Wednesday, October 22, 2008

एक चाबी का कौतुक



अमृता के लिखे नावल में मुझे "३६ चक "बहुत पसंद है ...यह उपन्यास अमृता ने १९६३ में लिखा था... जब यह १९६४ में छपा तो यह अफवाह फ़ैल गई कि पंजाब सरकार इसको बेन कर रही है ..पर ऐसा कुछ नही हुआ ..यह १९६५ में हिन्दी में 'नागमणि" के नाम से छपा और १९६६ उर्दू में भी प्रकाशित हुआ ...जब इस उपन्यास पर पिक्चर बनाने की बात सोची गई तो रेवती शरण शर्मा ने कहा कि यह उपन्यास समय से एक शताब्दी पहले लिखा गया है .हिन्दुस्तान अभी इसको समझ नही पायेगा ..और बासु भटाचार्य जी ने कहा कि इस पर पिक्चर बनी तो यह हिन्दुस्तान की पहली एडल्ट पिक्चर होगी ...बाद में इसको १९७४ में अमृता जी की एक दोस्त ने इसको अंगेरजी में अनुवाद किया

यह पूरा उपन्यास दो तरह से दृष्टिकोण पेश करता है ...कुमार का पात्र अपनी शारीरिक आवश्यकता को अपने समूचे व्यक्तित्व से तोड़ कर देखता है ...और अलका का पात्र उसे स्वयं की पहचान में से और स्वयं के मूल्यों और कद्रों से जोड़ कर ...इस में अलका दोनों ही पहलुओं के टकराव में अडोल .सहज हो कर अपने बल पर अडिग रहती है और कुमार अपनी पहचान खोजता हुआ टूट टूट कर जुड़ता है और जुड़ जुड़ कर टूटता है ...

जब कुमार अलका को बताता है कि सिर्फ़ अपने शरीर के लिए बाहर जाता है उस औरत के पास जो रोज़ बीस रूपये लेती थी ...और उसकी स्वंत्रता कभी नही मांगती .....तो अलका कहती है कि कि काश वह औरत मैं होती ...जब यह उपन्यास लिखा अमृता ने तो ,यह पंक्ति वही थी जो कभी इमरोज़ ने अमृता से कही थी ...उनके लिखे लफ्जों में ख़ुद से जुड़े लम्हों की बात होती थी ,तभी वह सहज रूप से हर बात कह जाती थी ....जो शब्द अलका ने उपन्यास में कहे ..वह लफ्ज़ अमृता ने इमरोज़ को कहे थे ...और यह लफ्ज़ सिर्फ़ अमृता ही कह सकती है

अस्वाभाविक हालत की स्भाविकता शायद और किसी औरत के लिए संभव नही हो सकती .अलका ही सिर्फ़ अमृता हो सकती है और अमृता ही सिर्फ़ अलका ..हर पात्र लेखक के साथ गहरा जुडा होता है ..अलका का पात्र रचते हुए वह अमृता के साथ जुड़ी रही ..उसी को संबोधित करते हुए अमृता ने एक कविता लिखी .यही एक ऐसी कविता है जो अमृता ने अपने किसी पात्र को संबोधित करके लिखी ..इसका नाम रखा उन्होंने "'पहचान .."'

कई हजार चाबियाँ मेरे पास थी
और एक -एक चाबी एक एक दरवाज़े को खोल देती थी
दरवाज़े के अन्दर किसी की बैठक भी होती थी
और मोटे परदे में लिपटा किसी का सोने का कमरा भी
और घरवालों का दुःख
जो उनके होते थे ,पर किसी समय मेरे भी होते थे
मेरी छाती की पीड़ा की तरह
पीड़ा ,जो दिन के समय जागूं तो ,जाग पड़ती थी ,
और रात के समय सपनों में उतर जाती थी ,
पर फ़िर भी
पैरों के आगे ,रक्षा की रेखा जैसी .एक लक्ष्मण रेखा होती थी
और जिसकी बदौलत में जब चाहती थी
घरवालों के दुःख घरवालों को दे कर
उस रेखा में लौट जाती थी
और आते समय लोगों के आंसूं लोगों को सौंप आती थी ..
देख ,जितनी कहनियाँ और उनके पात्र हैं !
उतनी ही चाबियाँ मेरे पास थी
और जिनके पीछे
हजारों ही घर ,जो मेरे नहीं ,पर मेरे भी थे ,
शायद वे अब भी है
पर आज एक चाबी का कौतुक
मैंने तेरे घर को खोला तो देखा
वह लक्ष्मण रेखा मेरे पैरों के आगे नहीं ,पीछे हैं
और सामने ,तेरे सोने के कमरे में .तू नहीं मैं हूँ .............

इस उपन्यास को यदि अब तक आपने नही पढ़ा हैं तो जरुर पढ़े ..और यहाँ पढ़ना चाहेंगे तो जरुर लिखे मुझे ..वैसे मैं समय -समय पर इसकी बात करती रहूंगी और भी इनके लिखे उपन्यासों के साथ साथ ....

21 comments:

शायदा said...

मैंने तेरे घर को खोला तो देखा
वह लक्ष्मण रेखा मेरे पैरों के आगे नहीं ,पीछे हैं
और सामने ,तेरे सोने के कमरे में .तू नहीं मैं हूँ

ये सब पढ़ना इश्‍क़ की किताब के पन्‍ने पलटने जैसा ही लगता है हमेशा, सच्‍ची किताबों के सच्‍चे पन्‍ने, अब क्‍यों नहीं लिखते लोग इस तरह....कहां गए वो पन्‍ने, वो स्‍याही और वो शब्‍द...।

seema gupta said...

मैंने तेरे घर को खोला तो देखा
वह लक्ष्मण रेखा मेरे पैरों के आगे नहीं ,पीछे हैं
और सामने ,तेरे सोने के कमरे में .तू नहीं मैं हूँ

"what to say and how to express, so touching words, if possible please make it availabe here to read in parts, as not possible to read full novel at a time"

Regards

manvinder bhimber said...

मेरी छाती की पीड़ा की तरह
पीड़ा ,जो दिन के समय जागूं तो ,जाग पड़ती थी ,
और रात के समय सपनों में उतर जाती थी ,
पर फ़िर भी
पैरों के आगे ,रक्षा की रेखा जैसी .एक लक्ष्मण रेखा होती थी
और जिसकी बदौलत में जब चाहती थी
घरवालों के दुःख घरवालों को दे कर
उस रेखा में लौट जाती थी
kirtne schche log hai ye

मोहन वशिष्‍ठ said...

एक एक शब्‍द ऐसा हे मानो प्‍यार दुख दर्द और तकलीफ की स्‍याही से डुबो कर निकाल लिया हो अमृता जी को पढवाने के लिए बारंबार धन्‍यवाद

Abhishek Ojha said...

ये किताब भी पढ़नी पड़ेगी... आभार ! लिखते रहिये.

सचिन श्रीवास्तव said...

घरवालों का दुःख
जो उनके होते थे ,पर किसी समय मेरे भी होते थे
मुझे नहीं लगता मैं इसके बारे में बात कर सकता हूं... चुप.. चुप्पी....

Anonymous said...

जैसा होता है एक चाबी का कौतुक

वैसा ही होता है पहचान का अचंभा

यादें खड़ी हो जाती हैं बनकर खंभा


यादों के इस खंभे के पार

जो देख पाए वही सरदार

यादें होती सदा असरदार।
- अविनाश वाचस्‍पति

डॉ .अनुराग said...

सिर्फ़ अमृता ही ऐसा लिख सकती थी.....हालांकि मुझे अमृता बतोर एक शायरा बहुत ज्यादा पसंद है....उपन्यासकार उतना प्रभावित नही करती ..

आलोक साहिल said...

मैंने तेरे घर को खोला तो देखा
वह लक्ष्मण रेखा मेरे पैरों के आगे नहीं ,पीछे हैं
और सामने ,तेरे सोने के कमरे में .तू नहीं मैं हूँ
very sweet.
ALOK SINGH "SAHIL"

सुशील छौक्कर said...

"शोहरत किसी को अपने आपको समझने में मदद नही करती, और न ही पैसा करता है। पर औरत किसी को अपने आपको समझने में उसी तरह मदद करती हैं, जिस तरह किसी की कला उसकी मदद करती हैं..."
नागमणि की चंद लाईने।
फिर से पढ़कर अच्छा लगा .....। और हाँ रंजू जी उनकी नागमणि नाम से एक मैगजीन भी निकलती थी आपने कभी पढी थी। मै कभी नही पढ पाया। अगर पढी है तो बताना कैसी मैगजीन थी वो..... समय निकाल कर मेल कर देना। मेहराबानी ।

पारुल "पुखराज" said...

ye nahi padhii...padhni hogi..shukriyaa

betuki@bloger.com said...

आपने नॉबल पढ़ने की जिज्ञासा पैदा कर दी। धन्यवाद।

जितेन्द़ भगत said...

उपन्‍यास आदि‍ कि‍ताबों पर लोगों की आलोचना पढ़ी है, नि‍तांत तटस्‍थ भी उन्‍हें पाया है। हो सके तो अपने पसंद के अनुरूप रोचक ढ़ंग से उपन्‍यास आदि‍ का भी जि‍क्र अवश्‍य करें, जैसे आज कि‍या। शुक्रि‍या।

फ़िरदौस ख़ान said...

कई हजार चाबियाँ मेरे पास थी
और एक -एक चाबी एक एक दरवाज़े को खोल देती थी
दरवाज़े के अन्दर किसी की बैठक भी होती थी
और मोटे परदे में लिपटा किसी का सोने का कमरा भी
और घरवालों का दुःख
जो उनके होते थे ,पर किसी समय मेरे भी होते थे
मेरी छाती की पीड़ा की तरह
पीड़ा ,जो दिन के समय जागूं तो ,जाग पड़ती थी ,
और रात के समय सपनों में उतर जाती थी ,

बहुत ख़ूब...

रंजू भाटिया said...

कल इस ब्लॉग के कमेन्ट बॉक्स में कॉमेंट्स देने में कुछ समस्या अ आरही थी रंजना जी [संवेदना संसार ]का इ- मेल पर यह संदेश आया था इस पोस्ट पर ....

कोई भी लेखक जो रचता है,वह उसके अपने या अपने आस पास अपने परायों के जिए
हुए सच का ही शब्दों में गढा गया विवरण होता है,जिसमे थोडी बहुत काल्पनिक
रंगों का समावेश होता है.
कुछ लोग समय से बहुत पहले पैदा हो चुके होते हैं,उनमे से एक अमृता जी भी हैं.
बड़ा अच्छा विवेचन करती हैं आप.
post mane padh to lee, par pata nahi kyon blog par comment post nahi ho pa raha.

regards
ranjana.

Udan Tashtari said...

यह उपन्यास तो नहीं पढ़ा. अब पढ़ने की इच्छा जाग गई है. आप यहाँ पढ़वा देंगी तो और भी उत्तम.

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक मंगलकामनाऐं.

जगदीश त्रिपाठी said...

अमृता प्रीतम के चुने हुए उपन्यास नाम से प्रकाशित संग्रह में अमृता जी का यह उपन्यास भी है। मैंने उस संग्रह के सारे उपन्यास पढ़े थे। इस कथा में अलका जिनकी होते-होते रह गई थी शायद उस आर्मी अफसर का नाम भी शायद जगदीश ही था। जहां तक अमृता जी के लेखन की बात है तो मैं यह समझता हूं कि उसके बारे में हम अभी कुछ के लायक नहीं है। और शायद कभी नहीं हो पाएंगे।

Manish Kumar said...

shukriya is kitaab ke bare mein batane ke liye

Dr. Nisha Bala Tyagi said...

khayalo mein khayalo se hat kar ek vastavikta ka ehsaas hota hai amrita ji ko par kar
Amazing,I am anxious to read her book NISHA BALA TYAGI

समयचक्र said...

दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ...

Unknown said...

mere new blog pe aapka sawagat hai......
http://numerologer.blogspot.com/