अमृता के लेखन में उनकी कलम से जो कुछ उतरा वह उनकी ज़िन्दगी से गुजरा हुआ है ...ज़िन्दगी की देखी सुनी या बीती घटनाएं कब और कैसे किस प्रकार लेखन का हिस्सा बन जाती है .कभी जानते हुए कभी अनजाने में ..पर यह कैसे कब होता है कोई सिरा इसका पकड़ में नही आता है ...
सबसे अधिक हैरानी तब होती है जब वह हम कुछ अचेतन तौर पर अनुभव करते हैं पर वह अनुभव जब किसी हमारी ही लिखी रचना का अंश बन जाता है तो वह कई बार हैरानी का विषय बन जाता है ..
इस तरह के अनुभवों को अमृता ने अपने लिखे कई कविताओं और उपन्यासों में लिखा है ...वह लिखती हैं जब वह पहली बार रविन्द्रनाथ टैगोर से मिली तो बहुत छोटी थी ,कवितायें तब भी लिखती थी पर कुछ बचकानी सी ..पर उन्होंने जब उन्हें कोई अमृता को ही उनकी लिखी कविता सुनाने के लिये कहा तो वह कविता अमृता ने बहुत सकुचा कर उन्हें सुनाई ..उस को सुन कर रविन्द्रनाथ टैगोर ने जो उन्हें प्यार दिया वह कविता के अनुरूप नही था पर उनके अपने व्यक्तितव के अन्रुरूप जरुर था ...उसका बहुत गहरा प्रभाव अमृता पर हुआ ..इस से वह बहुत प्रभावित हुई .और जब रविन्द्रनाथ टैगोर की जन्मशताब्दी मनाई जाने वाले थी ..तब उन्होंने एक कविता रविन्द्रनाथ टैगोर पर लिखनी चाही कुछ पंक्तियाँ लिखी भी पर उनको उस से तस्सली नही हुई ...
उसके बाद वह मास्को चली गयीं ...१९69 में ...वहां वह जिस होटल में ठहरी थी वहां मायकोवस्की का बुत बना हुआ था और जिस जगह वह होटल था ,उसका नाम गोर्की स्ट्रीट था ..एक रात कोई दस बजे उन्होंने होटल की खिड़की से देखा कि बहुत से लोग मायकोवस्की के बुत के इर्द गिर्द खड़े हैं ..ज्ञात हुआ कि कई नौजवान कवि अक्सर रात को वहां आ कर मायकोवस्की की कवितायें पढ़ते हैं और कभी अपनी .तब रास्ता चलते लोग भी वहां एकत्र हो जाते हैं और इन कवियों से कई कविताये सुनते हैं और अपनी फरमाइश भी उनके सामने रखते हैं ....इस प्रकार यह खुला कवि सम्मलेन लगभग आधी रात तक चलता रहता है ..हवा ठंडी लगने लगे तो यह लोग अपने कोटों के कालर ऊपर पलट लेतें हैं .बारिश होने लगे तो छतरी तान लेतें हैं ...अमृता भी उत्सुकता वश इस कवि सम्मलेन में चलीं गयीं ...उन्हें रुसी भाषा का एक लफ्ज़ भी समझ में नही आ रहा था .पर उनके स्वर में जो गर्माहट थी वह उसको महसूस कर पा रही थी ...जब वह सब सुन कर अपने कमरे में लौटी तो उनकी आँखों के सामने रविंद्रनाथ का चेहरा भी था मायकोवस्की का भी और गोर्की का भी ..सारे चेहरे जैसे एक हो गए ...और उस रात उनसे वह अधूरी कविता जो उन्होंने रविन्द्रनाथ पर लिखनी शुरू की थी वह पूरी हो गई ..
महरम इलाही हुस्न दी ,कासद मानुखी इश्क दी ,
एह कलम लाफानी तेरी .सौगात फानी जिस्म दी ...
इसी तरह अचेतन मन की एक घटना उन्होंने अपन एक उपन्यास "आक के पत्ते "में लिखी है ..जब उस उपन्यास का मुख्य पात्र रोज शाम के समय स्टेशन पर जा कर आने वाली गाड़ियों में अपनी खोयी बहन का चेहरा तलाश करने की कोशिश करता है तो एक दिन अनायास ही उसके पैर उसको अपने गांव वाली गाड़ी के अन्दर ले जाते हैं .सर्दी के दिन ,कोई गर्म कपड़े पास नहीं .वह रात की ठण्ड में गुच्छा सा बन कर एक कौने में बैठ जाता है ..विचारों में डूबा उसका मन नींद में भी डूब जाता है ...एक स्टेशन पर जब गाड़ी रूकती है तो उतरने चढ़ने वाली सवारियों की आहट से वह उठ जाता है .जब उठता है तो देखता है कि एक रजाई उसके ऊपर है और सामने वाली सीट पर एक नर्म से चेहरे वाला एक बुजुर्ग आदमी बैठा हुआ है ..एक खेस लपेटे .अपनी रजाई उसने उसको दे दी है ..यह घटना यूँ ही उपन्यास में नही आ गई ..इस से अमृता की एक याद जुड़ी है ..जब वह यह उपन्यास लिखने से चार साल पहले रोमानियां से बल्गारिया जा रही थी ..वह रात बहुत ठंडी थी .पास में उनके कोट के सिवा कुछ भी नही था उन्होंने वही घुटने जोड़ कर अपने ऊपर कर लिया ..फ़िर भी जब वह उसको सिर की और करती तो पैरों में ठण्ड लगती और जब वह पैरों की तरफ़ करती तो सिर और कंधे ठिठुर जाते ....इस तरह ख़ुद को ढकते ढकते न जाने उन्हें कब नींद आ गई ...पर एक गर्माइश सी वह उस नींद में भी महसूस करती रहीं ...जब सुबह उठीं तो देखा की उनके साथ सफर करने वाले एक ब्ल्गारियन आदमी ने अपना ओवर कोट अमृता पर रजाई की तरह डाल दिया था ....
यह घटना उन्होंने चेतन तौर पर उस उपन्यास में नहीं डाली थी ,पर लिख चुकने के कितने वर्ष बाद जब उन्होंने उसको पढ़ा तो लगा कि रात की जो गर्माइश थी वह उनको रगों में कहीं अमानत की तरह पड़ी हुई थी जो उस उपन्यास में उतर गई ....
कुछ घटनाएं बहुत थोड़े समय में रचना का अंश बन जाती है पर कुछ घटनाओं को कलम तक पहुँचने में बरसों का फासला तय करना पड़ता है ..इसी तरह की एक घटना है जब वह १९६० में नेपाल गई थी ..उन्हें वहां पाँच दिन रहना था ..और रोज किसी न किसी कवि सम्मलेन में शामिल होना था ..वहां कुछ नेपाली कवि रोज मिलते उन्हें ..उन में एक कवि रोज उनसे मिलते और उनकी एक ख़ास कविता ही उनसे सुनाने की फरमाइश करते ...इस से अधिक कुछ नहीं ..पर जिस दिन उन्होंने वापस दिल्ली आना था तो कई कवियों के साथ वह कवि भी उनको छोड़ने एयरपोर्ट तक आए और सारे समय जब तक जाने का समय नही आया उनका गर्म कोट उठाये रहे ..जब वह जाने लगीं तो उन्होंने धीरे से अमृता से कहा कि ...." जो भार आपको दिखायी देता है यह तो आप ले लीजिये पर जो नहीं दिखायी दे रहा है वह मैं हमेशा लिए रहूँगा .."यह सुन कर अमृता चौंक गयीं ..दिल्ली पहुँच कर उन्होंने के उपन्यास लिखा "हुंकारा" उनके बारे में नहीं ..पर उनका कहा वाक्य अनायास ही उस कहानी में आ गया ...
चेतन अचेतन मन के किस्से कब हमारी कलम का हिस्सा बन जाते हैं ,कब हम जान पाते हैं ...इस तरह के उनके उपन्यासों .कहानी और कविता से जुड़े किस्सों की बात जारी रहेगी अगली कड़ी में भी ...मुझे यह बहुत सहज और रोचक लगे . इनको पढ़ना जानना अपनी ही किसी ज़िन्दगी का हिस्सा जैसे हों ....और यह हमेशा इस तरह फिजा में रहेंगे ..जैसे उनकी लिखी यह कविता .....
आज धरती से कौन विदा हुआ है
कि आसमान ने बाहें फैला कर
धरती को गले लगा लिया है
त्रिपुरा ने हरी चादर कफ़न पर डाली
और सुबह की लालिमा ने
आंखों का पानी पोंछ कर
धरती के कंधे पर हाथ टिका लिया
और कहा ....
थोडी सी महक विदा हुई है
पर दिल से न लगाना
कि आसमान ने तुम्हारी महक को ..
सीने में संभाल लिया है ....
यही चर्चा जारी अगली कड़ी में भी
सबसे अधिक हैरानी तब होती है जब वह हम कुछ अचेतन तौर पर अनुभव करते हैं पर वह अनुभव जब किसी हमारी ही लिखी रचना का अंश बन जाता है तो वह कई बार हैरानी का विषय बन जाता है ..
इस तरह के अनुभवों को अमृता ने अपने लिखे कई कविताओं और उपन्यासों में लिखा है ...वह लिखती हैं जब वह पहली बार रविन्द्रनाथ टैगोर से मिली तो बहुत छोटी थी ,कवितायें तब भी लिखती थी पर कुछ बचकानी सी ..पर उन्होंने जब उन्हें कोई अमृता को ही उनकी लिखी कविता सुनाने के लिये कहा तो वह कविता अमृता ने बहुत सकुचा कर उन्हें सुनाई ..उस को सुन कर रविन्द्रनाथ टैगोर ने जो उन्हें प्यार दिया वह कविता के अनुरूप नही था पर उनके अपने व्यक्तितव के अन्रुरूप जरुर था ...उसका बहुत गहरा प्रभाव अमृता पर हुआ ..इस से वह बहुत प्रभावित हुई .और जब रविन्द्रनाथ टैगोर की जन्मशताब्दी मनाई जाने वाले थी ..तब उन्होंने एक कविता रविन्द्रनाथ टैगोर पर लिखनी चाही कुछ पंक्तियाँ लिखी भी पर उनको उस से तस्सली नही हुई ...
उसके बाद वह मास्को चली गयीं ...१९69 में ...वहां वह जिस होटल में ठहरी थी वहां मायकोवस्की का बुत बना हुआ था और जिस जगह वह होटल था ,उसका नाम गोर्की स्ट्रीट था ..एक रात कोई दस बजे उन्होंने होटल की खिड़की से देखा कि बहुत से लोग मायकोवस्की के बुत के इर्द गिर्द खड़े हैं ..ज्ञात हुआ कि कई नौजवान कवि अक्सर रात को वहां आ कर मायकोवस्की की कवितायें पढ़ते हैं और कभी अपनी .तब रास्ता चलते लोग भी वहां एकत्र हो जाते हैं और इन कवियों से कई कविताये सुनते हैं और अपनी फरमाइश भी उनके सामने रखते हैं ....इस प्रकार यह खुला कवि सम्मलेन लगभग आधी रात तक चलता रहता है ..हवा ठंडी लगने लगे तो यह लोग अपने कोटों के कालर ऊपर पलट लेतें हैं .बारिश होने लगे तो छतरी तान लेतें हैं ...अमृता भी उत्सुकता वश इस कवि सम्मलेन में चलीं गयीं ...उन्हें रुसी भाषा का एक लफ्ज़ भी समझ में नही आ रहा था .पर उनके स्वर में जो गर्माहट थी वह उसको महसूस कर पा रही थी ...जब वह सब सुन कर अपने कमरे में लौटी तो उनकी आँखों के सामने रविंद्रनाथ का चेहरा भी था मायकोवस्की का भी और गोर्की का भी ..सारे चेहरे जैसे एक हो गए ...और उस रात उनसे वह अधूरी कविता जो उन्होंने रविन्द्रनाथ पर लिखनी शुरू की थी वह पूरी हो गई ..
महरम इलाही हुस्न दी ,कासद मानुखी इश्क दी ,
एह कलम लाफानी तेरी .सौगात फानी जिस्म दी ...
इसी तरह अचेतन मन की एक घटना उन्होंने अपन एक उपन्यास "आक के पत्ते "में लिखी है ..जब उस उपन्यास का मुख्य पात्र रोज शाम के समय स्टेशन पर जा कर आने वाली गाड़ियों में अपनी खोयी बहन का चेहरा तलाश करने की कोशिश करता है तो एक दिन अनायास ही उसके पैर उसको अपने गांव वाली गाड़ी के अन्दर ले जाते हैं .सर्दी के दिन ,कोई गर्म कपड़े पास नहीं .वह रात की ठण्ड में गुच्छा सा बन कर एक कौने में बैठ जाता है ..विचारों में डूबा उसका मन नींद में भी डूब जाता है ...एक स्टेशन पर जब गाड़ी रूकती है तो उतरने चढ़ने वाली सवारियों की आहट से वह उठ जाता है .जब उठता है तो देखता है कि एक रजाई उसके ऊपर है और सामने वाली सीट पर एक नर्म से चेहरे वाला एक बुजुर्ग आदमी बैठा हुआ है ..एक खेस लपेटे .अपनी रजाई उसने उसको दे दी है ..यह घटना यूँ ही उपन्यास में नही आ गई ..इस से अमृता की एक याद जुड़ी है ..जब वह यह उपन्यास लिखने से चार साल पहले रोमानियां से बल्गारिया जा रही थी ..वह रात बहुत ठंडी थी .पास में उनके कोट के सिवा कुछ भी नही था उन्होंने वही घुटने जोड़ कर अपने ऊपर कर लिया ..फ़िर भी जब वह उसको सिर की और करती तो पैरों में ठण्ड लगती और जब वह पैरों की तरफ़ करती तो सिर और कंधे ठिठुर जाते ....इस तरह ख़ुद को ढकते ढकते न जाने उन्हें कब नींद आ गई ...पर एक गर्माइश सी वह उस नींद में भी महसूस करती रहीं ...जब सुबह उठीं तो देखा की उनके साथ सफर करने वाले एक ब्ल्गारियन आदमी ने अपना ओवर कोट अमृता पर रजाई की तरह डाल दिया था ....
यह घटना उन्होंने चेतन तौर पर उस उपन्यास में नहीं डाली थी ,पर लिख चुकने के कितने वर्ष बाद जब उन्होंने उसको पढ़ा तो लगा कि रात की जो गर्माइश थी वह उनको रगों में कहीं अमानत की तरह पड़ी हुई थी जो उस उपन्यास में उतर गई ....
कुछ घटनाएं बहुत थोड़े समय में रचना का अंश बन जाती है पर कुछ घटनाओं को कलम तक पहुँचने में बरसों का फासला तय करना पड़ता है ..इसी तरह की एक घटना है जब वह १९६० में नेपाल गई थी ..उन्हें वहां पाँच दिन रहना था ..और रोज किसी न किसी कवि सम्मलेन में शामिल होना था ..वहां कुछ नेपाली कवि रोज मिलते उन्हें ..उन में एक कवि रोज उनसे मिलते और उनकी एक ख़ास कविता ही उनसे सुनाने की फरमाइश करते ...इस से अधिक कुछ नहीं ..पर जिस दिन उन्होंने वापस दिल्ली आना था तो कई कवियों के साथ वह कवि भी उनको छोड़ने एयरपोर्ट तक आए और सारे समय जब तक जाने का समय नही आया उनका गर्म कोट उठाये रहे ..जब वह जाने लगीं तो उन्होंने धीरे से अमृता से कहा कि ...." जो भार आपको दिखायी देता है यह तो आप ले लीजिये पर जो नहीं दिखायी दे रहा है वह मैं हमेशा लिए रहूँगा .."यह सुन कर अमृता चौंक गयीं ..दिल्ली पहुँच कर उन्होंने के उपन्यास लिखा "हुंकारा" उनके बारे में नहीं ..पर उनका कहा वाक्य अनायास ही उस कहानी में आ गया ...
चेतन अचेतन मन के किस्से कब हमारी कलम का हिस्सा बन जाते हैं ,कब हम जान पाते हैं ...इस तरह के उनके उपन्यासों .कहानी और कविता से जुड़े किस्सों की बात जारी रहेगी अगली कड़ी में भी ...मुझे यह बहुत सहज और रोचक लगे . इनको पढ़ना जानना अपनी ही किसी ज़िन्दगी का हिस्सा जैसे हों ....और यह हमेशा इस तरह फिजा में रहेंगे ..जैसे उनकी लिखी यह कविता .....
आज धरती से कौन विदा हुआ है
कि आसमान ने बाहें फैला कर
धरती को गले लगा लिया है
त्रिपुरा ने हरी चादर कफ़न पर डाली
और सुबह की लालिमा ने
आंखों का पानी पोंछ कर
धरती के कंधे पर हाथ टिका लिया
और कहा ....
थोडी सी महक विदा हुई है
पर दिल से न लगाना
कि आसमान ने तुम्हारी महक को ..
सीने में संभाल लिया है ....
यही चर्चा जारी अगली कड़ी में भी
22 comments:
अमृता प्रीतम के बारे में आपके द्वारा प्रदान की गई जानकारी पढ़कर अच्छा लगा। सच ही कहा है कि चेतन और अवचेतन की घटनाएं कब लेखनी का हिस्सा बन जाती है पता ही नहीं चलता।
आज धरती से कौन विदा हुआ है
कि आसमान ने बाहें फैला कर
धरती को गले लगा लिया है
" so touching expressions, great to read again abt Amrita jee.."
Regards
पता नहीं, कौन कौन कहां कहां कब कब अपने प्रेम की चादर कम्बल या अोबर कोट पहना कर चला जाता है। कई बार जानते हैं, कई बार नहीं भी। कई बार जानकर भी नहीं जानते और कई बार नहीं जानकर भी जानते हैं....
amrta ki kavitaayen seedhe rooh tak utar jati hain....bahut si nayi baate maaloom chal rahi hain unke vyktitv ki aapke jariye....
पता नहीं, कौन कौन कहां कहां कब कब अपने प्रेम की चादर कम्बल या अोबर कोट पहना कर चला जाता है। कई बार जानते हैं, कई बार नहीं भी। कई बार जानकर भी नहीं जानते और कई बार नहीं जानकर भी जानते हैं....चेतन और अवचेतन की घटनाएं कब लेखनी का हिस्सा बन जाती है पता ही नहीं चलता।
आज धरती से कौन विदा हुआ है
कि आसमान ने बाहें फैला कर
धरती को गले लगा लिया है
अमृताजी के बारे में पढ़ना, और उनकी रचनाओं को पढ़ना दोनों ही, हमेशा से एक रूहानी एहसास देता आया है !
बहुत शुभकामनाएं और धन्यवाद !
अमृता जी का गद्य भी कविता से कम नहीं होता। प्रस्तुति का शुक्रिया।
इस ब्लॉग को तो अवॉर्ड मिलना चाहिए... जबरदस्त
आपके द्वारा प्रदान की गई जानकारी पढ़कर अच्छा लगा।
थोडी सी महक विदा हुई है
पर दिल से न लगाना
कि आसमान ने तुम्हारी महक को ..
सीने में संभाल लिया है ....
bahut gehri bhavnaye hai in mein,bahut sundar lekh
अच्छे संस्मरण चुने आपने. मायकोवस्की के बुत के सामने कवि-सम्मेलन के प्रसंग ने दिल को छु लिया. हम किसी कवि के नाम पर सालाना उत्सव तो मनाने की औपचारिकता पुरी कर लेते हैं मगर कविता और कवियों को वह सम्मान कहाँ दे पाते हैं.स्वागत आपका मेरे ब्लॉग पर भी.
मैंने तो इसका हर पन्ना सेव कर लिया है !
कुश जी की बात से सहमत, आपका लेखन प्रभावशाली है। बहुत लगन से लिखती हैं आप। आज भी पढ़कर आनंद आ गया।
रंजना जी गज़ब का लिखती हैं आप...अमृता जी के बारे में जितना पढो कम लगता है...उनके बारे में पढ़कर क्या टिपण्णी करें समझ नहीं आता...
नीरज
लिखती रहे... हम अपनी व्यस्तता में भी समय निकाले ले रहे हैं :-) लेकिन आपकी लगन कमाल कि है इस ब्लॉग को लेकर.
बेहतरीन प्रस्तुति!
अमृता प्रीतम जी ने जीवन अपने तरीके से जिया था .उनके संस्मरणों को आप बेहतर रूप से प्रस्तुत कर रहीं हैं.मुझे आप की अगली कड़ी का इन्तजार है .
hamesha ki tarah lekh achcha laga--aur janNe ka kautuhal bana hai
बेहद रुचिकर लगे अचेतन मन से जुड़े अमृता जी के ये संस्मरण। नेपाली कवि द्वारा कही बात दिल को छू गई। आभार आपका इस नायाब सिलसिले के लिए
kuch kahne layak hee nahee chhoda aapne..~!
kuch kahne layak hee nahee chhoda aapne..~!
प्रभावशाली प्रस्तुति!अमृता प्रीतम को पढ़ना और उनको जानना दोनों ही खूबसूरत अह्सास है।प्रस्तुति का शुक्रिया।
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