-साहिर से अमृता का जुडाव किसी से छिपा नही है |उन्होंने कभी किसी बात को लिखने में कोई बईमानी नही कि इस लिए यह दिल को छू जाता है और हर किसी को अपनी जिन्दगी से जुडा सच लगता है | अपनी लिखी आत्मकथा रसीदी टिकट में उन्होंने एक वाकया तब का ब्यान किया है जब उनका पहला बेटा नवरोज़ होने वाला था |
उन्ही के शब्दों में ,जिंदगी में एक समय ऐसा भी आया ,जब अपने हर ख्याल पर मैंने अपनी कल्पना का जादू चढ़ते हुए देखा है ..
जादू शब्द केवल बचपन कि सुनी हुई कहनियों में कभी पड़ा था .पर देखा - एक दिन अचानक वह मेरी कोख में आ गया था .और मेरे ही शरीर के मांस की ओट में पलने लगा था |
यह उन दिनों की बात है ,जब मेरा बेटा मेरे की आस बना था १९४६ के अन्तिम दिनों की बात |
अखबारों और किताबों में अनेक ऐसी घटनाएं पढ़ी हुई थीं - की होने वाली माँ कमरे में जिस तरह की तस्वीरे हो या जैसे रूप की वह मन में कल्पना करती हो,बच्चे की सूरत वैसी ही हो जाती है ..और मेरी कल्पना जैसे दुनिया से छिप कर धीरे से मेरे कान में कहा -अगर में साहिर के चेहरे का हर समय ध्यान करूँ .तो मेरे बच्चे की सूरत उस से मिल जायेगी ..."
जो जिंदगी में नही पाया था ,जानती हूँ यह उस पा लेने का एक चमत्कार जैसा यत्न था ..ईश्वर की तरह सृष्टि रचने का यत्न ..शरीर का स्वंतंत्र कर्म .केवल संस्कारों से स्वंतंत्र नहीं .लहू मांस की हकीकत से भी स्वंतत्र ...
दीवानगी के इस आलम में जब ३ जुलाई १९४७ को बच्चे का जन्म हुआ ,पहली बार उसका मुहं देखा ,अपने ईश्वर होने का यकीन हो गया ,और बच्चे के पनपते हुए मुहं के साथ यह कल्पना भी पनपती रही की उसकी सूरत सचमुच साहिर से मिलती है ..
खैर ,दीवाने पन एक अन्तिम शिखर पर पैर रख कर खड़े नही रहा जा सकता है ,पैरों पर बैठने के लिए धरती का टुकडा चाहिए .इस लिए आने वालों वर्षों में इस का एक परी कथा की तरह करने लगी ..
एक बार मैंने यह बात साहिर को भी सुनाई थी अपने आप हँसते हुए |उसकी और प्रतिकिर्या का पता नही ,केवल इतना पता है की वह सुन कर हंसने लगा और सिर्फ़ इतना कहा ..वैरी पुअर टेस्ट !"
साहिर को जिंदगी का एक सबसे बड़ा काम्प्लेक्स है कि वह सुंदर नहीं है इसी कारण उसने पुअर टेस्ट की बात की |
इस से पहले भी एक बात हुई थी |एक दिन उसने मेरी लड़की को गोद में बैठा कर कहा था -- तुम्हे एक कहानी सुनाऊं ?" और उसने कहानी सुनाई एक लकडहारा था | वह दिन रात जंगलों में लकड़ी काटता था | फ़िर एक दिन उसने जंगल में एक राजकुमारी को देखा ,बड़ी सुंदर | लकड़हारे का जी किया कि वह उस राजकुमारी को ले कर भाग जाए .."
फ़िर ? मेरी लड़की कहानी सुनते सुनते हुंकारा भर रही थी .और मैं केवल हंस रही थी, कहानी में दखल नहीं दे रही थी |
और वह सुना था --पर वह तो लकड़हारा था न वह राजकुमारी को सिर्फ़ देख सकता था दूर से और वह देखता रहा उसको दूर से सच्ची कहानी है न ?
'हाँ '
'मैंने भी देखा था न जाने बच्ची ने क्यूँ कहा |
साहिर हँसते हुए मेरी तरफ़ देखने लगा -देख लो यह भी जानती है और बच्ची से उसने पूछा तुम वहीँ थी न जंगल में ?
बच्ची ने सिर हिला कर 'हाँ '
अच्छा तो फ़िर तो तुमने उस लकड़हारे को भी देखा होगा ? कौन था वह
बच्ची के ऊपर उस घड़ी कोई देव वाणी उतरी हुई थी शायद .बोली 'आप ..'!!
साहिर ने फ़िर पूछा कि -'और वह राजकुमारी कौन थी ?'
'मामा !' कह कर वह हंसने लगी
साहिर मुझे बोला कि ''देखा भी सब कुछ जानते हैं "|
फ़िर इस बात को कई साल बीत गए |१९60 में जब मैं बम्बई आई तो उन दिनों राजेंदर सिंह बेदी बड़े मेहरबान दोस्त थे |अकसर मिलते थे | एक शाम बैठे बातें कर रहे थे कि अचानक उन्होंने पूछा प्रकाश पंडित के मुहं से एक बात सुनी थी कि '' नवराज साहिर का बेटा है ..."'
उस शाम मैंने बेदी साहब को अपनी दीवानगी की कहानी सुनाई थी और कहा यह कल्पना का सच है .हकीकत का नही |"
उन्ही दिनों एक दिन नवरोज़ ने भी पूछा था जब उसकी उम्र कोई तेरह साल की होगी की मामा एक बात पूछूँ ,सच सच बताओगी ?
हाँ
क्या मैं साहिर अंकल का बेटा हूँ ?
नहीं
पर अगर हूँ तो बता दो सच | मुझे साहिर अंकल बहुत अच्छे लगते हैं "'
हाँ बेटे अच्छे तो मुझे भी लगते हैं ,पर अगर यह सच होता तो मैंने तुम्हे जरुर बता दिया होता
सच का अपना एक बल होता है बच्चे को यकीन आ गया
सोचती हूँ कल्पना का सच छोटा नही था ,पर केवल मेरे लिए था इतना की वह सच साहिर के लिए नही"|
कल्पना की दुनिया सिर्फ़ उसी की होती है .जो इसे सिरजता है ,और जहाँ इसे सिरजने वाला ईश्वर भी अकेला होता है |
आख़िर यह तन मिटटी का बना है .उस मिटटी का इतिहास मेरे लहू की हरकत में है -सृष्टि .. की रचना के समय जो आग का एक गोला हजारों वर्ष जल में तैरता रहा था .उसमें हर गुनाह को भस्म करके जो जीव निकला .वह अकेला था | उस में न अकेलेपन का भय था .न अकेलेपन की खुशी |फ़िर उसने अपने ही शरीर को चीर कर .आधे को पुरूष बना दिया ,आधे को स्त्री और इसी में से उसने सृष्टि को रचा ...
संसार का यह आदि कर्म मात्र मिथ नही है ,न केवल अतीत का इतिहास |यह हर समय का इतिहास है |चाहे छोटे छोटे मनुष्यों का छोटा छोटा इतिहास ..और यह मेरा भी है ..
मैं --एक निराकार मैं थी
यह मैं का संकल्प था
जो पानी का रूप बना
और यह तू का संकल्प था
जो आग की तरह नुमायाँ हुआ
और आग का जलवा
पानी पर चलने लगा
पर वह
पुरा -एतिहासिक समय की बात है ....
यह मैं की मिटटी की प्यास थी
कि उसने तू का दरिया पी लिया
यह मैं की मिटटी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
या मैं की माटी की गंध थी
और तू के अम्बर का इश्क था
कि तू नीला सा सपना
मिटटी की सेज पर सोया |
और यह तेरे मेरे मांस की सुंगंध थी ...
और यही हकीकत की आदि रचना थी
संसार की रचना
तो बहुत बाद की बात है !!
15 comments:
प्रेम अलौकिक भी होता है और सब बंधनों से मुक्त भी... हम तो इतना ही समझ पाये, इस मामले में थोड़ा कच्चा हूँ !
आह! किन शब्दो में आपका आभार व्यक्त करू रंजू जी..
अगर एक लकडहारे की कहानी अधूरी ना होती
तब एक पेंटर की कहानी कैसे पूरी होती
और हमें सच्चे प्यार की तस्वीरे कहाँ मिली होती।
यहाँ आकर फिर से वो दिन याद आ जाते जब मै ये तस्वीरे किताबों में पढा करता था।
बहुत सुन्दर आलोकिक प्रेम की तस्वीर प्रेषित की है।
सही है और ऐसा सुना भी जाता है कि माँ के गर्भ में पल रहे बच्चे की शक्ल उसी से मिलती जुलती होती है जिसे माँ चाहती है तो भला इतनी बड़ी लेखिका इस धागे को छोड़ कैसे सकती थी पिरो दिया.....
रसीदी टिकट के प्रसंग जितनी बार पढो हर बार नया आनंद देते हैं...कभी बासी होते ही नहीं...सच्चे प्यार की तरह.
नीरज
कभी कभी सोचता हूँ इन दीवानों की भी एक अलग कौम होती है .....उनका दीवानापन ओर उसके बाद इतनी संजीदगी से उसे बताना ...साहिर भी ओर थे ,अमृता भी .....सबसे बड़ी बात जो खुशवंत सिंह सच बयान करते है वो चुभता है कभी कभी खटकता है ....अमृता खामोश कर देती है ओर हैरान भी ...पर कभी चुभती नही.
एक बेखुदी सी होती अहि अमृता जी के कहने में,प्यार की जिस खूबसूरती को वो बयां करती हैं उस में पहले यकीन नही था मुझे लेकिन जिंदगी ने एक बार उसका यकीन करने पर मजबूर कर दिया,वैसे सच कहूँ तो साहिर थे ही ऐसे की कोई भी उनसे मुहब्बत कर बैठता...उनकी शायरी मावराई थी...इस दुनिया की होते हुए आसमानों जैसी...बहुत खूब
rasidi tiket ko fir sai padana achha lag raha hai. anurag ji ne khushwant singh ka jiker kiya hai. infecet ....tulna ki hai......kabhi Amrita ne apni jeewani likene ka jiker kiya to khushwant singh ne kaha thaa, amrita ki jindagi ek rasidi teket per likhi ja sakti hai....amrita ne jeewni ka naam hi rasidi tiket rakh diya.....
rahi baat in dono ke lekhan ki ....
dono mai koi mail hi nahi hai....Amrita di duniya or hai...
khusgwant singh ki dunuya dusri hai...
Manvinder
रसीदी टिकट पढ़ी थी..मगर यह अंश इकलौते में पढ़ने पर इस तरह डूबो ले जायेगा, यह अंदाजा नहीं था...गज़ब!! बहुत आभार.
waah chun kar ansh pesh kiya hai aapne...kamaal
रंजू जी पहले की तरह ही आपका आभार पोस्ट पढ़वाने के लिए। अमृता जी को तक़रीबन-2 पढ़ा हुआ है, लेकिन हर बार ऐसा लगता है,जैसे पहले कभी नहीं पढ़ा। क्योंकि उन्होंने जो भी लिखा है रूह से लिखा है। आपकी इस पोस्ट की नज़र एक शेर
इश्क़ जिनां दे हड्डीं रचिया
ओनां तांघ सज्जन दी रहिंदी
खुले रहन नैणां दे बूहे
लोको इक पल नींद न पैंदी
Thanks for stopping by my blog. I hope you don't me writing in english as I haven't figured out how to write in hindi using the blogger.
I have only read just a couple of stories of Amrita Pritam - she is amazing, decades ahead of her times.
Great blog!
मुझमें तो 60 साल बाद भी इतनी हिम्मत नहीं कि अपने बच्चे को किसी और की शक्ल का सोच सकूँ। आजकल खतरा बढ़ गया है जी। दैवीय रहा होगा अमृता जी का प्रेम… यह साध पाना तो बड़ा मुश्किल है।
इन संस्मरणों को हम तक पहुँचाने की आपकी मेहनत निश्चय ही प्रशंसनीय है।
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