पिछली कड़ी में पिंजर का ज़िक्र हुआ |यह वह उपन्यास है जो दुनिया की आठ भाषाओँ में प्रकाशित हुआ |इस में लिखी एक पंक्ति इस में लिखी घटनाओं का आइना नजर आती है .'' कोई भी लड़की जो ठिकाने पहुँच रही है .वह हिंदू है या मुसलमान ,समझना की मेरी आत्मा ठिकाने पहुँच रही है|"
यह पंक्ति दिल में गहरा असर छोड़ जाती है | और याद आती है उनकी लिखी वह घटना जहाँ उन्होंने लिखा कि आज से लगभग चालीस साल पहले की एक रात | मेरे विवाह की रात ,जब मैं मकान की छत पर जा कर अंधेरे में बहुत रोई थी | मन में केवल एक ही बात आती थी ,अगर मैं किसी तरह मर सकूँ तो ? पिता जी को मेरे मन की दशा ज्ञात थी ,इस लिए मुझे तलाश करते हुए वह ऊपर आ गए | मैंने एक ही मिन्नत की ,मैं विवाह नही करुँगी |
बरात आ चुकी थी रात का खाना हो चुका था कि पिता जी को एक संदेश मिला की अगर कोई रिश्ते दार पूछे तो कह देना कि आपने इतने हज़ार रुपया नकद भी दहेज़ में दिया है |
इस विवाह से मेरे पिता जी को गहरा संतोष था ,मुझे भी पर इस सन्देश को पिता जी ने एक इशारा समझा |उनके पास इतना नकद रुपया हाथ में नहीं था इस लिए घबरा गए | मुझसे कहा | बस इसी कारण मेरे मन में यह विचार आया कि काश आज की रात में मर सकूँ |
कई घन्टों कि हमारी इस घबराहट को उस रात मेहमान के तौर पर आई मेरी मृत माँ की सहेली ने पहचान लिया और अकेले में हो कर अपने हाथ की सारी चूडियाँ उतार कर मेरे पिता जी के सामने रख दी | पिता जी की आँख भर आई | पर यह सब देखना मुझे मरने से भी ज्यादा मुश्किल लगा ...
फ़िर मालूम हुआ ,यह संदेशा किसी प्रकार का इशारा नही था ,उन्होंने नकद रुपया नहीं चाहा था ,सिर्फ़ कुछ रिश्तदारों की तस्सली के लिए यह बात फैला दी थी | माँ की सहेली ने वह चूडियाँ फ़िर हाथों में पहन ली | पर मुझे ऐसा लगा कि वह चूडियाँ उतराने का क्षण दुनिया की अच्छाई के रूप में वही कहीं एक प्रतीक बन कर ठहर गया है | विश्वास टूटते हुए देखती हूँ ,परन्तु निराशा मन के अंत तक नही पहुंचती है | इधर ही कहीं राह में रुक जाती है ,और उसके आगे मन के अन्तिम छोर के निकट दुनिया की अच्छाई का विशवास बचा रह जाता है ...
और चलते चलते उनकी एक नज़्म जो बहुत कुछ कह जाती है ...
बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूटा
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया
आंखों में कंकड़ छितरा गए
और नजर जख्मी हो गई
कुछ दिखायी नही देता
दुनिया शायद अब भी बसती होगी|
यह पंक्ति दिल में गहरा असर छोड़ जाती है | और याद आती है उनकी लिखी वह घटना जहाँ उन्होंने लिखा कि आज से लगभग चालीस साल पहले की एक रात | मेरे विवाह की रात ,जब मैं मकान की छत पर जा कर अंधेरे में बहुत रोई थी | मन में केवल एक ही बात आती थी ,अगर मैं किसी तरह मर सकूँ तो ? पिता जी को मेरे मन की दशा ज्ञात थी ,इस लिए मुझे तलाश करते हुए वह ऊपर आ गए | मैंने एक ही मिन्नत की ,मैं विवाह नही करुँगी |
बरात आ चुकी थी रात का खाना हो चुका था कि पिता जी को एक संदेश मिला की अगर कोई रिश्ते दार पूछे तो कह देना कि आपने इतने हज़ार रुपया नकद भी दहेज़ में दिया है |
इस विवाह से मेरे पिता जी को गहरा संतोष था ,मुझे भी पर इस सन्देश को पिता जी ने एक इशारा समझा |उनके पास इतना नकद रुपया हाथ में नहीं था इस लिए घबरा गए | मुझसे कहा | बस इसी कारण मेरे मन में यह विचार आया कि काश आज की रात में मर सकूँ |
कई घन्टों कि हमारी इस घबराहट को उस रात मेहमान के तौर पर आई मेरी मृत माँ की सहेली ने पहचान लिया और अकेले में हो कर अपने हाथ की सारी चूडियाँ उतार कर मेरे पिता जी के सामने रख दी | पिता जी की आँख भर आई | पर यह सब देखना मुझे मरने से भी ज्यादा मुश्किल लगा ...
फ़िर मालूम हुआ ,यह संदेशा किसी प्रकार का इशारा नही था ,उन्होंने नकद रुपया नहीं चाहा था ,सिर्फ़ कुछ रिश्तदारों की तस्सली के लिए यह बात फैला दी थी | माँ की सहेली ने वह चूडियाँ फ़िर हाथों में पहन ली | पर मुझे ऐसा लगा कि वह चूडियाँ उतराने का क्षण दुनिया की अच्छाई के रूप में वही कहीं एक प्रतीक बन कर ठहर गया है | विश्वास टूटते हुए देखती हूँ ,परन्तु निराशा मन के अंत तक नही पहुंचती है | इधर ही कहीं राह में रुक जाती है ,और उसके आगे मन के अन्तिम छोर के निकट दुनिया की अच्छाई का विशवास बचा रह जाता है ...
और चलते चलते उनकी एक नज़्म जो बहुत कुछ कह जाती है ...
बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूटा
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया
आंखों में कंकड़ छितरा गए
और नजर जख्मी हो गई
कुछ दिखायी नही देता
दुनिया शायद अब भी बसती होगी|
6 comments:
रंजना जी वाकई अमृता पर केन्द्रित ये ब्लॉग बहुत खास बन पड़ा है
इतना शानदार ब्लॉग बनाने के लिए शुक्रिया
ab je blog healthy ho raha hai...meri najar se bachana ise
पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
मार्मिक...अर्थ गर्भ.
================
बधाई आपको प्रस्तुति
और
स्वतंत्रता दिवस की.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
शानदार ब्लॉग बनाने के लिए शुक्रिया.
महेंद्र मिश्रा जबलपुर.
पुराना ब्लॉग समयचक्र खो गया है
कभी लगता है की अमृता की सारी किताबें खरीद लाऊं. फिर लगता है की आप पढ़ा ही रही हैं... पर हर पोस्ट पढने के बाद फिर लगता है की कई बार भी पढ़ा जा सकता है !
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