Sunday, June 29, 2008

एक बार इमरोज़ ने बताया कि जब वह लाहौल के आर्ट स्कूल में पढ़ते थे तो गर्मी की छुट्टियों में गांव चला जाता था ,वहाँ गाय भैंस चराने ले जाता और वह चरती रहती मैं आराम से एक और बैठा स्केच बनाता रहता ..

तब अमृता ने हंस कर पूछा कि क्या तुम रांझे की तरह बंजाली बजाते रहते थे और गाय भैंस आपे चरती रहती थी !"

इमरोज़ भी हंस पड़े और बोले हां... लेकिन वहाँ कोई हीर नही थी जो मुझे चूरी खिलाती !"

लेकिन क्या आर्ट स्कूल में तुम्हे कोई लड़की पसंद नही थी ? अमृता ने पूछा ..

कुछ लडकियां हाबी की तरह पेंटिंग्स सीखने आती थी लेकिन कभी कभी ..और उन में से मुझे एक लड़की पसंद थी उसका नाम मंजीत था ..उस को मैं कभी कभी दूर से देख लेता लेकिन पास कभी नही गया ..फ़िर कुछ सोच में डूब कर बोले ..मुझे पता चल गया था कि वह एक अमीर बाप की बेटी है इस लिए मेरा उस से बात करने का सवाल ही नही पैदा होता था मैं बस उसको दूर से देख लेता लेकिन उसके नाम का पहले अक्षर को मैंने अपने नाम के आगे लगा लिया था अब मैं एम् -इंदरजीत था !""

कितनी बदकिस्मत लड़की थी ! के उसको पता नही था की कोई फरिश्ता उसकी तरफ़ देख रहा था .अमृता ने पूछा !

अब उसके पास तुम्हारे जैसी नजर जो नही थी !" इमरोज़ ने हंस कर कहा

एम् -इंदरजीत कब इमरोज़ बना इसकी एक लम्बी कहानी है .उन्होंने बताया की स्कूल में तीन इंदरजीत थे ,,,टीचर इंदर जीत एक इंदर जीत दो और इंदर जीत तीन कह कर रोल काल लेती .हम तीनो को भी मुश्किल और टीचर को भी मुश्किल !!

मैं सोचता कि मेरा नाम इंदरजीत क्यों हैं ? शायद तब मेरे माँ बाप को और नाम सुझा नही होगा !!!

इमरोज़ एक फारसी का शब्द है जिसका अर्थ है आज ..यह नाम इमरोज़ को इसलिए भी पसंद था क्यूंकि इस के नाम के साथ कोई एतहासिक या कोई पुराणिक नाम नही जुडा था और यह किसी अन्य घटना से भी जुडा नही था सीधा साधा अर्थ था इसका आज ......अब

इमरोज़ वैसे भी आज में विश्वास रखते हैं वे आज में जीते हैं और आज के लिए जीते हैं
१९६६ में वह इंदरजीत से इमरोज़ हो गए !
वह जिस चीज को छुते हैं वह एक कलाकृति बन जाती है वहाँ एक लेम्प शेड देखा जिनके ऊपर उन्होंने कई शायर के कलाम लिखे .फैज़ ,फिराख, अमृता .शिव बटालवीऔर ऐसे ही कई दूसरे शायरों के..और इन में लाल रंग भर दिया है जब वह लैंप जलता है तो लाल रंग कमरे की खिड़की से दरवाज़े पर बिखर जाता है सारा कमरा तब लाल दिखायी देने लगता है ...कभी कभी अमृता उनसे पूछती कि इमरोज़ तुम मुझे कैसे मिल गए ..तब इमरोज़ शांत और छोटा सा जवाब देते जैसे तुम मुझे मिल गई !""

एक जगह अमृता जी द्वारा बताया हुआ लिखा है कि ..पहले कोई इमरोज़ से मिलना चाहता था तो मुझे फ़ोन करता था .पूछता यह अमृता जी का घर है ..मेरे हाँ कहने पर वह फ़िर पूछता कि क्या इमरोज़ जी घर पर हैं ..मैं हाँ कह कर इमरोज़ को छू के कहती ..देखा आज कल लोग तुम्हे मेरे पते पर तलाश कर लेते हैं !!

वाह सजन
सच तू -सुपना भी तू
गैर तू -अपन भी तू
वाह सजन ..वाह सजन

खुदा का इक अंदाज तू
औ फज्र की नमाज़ तू
जग का इनकार तू
औ अजल का इकरार तू
वाह सजन ..वाह सजन !

फानी हुस्न का नाज़ तू
रूह की इक आवाज़ तू
जोग की इक राह भी तू
इश्क की दरगाह भी तू
वाह सजन ..वाह सजन !

आशिक की इक सदा भी तू
अल्लाह की इक रज़ा भी तू
यह सारी कायनात तू
खुदा की मुलाकात तू
वाह सजन ...वाह सजन !!

अमृता प्रीतम .
.शेष अगले अंक में

Thursday, June 26, 2008


""इश्क समतल सपाट भूमि का नाम है न ही घटना रहित जीवन का सूचक जब यह भूमि होता है तब इसके अपने मरुस्थल भी होते हैं जब यह पर्वत होता है तब इसके अपने ज्वालामुखी भी होते हैं जब यह दरिया होता है तब इसके अपने भंवर भी होते हैं जब यह आसमान होता है तो इसकी अपने और अपनी बिजीलियाँ भी होतीं है यह खुदा को मोहब्बत करने वाले की हालत होती है ...जिसमें खुदा के आशिक को अपने बल पर विद्रोह करने का भी हक भी होता है और इनकार करने का भी पर यह ऐसे हैं जैसे कि खुले आकाश के नीचे जब कोई छत डालता है वह असल आकाश को नकारता नही है .""

...यह बात अमृता ने अपने एक इंटरव्यू के दौरान तब कही जब उनसे पूछा गया कि कभी आपने लिखा था .
.मेरी उम्र से भी लम्बी है मेरी वफ़ा की लकीरें और शब्दों की दौलत के बिना भी वफ़ा है अमीर या मोमबत्ती यह प्राणों की रात भर जलती रही ..पर आपकी इस अवस्था को क्या कहूँ जब आपने लिखा की इश्क का बदन ठिठुर रहा है ,गीत का कुरता कैसे सियूँ ख्यालों का धागा टूट गया है .कलम सुई की नोक टूट गई है और सारी बात खो गई है ..
अपने १.२.६३ को बम्बई से लिखे ख़त में अमृता ने इमरोज़ को लिखा ...
राही !!
तुम मुझे संध्या के समय क्यूँ मिले ! जिंदगी का सफर ख़त्म होने को है तुम्हे यदि मिलना ही था तो जिंदगी की दोपहर में मिलते उस दोपहर का सेंक तो देख लेते.. काठमांडू में किसी ने यह हिन्दी कविता पढ़ी थी कई बार कई लोगो की पीड़ा कितनी एक जैसी होती है मेरी जिंदगी के खत्म हो रहे सफर में अब मुझे सिर्फ़ तुम्हारे खतों का इन्तज़ार है

मेरा यह इन्तजार तुम्हारे इस शहर की जालिम दीवारों से टकरा कर हमेशा ज़ख्मी होता रहा है .पहले भी चौदह बरस राम बनवास जितने बीते बाकी रहते बरस भी लगता है अपनी पंक्ति में जा मिलेंगे ..आज तक तुम्हारा एक ही ख़त आया है शायद तुम्हे काठमांडू का पता भूल गया हो ..रोज़ वहां तुम्हारे एक अक्षर का इन्तजार करती रही वहां मेरे लिए लोगों के पास बहुत शब्द थे दिल को छु जाने वाले पर उन्होंने इन्तजार की चिंगारी को और सुलगा दिया और जला दिया मुझसे उसका सेंक सहा नही गया तीन दिन के इन्तजार के बाद मुझे बुखार हो गया ..कल वापस आई ..रास्ते में हवाई जहाज बदल कर सीधे सफर की सीट नही मिली रात को सवा नौ बजे पहुँची ....न तुम्हारे लफ्जों ने इतनी कंजूसी क्यूँ कर ली है आज की डाक भी आ चुकी है सवाल का जवाब बनने वाले मुझे इस चुप का अर्थ समझा जाना !!


काया की हकीकत से लेकर
काया की आबरू तक "मैं "थी ,
काया के हुस्न से लेकर ---
काया के इश्क तक "तू "था

यह "मैं "अक्षर का इल्म था
जिसने "मैं "को इखलाक दिया
यह "तू "अक्षर का जश्न था
जिसने "वह "को पहचाना लिया
भय मुक्त "मैं "की हस्ती
और भय मुक्त तू की "वह "की

मनु की स्मृति
तो बहुत बाद की बात है

Monday, June 23, 2008

इमरोज़ अमृता को कई नामों से बुलाते थे उस में एक नाम था "बरकते "बरकते यानी बरकत वाली अच्छी किस्मत वाली सम्पन्न भरपूर.... वह कहते हैं कि बरकत तो उसके हाथ में है , उसके लेखन में है ....उसके होने में है ,उसके पूरे वजूद में है ..

अमृता तो हीर है
और फकीर भी
तख्त हजारे उसका धर्म है
और प्यार
उसकी ज़िंदगी
जाति से वह भिक्षु है
और मिजाज़ से
एक अमीर
वह एक हाथ से कमाती है
तो
दूसरे हाथ से बांटती है

इमरोज़ और अमृता के मिजाज़ और पसन्द मिलती जुलती भी है और अलग भी है ! वह दोनों अलग कमरे में रहते थे .अमृता बहुत सवेरे काम करती थी जब इमरोज़ सोये हुए होते थे और इमरोज़ उस वक्त काम करते थे जब अमृता सोयी होती थी .दोनों के जीवन कर्म अलग अलग थे लेकिन स्वभाव एक से थे !न वह पार्टी में जाते थे न घर में इस प्रकार का कोई आयोजन होता था दोनों अपने साथ ही वक्त गुजारना पसंद करते थे, अलग अलग अकेले अपने साथ अमृता अपने लेखन में ,इमरोज़ अपनी पेंटिंग्स में ....दोनों के कमरे के दरवाज़े खुले रहते ताकि एक दूसरे की खुशबु आती रहे लेकिन एक दूसरे के काम में कोई दखल अंदाजी नही ....जब अमृता लिख रही होती तो इमरोज़ चुपचाप उसके कमरे में जा के उनकी मेज पर चाय का कप रख आते !पर जब अमृता के बच्चे कुछ मांगते तो अपना लिखना बीच में छोड़ के वह उनका कहा पूरा करती !


अमृता कवितायें बनाती नही थी वह केवल अपने जज्बात से कविता कागज पर उतार देती एक बार लिखने के बाद न तो उन्हें काटती न कुछ उस में बदलती थी जो जहन में आता वह उसको वैसा ही लिख देती !!
एक बार की बात इमरोज़ जी ने मुझे बताई की वह किसी काम से मुम्बई गए थे ....ख़त आदि का सिलसिला उनके और अमृता के बीच में चलता रहा ..ऐसे ही एक ख़त में अमृता ने उन्हें लिखा
जीती !!

तुम जितनी सब्जी दे के गए थे ,वह ख़त्म हो गई है !जितने फल लेकर दे गए थे वह भी ख़त्म हो गए हैं फिरज खाली पड़ा है ..मेरी ज़िंदगी भी खाली होती हुई सी लग रही है - तुम जितनी साँसे छोड़ गए थे ,वह खत्म हो रहीं है ....

दस्तावेज ;अमृता प्रीतम के ख़त ]

इमरोज़ अमृता से कई साल छोटे थे पर कभी उम्र उनके प्यार में नही आई ,दोनों अलग शख्सियत थे पर एक दूजे को दिल से चाहा !! क्या इस लिए कहते हैं कि विपरीत परस्पर एक दुसरे को आकर्षित करते हैं ? क्या प्यार इन्ही दो उलट लोगो के बीच की कशिश होती है !!

वह

हर कोई कह रहा है
कि वह नही रही
मैं कहता हूँ
वह है
कोई सबूत?
मैं हूँ
अगर वह न होती
तो मैं भी न होता ....

इमरोज़

Friday, June 20, 2008

अमृता ने जब होश संभाला तो ख़ुद को अकेला ही पाया ..अमृता बचपन से अकेली पली बड़ी है ...जब वह मात्र दस साल की थी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया !उनका बचपन वैसा नही था जैसा एक आम बच्चे का होता है ....उनके पिता लेखक थे जो रात में लिखते और दिन में सोया करते थे ....घर में सिर्फ़ किताबे और किताबे ही थी जिनमें वह दब कर रह गई थी! कई बार उन्हें लगता था कि वह ख़ुद एक किताब है मगर कोरी किताब सो उन्होंने उसी कोरी किताब में लिखना शुरू कर दिया

तब उनके पिता ने उनकी प्रतिभा को पहचाना उसको संवारा तुक और छन्द का ज्ञान करवाया उन्हें भगवान की प्रशंसा के गीत और इन्सान के दुःख दर्द की कहानी लिखने को प्रेरित किया वह चाहते थे कि अमृता मीरा बाई की तरह लिखे पर यह नही हो सका !

अमृता ने चाँद की परछाई में से निकल कर अपने लिए एक काल्पनिक प्रतिमा बना ली थी जिसे वह घंटो चाँद की परछाई में देखा करती थी उसका काल्पनिक नाम उन्होंने राजन रखा था ....ग्यारह साल की अमृता ने अपनी पहली प्रेम कविता उसी राजन के नाम लिखी जो उनेक पिता ने उनकी जेब में देख ली थी ,अमृता डर गई थी और यह नही कह पायी की कविता उन्होंने ही लिखी है ......पिता ने उनके मुहं पर थप्पड़ मारा इसलिए नही कि उन्होंने कविता लिखी इस लिए कि उन्होंने झूठ बोला था !

पर उनकी कविता कोई दोष न ले सकी कि उसने झूठ बोला और बिना रोक टोक के कविता उमड़ पड़ी और बहने लगी ....

इसी राजन को याद करके जब उन्होंने इमरोज़ को ख़त लिखा उस दिन उस ख़त में उन्होंने इमरोज़ से कहा कि..

मेरी तक़दीर ,

राजन का अस्तित्व इस धरती पर कहीं नही था उसने सिर्फ़ मेरे सपनों को अपना बना रखा था और जिस दिन तुमने अशु पढ़ कर मुझे फ़ोन किया ""मैं तुम्हारा राजन बोल रहा हूँ ,उस दिन यह धरती की बात बन गई इस बात ने कर्म भी किया है और कहर भी ..तुम्हारी नज़र ने मेरे ऊपर से बरसों का पडा हुआ कोहरा झाड़ दिया है और आज जब मैं उस नज़र को नौ सौ मील की दूरी पर भेज कर आई हूँ एक कोहरा सा फ़िर मुझ पर पड़ता जा रहा है यह नज़र जिन मजबूर हालातों में मुझसे बिछुडी है उसका एहसास भी मेरे पास है और उसी के सहारे तुम्हारे विछोह के दिनों में पड़ने वाली कोहरे को मैं अपने ऊपर से झाडती रहूंगी और जब मेरे सामने फ़िर तुम्हारी नज़र होगी मेरे मन का रंग उसी तरह गुलाबी हो जायेगा
तुम्हारी बेगम

२१ -१ - ६०

एक गुफा हुआ करती थी --
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजूओं में ले कर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह कसम !
यही महक थी -
जो उसके होंठो से आई थी -
यह कैसी माया .कैसी लीला
कि शायद तुम भी कभी वह योगी थे
या वही योगी है --
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूँ --और वही महक है ...


इसी प्यार की महक के साथ फ़िर मिलती हूँ आपसे उनके अगले लिखे ख़त में

Tuesday, June 17, 2008

"""किसी तारीख़ को"" ...अमृता इमरोज़ की दिल की बातें जो लफ्जों में तारीख़ दर तारीख ढलती रही और बाद में हम जैसे पढने वालों के लिए एक यादगार लम्हे में दिल से उतर कर रूह की गहराई में बस गयीं ।...जब मुझे पता चला कि यह किताब बाज़ार में आ चुकी है तो इसको पढे बिना मुझे चैन कैसे मिलता :) और जब इसको पढ़ना शुरू किया तो लगा कि यह प्यार भी खुदा किसी किसी बन्दे को दिल से देता है ..हर किसी के बस का नही यूं प्यार करना ..शुरुआत में ही लिखी पंक्तियाँ पढ़ कर कौन न होगा जो इसको अंत तक नही पढ़ना चाहेगा ...


तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छू गया
दोस्ती मोहब्बत की हद तक गई
मोहब्बत इश्क की हद तक
और इश्क जनून को हद तक ..


अब बताये कौन न मरे इस सादगी से लिखे लफ्जों पर ।.चलिए अमृता इमरोज़ के इस सफर में उनके लिखे इन प्रेम पत्रों को भी साथ ले कर चलते हैं ...सबसे पहली पोस्ट में गुजारिश भी थी इन्हे यहाँ लिखने की .मैं कोशिश करती हूँ कि आप को इस सफर में उस दुनिया में वहाँ ले कर चलूँ जहाँ इश्क लफ्जों में ढल कर रूह को छू जाता है।
अमृता का पहला ख़त इमरोज़ को तब मिला जब वह मुम्बई में थे उस वक्त वह वहाँ गुरुदत के साथ शमा फ़िल्म में करने के लिए गए थे तब वह ख़त मिला एक लाइन का ।इस में न उन्होंने इमरोज़ को किसी नाम से संबोधित किया था न ही नीचे अपना नाम लिखा था और वह एक लाइन थी जी आयां [स्वागतम ]मुम्बई भाषा में तब इमरोज़ कहते हैं कि वह एक लाइन का ख़त पा कर उन्हें लगा कि अमृता उनके साथ वहीं है। बाएँ संरेखित करें
उनके साथ होने का एहसास तो मैंने तब भी महसूस किया जब मैं उनसे रूबरू मिली थी ..उनकी आंखों में वो प्यार झलक रहा था और उनके मुहं से वही नाम निकले जिनसे वह उनको अक्सर बुलाया करते थे .माजा नाम उन्होंने .. उन्होंने एक स्पेनिश नाविल द नेकिड माजा को पढने के बाद उन्हें दिया था और बाद में उन्हें इसी नाम से बुलाते रहे ।बाद में उन्हें पता चला कि मराठी में माजा का मतलब मेरा होता है तो वह लफ़ज़ वह नाम उन्हें बहुत अपना सा लगने लगा ।.यह बात उन्होंने मुझे मिलने पर भी बताई थी ..यह ख़त सिर्फ़ अमृता इमरोज़ की प्रेम पाती ही नही है मुझे तो पढ़ कर लगा कि यह दिल से लिखे वह लफ़ज़ हैं जो शायद प्रेम करने वाले दिलों को प्रेरणा देते रहेंगे ..या इमरोज़ के लफ्जों में कहे तो उनकी आत्म कथा रसीदी टिकट का ही एक हिस्सा ..

३०-१० ५९

तुम्हारे ख़त जीती [इमरोज़ को कहती थी वो ]इतने सुंदर है मेरे तसव्वुर से भी ज्यादा सुंदर जिनका मैं सारी उम्र इन्तेजार करती रही ..चाहे वह इन्तजार इन्तजार ही रह गया कितनी ही कविताओं में मैं उनके जवाब भी लिखती थी आज वह सब सच हो गए पर आज मेरा मन मेरे वश में नही है आँखे भर भर आती हैं ..मेरी उम्र के साल इस सच को देखने के लिए एक जगह ठहर क्यों नही जाते हैं ?वह क्यों बढ़ते गए ? आज वह तुम्हारे साथ मेल नही खा रहे हैं

तुम मुझे उस जादुओं से भरी वादी में बुला रहे हो जहाँ मेरी उम्र लौट के नही आती है उम्र दिल का साथ नही दे रहा है दिल उसी जगह ठहर गया है जहाँ ठहरने का इशारा तुमने उसको किया है ।सच उसके पैर वहाँ ही रुक गए हैं पर आज कल मुझे लगता है एक एक दिन कई कई बरस बीत जाते हैं और अपनी उम्र के इतने बरसों का बोझ मुझसे सहन नही हो रहा है ....

तुम्हारी अमृता ..

यह थी इस पत्रों के सफर की शुरुआत ..अमृता इमरोज़ से कई साल बड़ी थी और यह बात उन्हें इमरोज़ से मिलने पर और ज्यादा चुभती थी ..पर इमरोज़ का दिल कभी भी उम्र के इस बहाने को सुनने के लिए राजी नही था ..प्यार जब हो जाए तो कहाँ देखता है उम्र .वक्त और बाकी सब आने वाली मुश्किलें ...तभी तो वह अमृता और इमरोज़ थे ..:)

तुम मिले तो
कई जन्म
मेरी नब्ज में धडके
फ़िर मेरी साँस ने तुम्हारी साँस का घूंट पिया
तब मस्तक में कई काल पलट गए .....

शेष अगले अंक में :)

Monday, June 16, 2008

अमृता प्रीतम और इमरोज़ ...इनके बारे में जानना और लिखना सच में एक अदभुत एक सकून सा देता है दिल को ..एक लेखिका के रूप में अमृता जी को बहुत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा ,उनका बहुत विरोध भी हुआ ,उनके स्पष्ट ,सरल और निष्कपट लेखन के कारण और उनके रहने सहने के ढंग के कारण भी ..लेकिन उन्होंने कभी भी अपने विरोधियों और निन्दकों की परवाह नही की !उन्होंने अपने पति से अलग होने से पहले उन्हें सच्चाई का सामना करने और यह मान लेने के लिए प्रेरित किया की समाज का तिरिस्कार और निंदा की परवाह किए बिना उन्हें अलग अलग चले जाना चाहिए ,उनका मानना था की सच्चाई का सामना करने के लिए इंसान को साहस और मानसिक बल की जरुरत होती है

एक बार एक हिन्दी लेखक ने अमृता जी से पूछा था की अगर तुम्हारी किताबों की सभी नायिकाएं सच्चाई की खोज में निकल पड़ी तो क्या सामजिक अनर्थ न हो जायेगा ?

अमृता जी ने बहुत शांत भाव से जवाब दिया था कि यदि झूठे सामजिक मूल्यों के कारण कुछ घर टूटते हैं तो सच्चाई की वेदी पर कुछ घरों का बलिदान भी हो जाने देना चाहिए !!

अमृता और इमरोज़ दोनों मानते थे कि उन्हें कभी समाज की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी !आम लोगो की नज़र में उन्होंने धर्म विरोधी काम ही नही किया था बलिक उससे भी बड़ा अपराध किया था ,एक शादीशुदा औरत् होते हुए भी सामजिक स्वीकृति के बिना वह किसी अन्य मर्द के साथ रहीं जिस से वह प्यार करती थी और जो उनसे प्यार करता था !

एक दिन अमृता ने इमरोज़ से कहा था कि इमरोज़ तुम अभी जवान हो .तुम कहीं जा कर बस जाओ .तुम अपने रास्ते जाओ ,मेरा क्या पता मैं कितने दिन रहूँ या न रहूँ !"

तुम्हारे बिना जीना मरने के बराबर है और मैं मरना नही चाहता " इमरोज़ ने जवाब दिया था !

एक दिन फ़िर किसी उदास घड़ी में उन्होंने इमरोज़ से कहा था कि तुम पहले दुनिया क्यों नही देख आते ? और अगर तुम लौटो और मेरे साथ जीना चाहा तो फ़िर में वही करुँगी जो तुम चाहोगे !"
इमरोज़ उठे और उन्होंने उनके कमरे के तीन चक्कर लगा कर कहा "लो मैं दुनिया देख आया ! अब क्या कहती हो ?"

अब ऐसे दीवाने प्यार को क्या कहे ?

अमृता जी के लफ्जों में कहे तो ..

आज मैंने एक दुनिया बेची
एक दीन विहाज ले आई
बात कुफ्र की थी
सपने का एक थान उठाया
गज कपडा बस फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली ...

शेष अगले अंक में ....

Thursday, June 12, 2008

एक ज़माने से

तेरी ज़िंदगी का पेड़ कविता

फूलता फलता और फैलता
तुम्हारे साथ मिल कर
देखा है

और जब तेरी ज़िंदगी के पेड़ ने
बीज बनाना शुरू किया
मेरे अंदर जैसे कविता की
पत्तियाँ फूटने लगी हैं .

[.इमरोज़....]

एक सपना जो सच हुआ.....

सुबह उठी तब कहाँ जानती थी कि इन पंक्ति को लिखने वाले से ख़ुद रु बरू बात होगी
और मेरा ज़िंदगी का एक सपना यूँ सच होगा ...मिलना होगा एक ऐसी शख़्सियत से जिसको अभी तक सिर्फ़
उनके बनाए चित्रो से देखा है या अमृता की नज्मो के मध्याम से जाना है ...जाना होगा उस अमृता के घर जिसको मैने 14 साल की उमर से पढ़ना शुरू किया और उसको अपना गुरु मान लिया .....सुबह फ़ोन आया की आज इमरोज़ से मिलने का वक़्त तय हुआ है 2 बजे से पहले ..यदि साथ चलना चाहो तो चल सकती हो ..नेकी और पूछ पूछ...ऐसी ड्रीम डेट को भला कौन छोड़ना चाहेगा ...जाने में अभी दो घंटे बाक़ी थे और वो 2 घंटे कई सवाल और कई उत्सुकता लिए कैसे बीते मैं ही जानती हूँ ...

अमृता इमरोज़ के प्यार का ताजमहल उनका ख़ूबसूरत घर.......

उनका घर बिल्कुल ही साधारण ..हरयालि से सज़ा हुआ और अमृता इमरोज़ से जुड़े उनके वजूद का अनोखा संगम लगा ....एक ख़ुश्बू सी वहाँ थी या मेरे ज़ेहन में जिस को मैने बचपन से पढ़ा था आज मैं उसके घर पर थी ....हाय ओ रब्बा !!!यह सच था या सपना .....उनके घर की जब डोर बेल बजाई तो दिल एक अजब से अंदाज़ से धड़क रहा था ...उनको देखने की जहाँ उत्सुकता थी वहाँ दिमाग़ में अमृता की लिखी कई नज़मे घूम रही थी ...दरवाज़ा खुला ..समाने अमृता के बड़े बेटे थे कहा की इमरोज़ अभी बाज़ार तक गये हैं आप लोग अंदर आ जाओ . इमरोज़.अभी आ जाएँगे ... ...ड्राइंग रूम में अंदर आते ही ...कई छोटी छोटी पेंटिंग्स थी एक बड़ा सा ड्राइंग रूम ..ठीक मेरे बाए हाथ की तरफ़ एक दिलीप कुमार की हाथ से बनाई पेंटिंग लगी थी ...उनके ख़ामोश लब और बोलती आँखे जैसे अपनी ही कोई बात कर रहे थे हमसे ...
थोड़ी देर हम उन्ही पेटिंग्स में गुम थे की पता चला की इमरोज़ आ गये हैं ...और उनसे मिलने फर्स्ट फ्लोर पर जाना होगा ....रास्ते में सीढ़ियों पर पेंटिग्स ..एक सुंदर सी छोटी सी मटकी पेंट की हुई और अंदर दरवाज़े पर अमृता की किसी पंजाबी नज़्म की कुछ पंक्तियाँ लाल रंग से लिखी हुई थी
बहुत ही साधारण सा घर जहाँ अंदर आते ही दो महान हस्तियाँ अपनी अपनी तरह से अपने होने का एहसास करवा रही थी...सामने की दीवार पर इमरोज़ के रंगो में सजी अमृता की पंटिंग्स और साथ में लिखी हुई उनकी नज़मे .एक रोमांच सा दिल में पैदा कर रहे थे ....एक छोटी सी मेज़ जहाँ अब अक्सर इमरोज़ कविता या नज़्म लिखते हैं ...उसके ठीक पीछे कुछ मुस्कराते से पौधे .. सामने की तरफ़ रसोईघर ....जहाँ कभी अमृता अपना खाना ख़ुद बनाती थी और इमरोज़ साथ रह कर वही पर उनकी मदद करते थे..उनके लिए चाय बना देते थे ....यहाँ सब सामान शीशे का यानी पारदर्शी जार में है कभी कोई समान ख़त्म होने पर ..इमरोज़ उस ख्त्म हुए समान को फिर से ला कर भर दे ....और अमृता को कोई किसी चीज की कमी या कोई परेशानी ना हो ....यही बताते हुए इमरोज़ ने एक बहुत ही सुंदर बात कही की काश इंसान भी पारदर्शी शीशी की तरह होते ..जिस के अंदर झाँक के हम देख सकते ....कितनी सजहता से इमरोज़ कितनी गहरी बात कह गये

एक असाधारण व्यक्तिव इमरोज़ ..

वापस वही रसोई घर के सामने रखी मेज़ पर आ कर और उस इंसान को देख रही थी जिसका ज़िक्र अमृता की नज़मो में होता है ...एक सपना वो अक्सर देखा करती थी की एक लंबा सा आदमी सफ़ेद कुर्ते पायजामे में ..कंवास और रंगो से कुछ पेंट कर रहा है ..यह सपना वह कई साल देखती रही ..इमरोज़ ने बताया की मुझसे मिलने के बाद वह सपना आना काम हो गया ...सच में इतना प्यार कोई करे और उसके जाने के बाद भी अपनी बातो से अपने एहसासो से उस औरत को ज़िंदा रखे किसी औरत के लिए इस से ज़्यादा ख़ुशनसीबी क्या होगी ......हमारे लिए वो अपने हाथो से कोक ले के आए ..बहुत शर्म सी महसूस हुई की इतनी बड़ा शख्स पर कोई भी अहंकार नही कितना साधारण..दिल को छू गया उनका यह प्यारा सा मुस्कराना .और बहुत प्यार से बाते करना मैने पूछा कि आप को अमृता की याद नही आती ...नही वो मेरे साथ ही है उसकी याद कैसे आएगी ..इसके बाद जितनी भी बात हुई उन्होने उसके लिए एक बार भी
थी लफ़ज़ का इस्तेमाल नही किया ..मैने पूछा भी था उनसे की आपने हर बात में है कहा अमृता को ..थी नही ..उन्होंने मुस्कारते हुए कहा कि वह अभी भी है ..और रहेगी हमेशा .सच ही तो कहा उन्होंने

प्यार का एक नाम इमरोज़ ....

मैने कहा मैं अमृता जी से मिलना चाहती थी ..तो बोले की मिली क्यू नही ..वह सबसे मिलती थी यह दरवाज़ा हमेशा खुला ही रहता था ..कोई भी उस से आ कर मिल सकता था ..तुमने बहुत देर कर दी आने में .....सच में बहुत अफ़सोस हुआ ...की काश उनके जीते जी उनसे मिलने आ पाती ... सामने जो मेरे शख्स था वो आज भी पूरी तरह से अमृता के प्यार में डूबा हुआ ,,वहाँ की हवा में रंग था नज़्म थी और प्यार ही प्यार था ....कोई किसी को इतना प्यार कैसे कर सकता है ....पर एक सच सामने था ....एक अत्यंत साधारण सा आदमी ...भूरे रंग के कुर्ते में सफ़ेद पाजामे में ..आँखो में चमक ...और चहरे पर एक नूर ..शायद अमृता के प्यार का...सब एक सम्मोहन ..सा जादू सा बिखेर रहे थे .
मैने जब उनसे पूछा कि क्या मैं अमृता का रूम देख सकती हूँ ..जहाँ वह लिखा करती थी ..तो उन्होने मुझे पूरा घर दिखा दिया ..यह पहले ड्राइंग रूम हुआ करता था ..अब वहाँ इमरोज़ की पंटिंग्स और अमृता की नज़मो का संगम बिखरा हुआ था एक शीशे की मेज़ जिस पर एक टहनी थी जिसकी परछाई अपना ही जादू बिखेर रही थी इस से बेहतर ..कोई ड्राइंग रूम और क्या हो सकता है ....अमृता का कमरा वैसे ही है जैसा उनके होते हुए था .और बिस्तर पर पड़ी सलवटे जैसे कह रही हो की अभी यही है अमृता ..बस उठ कर शायद रसोईघर तक गयी हो ..फिर से वापस आ के कोई नज़म लिखेगी ..... इमरोज़ का कमरा रंगो में घिरा था ...और हर क़मरे की आईने में कोई ना को नज्म पंजाबी में लाल रंग से लिखी हुई थी ...एक और कमरे में बड़े बड़े बूक शेल्फ़ .जिस में कई किताबे ..सजी थी ...अमृता की और कई अन्य देश विदेश के लेखको की ....बस सब कुछ जो देखा वो समेट लिया अपने दिल में और वहाँ फैली हवा में उन ताममं चीज़ो के वजूद को महसूस किया ..जो साथ साथ अपना एहसास करवा रहे थे ...

.प्यार के लिए लफ़्ज़ो की ज़रूरत नही..

उन्होने बताया की चालीस साल में कभी भी अमृता और मैने एक दूसरे को I LOVE U नही कहा ..क्यूकी कभी हमे इस लफ्ज़ की ज़रूरत ही नही पढ़ी ..वैसे भी प्यार तो मेहसूस करने की चिज़ है उसको लफ़्ज़ो में ढाला भी कैसे जा सकता है ......बस हम दोनो ने एक दूसरे की ज़रूरत को समझा ....वो रात को 2 बजे उठ कर लिखती थी उस वक़्त उस को चाय चाहिए होती थी ...हमारे कमरे अलग अलग थे क्यूँकी उसको रात को लिखने की आदत थी और मुझे अपने तरीक़े से पेंटिंग करनी होती थी .हमने कभी एक दूसरे के काम में डिस्त्रब नही किया ...बस उठता था उसकी चाय बाना के चुप छाप उसके पास रख आता था ..वह मेरी तरफ़ देखती भी नही पर उसको एहसास है की मैं चाय रख गया हूँ और उसको वक़्त पर उसकी जो जरौरत थी वोह पूरी हो गयी है ..सच कितना प्यारा सा रिश्ता है दोनो के बीच ....उसको सिगरेट की आदत है मैं नही पीता पर उसको ख़ुद ला के देता ..मैने पूछा की क्या आपने कभी उनको बदलने की कोशिश नही की ....उन्होने कहा नही की वो ख़ुद जानती थी की इसको पीने में क्या बुराई है तो मैं उसको क्या समझा सकता हूँबहुत अच्छा लगा .यही तो प्रेम की प्रकाष्ठा है ..इस से उपर प्रेम और हो भी क्या सकता है ...एक एक लफ्ज़ में प्यार था उनका अमृता के लिए

अमृता इमरोज़ का मिलना ......

मैने पूछा की आप मिले कैसे थे ..अमृता को अपनी किताब के लिए कवर पेज बनवाना था ...और इमरोज़ से उसी सिलसिले में मुलाक़ात हुई .....फिर कब यह ख़ूबसूरत रिश्ते में ढल गयी .पता ही नही चला ...अमृता इमरोज़ से 7 साल बढ़ी थी ..तब उस वक़्त बिना किसी समाज की परवाह किए बिना ..उन्होने साथ रहना शुरू किया ...इमरोज़ ने बताया की तब कई लोगो ने कहा की यह तो बूढ़ी हो जाएगी ..तुम अभी जवान हो या अमृता को भी बहुत कुछ कहा गया ..पर कुछ नही सुना ..मैने उस वक़्त जब वो 40 साल की भी नही थी उसकी पेंटिंग बनाई की 80 साल की हो के वो कैसी लगेगी .उसके बाल सफ़ेद किए ..चहरे पर झुरियाँ बनाई ..और जब उसके 80 साल के होने पर मैने उसको उसको पंटिंग से मिलाया तो वो उस पैंटिंग से ज्यादा ख़ूबसूरत थी .....भला नक़ली रंग असली सुंदरता से कैसे मुक़ाबला कर पाते ...यह प्यार कितना प्यारा था जो करे वही समझे!

कुछ यादे कुछ बातें.....

कुछ बाते आज की राजनीति पर हुई .कुछ आज कल के बच्चो जो बुढ़ापा आते ही अपने माँ बाप को ओल्ड एज होम छोड़ आते हैं ...पर उनकी हर बात का अंत सिर्फ़ अमृता पर हुआ ...उनकी लिखी कविताओ में उन्होने कहा की कोई दुख का साया या कुछ खोने का डर नही दिखेगा ...क्यूकी मेरे पास तो खोने के लिए कुछ है ही नही जो ज़्यादातर कविता या नज्मो में होता है क्यूँकी मेरा जो भी कुछ है वो मेरे पास ही दिखता है ...सच हो तो कहा उन्होने अमृता जी वहाँ हर रंग में हर भाव में इमरोज़ के रंगो में ढली हुई थी उन्ही के लफ़्ज़ो में

लोग कह रहे हैं उसके जाने के बाद
तू उदास और अकेला रह गया होगा

मुझे कभी वक़्त ही नही मिला
ना उदास होने का ना अकेले होने का ..

. वह अब भी मिलती है
सुबह बन कर शाम बन कर
और अक्सर नज़मे बन कर

हम कितनी देर एक दूजे को देखते रहे हैं
और मिलकर अपनी अपनी नज़मे ज़िंदगी को सुनाते रहे हैं[इमरोज़]

कभी नही भूलेंगे मुझे यह ख़ूबसूरत पल .

.यह छोटी सी मुलाक़ात मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल यादगार पलो में से एक है ...उनके कहे अनुसार जल्दी ही उनसे मिलूंगी ..क्यूँकी उनके कहे लफ्ज़ तो अभी मेरे साथ हैं कि जैसे अमृता को मिलने में देर कर दी .,.मुझे दुबारा मिलने में देर मत करना ..क्यूँकी मैं भी बूढ़ा हो चुका हूँ ..क्या पता कब चल दूं ... नही इमरोज़ जी आप अभी जीयें और स्वस्थ रहे यही मेरी दिल से दुआ है .....


रंजना [रंजू]20 एप्रिल 2007

Wednesday, June 11, 2008

एक मुलाकात

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान
समुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..

याद

आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….

आसमान की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….

मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….

साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं

वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….

तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….

हादसा

बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है

आत्ममिलन

मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……

शहर

मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….

भारतीय़ ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित अमृता प्रीतम चुनी हुई कवितायें से साभार

 

Monday, June 9, 2008

अमृता जी के बारे में जितना लिखा जाए मेरे ख्याल से उतना कम है , जैसा कि मैंने अपने पहले लेख में लिखा था कि मैंने इनके लिखे को जितनी बार पढ़ा है उतनी बार ही उसको नए अंदाज़ और नए तेवर में पाया है .।उनके बारे में जहाँ भी लिखा गया मैंने वह तलाश करके पढ़ा है ।एक बार किसी ने इमरोज़ से पूछा कि आप जानते थे कि अमृता जी साहिर से दिली लगाव रखती हैं और फ़िर साजिद पर भी स्नेह रखती है आपको यह कैसा लगता है ?
इस पर इमरोज़ जोर से हँसे और बोले कि एक बार अमृता ने मुझसे कहा था कि अगर वह साहिर को पा लेतीं तो मैं उसको नही मिलता .तो मैंने उसको जवाब दिया था कि तुम तो मुझे जरुर मिलती चाहे मुझे तुम्हे साहिर के घर से निकाल के लाना पड़ता "" जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते कि मुश्किल को नही गिनते मुझे मालूम था कि अमृता साहिर को कितना चाहती थी लेकिन मुझे यह भी बखूबी मालूम था कि मैं अमृता को कितना चाहता था !"

साहिर के साथ अमृता का रिश्ता मिथ्या व मायावी था जबकि मेरे साथ उसका रिश्ता सच्चा और हकीकी.वह अमृता को बेचैन छोड़ गया और मेरे साथ संतुष्ट रही .।

उन्होंने एक किस्से का बयान किया है कि जब गुरुदत्त ने मुझे नौकरी के लिए मुम्बई बुलाया तो मैं अमृता को बताने आया ।अमृता कुछ देर तक तो खामोश रही फ़िर उसने मुझे एक कहानी सुनाई .यह कहानी दो दोस्तों की थी इसमें से एक बहुत खूबसूरत था दूसरा कुछ ख़ास नही था ।.एक बहुत खूबसूरत लड़की खूबसूरत दोस्त की तरफ़ आकर्षित हो जाती है वह लड़का अपने दोस्त की मदद से उस लड़की का दिल जीतने की कोशिश करता है ,उस लड़के का दोस्त भी उस लड़की को बहुत प्यार करता है पर अपनी सूरत कि वजह से कभी उसक कुछ कह नही पाता है आखिरकार उस खूबसूरत लड़की और उस खूबसूरत लड़के की शादी हो जाती है इतने में ज़ंग छिड जाती है और दोनों दोस्त लड़ाई के मैदान में भेज दिए जातें हैं।

लड़की का पति उसको नियमित रूप से ख़त लिखता है लेकिन वह सारे ख़त अपने दोस्त से लिखवाता है कुछ दिन बाद लड़ाई के मैदान में उसकी मौत हो जाती है और उसके दोस्त को ज़ख्मी हालत में वापस लाया जाता है लड़की अपने पति के दोस्त से मिलने जाती है और अपने पति के ख़त उसको दिखाती है दोनों खतों को पढने लगते हैं तभी बिजली चली जाती है पर उसके पति का दोस्त उन खतों को अंधेरे में भी पढता रहता है क्यूंकि वो लिखे तो उसी ने थे और उसको जबानी याद थे ।लड़की सब समझ जाती है ,पर उस दोस्त कीतबीयत भी बिगड़ जाती है और वह भी दम तोड़ देता है ।लड़की कहती है की मैंने एक आदमी से प्यार किया लेकिन उसको दो बार खो दिया !

एक गहरी साँस ले कर इमरोज़ ने यही कहा कि अमृता ने सोचा था कि मुझे कहानी का मर्म समझ मैं नही आया पर मैं समझ गया था कि वह कहना चाहती थी कि पहले साहिर मुझे छोड़ के चला गया अब तुम मुझे छोड़ के जा रहे हो और जो चले जाते हैं वह आसानी से वापस कहाँ आते हैं .।जब इमरोज़ मुम्बई पहुंचे तो तीसरे दिन ही अमृता को ख़त लिख दिया कि मैं वापस आ रहा हूँ उन्होंने कहा कि मैं जानता था कि अगर मैं वापस नही लौटा तो हमेशा के लिए अमृता को खो दूंगा।
इमरोज़ ने बताया कि अमृता ने कभी भी अपने प्यार का खुले शब्दों में इजहार नही किया और न मैंने उसको कभी कहा अमृता जी ने अपनी एक कविता में लिखा था कि .

आज पवन मेरे शहर की बह रही
दिल की हर चिनगारी सुलगा रही है
तेरा शहर शायद छू के आई है
होंठो के हर साँस पर बेचैनी छाई है
मोहब्बत जिस राह से गुजर कर आई है
उसी राह से शायद यह भी आई है

इमरोज़ जी अपने घर की छत पर खड़े उस गाड़ी का इंतज़ार करते रहते थे जिस में अमृता रेडियो स्टेशन से लौटती थीं .गाड़ी के गुजर जाने के बाद भी वह वहीं खड़े रहते और अवाक शून्य में देखते रहते वे यहाँ इंतज़ार करते और वह वहाँ कविता में कुछ लिखती रहती

जिंद तो हमारी
कोयल सुनाती
जबान पर हमारे
वर्जित छाला
और दर्दों का रिश्ता हमारा


अमृता जी की लिखी एक रचना

यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वोही सिगरेट है
जो तूने कभी सुलगाई थी

चिंगारी तूने दे थी
यह दिल सदा जलता रहा
वक़्त कलम पकड़ कर
कोई हिसाब लिखता रहा

चौदह मिनिट हुए हैं
इसका ख़ाता देखो
चौदह साल ही हैं
इस कलम से पूछो

मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा

उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में
कुछ हवा में मिल गयी,

देखो यह आखरी टुकड़ा है
ऊँगलीयों में से छोड़ दो
कही मेरे इश्कुए की आँच
तुम्हारी ऊँगली ना छू ले

ज़िंदगी का अब गम नही
इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ
अब और सिगरेट जला ले !!

Thursday, June 5, 2008

अमृता प्रीतम जी का लिखा हुआ हो और गुलजार जी की आवाज़ हो तो इसको कहेंगे सोने पर सुहागा ...। यह कविता उन्होंने अपने आखिरी दिनों में इमरोज़ जी के लिए लिखी थी । इस कविता का एक एक लफ्ज़ प्यार का प्रतीक है । अमृता बहुत बीमार थी उन दिनों ...वह अपने आखिरी दिनों में अक्सर तंद्रा में रहती थी । कभी कभी एक शब्द ही बोलती लेकिन इमरोज़ के लिए हमेशा मौजूद रहती पहले की तरह ही हालांकि इमरोज़ पहले की तरह उनसे बात नही कर पाते थे पर अपनी कविता से उनसे बात करते रहते .। .एक बार खुशवंत सिंह जो अपने घर में अक्सर छोटी छोटी सभा गोष्टी करते रहते थे ..इन दोनों को कई बार बुलाया पर यह दोनों नही जाते थे तब उन्होंने पूछा अमृता को फ़ोन कर के पूछा था कि तुम बाहर क्यों नही निकलते हो ..क्या करते रहते हो सारा दिन तुम लोग ?
अमृता ने जवाब दिया गल्लां ""[बातें ]

उन्होंने हंस कर कहा इतनी बातें करते हो तुम दोनों की खतम नही होती है तब अमृता सिर्फ़ हंस कर रह गई ..पता नही दोनों कैसी क्या बातें करते थे कभी शब्दों के माध्यम से कभी खामोशी के जरिये पर दोनों को साथ रहना पसंद था एक दूसरे के आस पास रहना पसंद था ..




मैं तैनू फ़िर मिलांगी
कित्थे ? किस तरह पता नई
शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के
तेरे केनवास ते उतरांगी
जा खोरे तेरे केनवास दे उत्ते
इक रह्स्म्यी लकीर बण के
खामोश तैनू तक्दी रवांगी

जा खोरे सूरज दी लौ बण के
तेरे रंगा विच घुलांगी
जा रंगा दिया बाहवां विच बैठ के

तेरे केनवास नु वलांगी
पता नही किस तरह कित्थे
पर तेनु जरुर मिलांगी
जा खोरे इक चश्मा बनी होवांगी
ते जिवें झर्नियाँ दा पानी उड्दा
मैं पानी दियां बूंदा
तेरे पिंडे ते मलांगी
ते इक ठंडक जेहि बण के
तेरी छाती दे नाल लगांगी
मैं होर कुच्छ नही जानदी
पर इणा जानदी हां
कि वक्त जो वी करेगा
एक जनम मेरे नाल तुरेगा
एह जिस्म मुक्दा है
ता सब कुछ मूक जांदा हैं
पर चेतना दे धागे

कायनती कण हुन्दे ने
मैं ओना कणा नु चुगांगी
ते तेनु फ़िर मिलांगी


******
मैं तुझे फ़िर मिलूंगी
कहाँ किस तरह पता नही
शायद तेरी तख्यिल की चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरुंगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
या फ़िर सूरज कि लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूंगी
या रंगो कि बाहों में बैठ कर
तेरे केनवास से लिपट जाउंगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे जरुर मिलूंगी

या फ़िर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूंगी
और एक ठंडक सी बन कर
तेरे सीने से लगूंगी


मैं और कुछ नही जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जी भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म खतम होता है
तो सब कुछ खत्म हो जाता है

पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं

मैं उन कणों को चुनुंगी
मैं तुझे फ़िर मिलूंगी !!


ਮੈਂ ਤੈਨੂ ਫ਼ਿਰ ਮਿਲਾਂਗੀ

ਕਿੱਥੇ ? ਕਿਸ ਤਰਹ ਪਤਾ ਨਈ

ਸ਼ਾਯਦ ਤੇਰੇ ਤਾਖਿਯਲ ਦੀ ਚਿਂਗਾਰੀ ਬਣ ਕੇ

ਤੇਰੇ ਕੇਨਵਾਸ ਤੇ ਉਤਰਾਂਗੀ

ਜਾ ਖੋਰੇ ਤੇਰੇ ਕੇਨਵਾਸ ਦੇ ਉੱਤੇ

ਇਕ ਰਹ੍ਸ੍ਮ੍ਯੀ ਲਕੀਰ ਬਣ ਕੇ

ਖਾਮੋਸ਼ ਤੈਨੂ ਤਕ੍ਦੀ ਰਵਾਂਗੀ

ਜਾ ਖੋਰੇ ਸੂਰਜ ਦੀ ਲੌ ਬਣ ਕੇ

ਤੇਰੇ ਰਂਗਾ ਵਿਚ ਘੁਲਾਂਗੀ

ਜਾ ਰਂਗਾ ਦਿਯਾ ਬਾਹਵਾਂ ਵਿਚ ਬੈਠ ਕੇ

ਤੇਰੇ ਕੇਨਵਾਸ ਨੁ ਵਲਾਂਗੀ

ਪਤਾ ਨਹੀ ਕਿਸ ਤਰਹ ਕਿੱਥੇ

ਪਰ ਤੇਨੁ ਜਰੁਰ ਮਿਲਾਂਗੀ

ਜਾ ਖੋਰੇ ਇਕ ਚਸ਼੍ਮਾ ਬਨੀ ਹੋਵਾਂਗੀ

ਤੇ ਜਿਵੇਂ ਝਰ੍ਨਿਯਾਁ ਦਾ ਪਾਨੀ ਉਡ੍ਦਾ

ਮੈਂ ਪਾਨੀ ਦਿਯਾਂ ਬੂਂਦਾ

ਤੇਰੇ ਪਿਂਡੇ ਤੇ ਮਲਾਂਗੀ

ਤੇ ਇਕ ਠਂਡਕ ਜੇਹਿ ਬਣ ਕੇ

ਤੇਰੀ ਛਾਤੀ ਦੇ ਨਾਲ ਲਗਾਂਗੀ

ਮੈਂ ਹੋਰ ਕੁੱਛ ਨਹੀ ਜਾਨਦੀ

ਪਰ ਇਣਾ ਜਾਨਦੀ ਹਾਂ

ਕਿ ਵਕ੍ਤ ਜੋ ਵੀ ਕਰੇਗਾ

ਏਕ ਜਨਮ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਤੁਰੇਗਾ

ਏਹ ਜਿਸ੍ਮ ਮੁਕ੍ਦਾ ਹੈ

ਤਾ ਸਬ ਕੁਛ ਮੂਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈਂ

ਪਰ ਚੇਤਨਾ ਦੇ ਧਾਗੇ

ਕਾਯਨਤੀ ਕਣ ਹੁਨ੍ਦੇ ਨੇ

ਮੈਂ ਓਨਾ ਕਣਾ ਨੁ ਚੁਗਾਂਗੀ

ਤੇ ਤੇਨੁ ਫ਼ਿਰ ਮਿਲਾਂਗੀ

amrita
पिछले कुछ दिनों से मैं अमृता जी की लिखी हुई कई नज्म और कहानी लेख पढ़ रही थी ..यूं तो इनको मैं अपना गुरु मानती हूँ .पर हर बार इनके लिखे को पढ़ना एक नया अनुभव दे जाता है ..और एक नई सोच ..वह एक ऐसी शख्सियत थी जिन्होंने ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जी ..एक किताब में उनके बारे में लिखा है की हीर के समय से या उस से पहले भी वेदों उपनिषदों के समय से गार्गी से लेकर अब तक कई औरतों ने अपनी मरजी से जीने और ढंग से जीने की जरुरत तो की पर कभी उनकी जरुरत को परवान नही चढ़ने दिया गया और अंत दुखदायी ही हुआ ! आज की औरत का सपना जो अपने ढंग से जीने का है वह उसको अमृता इमरोज़ के सपने सा देखती है ..ऐसा नही है की अमृता अपनी परम्पराओं से जुड़ी नही थी ..वह भी कभी कभी विद्रोह से घबरा कर हाथो की लकीरों और जन्म के लेखो जोखों में रिश्ते तलाशने लगती थी ,और जिस समय उनका इमरोज़ से मिलना हुआ उस वक्त समाज ऐसी बातों को बहुत सख्ती से भी लेता था ..पर अमृता ने उसको जी के दिखाया ..

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वह ख़ुद में ही एक बहुत बड़ी लीजेंड हैं और बंटवारे के बाद आधी सदी की नुमाइन्दा शायरा और इमरोज़ जो पहले इन्द्रजीत के नाम से जाने जाते थे, उनका और अमृता का रिश्ता नज्म और इमेज का रिश्ता था अमृता की नज़मे पेंटिंग्स की तरह खुशनुमा हैं फ़िर चाहे वह दर्द में लिखी हों या खुशी और प्रेम में वह और इमरोज़ की पेंटिंग्स मिल ही जाती है एक दूजे से !!im



मुझे उनकी लिखी इस पर एक कविता याद आई ..

तुम्हे ख़ुद से जब लिया लपेट
बदन हो गए ख्यालों की भेंट
लिपट गए थे अंग वह ऐसे
माला के वो फूल हों जैसे
रूह की वेदी पर थे अर्पित
तुम और मैं अग्नि को समर्पित
यूं होंठो पर फिसले नाम
घटा एक फ़िर धर्मानुषठान
बन गए हम पवित्र स्रोत
था वह तेरा मेरा नाम
धर्म विधि तो आई बाद !!

अमृता जी ने समाज और दुनिया की परवाह किए बिना अपनी ज़िंदगी जी उनमें इतनी शक्ति थी की वह अकेली अपनी राह चल सकें .उन्होंने अपनी धार दार लेखनी से अपन समय की सामजिक धाराओं को एक नई दिशा दी थी !!बहुत कुछ है उनके बारे में लिखने को .पर बाकी अगले लेख में ...

अभी उन्ही की लिखी एक सुंदर कविता से इस लेख को विराम देती हूँ ..

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के उपर उभर आयीं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें



अमृता जी पर लिखी एक जानकरी के आधार पर लेख