तसव्वुर की खिड़की से तुम्हे मैं देख रहा हूँ | तुम खामोश हो ,सर झुकाए हुए |तुम तो तब भी मुझसे सब बात कर लिया करती थी ,जब मैं तुम्हारा कुछ नही लगता था | अब तो मैं तुम्हारा बहुत कुछ हूँ | जन्म से तुम्हारा अपना .सिर्फ़ कुछ दिनों से कुछ गैर | एक खामोशी एक अंधेरे की तरह मेरे तसव्वुर पर छा जाती है कई बार .कितनी कितनी देर तक खिड़की में से कुछ नही दिखायी देता है | कब तुम मुझे नज़र भर कर देखोगी .और कब मेरी रौशनी मेरी तरफ देखेगी ? कब मैं और मेरा तसव्वुर रोशन होंगे ?
२१ -११- ६० सुबह यह ख़त इमरोज़ ने अमृता को लिखा था | जाने कितने दर्द के कितने एहसास लिए ,जब किसी की आंखों के सामने तसव्वुरात की परछाई उभरती है ,तो कौन जान सकता है ,की उस कितने सितारे आसमान पर भी बनते हुए दिखायी देते हैं और टूटते हुए भी ...
उन्ही टूटते बनते सितारों की राख से जब कुछ परछाइयां उभरती हैं ,तो वह खामोशी से भी उतरती हैं ,और कभी कभी अक्षरों से भी ...और शायद वही आलम होगा जब साहिर ने लिखा होगा ...
जवान रात के सीने में दुधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख्वाबे - मरमरीं की तरह
हसीं फूल ,हसीं पत्तियाँ,हसीं शाखें
लचक रही है किसी जिस्में-नाजनीं की तरह
फिजा में घुल गएँ हैं उफक के नार्म खुतूत
जमीन हसीं है .ख्वाब की सरजमीं की तरह
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ...
यही फिजा थी ,यही रुत यही ज़माना था
यहीं से हमने मोहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से ,लरजती हुई निगाहों से
हजुरे -गैब में नन्ही सी इल्तिजा की थी
कि आरजू के कंवल खिल के फूल हो जाएँ
दिलो नज़र की दुआएँ काबुल हो जाएँ
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है .....
तुम आ रही हो जमाने की आँख से बच कर
नजर झुकाए हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने क़दमों की आहट से झेपती,डरती
ख़ुद अपने साए की जुंबिश से खौफ खाए हुए ..
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मैं फूल टांक रहा हूँ तुम्हारे जूडे में
तुम्हारी आँख मुसरत से झुकी जाती हैं
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
जुबान खुश्क में आवाज़ रुकती जाती हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मेरे गले में तुम्हारी गुदाज बाहें हैं
तुम्हारे होंठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीन हैं कि हम अब कभी न बिछडेंगे
तुम्हे गुमान है कि हम मिल कर भी पराए हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को
अदाए -अज्जो -कर्म से उठा रही हो तुम
सुहाग - रात जो ढोलक पे गाए जाते हैं
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
खुदा ने साहिर को जाने कितनी तौफीक दी होगी ,कि वे अपने तसव्वुरात की परछाइयां अक्षरों में उतार पाए ..और यही परछाइयां देखते -बुनते वे न जाने किस आकाश में खो गए ..
वह नही जानते थे कि उनके अक्षरों में उतरने वाले ,कितनी परछाइयों से घिर जाते हैं ,और फ़िर खामोश हो जाते हैं ...यही इमरोज़ के हाथों से रचने वाले रंग भी कहते होंगे ...!!
२१ -११- ६० सुबह यह ख़त इमरोज़ ने अमृता को लिखा था | जाने कितने दर्द के कितने एहसास लिए ,जब किसी की आंखों के सामने तसव्वुरात की परछाई उभरती है ,तो कौन जान सकता है ,की उस कितने सितारे आसमान पर भी बनते हुए दिखायी देते हैं और टूटते हुए भी ...
उन्ही टूटते बनते सितारों की राख से जब कुछ परछाइयां उभरती हैं ,तो वह खामोशी से भी उतरती हैं ,और कभी कभी अक्षरों से भी ...और शायद वही आलम होगा जब साहिर ने लिखा होगा ...
जवान रात के सीने में दुधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख्वाबे - मरमरीं की तरह
हसीं फूल ,हसीं पत्तियाँ,हसीं शाखें
लचक रही है किसी जिस्में-नाजनीं की तरह
फिजा में घुल गएँ हैं उफक के नार्म खुतूत
जमीन हसीं है .ख्वाब की सरजमीं की तरह
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ...
यही फिजा थी ,यही रुत यही ज़माना था
यहीं से हमने मोहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से ,लरजती हुई निगाहों से
हजुरे -गैब में नन्ही सी इल्तिजा की थी
कि आरजू के कंवल खिल के फूल हो जाएँ
दिलो नज़र की दुआएँ काबुल हो जाएँ
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है .....
तुम आ रही हो जमाने की आँख से बच कर
नजर झुकाए हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने क़दमों की आहट से झेपती,डरती
ख़ुद अपने साए की जुंबिश से खौफ खाए हुए ..
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मैं फूल टांक रहा हूँ तुम्हारे जूडे में
तुम्हारी आँख मुसरत से झुकी जाती हैं
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
जुबान खुश्क में आवाज़ रुकती जाती हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मेरे गले में तुम्हारी गुदाज बाहें हैं
तुम्हारे होंठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीन हैं कि हम अब कभी न बिछडेंगे
तुम्हे गुमान है कि हम मिल कर भी पराए हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को
अदाए -अज्जो -कर्म से उठा रही हो तुम
सुहाग - रात जो ढोलक पे गाए जाते हैं
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
खुदा ने साहिर को जाने कितनी तौफीक दी होगी ,कि वे अपने तसव्वुरात की परछाइयां अक्षरों में उतार पाए ..और यही परछाइयां देखते -बुनते वे न जाने किस आकाश में खो गए ..
वह नही जानते थे कि उनके अक्षरों में उतरने वाले ,कितनी परछाइयों से घिर जाते हैं ,और फ़िर खामोश हो जाते हैं ...यही इमरोज़ के हाथों से रचने वाले रंग भी कहते होंगे ...!!
11 comments:
बहुत उम्दा, क्या बात है!
ranju...
bahut pyara likh diya aapne
jaari rakho
जब भी अम्रता के बारे में पढ़ती हूँ तो किसी और ही दुनिया में पहुँच जाती हूँ...
सच में कुछ बात है...
पढवाने के लिये शुक्रिया
ओह !रन्जू दी, बहुत्त्त्त्त्त्त्त्त्त्त्त्त्त्त अच्छी पोस्ट है ये--
मुझे यकीन हैं कि हम अब कभी न बिछडेंगे
तुम्हे गुमान है कि हम मिल कर भी पराए हैं
अपने ही साए की जुम्बिश से खौफ़ !
उस पर तसव्वुरात की परछाइयों का
ऐसा अलहदा बयान ! ....बेजोड़.
=========================
शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बेहतरीन रंजू जी,सचमुच बेहतरीन
आलोक सिंह "साहिल"
साहिर तो हमें रोमाटिसिज्म की एक दूसरी दुनिया में ले गए...बहुत खूब पेशकश
अमृताजी को समझाने में उनकी ये बातें सबसे खूबसूरत लगी-
****मूझे लगता है ,जैसे साहिर की मुहब्बत के चौदह साल भी तुम तक पहुचने की एक राह थे...*****
$$$$प्यार को दो तरह से समझा जा सकता है, एक वह जो आसमान की तरह होता है और दूसरा सिर पर छत की तरह...$$$
ये भी बहुत खूब रहा ! ये दुनिया ही अलग है !
बहुत शुक्रिया जी..
Post a Comment