कब और किस दिशा में कुछ सामने आएगा ,कोई सवाल पूछेगा ,यह रहस्य पकड़ में नही आता ..एक बार मोहब्बत और दर्द के सारे एहसास ,सघन हो कर आग की तरह लपट से पास आए और इश्क का एक आकार ले लिया ..
उसने पूछा .......कैसी हो ? ज़िन्दगी के दिन कैसे गुजरते रहे ..?
जवाब दिया .....तेरे कुछ सपने थे .मैं उनके हाथों पर मेहन्दी रचाती रही .
उसने पूछा.... ..लेकिन यह आँखों में पानी क्यूँ है ?
कहा ......यह आंसू नही सितारे हैं ...इनसे तेरी जुल्फे सजाती रही ..
उसने पूछा ... .इस आग को कैसे संभाल कर रखा ?
जवाब दिया.... काया की डलिया में छिपाती रही
उसने पूछा -....बरस कैसे गुजारे ?
कहा ....तेरे शौक की खातिर काँटों का वेश पहनती रही
उसने पूछा ....काँटों के जख्म किस तरह से झेले ?
कहा ....दिल के खून में शगुन के सालू रंगती रही
उसने कहा.... और क्या करती रही ?
कहा ....कुछ नही तेरे शौक की सुराही से दुखों की शराब पीती रही
उसने पूछा........इस उम्र का क्या किया ?
कहा .....कुछ नही तेरे नाम पर कुर्बान कर दी .[यह अमृता का साक्षात्कार है जो एक नज्म की सूरत में है ..]
अमृता ने एक जगह लिखा है कि वह इतिहास पढ़ती नही .इतिहास रचती है ..और यह भी अमृता जी का कहना है वह एक अनसुलगाई सिगरेट हैं ..जिसे साहिर के प्यार ने सुलगाया और इमरोज़ के प्यार ने इसको सुलगाये रखा ..कभी बुझने नही दिया ..अमृता का साहिर से मिलन कविता और गीत का मिलना था तो अमृता का इमरोज़ से मिलना शब्दों और रंगों का सुंदर संगम ....हसरत के धागे जोड़ कर वह एक ओढ़नी बुनती रहीं और विरह की हिचकी में भी शहनाई को सुनती रहीं ..
धरती पर बहती गंगा का रिश्ता पातालगंगा से होता है .और एक रिश्ता आकाशगंगा से .....जो दर्द होंठों पर नहीं आया वह पातालगंगा का पानी बन गया उसी का नाम साहिर है ..और जो इबादत बन कर होंठो पर आया वह आकाश गंगा का पानी बन गया उसी का नाम इमरोज़ है ...
साहिर की मोहब्बत में वही लिखती रही ..
फ़िर तुम्हे याद किया
हमने आग को चूम लिया
इश्क एक जहर का प्याला है
इक घूँट हमने फ़िर से मांग लिया ..
और इमरोज़ की सूरत में जब अपने एहसास की इन्तहा देखी ,एक दीवानगी का आलम था तब लिखा ..
कलम से आज गीतों का काफिया तोड़ दिया
मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आया है
उठ ! अपनी गागर से पानी की कटोरी दे दे
मैं राह के हादसे ,अपने बदन से धो लूंगी.....
यह राह के हादसे ,आकाशगंगा का पानी ही धो सकता है .एक दर्द ने मन की धरती की जरखेज किया था .और एक दीवानगी उसका बीज बन गई ,मन की हरियाली बन गई ..वह मोहब्बत के रेगिस्तान से भी गुजरी है और समाज और महजब के रेगिस्तान से भी ..वक्त वक्त पर उनको कई फतवे मिलते रहे ..और वह लिखती रही ..
बादलों के महल में मेरा सूरज सो रहा --
जहाँ कोई दरवाजा नही ,कोई खिड़की नही
कोई सीढ़ी नही --
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनायी है
वह मेरे चिंतन के लिए बहुत संकरी है .....
उसने पूछा .......कैसी हो ? ज़िन्दगी के दिन कैसे गुजरते रहे ..?
जवाब दिया .....तेरे कुछ सपने थे .मैं उनके हाथों पर मेहन्दी रचाती रही .
उसने पूछा.... ..लेकिन यह आँखों में पानी क्यूँ है ?
कहा ......यह आंसू नही सितारे हैं ...इनसे तेरी जुल्फे सजाती रही ..
उसने पूछा ... .इस आग को कैसे संभाल कर रखा ?
जवाब दिया.... काया की डलिया में छिपाती रही
उसने पूछा -....बरस कैसे गुजारे ?
कहा ....तेरे शौक की खातिर काँटों का वेश पहनती रही
उसने पूछा ....काँटों के जख्म किस तरह से झेले ?
कहा ....दिल के खून में शगुन के सालू रंगती रही
उसने कहा.... और क्या करती रही ?
कहा ....कुछ नही तेरे शौक की सुराही से दुखों की शराब पीती रही
उसने पूछा........इस उम्र का क्या किया ?
कहा .....कुछ नही तेरे नाम पर कुर्बान कर दी .[यह अमृता का साक्षात्कार है जो एक नज्म की सूरत में है ..]
अमृता ने एक जगह लिखा है कि वह इतिहास पढ़ती नही .इतिहास रचती है ..और यह भी अमृता जी का कहना है वह एक अनसुलगाई सिगरेट हैं ..जिसे साहिर के प्यार ने सुलगाया और इमरोज़ के प्यार ने इसको सुलगाये रखा ..कभी बुझने नही दिया ..अमृता का साहिर से मिलन कविता और गीत का मिलना था तो अमृता का इमरोज़ से मिलना शब्दों और रंगों का सुंदर संगम ....हसरत के धागे जोड़ कर वह एक ओढ़नी बुनती रहीं और विरह की हिचकी में भी शहनाई को सुनती रहीं ..
धरती पर बहती गंगा का रिश्ता पातालगंगा से होता है .और एक रिश्ता आकाशगंगा से .....जो दर्द होंठों पर नहीं आया वह पातालगंगा का पानी बन गया उसी का नाम साहिर है ..और जो इबादत बन कर होंठो पर आया वह आकाश गंगा का पानी बन गया उसी का नाम इमरोज़ है ...
साहिर की मोहब्बत में वही लिखती रही ..
फ़िर तुम्हे याद किया
हमने आग को चूम लिया
इश्क एक जहर का प्याला है
इक घूँट हमने फ़िर से मांग लिया ..
और इमरोज़ की सूरत में जब अपने एहसास की इन्तहा देखी ,एक दीवानगी का आलम था तब लिखा ..
कलम से आज गीतों का काफिया तोड़ दिया
मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आया है
उठ ! अपनी गागर से पानी की कटोरी दे दे
मैं राह के हादसे ,अपने बदन से धो लूंगी.....
यह राह के हादसे ,आकाशगंगा का पानी ही धो सकता है .एक दर्द ने मन की धरती की जरखेज किया था .और एक दीवानगी उसका बीज बन गई ,मन की हरियाली बन गई ..वह मोहब्बत के रेगिस्तान से भी गुजरी है और समाज और महजब के रेगिस्तान से भी ..वक्त वक्त पर उनको कई फतवे मिलते रहे ..और वह लिखती रही ..
बादलों के महल में मेरा सूरज सो रहा --
जहाँ कोई दरवाजा नही ,कोई खिड़की नही
कोई सीढ़ी नही --
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनायी है
वह मेरे चिंतन के लिए बहुत संकरी है .....
19 comments:
अब तक अमृता जी पर जो कुछ पढ़ा, उनमें से सबसे उम्दा। धाराप्रवाह में मानों बहता ही चला गया। जब ठहरा तो पढ़कर ठिठका ही रह गया-
''बादलों के महल में मेरा सूरज सो रहा --
जहाँ कोई दरवाजा नही ,कोई खिड़की नही
कोई सीढ़ी नही --
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनायी है
वह मेरे चिंतन के लिए बहुत संकरी है .....''
बेहतरीन।
कलम से आज गीतों का काफिया तोड़ दिया
मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आया है
उठ ! अपनी गागर से पानी की कटोरी दे दे
मैं राह के हादसे ,अपने बदन से धो लूंगी.....
ranju...
bahtreen
अमृता को आप जिस शिददत से चाहती हैं, उस चाहत को सलाम करने का जी चाहता है।
कभी कभी सोचता हूँ कोई कैसे इतने लंबे समय तक इश्क की आग जलाये रख सकता है ?शायद यही वजह है वे अमृता है....
अमृता जी के शब्द सम्मोहित करनेवाले होते हैं। यही बात आप की लेखनी के प्रवाह में भी रहती है। भावनाओं का सैलाब पढ़नेवाले को बहा ले जाता है।
"the way it is being presented over here and the words u have selectd to describe are marvelleous" i hav no words for appreciation just wanna say " Hatts off to you"
Regards
अब क्या कहूँ...प्यार में डूबी इस शक्शियत को बयां करने के लिए कोई शब्द बना ही नहीं है...
नीरज
बहुत शानदार और मुहब्बत के रस से भरी पोस्ट.
अमृता का वजूद ही नहीं उनका लेखन, उनके शब्द भी अमृत से भरे हुए हैं. अमृत जो अमर कर देता है. और ये अमृत्व प्रेम के अलावा और किससे प्राप्त हो सकता है भला. उन्होंने भी इसी प्रेम के अमृत को पा लिया था. चाहे वो साहिर रहे हों या इमरोज़. और इसी लिए वे अमृता हैं.
सुन्दर.......
गहन भावों की इतनी सहज और प्रांजल अभिव्यक्ति ? अविश्वसनीय किंतु सच .सच जो सामने है चुनौती भरा है !
अमृता जी के बारे में क्या कहें ..पर आपका प्रयास.. इसके बारे में कह सकतें हैं..इसके लिए बहुत बधाई.
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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
रंजू जी आपने "मेरा पता" वाली कविता ब्लोग पर लगा दी अच्छा किया। मुझे अच्छा लगा।
ये अमृता के प्यार की आग थी जो किसी की आँखो में चुभती रही और किसी को दीये की तरह रोशनी देती रही। ये प्यार की आग धीरे धीरे बढती रही कभी बुझी नही।
भाव और भाषा का सुन्दर समायोजन।
shukriya..is srinkhla ke dwaraAmrita ji ke lekhan se pathakon ko roobaru karane ka ye aapkaprayaas behad sarahneey hai.
पढ़ते हैं तो लगता है की पोस्ट ख़त्म ही न हो...शब्द कम है कुछ कहने के लिए!
अमृता जी को पढने का अपना ही आकर्षण है. हर शब्द जैसे कोई नई कहानी कह रहा हो.
बेहतरीन प्रस्तुति.
"कैसी हो ? ज़िन्दगी के दिन कैसे गुजरते रहे ..?"
"तेरे कुछ सपने थे .मैं उनके हाथों पर मेहन्दी रचाती रही ."
बस ! बहुत है ...... शुक्रिया ....
बहुत उम्दा ...बहुत अच्छा लगा पढ़ कर ..शुक्रिया आप का ..
प्रेम गली अति सांकरी की
याद दिलाती सुंदर पोस्ट.
और ऊपर जो मीत ने कहा
वह भी काफी है....सच !
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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