Monday, November 3, 2008

इश्क ....जिसे न ऋषि जाने .न मुनि जाने ..

तवारीख ........

इतिहास ने दहलीज पर खड़े हो कर
विज्ञान का मस्तक चूमा
और विज्ञान था कि मस्तक को
कितनी ही देर टटोलता रहा
तवारीख हँसी --
जो जाना गया ,वही तुम
जो नही जाना गया
वह न मैं ,न तुम ..
विज्ञान ने शीश झुकाया
और कहने लगा --एक सवाल है
जो कई बार मस्तक से निकल जाता है
मैं हैरान होता --कि वह रास्ता किस तरह का
जहाँ से कोई दो आत्माएं गुजरती हैं
और रास्ते के सीने में फूल खिलते हैं
तवारीख हँसी --हाँ
और दुनिया के कुएं पर इल्जाम गिड़ते (घूमते ) हैं ..

हाँ ऐसा होता है ,
वह कौन सा रास्ता या पुल है
जिससे गुजर कर ---
वे आत्माओं के मालिक दर्शन दीदार करते हैं ?"

तवारीख मुस्कराई --
जब कोई मरुस्थल-सी तपती आत्मा
पानी का सपना देख लेती है
पर तडपती हुई को रास्ता नहीं मिलता
तब एक इलाही करम होता है --
कि हवाओं में से कोई रास्ता तामीर होता है
पर रास्ते के चिन्ह
इधर बनते --और उधर मिटते हैं ..

फ़िर कैसे तलाशूँ ? विज्ञान बोला
तवारीख हँसी ."न ऋषि जाने .न मुनि जाने "
तुमने अगर वह रास्ता तलाशना है
तो किसी कैस(राँझा ) से एक किनका मांगना
कि तुम्हे वह दीवानगी मिले --
जो हर काल में किसी एक को मिलती है
जो हर काल में कोई एक होता है ...



सच में वह कोई एक एक हो होता है जो इस तपते मरुथल में पानी का सपना देख लेता है ,सबके बस में कहाँ है प्रेम की इस ऊंचाई को पाना ...तभी तो हम आज दैहिक प्रेम से आगे कुछ सोच ही नही पाते हैं ....दिल्ली रेडियो से देविंदर ने एक बार अमृता के इंटरव्यू लिया था ,जो बाद में एक लम्बी मुलाकात की शक्ल में उन्होंने अपनी किताब "कलम के भेद" में शामिल किया ।यह किताब १९६६ में पब्लिश हुई थी ..उसी इंटरव्यू के कुछ अंश यहाँ दे रही हूँ ..यह अंश अमृता के और करीब ले जाते हैं ...

देविंदर ----सबसे पहला तजुर्बा ?लिखने का ..

अमृता ----सबसे पहला तजुर्बा ? वह बड़ी कच्ची उम्र की बड़ी अल्हड रचना थी |

देविंदर --- और उसके बाद ?

अमृता ---और उसके बाद कुदरत भूल गई कि मैं हाड मांस की एक जीती जागती चीज हूँ ..उसने मुझे एक अच्छी सी मशीन समझ लिया .एक हादसा मेरे भीतर डाल दिया .और एक रचना मेरे भीतर से निकाल ली ...

देविंदर --- उसके इस जुल्म में रहम भी मिला हुआ होता है .चाहे जुल्म कलाकार के लिए हो .और रहम लोगों केलिए ...

अमृता --सिर्फ़ लोगों के लिए नहीं , कलाकार के लिए भी ..जिस तरह धीरे- धीरे हमें अपनी ही कहानियो के कल्पितपात्र असली लगने लगते हैं .उसी तरह हम ख़ुद ,कहानियों के असली पात्र ,समय पा कर अपनी ही नजरों में कल्पितहो जाते हैं ..हमारी रचनाएं सही अर्थों में हमारा दुःख बांटती हैं .और धीरे धीरे हमें यह लगने लगता है कि यह हादसा हमारे साथ नही बीता था ,हमारी कहानी के किसी पात्र पर बीता था ...किसी कम्मो पर , किसी रेखा परऔर इस तरह हम अपनी कहानियो में अपनी जगह जो भी नाम रखते हैं ,वह हमारी पीड़ा को झेल लेता है ... असल में आगे बढ कर हादसे को झेलना भी और परे हट कर उसको देखना भी एक अजीब तजुर्बा है ...


देविंदर -----आपने जब " गीतों वाले किताब "लिखी थी तो उसको पढ़ कर बहुत सी कहानियां बनायी गयीं बहुत से लोगों ने आपके नाम के साथ उसको जोड़ना चाहा और वह बाद में भी टूटी फूटी किस्सों में सुनाई जाती रही

अमृता ----इस जोर जबरदस्ती के युग में जो सबसे आसन बात होती है वह होती है, किसी औरत के नाम के साथ जो जी में आए जड़ दो ..वे टूटी फूटी बातें आज भी मेरी ज़िन्दगी के बदन में कंकडों की तरह चुभती हैं ..जब कभी सभ्यता का युग आएगा तब सच्चाई इस तरह जख्मी नही होगी ..आज विज्ञान कहाँ का कहाँ पहुँच जाए .मैं इस को सभ्यता का युग नही मानती ...सभ्यता का युग तब आएगा ,जब औरत की मर्ज़ी के बिना उसका नाम भी होंठों पर नही लाया जा सकेगा ..अभी तो लोग इस युग में लेखक भी डंडे के जोर पर बनना चाहते हैं और आशिक भी डंडे के जोर से ....

देविंदर ---आपने "व्यापार" जैसी कविता लिखी ---शरीर का व्यापार ,तराजू के दो पलडों की तरह ,एक मर्द और एक औरत रोज़ मांस तोलते ..यह आपकी कितनी बड़ी जुरुअत थी ?

अमृता ----क्या करूँ माथे में सोच का श्राप ले कर जन्मी हूँ ..हमारी दुनिया में एक वह बाजार होता है ,जहाँ जिस्मों का सौदा रात की स्याह अंधेरे में होता है ,और दूसरा बाजार होता है विवाह की संस्था ,जहाँ सौदा दिन दिहाडे होता है

देविंदर ---आपकी एक कविता है"हर बाड़े की भेडें "..यह महजबी कीमतों पर कितना सख्त व्यंग था ?

अमृता ----.पाल गोंगा ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले अपने एक दोस्त से कहा था कि मैंने अपनी आधी ज़िन्दगी सिर्फ़ एक ख्याल को पूरा करने में लगा दी ..वह ख्याल था साहस ,.जरुरत .... किसी भी कला के विकास के यह एक बुनयादी चीज है ..जब उसको आधी ज़िन्दगी लगानी पड़ी वो भी शायद इस लिए कि बहुत सारे साहस का अधिकार तो उसको मर्द होने के नाते समाज से पहले ही मिला हुआ था ...पर मैं तो औरत हूँ ..मुझे तोअपनी सारी ज़िन्दगी इस साहस के लिए लगानी पड़ेगी .आधी औरत होने के नाते .आधी कलाकार होने के नाते ...

देविंदर ---मेरा ख्याल है कि निरी इंसानी खूबसूरती आपके लिए कोई अर्थ नही रखती है ...?

अमृता --इस बात पर मुझे कृष्ण चंदर की कही हुई एक बात याद आती है कि निरी इंसानी खूबसूरती एक छोटी कहानी जैसी होती है ,जो एक ही बैठक में खत्म हो जाती है ......

देविंदर --और मानसिक खूबसूरती ....?
अमृता --मेरे ख्याल में समय का इतिहास ,जिसका कोई भी कांड अन्तिम कांड नही होता ......
.. .... . ...

20 comments:

ravindra vyas said...

अमृताजी के हर कहन में एक रूमानीपन तो है लेकिन वह कुछ कुछ सूफियाना अंदाज से लिपटा हुआ है। उनकी अधिकांश बातें रूहानी हैं, और मुझे लगता है कि वे ताउम्र औरत के रूहानीपन को ही अभिव्यक्त करती रहीं। वे स्त्री की देह पर तो ठहरती हैं लेकिन बहुत जल्द ही इससे उतरकर वे उसकी आत्मा के उन अंधेरे-उजालों की शिनाख्त करती हैं जो उसे कहीं ज्यादा गहरे मानी देते हैं।

नीरज गोस्वामी said...

"निरी इंसानी खूबसूरती एक छोटी कहानी जैसी होती है ,जो एक ही बैठक में खत्म हो जाती है ......"
देविंदर --और मानसिक खूबसूरती ....?
अमृता --मेरे ख्याल में समय का इतिहास ,जिसका कोई भी कांड अन्तिम कांड नही होता
वाह वा...क्या बात कही है....जिंदगी भर याद रखने योग्य...वाह.
नीरज

डॉ .अनुराग said...

लगता है अमृता आपके भीतर बस गयी है ....आपने कितनी कडियों को जमा करके रखा है ?सचमुच फैन हो तो आपसा

pallavi trivedi said...

aapke zariye amrata ke baare mein bahut kuch jaanne ko mil raha hai...thanx

सुशील छौक्कर said...

फ़िर कैसे तलाशूँ ? विज्ञान बोला
तवारीख हँसी ."न ऋषि जाने .न मुनि जाने "
तुमने अगर वह रास्ता तलाशना है
तो किसी कैस(राँझा ) से एक किनका मांगना
कि तुम्हे वह दीवानगी मिले --
जो हर काल में किसी एक को मिलती है
जो हर काल में कोई एक होता है ...

सच ही कहा।

निरी इंसानी खूबसूरती एक छोटी कहानी जैसी होती है ,जो एक ही बैठक में खत्म हो जाती है।

मैं अक्सर पढते पढते ऐसी लाईनों लिख लिया करता था पर ना जाने वो डायरी कहाँ चली गई। इसे पढकर डायरी की याद आ गई।
रंजू जी सच आप अमृता जी पर बहुत खूबसूरत पोस्ट लिखती हैं।

Abhishek Ojha said...

कई बातें है इस पोस्ट में जो याद रह जायेंगी एक ये भी: "दूसरा बाजार होता है विवाह की संस्था ,जहाँ सौदा दिन दिहाडे होता है"

MANVINDER BHIMBER said...

Ranju,
kya kahu
tumhra or mere es hi nasha hai...junoon hai.....

admin said...

यह साक्षात्कार जीवन के कई पहलुओं को नये तरीके से देखने का सलीका प्रदान करता है। शुक्रिया।

अभिषेक मिश्र said...

..जब कभी सभ्यता का युग आएगा तब सच्चाई इस तरह जख्मी नही होगी ..आज विज्ञान कहाँ का कहाँ पहुँच जाए .मैं इस को सभ्यता का युग नही मानती ...सभ्यता का युग तब आएगा ,जब औरत की मर्ज़ी के बिना उसका नाम भी होंठों पर नही लाया जा सकेगा ..
नारी की कहीं अन्दर छुपी पीड़ा दिखती है अमृता जी की इन पंक्तियों में. उनके सपनों की सभ्यता की सुबह जरूर आएगी.

Arvind Mishra said...

इस रूहानी रूमानियत को सलाम !
लगता है अमृता की आत्मा आपके भीतर रची बसी है या आप उनकी क्लोन हैं ! अब उस क्लाऊन अररर इमरोज को भी तो ढूँढें !

जितेन्द़ भगत said...

मेरा तो ये मानना है कि‍ अमृता जी पर कोई रि‍सर्च करे और आपको न पढ़े तो उसका रि‍सर्च अधूरा ही रह जाएगा।
कवि‍ता का सुंदर अंश था-
तुम्हे वह दीवानगी मिले --
जो हर काल में किसी एक को मिलती है
जो हर काल में कोई एक होता है ...

साक्षात्‍कार भी दुर्लभ है, और अमृता जी की इस बात में एक नंगी सच्‍चाई-
हमारी दुनिया में एक वह बाजार होता है ,जहाँ जिस्मों का सौदा रात की स्याह अंधेरे में होता है ,और दूसरा बाजार होता है विवाह की संस्था ,जहाँ सौदा दिन दिहाडे होता है।

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया रही यह रचना और बातचीत पढ़ना. आपका हर बार की तरह ही आभार.

seema gupta said...

विज्ञान ने शीश झुकाया
और कहने लगा --एक सवाल है
जो कई बार मस्तक से निकल जाता है
मैं हैरान होता --कि वह रास्ता किस तरह का
जहाँ से कोई दो आत्माएं गुजरती हैं
और रास्ते के सीने में फूल खिलते हैं
तवारीख हँसी --हाँ
और दुनिया के कुएं पर इल्जाम गिड़ते (घूमते ) हैं ..
"so, loving to read it marvelleous"

regards

आलोक साहिल said...

anurag ji,aapne kaha fan ho to aapsa(ranju.
sach to yah ki SHE IS HERSELF "AMRITA".
isn't ranjana ji?
ALOK SINGH "SAHIL"

कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra) said...

आदरणीया रंजना जी,
मैने अमृता जी को उतना नही पढ़ा, लेकिन जितना पढ़ा है, उतने में उनसे संबद्धता का एक अबूझ तंतु जुड़ गया है... उनकी चन्द पंक्तियाँ रसीदी टिकट से याद आती हैं..... ट्रेजिडी यह नही होती कि इश्क़ के ठिठुरते शरीर के लिए आप सारी उम्र गीतों के पैरहन सीते रहें.....ट्रेजिडी यह होती है कि उन पैरहनों को सीने के लिए आपके पास विचारों का धागा चूक जाए और कलम-सूई का छेद टूट जाए....

मेरी हौसला-अफजाई के लिए शुक्रिया... अपने कोसे जज़्बात मैं अल्फ़ाज़ में ढालने की कोशिश करता रहूँगा.....

Dr. Nazar Mahmood said...

very good dear

रेखा श्रीवास्तव said...

रचना जी -- शुरू से अंत तक पढने का मौका मिल नहीं पता है, लेकिन अमृता प्रीतम मेरी आदर्श रहीं हैं . बेबाक जिंदगी और स्पष्ट लेखन , कहीं कोई लाग लपेट नहीं . आपके पोस्ट मेरी अमृता जी को पढने कि चाह को पूरा करा रहे हैं. आगे भी प्रतीक्षा रहेगी......
बहुत बहुत शुक्रिया.

रेखा श्रीवास्तव said...

Sorry ranjana ji-- typing mistake ho gayi -- very very sorry.

Manish Kumar said...

bahut shukriya is interview ke ansh yahan prakashit karne ka

Dr. Chandra Kumar Jain said...

बहुत...बहुत...बहुत प्रभावशाली और
मन को छूने वाली प्रस्तुति.
कल्पित का असल हो जाना
और
असल का कल्पना में तब्दील हो जाना
जैसा ख़याल कहानी की ज़िंदगी और
ज़िंदगी की कहानी के कितने फलसफे
खोल रहा है बरबस !.....सच, क्या बात है !
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शुक्रिया रंजना जी.

डॉ.चन्द्रकुमार जैन