यह कैसी कशमकश है जिंदगी में
किसी को ढूढते हैं हम किसी में !
अमृता और इमरोज़ के ख़त पढ़ते वक्त यह देखा कि सिर्फ़ प्यार ही उनके इश्क की जुबान नही थी | कुछ ख़त उनकेशिकवे शिकायत भी थे ,पर वह भी जैसे किसी रूहानी दुनिया का एक ख्वाब सा जगाते हुए ...|
इमरोज़ लिखते हैं कि ..
यह १९६१ के शुरू के ख़त हैं ,जिन पर न कोई तारीख है ,न कोई दस्तखत |उन्ही दिनों अमृता ने एक कहानी लिखकर मुझे भेजी थी ,"" रौशनी का हवाका ''| इस में उसका एक ख़त था |फ़िर वह एक कविता लिख भेजी थी सालमुबारक | यह भी उसका एक ख़त थी |और फ़िर एक नावल भेजा आइनेरेंड का' फाउन्टेन हेड '|यह भी मैंने उसकाएक ख़त समझकर पढ़ा था |यह ख़त जिन पर अमृता ने न तारीख लिखी है न अपना नाम ..|उसने यह ख़त अपनेगुस्से की शिखर दोपहरी में लिखे हैं --शायद प्यार में ही नही गुस्से में भी न वक्त याद रहता है न नाम |
आप ख़ुद ही पढ़े ..
तुम्हारे और मेरे नसीबों में बहुत फर्क है |तुम वह खुशनसीब इंसान हो ,जिसे तुमने मोहब्बत कि ,उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी | पर मैं वह बदनसीब इंसान हूँ ,जिसे मैंने मोहब्बत की ,उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया |दुखं ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी | अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलोने के साथ खेल नही सकता है |
हर तीसरे दिन पंजाब के किसी न किसी अखबार में मेरे बम्बई बिताये दिनों का जिक्र होता है बुरे से बुरे शब्दों में | पर मुझे उनसे कोई शिकायत नही है क्यूंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नही हैं केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नही समझा .जिसने कभी मुझसे कहा था --"" मुझे जवाब बना लो सारे का सारा |''
***********************************
मुझे अगर किसी ने समझा है तो वह है तुम्हारी मेज की दराज में पड़ी हुई रंगों की शीशियाँ .जिनके बदन में रोज़ साफ़ करती और दुलारती थी | वह रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कराते थे |क्यूंकि उन्होंने मेरी आँखों कि नजर का भेद पा लिया था | उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रियटिव पावर से ऐसी ही मोहब्बत है | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श के लिएय तरसते रहे थे और मेरी आँखे उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इस लिए माँगते थे क्यूंकि ""दे वांटेड टू जस्टिफाई देयर एगिजेंट्स "'| मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि तुम्हारी कृतियों में मुझे अपने अस्तित्व के अर्थ भी मिलते थे |यह अर्थ मुझे अपनी कृतियों में भी मिलते थे ,पर तुम्हारे साथ मिल कर यह अर्थ बहुत तगडे हो जाते थे | तुम एक दिन अपनी मेज पर काम करने लगे थे कि तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी रंग की शीशी को खोला मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा ,तुमने हाथ में लिए हुए ब्रश में थोड़ा सा रंग लगा कर मेरे माथे को छुआ दिया | न जाने वह मेरे माथे की कैसी खुदगर्ज मांग थी ,आज मुझे उसको सजा मिल रही है |आदम ने जैसे गेहूं का दाना खा लिया हो या सेब खा लिया था, तो उसको बहिश्त से निकाल दिया गया था ....
********************
कल तुम्हारा ख़त मिला | जीती दोस्त ! मैं तुमसे गुस्सा नही हूँ ! तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छू गया |दोस्ती मोहब्बत की हद तक गई | मोहब्बत इश्क की हद तक गई | और इश्क जनून की हद तक | और जिसने जनून की हद देखी हो ... .वह कभी गुस्सा नही हो सकता |
अगर अलगाव कोई सजा है .तो यह सजा मेरे लिए हैं .क्यूंकि यह रास्ता मेरा चुना हुआ नही हैं | मेरा चुना हुआ रास्ता मेल था | अलगाव का रास्ता तुम्हारा चुना हुआ है ,तुम्हारा अपना चुनाव ...इस लिए तुम्हारे लिए यह सजा नही है|
यह मैंने कभी नही सोचा कि मोहब्बत पाक नही थी ,लेकिन उस मोहब्बत में एक प्यास थी ..इस प्यास को तुम्हे तृप्त करना होगा जीती ! तुम और मैं दोनों इस प्यास का भयानक रूप देख चुके हैं |तुम जैसे मुझ तडपती को छोड़ गए यह तुम्हारा रूप नही तुम्हारी प्यास का भयानक रूप है | तुम दस बरस जी भर इस प्यास को मिटा लो | फ़िर तुम्हारे बदन पर पड़े हुए सारे दाग में अपने होंठो से पोंछ लूंगी| और अगर तुमने फ़िर भी चाहा तो मैं तुम्हारे साथ जीने को भी तैयार रहूंगी और मरने को भी |
***************************
उनके लिखे यह ख़त पढ़ कर मुझे उनके एक उपन्यास धरती ,सागर और सीपियाँ की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई ...
उस में उन्होंने लिखा था कि "" ,जब इंसान अपने अन्दर से पाता है तो उस को इस कद्र प्यार करता है जैसे कोई अपनी महबूबा को प्यार करता है ,पर जब वह अपने भीतर से पाने की जगह दुनिया से पाता है तो उसको ऐसे प्यार करता है जैसे कोई किसी वेश्या को प्यार करता है |
कोई रिश्ता शरीर पर पहने हुए कपड़े की तरह होता है जो कभी भी शरीर से उतारा जा सकता है | पर कोई रिश्ता नसों में चलने वाले लहू की तरह होता है जिसके बिना इंसान जीवित नहीं रह सकता है |"'
चलते चलते साहिर की पंक्तियाँ अमृता के लिए ...
तू भी कुछ परेशाँ है /तू भी सोचती होगी
तेरे नाम की शोहरत तेरे काम क्या आई ,
मैं भी कुछ पशेमाँ हूँ /मैं भी गौर करता हूँ
मेरे काम की अजमत मेरे काम क्या आई |
...
किसी को ढूढते हैं हम किसी में !
अमृता और इमरोज़ के ख़त पढ़ते वक्त यह देखा कि सिर्फ़ प्यार ही उनके इश्क की जुबान नही थी | कुछ ख़त उनकेशिकवे शिकायत भी थे ,पर वह भी जैसे किसी रूहानी दुनिया का एक ख्वाब सा जगाते हुए ...|
इमरोज़ लिखते हैं कि ..
यह १९६१ के शुरू के ख़त हैं ,जिन पर न कोई तारीख है ,न कोई दस्तखत |उन्ही दिनों अमृता ने एक कहानी लिखकर मुझे भेजी थी ,"" रौशनी का हवाका ''| इस में उसका एक ख़त था |फ़िर वह एक कविता लिख भेजी थी सालमुबारक | यह भी उसका एक ख़त थी |और फ़िर एक नावल भेजा आइनेरेंड का' फाउन्टेन हेड '|यह भी मैंने उसकाएक ख़त समझकर पढ़ा था |यह ख़त जिन पर अमृता ने न तारीख लिखी है न अपना नाम ..|उसने यह ख़त अपनेगुस्से की शिखर दोपहरी में लिखे हैं --शायद प्यार में ही नही गुस्से में भी न वक्त याद रहता है न नाम |
आप ख़ुद ही पढ़े ..
तुम्हारे और मेरे नसीबों में बहुत फर्क है |तुम वह खुशनसीब इंसान हो ,जिसे तुमने मोहब्बत कि ,उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी | पर मैं वह बदनसीब इंसान हूँ ,जिसे मैंने मोहब्बत की ,उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया |दुखं ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी | अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलोने के साथ खेल नही सकता है |
हर तीसरे दिन पंजाब के किसी न किसी अखबार में मेरे बम्बई बिताये दिनों का जिक्र होता है बुरे से बुरे शब्दों में | पर मुझे उनसे कोई शिकायत नही है क्यूंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नही हैं केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नही समझा .जिसने कभी मुझसे कहा था --"" मुझे जवाब बना लो सारे का सारा |''
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मुझे अगर किसी ने समझा है तो वह है तुम्हारी मेज की दराज में पड़ी हुई रंगों की शीशियाँ .जिनके बदन में रोज़ साफ़ करती और दुलारती थी | वह रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कराते थे |क्यूंकि उन्होंने मेरी आँखों कि नजर का भेद पा लिया था | उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रियटिव पावर से ऐसी ही मोहब्बत है | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श के लिएय तरसते रहे थे और मेरी आँखे उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इस लिए माँगते थे क्यूंकि ""दे वांटेड टू जस्टिफाई देयर एगिजेंट्स "'| मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि तुम्हारी कृतियों में मुझे अपने अस्तित्व के अर्थ भी मिलते थे |यह अर्थ मुझे अपनी कृतियों में भी मिलते थे ,पर तुम्हारे साथ मिल कर यह अर्थ बहुत तगडे हो जाते थे | तुम एक दिन अपनी मेज पर काम करने लगे थे कि तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी रंग की शीशी को खोला मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा ,तुमने हाथ में लिए हुए ब्रश में थोड़ा सा रंग लगा कर मेरे माथे को छुआ दिया | न जाने वह मेरे माथे की कैसी खुदगर्ज मांग थी ,आज मुझे उसको सजा मिल रही है |आदम ने जैसे गेहूं का दाना खा लिया हो या सेब खा लिया था, तो उसको बहिश्त से निकाल दिया गया था ....
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कल तुम्हारा ख़त मिला | जीती दोस्त ! मैं तुमसे गुस्सा नही हूँ ! तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छू गया |दोस्ती मोहब्बत की हद तक गई | मोहब्बत इश्क की हद तक गई | और इश्क जनून की हद तक | और जिसने जनून की हद देखी हो ... .वह कभी गुस्सा नही हो सकता |
अगर अलगाव कोई सजा है .तो यह सजा मेरे लिए हैं .क्यूंकि यह रास्ता मेरा चुना हुआ नही हैं | मेरा चुना हुआ रास्ता मेल था | अलगाव का रास्ता तुम्हारा चुना हुआ है ,तुम्हारा अपना चुनाव ...इस लिए तुम्हारे लिए यह सजा नही है|
यह मैंने कभी नही सोचा कि मोहब्बत पाक नही थी ,लेकिन उस मोहब्बत में एक प्यास थी ..इस प्यास को तुम्हे तृप्त करना होगा जीती ! तुम और मैं दोनों इस प्यास का भयानक रूप देख चुके हैं |तुम जैसे मुझ तडपती को छोड़ गए यह तुम्हारा रूप नही तुम्हारी प्यास का भयानक रूप है | तुम दस बरस जी भर इस प्यास को मिटा लो | फ़िर तुम्हारे बदन पर पड़े हुए सारे दाग में अपने होंठो से पोंछ लूंगी| और अगर तुमने फ़िर भी चाहा तो मैं तुम्हारे साथ जीने को भी तैयार रहूंगी और मरने को भी |
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उनके लिखे यह ख़त पढ़ कर मुझे उनके एक उपन्यास धरती ,सागर और सीपियाँ की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई ...
उस में उन्होंने लिखा था कि "" ,जब इंसान अपने अन्दर से पाता है तो उस को इस कद्र प्यार करता है जैसे कोई अपनी महबूबा को प्यार करता है ,पर जब वह अपने भीतर से पाने की जगह दुनिया से पाता है तो उसको ऐसे प्यार करता है जैसे कोई किसी वेश्या को प्यार करता है |
कोई रिश्ता शरीर पर पहने हुए कपड़े की तरह होता है जो कभी भी शरीर से उतारा जा सकता है | पर कोई रिश्ता नसों में चलने वाले लहू की तरह होता है जिसके बिना इंसान जीवित नहीं रह सकता है |"'
चलते चलते साहिर की पंक्तियाँ अमृता के लिए ...
तू भी कुछ परेशाँ है /तू भी सोचती होगी
तेरे नाम की शोहरत तेरे काम क्या आई ,
मैं भी कुछ पशेमाँ हूँ /मैं भी गौर करता हूँ
मेरे काम की अजमत मेरे काम क्या आई |
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15 comments:
इस ब्लॉग पर अक्सर आना होता है रंजना जी. और यहां जिन जिन किताबों का ज़िक्र आप करती जाती हैं वे सब मुझे अपने पिछले दौर में वाप्स पहुंचा देती हैं. इमरोज़ साहब और अमृता प्रीतम की चिठ्ठियों वाली एक किताब के टुकड़े मुझे एक महबूब शख़्स अपनी सुन्दर हैंडराइटिंग में लिख लिख कर देता जाता था दिन-ब-दिन महीना-दर-महीना और फिर साल-दर -साल.
विचारों और यादों के बेहद अंतरंग कोने में ले जा के पटक दिया आपने आज.
बहुत बहुत शुक्रिया.
अच्छा लगा पड़कर,
अच्छी पोस्ट के लिए बधाई...
रंजना जी,
नसों में चलने वाले
लहू की मानिंद होती जा रही है
आपकी पेशकश.... कदम-दर-कदम.
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शुक्रिया
डा.चन्द्रकुमार जैन
आपकी ये श्रृंखला हर बार कुछ नया दे जाती है इन रिश्तों की अनेक परतों को अलग करती हुई। लिखती रहें।
यहां नहीं लगता है कुछ भी कहने की आवश्यकता है
जो श्रम किया आपने लिख कर उसको कौन आंक सकता है
समय स्वयं ही करे आकलन आप लिख रहे हैं जो कुछ भी
मेरा शब्द आपको केवल नमन मौन हो कर सकता है
बहुत अच्छा लगा अमृता जी पर लिखी जा रही श्रृंखला में पेश की गई यह प्रस्तुति को पढ़कर. जारी रहें, साधुवाद इस प्रयास के लिए.
रसीदी टिकट मैंने पूरी पढ़ी है लेकिन आज भी कई बार लगता है कि मैंने इनको नहीं पढ़ा नहीं जाना। तकरीबन इनके प्रेम या इससे भी कहीं अधिक इन दोनों के बारे में मैं पूरी तरह जान नहीं पाया। लेकिन कुछ जो जानता हूं उस कड़ी में एक कड़ी आज और जुड़ गई है। धन्यवाद, सुंदर...अति उत्तम।।।।
bahut sunder....
raseedi ticket ko jitnee baar pada jae kam hai....
ek baar or padwaane ke liye saadhuvaad
रंजना जी,
अमृताजी को इतना पढा है कि उनकी कहानी अब अपनी लगती है...
तू भी कुछ परेशाँ है /तू भी सोचती होगी
तेरे नाम की शोहरत तेरे काम क्या आई ,
मैं भी कुछ पशेमाँ हूँ /मैं भी गौर करता हूँ
मेरे काम की अजमत मेरे काम क्या आई |
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बहुत बहुत खूबसूरती से लिखा है आपने, सच कहूँ तो आपकी कोशिश अजीम है,किसी के एहतराम की इस से बढ़ कर मिसाल और क्या होगी...बराबर पढने की कोशिश रहेगी अब, आपके इस ब्लॉग को ऐड कर रही हूँ...बहुत शानदार..
कोई रिश्ता शरीर पर पहने हुए कपड़े की तरह होता है जो कभी भी शरीर से उतारा जा सकता है | पर कोई रिश्ता नसों में चलने वाले लहू की तरह होता है जिसके बिना इंसान जीवित नहीं रह सकता है |"'
बहोत करीब ले आती हे प्यार के आपकी लेखनी ......ये सुहाना सफर हमेशा बरक़रार रहे.....
jaari rakhiye... der se hi sahi, main padh raha hoon.
Bahut dard hai Amrita ji ke likhe men aur aapka pesha karane ka andaz behad sunder
pehli baar es webpage par aana hua.. jo bhi rachnaaye available thi unhe ache se gaur kiya,,, ek baar kuch aisa lagaa ki '''Amritaji fir humare bich aa gai''' Amritaji par likhne ke liye bahut shukriyaa.
With Best Wishes..
Advocate Anand Khandelwal
|दुखं ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी | अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलोने के साथ खेल नही सकता है |
अब मैं आह करूँ या वाह करूँ। नायाब लाइंस हैं
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