अमृता जी को पढ़ना एक अनोखा अनुभव है। पर उन्हें सुनना बहुत ही बेहतरीन अनुभव होगा। उनकी एक नज़्म, उन्ही की आवाज़ में....
मैं इक गिरज़े दी मोमबत्ती
मैं इक गिरज़े दी मोमबत्ती
रोज़ छाती दी अग्ग नू
पैरां च बाल के मैं
गिरज़े तों बाहर जांदी हां
ते जगदियां बुझदियां अक्खां चों गुजर के मैं अखरां दे हुस्न तक पहुंच जानी हां
पर अखरां दा हुस्न कागज़ दी अमानत है,
जद किसी कागज चों बाहर आंदा है
धरती दा बदन छूंदा है,
तां धरती दे लहू विच भिजदा है,
अखरां दा हुस्न कागज़ दी अमानत है,
जद किसी कागज चों बाहर आंदा है
धरती दा बदन छूंदा है,
तां धरती दे लहू विच भिजदा है,
ओ मेरे आज्ज दे मसीहा,
तुं नही लबदा किथे
तां मैं टिमटिमांदी जही
सिर्फ गोलियां ते बंदूकां दी आवाज सुन
उस गिरजे विच परत आंदी हां
जो हाली वी किसे देश विच नहीं बनया
मैं इक गिरज़े दी मोमबत्ती........
मैं इक गिरज़े की मोमबत्ती
रोज़ छाती की आग को
पैरां में जला कर
गिरज़े से बाहर जाती हूं
और जागती बुझती आखों से गुजर के
मैं अक्षरों के हुस्न तक पहुंच जाती हूं
पर अक्षरों का हुस्न कागज़ की अमानत है,
जब किसी कागज से बाहर आता है
धरती का बदन छूता है,
तो धरती के लहू में भीग जाता है,
अक्षरों का हुस्न कागज़ की अमानत है,
जब किसी कागज से बाहर आता है
धरती का बदन छूता है,
तो धरती के लहू में भीग जाता है,
ओ मेरे आज के मसीहा,
तू नही मिलता कहीं
और मैं टिमटिमाती सी
सिर्फ गोलियां और बंदूकों की आवाज सुन
उस गिरजे में पलट आती हूं
जो अभी भी किसी देश में नहीं बना
मैं इक गिरज़े की मोमबत्ती........
4 comments:
मैं इक गिरज़े दी मोमबत्ती
रोज़ छाती दी अग्ग नू
पैरां च बाल के मैं
गिरज़े तों बाहर जांदी हां
ते जगदियां बुझदियां अक्खां चों गुजर के मैं अखरां दे हुस्न तक पहुंच जानी हां
पर अखरां दा हुस्न कागज़ दी अमानत है,
जद किसी कागज चों बाहर आंदा है
ess aag ko weahi samjh sakta hai jo us had se gujara ho...
bahoot khoob
अमृता जी को पढना एक अलग सा एहसास देता है। उनको सुनने का सौभाग्य पहली बार मिला, कह नहीं सकता कि कितना अच्छा लगा।
आनन्द आ गया सुन कर. बहुत आभार पढ़वाने और सुनवाने का.
अनमोल प्रस्तुति... धन्यवाद !
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