यह कहानी नही ...भाग १
पिछली कड़ी में दो पंकितयां लिखी थी
कभी तो कोई इन दीवारों से पूछे
की कैसे इबादत गुनाह बन गई थी
और यह कहानी नहीं है ......... कह कर एक न खत्म होने वाली कहानी शुरू हुई ..इसकी आगे की लिखी पंक्तियाँ जैसे इसी कहानी की रूह बन गयीं ..और ख़ुद बा खुद मेरे जहन पर कब्जा जमा कर बैठ गई ..
देखा उन्हें तो यह उनकी नजर थी
वही तो खुदा की निगाह बन गई थी
कहानी जो रोजेअजल से चली थी
कैसे वह जीने की वजह बन गई थी
मेरी ज़िन्दगी थी मुसलसल अँधेरा
वही मौत की एक सुबह बन गई थी .....
चलिए इसी जज्बे को दिल में ले कर आगे बढ़ते हैं उस कहानी की तरफ़ जो कहानी हो कर भी कहानी नही है....
भाग १ से आगे ......
न जाने कब नींद आगई उसको ...सो कर जब उठी तो खासा दिन चढा हुआ था बैठक में रात को होने वाली दावत की हलचल थी ..
एक बार तो अ आँखे झपक कर रह गई ..बैठक के सामने स खड़ा था ...चार खाने का नीले रंग का तहमद पहने हुए ...अ ने उसको कभी रात के सोने के समय के कपडों में नही देखा था ..हमेशा दिन में देखा था ..किसी सड़क पर ,सड़क के किनारे कैफे में या होटल में या किसी मीटिंग में ..उसको उसकी यह नई सी पहचान लगी आँखों में अटक गई यह पहचान ..
अ ने भी इस वक्त नाईट सूट पहना था पर अ ने बैठक में आने से पहले उस पर ध्यान नही दिया था अब दिया तो अजीब सा लगा साधारण सा होता हुआ भी असाधरण सा ..
बैठक में उसको आता हुआ देख कर स बोला ..""यह दो सोफे हैं इसको लम्बाई के रुख में रख दे बीच में काफ़ी जगह बन जायेगी ..""
अ ने सोफों की पकड़वाया छोटी मेजों को उठा कर बीच में रखा फ़िर माँ ने आवाज़ दी तो अ ने वहां से चाय ला कर बीच मेज में रख दी
चाय पी कर स ने उस से कहा ...."चलो जिन लोगों को बुलाया है उनके घर जा कर कह आए ..और लौटते हुए कुछ फल भी लेते आयेंगे ..."
दोनों तैयार हो कर पुराने परिचित दोस्तों के घर गए .संदेश दिए रास्ते से सब खरीदा जो चहिये था फ़िर वापस आ कर दोपहर का खाना खाया और फ़िर बैठक को फूलों से सजाने लग गए /रास्ते में दोनों ने साधरण सी बाते भी की .."कि कौन से फल लेने हैं ..पान लेने है कि नहीं ..ड्रिंक्स के साथ कबाब कितने ले.... फलां के घर रास्ते में पड़ता है उनको भी बुला लें ...और वह बातें नहीं की ,जो सात बरस मिलने वाले करते हैं .."
अ को सवेरे दोस्तों के घर पर दूसरी दस्तक देती ही कुछ परेशानी सी हुई ..वे भले ही स के दोस्त थे ..पर लंबे समय से अ को भी जानते थे .दरवाज़ खोलने पर बाहर उसको स के साथ देखते तो हैरान हो कर पूछते..अरे ! आप !!
पर जब वे गाड़ी में आ कर बैठते तो स हंस देता देखा कितना हैरान हो उठा था वह तुम्हे देख कर ..उस से तो बोला भी नही जा रहा था ...
और फ़िर एक दो दोस्तों की हैरानी भी उनकी साधरण सी बातों में शामिल हो गई .स की तरह अब अ भी सहज मन से हंसने लगी ..
शाम के समय स ने छाती में दर्द की शिकायत की ..माँ ने कटोरी में ब्रांडी डाल दी और अ से कहा यह ले बेटी इसकी छाती में मल दे ..यह ब्रांडी ..इसको आराम मिल जायेगा
इस समय तक अ सहज हो चुकी थी और स भी .....उसने आराम से स की कमीज के ऊपर वाले तीन बटन खोले और हाथ से धीमे धीमे ब्रांडी मलने लगी ...
बाहर पाम के पत्ते अभी भी कांप रहे थे पर अब अ के हाथों में कोई कम्पन नही था .....एक दोस्त समय से पहले आ गया था ,अ ने ब्रांडी में भीगे हुए हाथ उसका स्वागत किया था नमस्कार भी किया और हाथ डूबो कर बाकी ब्रांडी को उसके कंधो पर मल दिया .
धीरे धीरे कमरा मेहमानों से भर गया ,..अ फिर्ज़ से बर्फ निकलती गई और सादा पानी भर भर कर फिर्ज़ में रखती गई .बीच में रसोई में जाती और ठंडे कबाब फ़िर से गर्म कर के ले आती ..सिर्फ़ एक बार जब स ने अ के कानों में कहा तीन चार लोग वह भी आ गए हैं जिन्हें बुलाया नही था ..लगता है वह तुम्हे देखने के लिए आ गए होंगे किसी दोस्त के कहने पर ..तो उसकी पल भर के लिए स्वभाविकता टूटी ...पर फ़िर जब स ने उसको गिलास धो के लाने को कहा तो कहा तो वह फ़िर से सहज मन हो गई ......
महफ़िल गर्म हुई .रात ठंडी हुई ...और लगभग आधी रात के समय सब चले गए ..अ को सोने वाले कमरे में अपने सूटकेस से रात के कपड़े निकलते हुए लगा कि सड़कों पर बना हुआ वह जादू का घर कहीं नही था ....
यह जादू का घर उसने कई बार देखा था बनते हुए भी मिटते हुए भी ..इस लिए वह हैरान नही थी .सिर्फ़ थकी थकी सो तकिये पर सर रख कर सोचने लगी कब की बात है शायद पच्चीस बरस हो गए ..नहीं तीस बरस ..जब वह पहली बार ज़िन्दगी की सड़क पर मिले थे अ किस सड़क से आई .स किस सड़क से आया था यह दोनों ही पूछना भूल गए थे ...और बताना भी ..वह नीची निगाह किए जमीन में नीवं खोदते रहे और फ़िर यहाँ एक जादू का घर बन कर खड़ा हो गया ..और वह सहज मन से सारे दिन उस घर में रहते रहे ..
फ़िर जब दोनों की सड़कों ने उन्हें आवाज़ दी वे अपनी वे अपनी अपनी सड़क की और जाते हुए चौंक कर खड़े हो गए देखा --दोनों सड़कों के बीच एक गहरी खाई है .स कितनी देर उस खाई को देखता रहा जैसे अ से पूछ रहा हो की इस खाई को तुम किस तरह पार करोगी ? अ ने कहा कुछ नही था ...पर स के हाथ की और देखा था जैसे कह रही हो तुम हाथ पकड़ कर पार करवा लो .मैं मजहब की इस खाई को पार कर जाउंगी
फ़िर स का ध्यान ऊपर की और गया अ के हाथ की और अ की उंगली में हीरे की अंगूठी चमक रही थी .स कितनी देर तक उसको देखता रहा जैसे पूछ रहा हो कि यह ऊँगली पर जो यह कानून का धागा लिपटा हुआ है मैं इसका क्या करूँगा ? अ ने अपनी ऊँगली की और देखा और धीरे से हंस पड़ी ..जैसे कह रही हो तुम एक बार कहो मैं कानून का यह धागा नाखूनों से खोल दूंगी .नाखूनों से नही खुलेगा तो दांतों से खोल दूंगी ..
पर स चुप रहा था और अ भी चुप खड़ी रह गई थी ..पर जैसे सड़कें एक ही जगह आ कर खड़ी हुई भी चलती रहती है वे भी एक जगह खड़े हुए चलते रहे थे ....
फ़िर एक दिन स के शहर से आने वाली सड़क अ के शहर में आ गई थी .अ ने स की आवाज़ सुन कर अपने एक बरस के बच्चे को उठाया और बाहर सड़क पर उसके पास आ कर खड़ी हो गई ..स ने धीरे से हाथ आगे कर के सोये हुए बच्चे को अ से ले लिया और अपने कंधे से लगा लिया और फ़िर वह सारा दिन उस शहर की सड़कों पर चलते रहे ...
वे भरपूर जवानी के दिन थे उनके .....न धूप थी न ठण्ड और फ़िर जब चाय पीने के लिए वह एक कैफे में गए तो बेरे ने एक मर्द ,एक औरत और एक बच्चे को देख कर एक अलग कोने में कुर्सियां पौंछ कर लगा दी थी ..और उस कैफे में जैसे ,उस अलग कोने में एक अलग जादू का घर बन कर खड़ा हो गया था ..
जारी है अगले अंक में भी ....
पिछली कड़ी में दो पंकितयां लिखी थी
कभी तो कोई इन दीवारों से पूछे
की कैसे इबादत गुनाह बन गई थी
और यह कहानी नहीं है ......... कह कर एक न खत्म होने वाली कहानी शुरू हुई ..इसकी आगे की लिखी पंक्तियाँ जैसे इसी कहानी की रूह बन गयीं ..और ख़ुद बा खुद मेरे जहन पर कब्जा जमा कर बैठ गई ..
देखा उन्हें तो यह उनकी नजर थी
वही तो खुदा की निगाह बन गई थी
कहानी जो रोजेअजल से चली थी
कैसे वह जीने की वजह बन गई थी
मेरी ज़िन्दगी थी मुसलसल अँधेरा
वही मौत की एक सुबह बन गई थी .....
चलिए इसी जज्बे को दिल में ले कर आगे बढ़ते हैं उस कहानी की तरफ़ जो कहानी हो कर भी कहानी नही है....
भाग १ से आगे ......
न जाने कब नींद आगई उसको ...सो कर जब उठी तो खासा दिन चढा हुआ था बैठक में रात को होने वाली दावत की हलचल थी ..
एक बार तो अ आँखे झपक कर रह गई ..बैठक के सामने स खड़ा था ...चार खाने का नीले रंग का तहमद पहने हुए ...अ ने उसको कभी रात के सोने के समय के कपडों में नही देखा था ..हमेशा दिन में देखा था ..किसी सड़क पर ,सड़क के किनारे कैफे में या होटल में या किसी मीटिंग में ..उसको उसकी यह नई सी पहचान लगी आँखों में अटक गई यह पहचान ..
अ ने भी इस वक्त नाईट सूट पहना था पर अ ने बैठक में आने से पहले उस पर ध्यान नही दिया था अब दिया तो अजीब सा लगा साधारण सा होता हुआ भी असाधरण सा ..
बैठक में उसको आता हुआ देख कर स बोला ..""यह दो सोफे हैं इसको लम्बाई के रुख में रख दे बीच में काफ़ी जगह बन जायेगी ..""
अ ने सोफों की पकड़वाया छोटी मेजों को उठा कर बीच में रखा फ़िर माँ ने आवाज़ दी तो अ ने वहां से चाय ला कर बीच मेज में रख दी
चाय पी कर स ने उस से कहा ...."चलो जिन लोगों को बुलाया है उनके घर जा कर कह आए ..और लौटते हुए कुछ फल भी लेते आयेंगे ..."
दोनों तैयार हो कर पुराने परिचित दोस्तों के घर गए .संदेश दिए रास्ते से सब खरीदा जो चहिये था फ़िर वापस आ कर दोपहर का खाना खाया और फ़िर बैठक को फूलों से सजाने लग गए /रास्ते में दोनों ने साधरण सी बाते भी की .."कि कौन से फल लेने हैं ..पान लेने है कि नहीं ..ड्रिंक्स के साथ कबाब कितने ले.... फलां के घर रास्ते में पड़ता है उनको भी बुला लें ...और वह बातें नहीं की ,जो सात बरस मिलने वाले करते हैं .."
अ को सवेरे दोस्तों के घर पर दूसरी दस्तक देती ही कुछ परेशानी सी हुई ..वे भले ही स के दोस्त थे ..पर लंबे समय से अ को भी जानते थे .दरवाज़ खोलने पर बाहर उसको स के साथ देखते तो हैरान हो कर पूछते..अरे ! आप !!
पर जब वे गाड़ी में आ कर बैठते तो स हंस देता देखा कितना हैरान हो उठा था वह तुम्हे देख कर ..उस से तो बोला भी नही जा रहा था ...
और फ़िर एक दो दोस्तों की हैरानी भी उनकी साधरण सी बातों में शामिल हो गई .स की तरह अब अ भी सहज मन से हंसने लगी ..
शाम के समय स ने छाती में दर्द की शिकायत की ..माँ ने कटोरी में ब्रांडी डाल दी और अ से कहा यह ले बेटी इसकी छाती में मल दे ..यह ब्रांडी ..इसको आराम मिल जायेगा
इस समय तक अ सहज हो चुकी थी और स भी .....उसने आराम से स की कमीज के ऊपर वाले तीन बटन खोले और हाथ से धीमे धीमे ब्रांडी मलने लगी ...
बाहर पाम के पत्ते अभी भी कांप रहे थे पर अब अ के हाथों में कोई कम्पन नही था .....एक दोस्त समय से पहले आ गया था ,अ ने ब्रांडी में भीगे हुए हाथ उसका स्वागत किया था नमस्कार भी किया और हाथ डूबो कर बाकी ब्रांडी को उसके कंधो पर मल दिया .
धीरे धीरे कमरा मेहमानों से भर गया ,..अ फिर्ज़ से बर्फ निकलती गई और सादा पानी भर भर कर फिर्ज़ में रखती गई .बीच में रसोई में जाती और ठंडे कबाब फ़िर से गर्म कर के ले आती ..सिर्फ़ एक बार जब स ने अ के कानों में कहा तीन चार लोग वह भी आ गए हैं जिन्हें बुलाया नही था ..लगता है वह तुम्हे देखने के लिए आ गए होंगे किसी दोस्त के कहने पर ..तो उसकी पल भर के लिए स्वभाविकता टूटी ...पर फ़िर जब स ने उसको गिलास धो के लाने को कहा तो कहा तो वह फ़िर से सहज मन हो गई ......
महफ़िल गर्म हुई .रात ठंडी हुई ...और लगभग आधी रात के समय सब चले गए ..अ को सोने वाले कमरे में अपने सूटकेस से रात के कपड़े निकलते हुए लगा कि सड़कों पर बना हुआ वह जादू का घर कहीं नही था ....
यह जादू का घर उसने कई बार देखा था बनते हुए भी मिटते हुए भी ..इस लिए वह हैरान नही थी .सिर्फ़ थकी थकी सो तकिये पर सर रख कर सोचने लगी कब की बात है शायद पच्चीस बरस हो गए ..नहीं तीस बरस ..जब वह पहली बार ज़िन्दगी की सड़क पर मिले थे अ किस सड़क से आई .स किस सड़क से आया था यह दोनों ही पूछना भूल गए थे ...और बताना भी ..वह नीची निगाह किए जमीन में नीवं खोदते रहे और फ़िर यहाँ एक जादू का घर बन कर खड़ा हो गया ..और वह सहज मन से सारे दिन उस घर में रहते रहे ..
फ़िर जब दोनों की सड़कों ने उन्हें आवाज़ दी वे अपनी वे अपनी अपनी सड़क की और जाते हुए चौंक कर खड़े हो गए देखा --दोनों सड़कों के बीच एक गहरी खाई है .स कितनी देर उस खाई को देखता रहा जैसे अ से पूछ रहा हो की इस खाई को तुम किस तरह पार करोगी ? अ ने कहा कुछ नही था ...पर स के हाथ की और देखा था जैसे कह रही हो तुम हाथ पकड़ कर पार करवा लो .मैं मजहब की इस खाई को पार कर जाउंगी
फ़िर स का ध्यान ऊपर की और गया अ के हाथ की और अ की उंगली में हीरे की अंगूठी चमक रही थी .स कितनी देर तक उसको देखता रहा जैसे पूछ रहा हो कि यह ऊँगली पर जो यह कानून का धागा लिपटा हुआ है मैं इसका क्या करूँगा ? अ ने अपनी ऊँगली की और देखा और धीरे से हंस पड़ी ..जैसे कह रही हो तुम एक बार कहो मैं कानून का यह धागा नाखूनों से खोल दूंगी .नाखूनों से नही खुलेगा तो दांतों से खोल दूंगी ..
पर स चुप रहा था और अ भी चुप खड़ी रह गई थी ..पर जैसे सड़कें एक ही जगह आ कर खड़ी हुई भी चलती रहती है वे भी एक जगह खड़े हुए चलते रहे थे ....
फ़िर एक दिन स के शहर से आने वाली सड़क अ के शहर में आ गई थी .अ ने स की आवाज़ सुन कर अपने एक बरस के बच्चे को उठाया और बाहर सड़क पर उसके पास आ कर खड़ी हो गई ..स ने धीरे से हाथ आगे कर के सोये हुए बच्चे को अ से ले लिया और अपने कंधे से लगा लिया और फ़िर वह सारा दिन उस शहर की सड़कों पर चलते रहे ...
वे भरपूर जवानी के दिन थे उनके .....न धूप थी न ठण्ड और फ़िर जब चाय पीने के लिए वह एक कैफे में गए तो बेरे ने एक मर्द ,एक औरत और एक बच्चे को देख कर एक अलग कोने में कुर्सियां पौंछ कर लगा दी थी ..और उस कैफे में जैसे ,उस अलग कोने में एक अलग जादू का घर बन कर खड़ा हो गया था ..
जारी है अगले अंक में भी ....
10 comments:
किरदार साधारण होने पर कहानी में बहुत गहराई है। नाटकीय मोड़ की उम्मीद है, क्योंकि अ और स के बीच कोई ब भी तो हो सकता है.. अगली कड़ी का इंतजार है..
कहानी जो रोजेअजल से चली थी
कैसे वह जीने की वजह बन गई थी
मेरी ज़िन्दगी थी मुसलसल अँधेरा
वही मौत की एक सुबह बन गई थी .....
bahut khub lagi ye lines aur kahani bhi aage?
मेरी ज़िन्दगी थी मुसलसल अँधेरा
वही मौत की एक सुबह बन गई थी .....
kabhi kabhi kuchh behad sahaj se alfaaj hi jane kyon dil mein ghaw kar jaae hain,kahaani se itar in panktiyon ne kahar barpa diya.
ALOK SINGH "SAHIL"
मेरी ज़िन्दगी थी मुसलसल अँधेरा
वही मौत की एक सुबह बन गई थी .....
" i am speechless"
regards
पता नही मे्री ब्लाग लिस्ट पर पिछला भाग भी नही दिखा और आज ये भी कुछ देर से दिखा है ! पिछला भाग पढ कर इसको पढा !
लाजवाब प्रवाह है अम्रुता जी की रचनाओ की तरह ! आगे का इन्तजार है....
राम राम !
कहानी तो एक दिशा की ओर बढ़ रही है मगर ये अ ब स द के चलते बचपन की बीजगणित के कुछ प्रमेय याद हो जा रहे हैं और प्रवाह में बढ़ा उत्पन्न हो रही है !
कहानी तो एक दिशा की ओर बढ़ रही है मगर ये अ ब स द के चलते बचपन की बीजगणित के कुछ प्रमेय याद हो जा रहे हैं और प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो रही है !
@ आशीष जी ,अरविन्द जी .या कहानी मूल रूप में अमृता जी द्वारा लिखी गई है .इस लिए इसके मूल स्वरूप से छेड़- छाड़ नहीं की जा सकती है .और इस में कोई ब या द भी नहीं आएगा सुविधा के लिए मैं अ के लिए अमृता और स के लिए साहिर नाम बता देती हूँ ..
ranjana ji ,can i get the text by email.
regards
इंतजार रहेगा अगली कड़ी का.......
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