राजा !तू कैसे राज करेगा -
सिर पर कोई आकाश न रहा
पैरों के नीचे कोई जमीन नही रही
मैं अक्षरों में भी भीगती रही
आंसुओं में भी भीगती रही
लिखती रही ....
अमृता ने हिन्दुस्तान पकिस्तान बंटवारे के दर्द को जिस तरह अपनी कलम से उतारा उसको कभी भुला नही जा सकता है ..कभी वह वारिस शाह से कहती हुई नज़र आई ...
उठो ! वारिस शाह
कहीं कब्र में से बोलो
और इश्क की कहानी का
कोई नया वर्क खोलो ...
यह नज्म तब जगह जगह गई जाने लगी ..पर इसके साथ ही कुछ सवाल और कुछ गालियाँ भी अमृता के हिस्से आयीं ..कि उन्होंने यह वारिस शाह मुसलमान से मुताखिब हो कर क्यों लिखा ? सिख तबके के लोग कहते कि इसको तो गुरु नानक से मुताखिब होना चाहिए था ...यह सब चलता रहा और अमृता की कलम अपना काम करती रही ......हिन्दुस्तान का बंटवारा इतिहास की छाती का जख्म बनता गया .कोई नही जान पायेगा कि इसी बंटवारे में न जाने कितने सपने कत्ल कर दिए और उस में कई मासूम लड़कियों के सपने जो कत्ल हुए ,कुछ इस तरह से उनकी कलम से कागज पर बिखर गए ..
मैं नसीब जली पंजाब की बेटी
मैं बोल कर क्या कहूँगी
मेरी जुबान तो काट दी गई
हाथ भी बंध गए ,पैर भी बंधे हुए
और माथे की किस्मत
काले नाग सी बैठी हुई है .
एक तूफ़ान आया
यह बदन बाकी है
पर नसीब डूब गया
अरे राहगुजर
उस पार ,कोई मिले तो कहना
अब मेरे घुटने टूट गए हैं
मांझियों के हाथो
पतवार छूट गए हैं
अब नही जानती .--मैं कहाँ हूँ ...
माँ का एक आँगन था -
जाने कहाँ गया ....
न बाबुल न भाई
न मेहँदी -- न डोली
मैं कैसी ब्याही ...
बस इतना जानती हूँ
कि इसी बहाने धरती पर
धरम और ईमान बिकता है ..
यहाँ देश की नार बिकती है ......
उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है जिसके बदन की जवानी जबर से माँ बना दिया जाता है ..और जिसके बच्चे सवाल करते हैं उस रोती हुई माँ और गुमशुदा बाप से जो उसको विरासत में मिलते हैं ..
मेरी माँ की कोख मजबूर थी
मैं भी तो एक इन्सान हूँ
आजादियों की टक्कर में
उस चोट का निशाना हूँ
उस हादसे का जख्म जो माँ के माथे पर लगना था
और माँ की कोख को मजबूर होना था ..
मैं माँ के जख्म का निशाना हूँ ,
मैं माँ के माथे का दाग हूँ ...............
उन्होंने उस वक्त के हालात पर एक उपन्यास लिखा था "पिंजर "..जिसकी कहानी बंटवारे से पहले शुरू होती है .और बंटवारे के उस मुकाम पर आती है ..जब दोनों सरकारें अपनी अपनी अगवा शुदा लडकियां ढूंढ़ रहे हैं ..और उस कहानी में पूरो वह है जो बंटवारे से पहले उठा ली गई थी .एक निजी दुश्मन के हाथो ..और जिस को माँ बाप लेने से इनकार कर देतें हैं .वह एक घटना थी ...लेकिन बंटवारें के समय इस तरह की घटनाएँ घर घर में होने लगी थी ..अब उठायी हुई लड़कियों को उनके माँ बाप तलाश कर रहे थे ....पूरो अपनी भाभी को तलाश करती है जो बंटवारे के समय उठा ली गई थी ...और उसको अपने भाई के हाथों सौंपती है तो उस वक्त पूरो के माँ बाप भी उसको लेने को तैयार होते हैं पर पूरो कहती है ..कि नहीं !!अब नहीं ..अब जो भी लड़की ..चाहे वह हिंदू हो या या चे मुसलमान जो भी ठिकाने पर पहुँच रही है समझाना पूरो की आत्मा ठिकाने पहुँच रही है .... ..यह उपन्यास आज भी दिल पर दस्तक देता है .और पूरो के चरित्र को आँखों के सामने सजीव कर देता है ......
इस पेड़ का क्या होगा ?
इस छाया का क्या होगा ?
नफरत के कीडे -तो जड़ में लगे हैं
और राही -रास्ता भूलने लगे हैं .....
कैसी हवा चलने लगी --
राजा ! तू कैसे राज करेगा
कि आने वाली सदी तक
एक राख सी उड़ने लगी ...
सिर पर कोई आकाश न रहा
पैरों के नीचे कोई जमीन नही रही
मैं अक्षरों में भी भीगती रही
आंसुओं में भी भीगती रही
लिखती रही ....
अमृता ने हिन्दुस्तान पकिस्तान बंटवारे के दर्द को जिस तरह अपनी कलम से उतारा उसको कभी भुला नही जा सकता है ..कभी वह वारिस शाह से कहती हुई नज़र आई ...
उठो ! वारिस शाह
कहीं कब्र में से बोलो
और इश्क की कहानी का
कोई नया वर्क खोलो ...
यह नज्म तब जगह जगह गई जाने लगी ..पर इसके साथ ही कुछ सवाल और कुछ गालियाँ भी अमृता के हिस्से आयीं ..कि उन्होंने यह वारिस शाह मुसलमान से मुताखिब हो कर क्यों लिखा ? सिख तबके के लोग कहते कि इसको तो गुरु नानक से मुताखिब होना चाहिए था ...यह सब चलता रहा और अमृता की कलम अपना काम करती रही ......हिन्दुस्तान का बंटवारा इतिहास की छाती का जख्म बनता गया .कोई नही जान पायेगा कि इसी बंटवारे में न जाने कितने सपने कत्ल कर दिए और उस में कई मासूम लड़कियों के सपने जो कत्ल हुए ,कुछ इस तरह से उनकी कलम से कागज पर बिखर गए ..
मैं नसीब जली पंजाब की बेटी
मैं बोल कर क्या कहूँगी
मेरी जुबान तो काट दी गई
हाथ भी बंध गए ,पैर भी बंधे हुए
और माथे की किस्मत
काले नाग सी बैठी हुई है .
एक तूफ़ान आया
यह बदन बाकी है
पर नसीब डूब गया
अरे राहगुजर
उस पार ,कोई मिले तो कहना
अब मेरे घुटने टूट गए हैं
मांझियों के हाथो
पतवार छूट गए हैं
अब नही जानती .--मैं कहाँ हूँ ...
माँ का एक आँगन था -
जाने कहाँ गया ....
न बाबुल न भाई
न मेहँदी -- न डोली
मैं कैसी ब्याही ...
बस इतना जानती हूँ
कि इसी बहाने धरती पर
धरम और ईमान बिकता है ..
यहाँ देश की नार बिकती है ......
उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है जिसके बदन की जवानी जबर से माँ बना दिया जाता है ..और जिसके बच्चे सवाल करते हैं उस रोती हुई माँ और गुमशुदा बाप से जो उसको विरासत में मिलते हैं ..
मेरी माँ की कोख मजबूर थी
मैं भी तो एक इन्सान हूँ
आजादियों की टक्कर में
उस चोट का निशाना हूँ
उस हादसे का जख्म जो माँ के माथे पर लगना था
और माँ की कोख को मजबूर होना था ..
मैं माँ के जख्म का निशाना हूँ ,
मैं माँ के माथे का दाग हूँ ...............
उन्होंने उस वक्त के हालात पर एक उपन्यास लिखा था "पिंजर "..जिसकी कहानी बंटवारे से पहले शुरू होती है .और बंटवारे के उस मुकाम पर आती है ..जब दोनों सरकारें अपनी अपनी अगवा शुदा लडकियां ढूंढ़ रहे हैं ..और उस कहानी में पूरो वह है जो बंटवारे से पहले उठा ली गई थी .एक निजी दुश्मन के हाथो ..और जिस को माँ बाप लेने से इनकार कर देतें हैं .वह एक घटना थी ...लेकिन बंटवारें के समय इस तरह की घटनाएँ घर घर में होने लगी थी ..अब उठायी हुई लड़कियों को उनके माँ बाप तलाश कर रहे थे ....पूरो अपनी भाभी को तलाश करती है जो बंटवारे के समय उठा ली गई थी ...और उसको अपने भाई के हाथों सौंपती है तो उस वक्त पूरो के माँ बाप भी उसको लेने को तैयार होते हैं पर पूरो कहती है ..कि नहीं !!अब नहीं ..अब जो भी लड़की ..चाहे वह हिंदू हो या या चे मुसलमान जो भी ठिकाने पर पहुँच रही है समझाना पूरो की आत्मा ठिकाने पहुँच रही है .... ..यह उपन्यास आज भी दिल पर दस्तक देता है .और पूरो के चरित्र को आँखों के सामने सजीव कर देता है ......
इस पेड़ का क्या होगा ?
इस छाया का क्या होगा ?
नफरत के कीडे -तो जड़ में लगे हैं
और राही -रास्ता भूलने लगे हैं .....
कैसी हवा चलने लगी --
राजा ! तू कैसे राज करेगा
कि आने वाली सदी तक
एक राख सी उड़ने लगी ...
16 comments:
अमता जी के बारे में जानने को बहुत कुछ है आपके ब्लॉग में.
बहुत प्रभावी तरीके से आपने उनके भावों को उतारा है, अपनी और उनकी कलम से.
जितना भी मैंने उनको पढा है, और जो भी कल्पना मेरे दिल में है उनके बारे में, आपकी लेखनी से हूबहू वही चित्र सामने आता है. पिंजर की त्रासदी लाखों लोगो ने झेली है, इस बात को में जानता हूँ, में फरीदाबाद का रहने वाला हूँ और वहाँ एन.आई.टी. इलाके में हर ब्लोक के साथ एक विडो-होम आज भी उस यंत्रणा का गवाह है
आपके ब्लाग को पढना ऐसा लगता है जैसे खुद अमॄता जी का ब्लाग पढ रहे हों ! यहा पढते हुये वही एहसास होता है जो उनकी किताबो मे है ! और उनका लेखन तो है ही ऐसा कि जैसे वो बाते कर रही हैं आपके ब्लाग पर हम सबसे ! बहुत धन्यवाद आपको !
रामराम !
वारिस शाह से अम्रता जी की गुज़ारिश और तिस पर आपका यह लेख उन दिनों के कितने नज़्दीक ले गया जी. बहुत आभार आपका.
बहुत उम्दा पोस्ट । पढ़ता ही रह गया...
आपका ब्लॉग बेहद खूबसूरत है। अमृता जी को जीवंत करता है। ऐसा लगता है जैसे आपने अपने जीवन में अमृता जी की भावनाओं को भी जिया है।
अमृता को जीवंत करना जैसे एक नई दुनिया को जीना है ....पर अब वो पाकिस्तान नही रहा शायद ......
मैं अक्षरों में भी भीगती रही
आंसुओं में भी भीगती रही
लिखती रही ....
अमॄता जी को यहाँ पढ़ने का एक अलग ही रोमांच है मेरे लिए
Regards
अमृताजी से मिलवाते रहने के लिए धन्यवाद।
घुघूतीबासूती
सचमुच शानदार
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http://prajapativinay.blogspot.com/
Amrita ji ke baare mai janne ko bahut kuchh milta hai apke blog se
कई भाव कह दिये आपने इस एक पोस्ट में। हर बार पढना अच्छा लगता हैं अमृता जी के लेखन और जज्बातों को। वैसे रंजू जी कोई और कहानी पेश करो जी।
राजा तू कैसे राज करेगा
सिर पर कोई आकाश न रहा
पैरों के नीचे कोई जमीन नहीं रही
मैं अक्षरों में भी भीगती रही
आंसुओं में भी भीगती रही
लिखती रही ...
रंजू जी, बहुत अच्छा लिखा है आपने। अमृता प्रीतम को जीवंत कर दिया है। एक सांस में पूरा आलेख पढ़ गया।
शुक्रिया इस नज़्म को हम तक पहुँचाने के लिए !
great novel.....
Imroz late Amrita Pritam's husband, has this to say on his love for her beloved:
"pyaar Tasveer bhi hai aur Takdeer bhi; agar pa jaayein to tasveer hai, varna Taqdeer hai."
"Love is a picture and also a destiny; if you get your beloved, it's picture else a destiny".
Nice blog !
साहित्यकारों को भी सांप्रदायिक चश्मे से देखने की विडम्बना झेलनी पड़ती रही है. ऐसे ही एक साहित्यकार राही मासूम रजा साहब भी थे, जिनके बारे में मैंने एक पोस्ट लिखी है. आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी.
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