३१ अगस्त ६७ यह ख़त इमरोज़ ने अमृता को उनके जन्मदिन पर लिखा जब वह हंगरी में थी .. और इस के साथ ही हमारा सलाम है उस शायरा को .उस नेक रूह को और उस औरत को जो अपने वक्त से आगे चलने की हिम्मत रखती हैं ...सच कहा उन्होंने कि अमृता किसी एक धरती ,किसी एक देश .किसी एक जुबान या किसी एक कोम से नही जुड़ी है ,वह तो जुड़ी है हर उस धरती से जहाँ धरती दिल की तरह विशाल होती है और जज्बात से महकती है .... अमृता का जुडाव है हर उस देश से जहाँ अदब और कल्चर रात दिन बढ़ते हैं ,हर तरह की हदबंदी से मुक्त .... अमृता तुम पहचान हो हर उस जबान की जहाँ दिलों की सुनना भी आता है देखना भी .....और पहचानना भी ......अमृता नाम है आज में जीने का उस कौम का जहाँ सिर्फ़ आज में वर्तमान में जीया जाता है और आज के लोगों के साथ अपन आपके साथ जीने का जज्बा रखते हैं .....अमृता नाम है उस हर दिन और रात का जहाँ हर रात एक नई कृति के ख्याल को कोख में डाल कर सोती है और हर सवेरा एक नया गीत गुनगुनाते हुए दिन की सीढियां चढ़ता है .....
एक सूरज आसमान में चढ़ता है ,आम सूरज ,सारी धरती के लिए सांझे का सूरज ,जिसकी रौशनी से धरती पर सब कुछ दिखायी देता है जिसकी तपिश से सब कुछ जीता है जन्मता है फलता है .... लेकिन एक सूरज धरती पर भी उगता है ख़ास सूरज सिर्फ़ एक मन की धरती के लिए ..... सिर्फ़ के मन के लिए ,सारे का सारा ..... इस से एक बात रिश्ता बन जाती है, एक ख्याल - एक कृति और एक सपना -एक हकीकत ...... इस सूरज का रूप भी इंसान का होता है..... इंसान के कई रूपों की तरह इसके भी कई रूप हो सकते हैं ......आमतौर पर यह सूरज एक ही धरती के लिए होता है ,लेकिन कभी कभी आसमान के सूरज की तरह आम भी हो जाता है -सबके लिए -जब यह देवेता ,गुरु ,या पैगम्बर के रूप में आता है ..... इमरोज़ ने इस सूरज को पहली बार एक लेखिका के रूप में देखा था ,एक शायरा के रूप में ....और उसको अपना बना लिया एक औरत के रूप में .एक दोस्त के रूप में .एक आर्टिस्ट के रूप में और एक महबूबा के रूप में .....
अमृता की अमृता से मुलाकात .उनके व्यक्तित्व का एक ख़ास पहलू--उसके मन की फकीरी - बड़ा उभर कर आया है उनकी पुस्तक जंग जारी है में ----एक दर्द है कि .''मैं सिर्फ़ एक शायरा बन कर रह गई - एक शायर ,एक अदीब ........ हजारी प्रसाद दिवेद्धी के नावल में एक राजकुमारी एक ऋषिपुत्र को प्यार करती है ,और इस प्यार को छाती में वहां छिपा लेती है जहाँ किसी की दृष्टि नही जाती ..पर एक बार उसकी सहेलियों जैसी बहन उस से मिलने आती है ,और वह उस प्यार की गंध पा जाती है ..
उस समय राजकुमारी उस से कहती है ..अरु ! तुम कवि बन गई हो ,इस लिए सब कुछ गडबडा गया ......आदिकाल से तितली फूल के इर्द गिर्द घुमती हैं ,बेल पेड़ के गले लगती है ,रात को खिलाने वाले कमल चाँद की चांदनी के लिए व्याकुल होता है .... बिजली बादलों से खेलती है ....पर यह सब कुछ सहज मन में होता था ,कभी इसकी और कोई उंगली नहीं उठाता था और न ही इसको कोई समझने का दावा करता था , न ही कोई इसके भेद को समझने कादावा करता था ..........पर एक दिन कवि आ गया ,वह चीख चीख कर कहने लगा ,
मैं इस चुप की भाषा समझता हूँ ..सुनो सुनो दुनिया वालों ! मैं आंखों की भाषा भी समझता हूँ .....बाहों की बोली जानता हूँ ......और जो कुछ भी लुका छिपी है वह भी सब जानता हूँ ! और उसी दिन से कुदरत का सारा पसारा गडबडा गया ...यह एक बहुत बड़ा सच है ..कुछ बातें सचमुच ऐसी होती हैं ,जिन्हें खामोशी की बोली नसीब होनी चाहिए ..पर हम लोग ,हम शायर ,और अदीब उनको बोली से निकला कर बाहर शोर में ले जाते हैं ..
जानते हो उस राजकुमारी ने फ़िर अपनी सखी से क्या कहा था ? ....कहा अरु ! तुमने जो समझा है ,उसे चुपचाप अपन पास रख लो ..तुम कवि से बड़ी हो जाओ !""मेरा यही दर्द है कि मैं कवि से बड़ी नही हो सकी .जो भी मन की तहों में जीया सब कागजों के हवाले कर दिया ..लेखक के तौर पर सिर्फ़ इतना ही नहीं रचना के क्षणों का भी इतिहास लिख दिया ..रसीदी टिकट मेरी प्राप्ति है ,पर मैं केवल लेखक बनी बड़ी नही हो सकी ....
पर हम जानते हैं कि वह क्या थी ... साहित्यिक इर्ष्या जैसी चीज अमृता कि समझ में कभी नही आई | वह कहती थी कि ,''दुनिया में जहाँ भी कोई अच्छाई है ,जहाँ भी कोई खूबसूरती है ,वह मेरी है ..मैंने क्रीट टापू नही देखा है पर वहां का काजनजाकिस मेरा है ..कमलेशवर जब कितने अच्छे दिन जैसी कहानी लिखता है वह मुझे अपनी कहानी लगती है ..डॉ लक्ष्मी नारायण लाल जब यक्ष प्रश्न लिखता है ,निर्मल वर्मा जब डेढ़ इंच ऊपर लिखता है ..कृष्णा सोबती जब सूरज मुखी अंधेरे के .लिखती है तो तो ..वह भी सब मेरा है ...उस वक्त अमृता का कहा सुन कर ऐसा लगता है वह सचमुच एक धरती के समान है जिसकी बाहों में पर्वत भी है और समुन्द्र भी .....
मुझे वह समय याद है ---
जब धूप का एक टुकडा
सूरज कि उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में खो गया ...
सोचती हूँ : सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नही लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया ..
तुम कहीं नही मिलते
हाथ छु रहा है
एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है
न हाथ छोड़ता है ..
अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे के धूप का टुकडा ....
अमृता के बारे में हमेशा मैंने कहा है की जितना लिखा जाए कम है ..आज उनका जन्मदिन है और उनसे जुड़े न जाने कितने किस्से ,मेरे जहन में एक चलचित्र की तरह चलते जा रहे हैं ....वो बातें जो उन्होंने कभी अपने साक्षत्कार में कहीं ....या वह किस्से जो उनकी कहानी में ढल गए .और वह नज्म जो मोहब्बत का ,दर्द का पैगाम बन गयीं ..जितना लिखूंगी मेरे लिए तो उतना ही कम है ..चलते चलते उन्ही के लफ्जों में .जो मैंने लिखा है वह लिखने की खातिर नही लिखा है ,सहज लिखा है ..जो जी रही थी वही कलम ने उतारा है ...मेरे दिल की बात आप समझ जायेंगे इन पंक्तियों से ..
खामोशी के पेड़ से
मैंने अक्षर नही तोडे
यह तो जो पेड़ से झरे थे
मैं वही अक्षर चुनती रही
आप से या किसी से मैंने
कुछ नही कहा
ये तो जो खून में से बोले थे
मैं वही अक्षर गिनती रही
बिजली की एक लम्बी
लकीर थी
छाती से गुजरी थी
कुछ उसी के टुकडे
मैं उँगलियों पर रखती रही
चाँद ने आसमान में बैठ कर
जो बादलों की रुई काती
यह उसी के धागे हैं
जो मैं बुनती रही ......