अमृता के लिए इमरोज़ ने लिखा है ..
ओ कविता ज्युंदी है,
ते ज़िंदगी लिखदी है..
ते नदी वांग चुपचाप वसदी
सारे पासियां नूं जरखेजी वंडदी
जा रही है सागर वल
सागर होण....
[हिन्दी में ]
वह कविता जीती
और ज़िंदगी लिखती
और नदी सी चुपचाप बहती
ज़रखेजी बाँटती
जा रही है सागर की ओर
सागर बनने !!
अमृता जी अपने आखिरी दिनों में बहुत बीमार थी | जब इमरोज़ जी से पूछा जाता कि आपको जुदाई कीहुक नही उठती ? वह आपकी ज़िंदगी है ,आप उनके बिना क्या करोगे ? वह मुस्करा के बोले जुदाई कीहुक ? कौन सी जुदाई? कहाँ जायेगी अमृता ? इसे यहीं रहना है मेरे पास ,मेरे इर्द गिर्द ..हमेशा | हमचालीस साल से एक साथ हैं हमे कौन जुदा कर सकता है ? मौत भी नही | मेरे पास पिछले चालीस सालोंकी यादे हैं, .शायद पिछले जन्म की भी ,जो मुझे याद नहीं ,इसे मुझ से कौन छीन सकता है ...|
और यह बात सिर्फ़ किताबों पढी नही है , जब मैं इमरोज़ जी से मिलने उनके घर गई थी तब भी यह बातशिद्दत से महसूस की थी कि वह अमृता से कहीं जुदा नही है ...वह आज भी उनके साथ हर पल है ..उस घरमें वैसे ही रची बसी ..उनके साथ बतयाती और कविता लिखती ..|""
एक बार उनसे किसी ने पूछा की मर्द और औरत् के बीच का रिश्ता इतना उलझा हुआ क्यों है ? तब उन्होंनेजवाब दिया क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही !"" इमरोज़ पंजाब के गांव मेंपले बढे थे वह कहते हैं कि प्यार महबूबा की जमीन में जड़ पकड़ने का नाम है और वहीं फलने फूलने कानाम है |""जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारा अहम् मर जाता है ,फ़िर वह हमारे और हमारे प्यारके बीच में नही आ सकता .|..उन्होंने कहा कि जिस दिन से मैं अमृता से मिला हूँ हूँ मेरे भीतर का गुस्साएक दम से शान्त हो गया है |मैं नही जानता यह कैसे हुआ .|शायद प्यार की प्रबल भावना इतनी होती हैकि वह हमे भीतर तक इतना भर देती है कि हम गुस्सा नफरत आदि सब भूल जाते हैं .| हम तब किसी केसाथ बुरा व्यवहार नही कर पाते क्यूंकि बुराई ख़ुद हमारे अन्दर बचती ही नही ...| "'
महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता ,और न ही भगवान श्री कृष्ण के आगे सिरझुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता है | केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं | हमेअपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरतशैतानियत कहाँ रह जाती है ?""
यह था प्यार को जीने वाले का एक और अंदाज़ ...जो ख़ुद में लाजवाब है ..
उनका एक ख़त .जो २६ -४ ६० को इमरोज़ को लिखा गया ..
. मेरे अच्छे जीती !
आज मेरे कहने से ,अभी ,अपने सोने के कमरे में जाना .रेडियोग्राम चलाना .और बर्मन की आवाज़ सुनना -- सुन मेरे बन्धु रे ! सुन मेरे मितवा ! सुन मेरे साथी रे !"और मुझे बताना कि वह लोग कैसे होते हैं .जिन्हें कोई इस तरह आवाज़ देता है |""मैं सारी उम्र कल्पना के गीत लिखती रही .पर यह मैं जानती हूँ ---मैं वह नही हूँ .जिसे कोई इस तरह आवाज़ दे |और यह भी जानती हूँ .तुम वह हो जिसे मैं आवाज़ दे रही हूँ |और यह भी जानती हूँ .मेरी इस आवाज़ का कोई जवाब नही आएगा |
कल एक सपने जैसी तुम्हारी चिट्ठी आई थी ,पर मुझे तुम्हारे मन की कानिफ्ल्क्ट का भी पता है | यूँ तो मैं तुम्हारा अपना चुनाव हूँ .फ़िर भी मेरी उम्र .मेरे बंधन .तुम्हारे कानिफ्लिक्ट हैं | तुम्हारा मुहं देखा ., बोल सुने तो मेरी भटकन ख़त्म हो गई |पर आज तुम्हारा मुहं इनकारी है |क्या इस धरती पर मुझे अभी और जीना है ,जहाँ मेरे लिए तुम्हारे सपनों ने दरवाज़ा भेड़ लिया है ?
तुम्हारे पैरों की आहट सुन कर मैंने जिंदगी से कहा था --अभी दरवाज़ा बंद मत करो हयात !रेगिस्तान से किसी के क़दमों की आहट की आवाज़ आरही है |" पर आज तुम्हारे पैरों की न आहट न आवाज़ सुनाई दे रही है | अब जिंदगी को क्या कहूँ ? क्या यह कहूँ कि अब सारे दरवाज़े बंद कर ले ...?
कई बरसो के बाद
अचानक एक मुलाकात ,
हम दोनों के प्राण
एक नज्म की तरह कांपे..
सामने एक पूरी रात थी ..
पर आधी नज्म
एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज्म
एक कोने में बैठी रही ....
फ़िर सुबह सुबह --
हम कागज के फटे हुए
टुकडों कि तरह मिले
मैंने अपने हाथ में
उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाहँ में
मेरी बाहँ डाली ..
और हम दोनों
एक सेंसर की तरह हँसे
और कागज को
एक ठंडी मेज पर रख कर
उस सारी नज्म पर
लकीर फेर दी.......
ओ कविता ज्युंदी है,
ते ज़िंदगी लिखदी है..
ते नदी वांग चुपचाप वसदी
सारे पासियां नूं जरखेजी वंडदी
जा रही है सागर वल
सागर होण....
[हिन्दी में ]
वह कविता जीती
और ज़िंदगी लिखती
और नदी सी चुपचाप बहती
ज़रखेजी बाँटती
जा रही है सागर की ओर
सागर बनने !!
अमृता जी अपने आखिरी दिनों में बहुत बीमार थी | जब इमरोज़ जी से पूछा जाता कि आपको जुदाई कीहुक नही उठती ? वह आपकी ज़िंदगी है ,आप उनके बिना क्या करोगे ? वह मुस्करा के बोले जुदाई कीहुक ? कौन सी जुदाई? कहाँ जायेगी अमृता ? इसे यहीं रहना है मेरे पास ,मेरे इर्द गिर्द ..हमेशा | हमचालीस साल से एक साथ हैं हमे कौन जुदा कर सकता है ? मौत भी नही | मेरे पास पिछले चालीस सालोंकी यादे हैं, .शायद पिछले जन्म की भी ,जो मुझे याद नहीं ,इसे मुझ से कौन छीन सकता है ...|
और यह बात सिर्फ़ किताबों पढी नही है , जब मैं इमरोज़ जी से मिलने उनके घर गई थी तब भी यह बातशिद्दत से महसूस की थी कि वह अमृता से कहीं जुदा नही है ...वह आज भी उनके साथ हर पल है ..उस घरमें वैसे ही रची बसी ..उनके साथ बतयाती और कविता लिखती ..|""
एक बार उनसे किसी ने पूछा की मर्द और औरत् के बीच का रिश्ता इतना उलझा हुआ क्यों है ? तब उन्होंनेजवाब दिया क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही !"" इमरोज़ पंजाब के गांव मेंपले बढे थे वह कहते हैं कि प्यार महबूबा की जमीन में जड़ पकड़ने का नाम है और वहीं फलने फूलने कानाम है |""जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारा अहम् मर जाता है ,फ़िर वह हमारे और हमारे प्यारके बीच में नही आ सकता .|..उन्होंने कहा कि जिस दिन से मैं अमृता से मिला हूँ हूँ मेरे भीतर का गुस्साएक दम से शान्त हो गया है |मैं नही जानता यह कैसे हुआ .|शायद प्यार की प्रबल भावना इतनी होती हैकि वह हमे भीतर तक इतना भर देती है कि हम गुस्सा नफरत आदि सब भूल जाते हैं .| हम तब किसी केसाथ बुरा व्यवहार नही कर पाते क्यूंकि बुराई ख़ुद हमारे अन्दर बचती ही नही ...| "'
महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता ,और न ही भगवान श्री कृष्ण के आगे सिरझुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता है | केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं | हमेअपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरतशैतानियत कहाँ रह जाती है ?""
यह था प्यार को जीने वाले का एक और अंदाज़ ...जो ख़ुद में लाजवाब है ..
उनका एक ख़त .जो २६ -४ ६० को इमरोज़ को लिखा गया ..
. मेरे अच्छे जीती !
आज मेरे कहने से ,अभी ,अपने सोने के कमरे में जाना .रेडियोग्राम चलाना .और बर्मन की आवाज़ सुनना -- सुन मेरे बन्धु रे ! सुन मेरे मितवा ! सुन मेरे साथी रे !"और मुझे बताना कि वह लोग कैसे होते हैं .जिन्हें कोई इस तरह आवाज़ देता है |""मैं सारी उम्र कल्पना के गीत लिखती रही .पर यह मैं जानती हूँ ---मैं वह नही हूँ .जिसे कोई इस तरह आवाज़ दे |और यह भी जानती हूँ .तुम वह हो जिसे मैं आवाज़ दे रही हूँ |और यह भी जानती हूँ .मेरी इस आवाज़ का कोई जवाब नही आएगा |
कल एक सपने जैसी तुम्हारी चिट्ठी आई थी ,पर मुझे तुम्हारे मन की कानिफ्ल्क्ट का भी पता है | यूँ तो मैं तुम्हारा अपना चुनाव हूँ .फ़िर भी मेरी उम्र .मेरे बंधन .तुम्हारे कानिफ्लिक्ट हैं | तुम्हारा मुहं देखा ., बोल सुने तो मेरी भटकन ख़त्म हो गई |पर आज तुम्हारा मुहं इनकारी है |क्या इस धरती पर मुझे अभी और जीना है ,जहाँ मेरे लिए तुम्हारे सपनों ने दरवाज़ा भेड़ लिया है ?
तुम्हारे पैरों की आहट सुन कर मैंने जिंदगी से कहा था --अभी दरवाज़ा बंद मत करो हयात !रेगिस्तान से किसी के क़दमों की आहट की आवाज़ आरही है |" पर आज तुम्हारे पैरों की न आहट न आवाज़ सुनाई दे रही है | अब जिंदगी को क्या कहूँ ? क्या यह कहूँ कि अब सारे दरवाज़े बंद कर ले ...?
कई बरसो के बाद
अचानक एक मुलाकात ,
हम दोनों के प्राण
एक नज्म की तरह कांपे..
सामने एक पूरी रात थी ..
पर आधी नज्म
एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज्म
एक कोने में बैठी रही ....
फ़िर सुबह सुबह --
हम कागज के फटे हुए
टुकडों कि तरह मिले
मैंने अपने हाथ में
उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाहँ में
मेरी बाहँ डाली ..
और हम दोनों
एक सेंसर की तरह हँसे
और कागज को
एक ठंडी मेज पर रख कर
उस सारी नज्म पर
लकीर फेर दी.......
14 comments:
वाह सचमुच आप अमृता को जीती हैं पल पल और इमरोज़ अमृता का प्रेम आपके भीतर के कोमल भावों को निरंतर हवा देता रहता है, यह मैं नही कहता आपके लेखों में झलकता है
सच कहु रंजना जी .. आप एक नायाब काम कर रही है.. इस ब्लॉग पे आना वाकई सुखद अनुभव होता है
"मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही"
वाह..वा...कमाल की बात कही इमरोज़ जी ने...इस से पहले ना कहीं पढ़ी ना सुनी...शुक्रिया आप का इस संस्मरण और ख़त के लिए. ऐसे लोग अब शायद कहानियो में मिलें तो मिलें हकीकत में मिलने मुश्किल लगते हैं...असंभव नहीं.
नीरज
शत प्रतिशत सच है कि यहाँ आकर एक अलग ही एहसास होता है... प्रेम की अदभुत अनुभूति का अलौकिक आनन्द ....
इमरोज में अहम् नही था इसलिए ये रिश्ता चला ....वरना औरत ज्यादा कामयाब ओर शोहरत हासिल करे मर्द को आसानी से नही पचता....
बहुत खूब। सजीव की राय से सहमत।
कृपया जारखेजी को ज़रखेजी कर लीजिए...
कई बरसो के बाद
अचानक एक मुलाकात ,
हम दोनों के प्राण
एक नज्म की तरह कांपे..
je bhaw kewal Amrita or Emroj ke hi ho sakte hai
bahut khoob
महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता ,और न ही भगवान श्री कृष्ण के आगे सिरझुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता है | केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं | हमेअपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरतशैतानियत कहाँ रह जाती है ?""
अलौकिक प्रेम के साथ ही ये बातें भी बहुत अच्छी लगी !
हालांकि काफी पढा है अमृता जी को. मगर जब जब भी पढता हूँ, वही आनन्द आता है.बहुत आभार.
रंजू जी मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या कहूं? बस इतना कहूंगा कि जब मैं आपके ब्लाग पर आता हूं, तो मैं, मैं नहीं रहता। ऐसा लगता है जैसे मक्कियों परे उजाड़ ही है। मतलब इससे बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता।
आभार आपका
मर्द और औरत् के बीच ......... क्यों है ?
क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ.. ..जागना नही !
""जब हम किसी से प्यार करते ........नही आ सकता .|
मै इन दोनो बातों को शुरु से ही मानता था। जब अमृता जी को पढा तो ये पक्का हो गया। मैने ये भी पढा था कि जब अमृता जी राज्यसभा की मेम्बर थी तो इमरोज जी उन्हें छोडने जाते थे गाडी से। और इमरोज जी वही रहते थे। जब अमृता जी गेट पर आती थी तो लाऊडस्पीकर से आवाज आती थी कि अमृता जी का ड्राईवर गाडी ले आऐ गेट पर। और इमरोज जी गाडी ले जाते थे गेट पर। उनका अहम ने आवाज नही की। यही तो है उनका सच्चा प्यार। मै अपने आपको किस्मत वाला मानता हूँ कि मै ऐसे प्यार करने वालों से मिला।
बहुत भाव पूर्ण
नज़्म जैसी नाज़ुक प्रस्तुति.
=======================
शुक्रिया
डा.चन्द्रकुमार जैन
iss blog par aane ki maine sochi bhi nahi thi...main to bas wikkipeadia me 'emroj sir' ke naam ka arth (meaning) khozne ki koshish kar raha tha....par yahan likhe emroj sir ke vichaar parh ke lagta hai...shayad unhe wikkipeadea jaise koshon me badhana mushkil kaam hai...iss blog par aakar aisa laga jaise pritam jee or emroj sir se shakshatkaar ho gaya....:-),-- santosh
मै जब भी इमरोज-अमृता के एक-दूसरेको लिखे ख़त पढ़ती हूँ …. न जाने क्यों …. एक अजीबसा सुकून मिलता है मुझे !! आज भी ये ब्लॉग पढ़कर अपने इर्दगिर्द एक जानी-अनजानी खुशबु का अहेसास हुवा!! धन्यवाद !!! ...... - सुचित्रा
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