अमृता जी की रसीदी टिकट का एक छोटा सा अंश जिसमें उन्होंने अपने जीवन के सोलहवें साल के आगमन और कविताएं लिखने की शुरुआत का जिक्र अपने खास अंदाज में किया है:
घर में पिताजी के सिवाय कोई नहीं था- वे भी लेखक जो सारी रात जागते थे, लिखते थे और सारे दिन सोते थे। माँ जीवित होतीं तो शायद सोलहवाँ साल और तरह से आता- परिचितों की तरह, सहेलियों की तरह। पर माँ की गैर हाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैर हाजिरी हो गया था। आसपास के अच्छे-बुरे प्रभावों से बचाने के लिए पिता को इसमें ही सुरक्षा समझ में आई थी कि मेरा कोई परिचित न हो, न स्कूल की कोई लड़की, न पड़ोस का कोई लड़का।
सोलहवाँ बरस भी इसी गिनती में शामिल था और मेरा ख्याल है, इसीलिए वह सीधी तरह का घर का दरवाजा खटखटाकर नहीं आया था, चोरों की तरह आया था।
आगे देखिये
कहते हैं ऋषियों की समाधि भंग करने के लिए जो अप्सराएँ आती थीं, उनमें राजा इंद्र की साजिश होती थी। मेरा सोलहवाँ साल भी अवश्य ही ईश्वर की साजिश रहा होगा, क्योंकि इसने मेरे बचपन की समाधि तोड़ दी थी। मैं कविताएँ लिखने लगी थी और हर कविता मुझे वर्जित इच्छा की तरह लगती थी। किसी ऋषि की समाधि टूट जाए तो भटकने का शाप उसके पीछे पड़ जाता है- ‘सोचों’ का शाप मेरे पीछे पड़ गया…
8 comments:
निराली बातें अमृताजी की।
उनका लेखन अपने समय से कहीं आगे था।
जी हाँ रसीदी टिकट पढ़ा है....अमृता अलग ही थी....
सोलहवा साल तो होता ही ऐसा है... और फिर अमृता का तो ख़ास होना ही था.
माँ की गैर हाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैर हाजिरी हो गया था।
कितनी खूबसूरत बात है.. और कितनी बार शुक्रिया अदा करू आपका रंजू जी
अच्छ लिखा है।
kabhi kabhi lagta hai...itni nirbhiik..ek ladki..vo bhi us waqton me?
पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
माँ की गैर हाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैर हाजिरी हो गया था।
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इस एक वाक्य में
कितनी महिमा !...कैसा वैभव है !!
....और बचपन की समाधि
...सोचों का शाप !!!
क्या कहूँ...पूरा अंश सुभाषित है.
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बधाई और शुक्रिया
इस सुंदर चयन और
प्रस्तुति के लिए.
डा.चन्द्रकुमार जैन
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