hain. shukriya ! Sorry main jahan hoon is apple par mera unicode nahi dala hai. isiliye roman hindi.
कया बात हे, धन्यवाद
bahut kuhb ranjna ji
एक दर्द था --
जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पीया है
सिर्फ़ कुछ नज्में हैं ---
जो सिगरेट से मैंने
राख की तरह झाडी है _।
Aisi yade sdew jivit rhti h hmme
Aisi yade sdew jivit rhti h hmme
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