बरसों की राहें चीरकर
तेरा स्वर आया है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाया है ...
मेरे मजहब ! मेरे ईमान !
तुम्हारे चेहरे का ध्यान कर के मजहब जैसा सदियों पुराना शब्द भी ताजा लगता है |और तुम्हारे ख़त ? लगता है जहाँ गीता ,कुरान , ग्रन्थ और बाइबिल आ कर रुक जाते हैं ,उसके आगे तुम्हारे ख़त चलते हैं .....
अवतार दो तीन दिन मेरे पास रह कर गई है ,कल शाम गई |मेरी मेज पर खलील जिब्रान का स्केच देख कर पूछने लगी ,''यह इंदरजीत का स्केच है न ?"" मुझे अच्छा लगा उसने तुम्हारा धोखा भी खाया तो खलील जिब्रान के चेहरे से | नक्शों में फर्क हो सकता है , पर असल बात तो विचारों की होती है |सचमुच तुम्हारे इस नए ख़त को पढ़ कर तुम्हारा और खलील जिब्रान का चेहरा मेरे सामने एक हो गया है |
एक पाकीजगी जो तुममें देखी है वह किताबों में पढ़ी तो जरुर है ,पर किसी परिचित चेहरे पर नही देखी है |
तुम्हारे जाने के बाद एक कविता लिखी है ---रचनात्मक क्रिया , एक आर्टिकल ---एक कहानी भी ! पर यह सब मेरी छोटी छोटी कमाई है ,मेरी जिंदगी की असली कमाई तो मेरा इमरोज़ है |
अब कब घर आओगे ? मुझे तारीख लिखो ,ताकि मैं ऊँगलियों पर दिन गिन सकूँ तो मुझे अपनी यह उँगलियाँ भी अच्छी लगने लगें |
तुम्हारी
जोरबी
इतना पाक इतना सच्चा प्रेम , जो पढ़े उसको यह इस प्रेम की हुक लगा दे ,यह थी हमारी अमृता |...वह अपने बारे में कहती है कि..मैं औरत थी ,चाहे बच्ची सी ,और यह खौफ -सा विरासत में पाया था कि दुनिया के भयानक जंगल में से मैं अकेले नही गुजर सकती .शायद इसी भय से अपने साथ मर्द के मुहं की कल्पना करना मेरी कल्पना का अन्तिम साधन था ...
पर इस मर्द शब्द के मेरे अर्थ कहीं भी पढ़े ,सुने या पहचाने हुए अर्थ नही थे |अंतर में कहीं जानती अवश्य थी ,पर अपने आपको भी बता सकने का समर्थ मुझ में नहीं थी | केवल एक विश्वास सा था कि देखूंगी तो पहचान लूंगी |
पर मीलों दूर तक कहीं भी कुछ भी नही दिखायी देता था |और इसी प्रकार वर्षों के कोई अडतीस मील गुजर गए |
मैंने जब उसको पहली बार देखा ..तो मुझसे भी पहले मेरे मन ने उसको पहचान लिया | उस वक्त मेरी उम्र अड़तालीस वर्ष थी ...
यह कल्पना इतने साल जिन्दा रही और इसके अर्थ भी जिन्दा रहे ..इस पर मैं चकित हो सकती हूँ ,पर हूँ नहीं क्यूंकि जान लिया था कि यह मेरे "मैं" की परिभाषा थी ..."थी भी और है भी |"
मैं उन वर्षों में नही मिटी,इसलिए वह भी नहीं मिटी ...
यह नही कि कल्पना से शिकवा नही किया ,उस दौर की कई कविताएं निरी शिकवा ही हैं जैसे --
लख तेरे अम्बरां बिच्चों ,दस्स की लभ्भा सानूं
इक्को तंद प्यार दी लभ्भी ,ओह वीं तंद इकहरी ..
[हिन्दी ]
तेरे लाखों अम्बारों में से बताओ हमें क्या मिला
प्यार का एक ही तार मिला ,वह भी इकहरा ..
पर यह इकहरा तार वर्षों बीत जाने पर भी क्षीण नही हुआ | उसी तरह मुझे अपने में लपेटे हुए मेरी उम्र के साथ चलता रहा ...
कई हादसे हुए पर कल्पना जो मेरे अंगों की तरह मेरे बदन का हिस्सा थी, वह मेरे बदन में निर्लेप हो कर बैठी रही ...
उसे कई वर्ष समाज ने भी समझाया और कई वर्ष मैंने भी पर उसने पलक नही झपकाई | वह कई वर्षों के पार उस विरानगी की ओर देखती रही जहाँ कुछ भी नज़र नही आता था ..और जब उसने पलक झपकाई ,तब मेरी उम्र को अडतीसवां वर्ष लगा हुआ था ..और तब मैंने जाना कि क्यूँ ....उस से अलग ,या आधा ,या लगभग सा कुछ भी नही चाहिए था |
अमृता ने इमरोज़ का इन्तजार किस शिद्दत से किया ,वह प्यार जब बरसा तो फ़िर दीन दुनिया की परवाह किए बिना बरसा और खूब बरसा ..
यह कैसी चुप है
कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है
कोई चुपके से आया है --
चुप से टूटा हुआ --
चुप का टुकडा --
किरण से टूटा हुआ
किरण का कोई टुकडा
यह एक कोई "'वह'' है
जो बहुत बार बुलाने पर भी
नही आया था |
और अब मैं अकेली नहीं
मैं आप अपने संग खड़ी हूँ
शीशे की सुराही में
नज़रों की शराब भरी है --
और हम दोनों जाम पी रहे हैं
वह टोस्ट दे रहा उन लफ्जों के
जो सिर्फ़ छाती में उगते हैं |
यह अर्थों का जश्न है ---
मैं हूँ ,वह है ..
और शीशे की सुराही में --
नज़रों की शराब है ...
मैं तो इसको लिखते लिखते इसी में खो जाती हूँ ..दिल करता है कि बस सुनती- सुनाती रहूँ यह दास्तान और कभी खत्म न हो यह ... पर आज के लिए इतना डूबना काफ़ी है .फ़िर मिलते हैं अगली कड़ी में जहाँ मैं हूँ ,आप है और अमृता -इमरोज़ की बेपनाह मोहब्बत है ...
तेरा स्वर आया है
सस्सी के पैरों को जैसे
किसी ने मरहम लगाया है ...
मेरे मजहब ! मेरे ईमान !
तुम्हारे चेहरे का ध्यान कर के मजहब जैसा सदियों पुराना शब्द भी ताजा लगता है |और तुम्हारे ख़त ? लगता है जहाँ गीता ,कुरान , ग्रन्थ और बाइबिल आ कर रुक जाते हैं ,उसके आगे तुम्हारे ख़त चलते हैं .....
अवतार दो तीन दिन मेरे पास रह कर गई है ,कल शाम गई |मेरी मेज पर खलील जिब्रान का स्केच देख कर पूछने लगी ,''यह इंदरजीत का स्केच है न ?"" मुझे अच्छा लगा उसने तुम्हारा धोखा भी खाया तो खलील जिब्रान के चेहरे से | नक्शों में फर्क हो सकता है , पर असल बात तो विचारों की होती है |सचमुच तुम्हारे इस नए ख़त को पढ़ कर तुम्हारा और खलील जिब्रान का चेहरा मेरे सामने एक हो गया है |
एक पाकीजगी जो तुममें देखी है वह किताबों में पढ़ी तो जरुर है ,पर किसी परिचित चेहरे पर नही देखी है |
तुम्हारे जाने के बाद एक कविता लिखी है ---रचनात्मक क्रिया , एक आर्टिकल ---एक कहानी भी ! पर यह सब मेरी छोटी छोटी कमाई है ,मेरी जिंदगी की असली कमाई तो मेरा इमरोज़ है |
अब कब घर आओगे ? मुझे तारीख लिखो ,ताकि मैं ऊँगलियों पर दिन गिन सकूँ तो मुझे अपनी यह उँगलियाँ भी अच्छी लगने लगें |
तुम्हारी
जोरबी
इतना पाक इतना सच्चा प्रेम , जो पढ़े उसको यह इस प्रेम की हुक लगा दे ,यह थी हमारी अमृता |...वह अपने बारे में कहती है कि..मैं औरत थी ,चाहे बच्ची सी ,और यह खौफ -सा विरासत में पाया था कि दुनिया के भयानक जंगल में से मैं अकेले नही गुजर सकती .शायद इसी भय से अपने साथ मर्द के मुहं की कल्पना करना मेरी कल्पना का अन्तिम साधन था ...
पर इस मर्द शब्द के मेरे अर्थ कहीं भी पढ़े ,सुने या पहचाने हुए अर्थ नही थे |अंतर में कहीं जानती अवश्य थी ,पर अपने आपको भी बता सकने का समर्थ मुझ में नहीं थी | केवल एक विश्वास सा था कि देखूंगी तो पहचान लूंगी |
पर मीलों दूर तक कहीं भी कुछ भी नही दिखायी देता था |और इसी प्रकार वर्षों के कोई अडतीस मील गुजर गए |
मैंने जब उसको पहली बार देखा ..तो मुझसे भी पहले मेरे मन ने उसको पहचान लिया | उस वक्त मेरी उम्र अड़तालीस वर्ष थी ...
यह कल्पना इतने साल जिन्दा रही और इसके अर्थ भी जिन्दा रहे ..इस पर मैं चकित हो सकती हूँ ,पर हूँ नहीं क्यूंकि जान लिया था कि यह मेरे "मैं" की परिभाषा थी ..."थी भी और है भी |"
मैं उन वर्षों में नही मिटी,इसलिए वह भी नहीं मिटी ...
यह नही कि कल्पना से शिकवा नही किया ,उस दौर की कई कविताएं निरी शिकवा ही हैं जैसे --
लख तेरे अम्बरां बिच्चों ,दस्स की लभ्भा सानूं
इक्को तंद प्यार दी लभ्भी ,ओह वीं तंद इकहरी ..
[हिन्दी ]
तेरे लाखों अम्बारों में से बताओ हमें क्या मिला
प्यार का एक ही तार मिला ,वह भी इकहरा ..
पर यह इकहरा तार वर्षों बीत जाने पर भी क्षीण नही हुआ | उसी तरह मुझे अपने में लपेटे हुए मेरी उम्र के साथ चलता रहा ...
कई हादसे हुए पर कल्पना जो मेरे अंगों की तरह मेरे बदन का हिस्सा थी, वह मेरे बदन में निर्लेप हो कर बैठी रही ...
उसे कई वर्ष समाज ने भी समझाया और कई वर्ष मैंने भी पर उसने पलक नही झपकाई | वह कई वर्षों के पार उस विरानगी की ओर देखती रही जहाँ कुछ भी नज़र नही आता था ..और जब उसने पलक झपकाई ,तब मेरी उम्र को अडतीसवां वर्ष लगा हुआ था ..और तब मैंने जाना कि क्यूँ ....उस से अलग ,या आधा ,या लगभग सा कुछ भी नही चाहिए था |
अमृता ने इमरोज़ का इन्तजार किस शिद्दत से किया ,वह प्यार जब बरसा तो फ़िर दीन दुनिया की परवाह किए बिना बरसा और खूब बरसा ..
यह कैसी चुप है
कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है
कोई चुपके से आया है --
चुप से टूटा हुआ --
चुप का टुकडा --
किरण से टूटा हुआ
किरण का कोई टुकडा
यह एक कोई "'वह'' है
जो बहुत बार बुलाने पर भी
नही आया था |
और अब मैं अकेली नहीं
मैं आप अपने संग खड़ी हूँ
शीशे की सुराही में
नज़रों की शराब भरी है --
और हम दोनों जाम पी रहे हैं
वह टोस्ट दे रहा उन लफ्जों के
जो सिर्फ़ छाती में उगते हैं |
यह अर्थों का जश्न है ---
मैं हूँ ,वह है ..
और शीशे की सुराही में --
नज़रों की शराब है ...
मैं तो इसको लिखते लिखते इसी में खो जाती हूँ ..दिल करता है कि बस सुनती- सुनाती रहूँ यह दास्तान और कभी खत्म न हो यह ... पर आज के लिए इतना डूबना काफ़ी है .फ़िर मिलते हैं अगली कड़ी में जहाँ मैं हूँ ,आप है और अमृता -इमरोज़ की बेपनाह मोहब्बत है ...
17 comments:
बहुत खूब,
अमृता-इमरोज के प्यार की दास्ताँ पढ़ते पढ़ते मन कहीं सचमुच में खो सा जाता है | इसे यहाँ पेश करने के लिए बहुत आभार |
नीरज
यह कैसी चुप है
कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है
कोई चुपके से आया है --
चुप से टूटा हुआ --
चुप का टुकडा --
waah kya baat hai
मैं हूँ ,वह है ..
और शीशे की सुराही में --
नज़रों की शराब है ...
लाजवाब चल रही है श्रृंखला... जारी रखें.
मेरी जिंदगी की असली कमाई तो मेरा इमरोज़ है |
कितनी खूबसूरत बात कही गयी है..
रंजना जी आप एक नेक काम कर रही है
एक बार फ़िर अच्छा लगा ये दास्ताँ पढ़ कर.
आपका ये ब्लाग अतुलनीय है.
एक अच्छा प्रयास।सराहनीय।आभारी
यह कैसी चुप है
कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है
कोई चुपके से आया है --
चुप से टूटा हुआ --
चुप का टुकडा --
किरण से टूटा हुआ
किरण का कोई टुकडा
यह एक कोई "'वह'' है
जो बहुत बार बुलाने पर भी
नही आया था |
बहा ले गया यह आलेख अपने साथ साथ-बहुत आभार.
बस आप अमृता-इमरोज के प्यार की कहानी की गंगा बहाती रहे और हम उसमें डुबकी लगाते रहे।
अब कब घर आओगे ? मुझे तारीख लिखो ,ताकि मैं ऊँगलियों पर दिन गिन सकूँ तो मुझे अपनी यह उँगलियाँ भी अच्छी लगने लगें |
lagta hai amrita ji ne khud ko khudi se chura rakha tha
wah
Nisha Bala Tyagi
....और हम इन्हें पढ़ते-पढ़ते
इनमें खो जाते हैं
चुपके से अपने भीतर
की चुप्पी से बतियाती-सी यह
सौगात भी छू गयी दिल को.
=======================
शुक्रिया
डा.चन्द्रकुमार जैन
लख तेरे अम्बरां बिच्चों ,दस्स की लभ्भा सानूं
इक्को तंद प्यार दी लभ्भी ,ओह वीं तंद इकहरी ..
eh khoodurat ahsaas amrita hi kar sakdhi hai....
bohat hi sona likhiya hai tussi
आप का लेख अविस्मरणीय है
मेरी समझ से अमृता प्रीतम से सम्बंधित आपका यह इकलौता हिंदी ब्लॉग है। उनकी रचनाओं को यहां परोसने का शुक्रिया।
dastan padhakar bhaimai bhi kahi kho gaya hun .bahut sundar abhivyakti.
एकबार फ़िर मोहब्बत की अप्रतिम बानगी उभरी,प्रेम की सावनी फुहारों ने मेरे पाषाण ह्रदय को पिघला डाला.
आलोक सिंह "साहिल"
यह कैसी चुप है
कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है
कोई चुपके से आया है --
चुप से टूटा हुआ --
चुप का टुकडा --
किरण से टूटा हुआ
किरण का कोई टुकडा
यह एक कोई "'वह'' है
जो बहुत बार बुलाने पर भी
नही आया था |
और अब मैं अकेली नहीं
मैं आप अपने संग खड़ी हूँ
शीशे की सुराही में
नज़रों की शराब भरी है --
और हम दोनों जाम पी रहे हैं
वह टोस्ट दे रहा उन लफ्जों के
जो सिर्फ़ छाती में उगते हैं |
यह अर्थों का जश्न है ---
मैं हूँ ,वह है ..
और शीशे की सुराही में --
नज़रों की शराब है ...
nice to fill it....har chanhewalo ko aisa pyar naseeb ho....nice work
रंजना जी
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. बहुत अच्छा लगा. वैसे भी मैं खुद अमृता-इमरोज़ की मोहब्बत
और अमृता के लेखन का शेदाई हूँ. आपने उनकी मुहब्बत की दास्तान से फिर सराबोर कर दिया. ये सब पढाने के लिए शुक्रिया
जाकिर हुसैन
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