Saturday, August 30, 2008

"आज का आँगन भरा हुआ है सारे मौसमों से ,और मौसमों के सब रंगों से और सुगंधों से | सभी त्योहारों से | सारे अदब से और सारी पाकीजगी से | ३६५ सूरजों से ... मैं आधी सदी के सारे सूरज को आज को -३१ अगस्त को तुम्हारे अस्तित्व को टोस्ट दे रहा हूँ --सदी के आने वाले सूरजों का "
३१ अगस्त ६७ यह ख़त इमरोज़ ने अमृता को उनके जन्मदिन पर लिखा जब वह हंगरी में थी .. और इस के साथ ही हमारा सलाम है उस शायरा को .उस नेक रूह को और उस औरत को जो अपने वक्त से आगे चलने की हिम्मत रखती हैं ...सच कहा उन्होंने कि अमृता किसी एक धरती ,किसी एक देश .किसी एक जुबान या किसी एक कोम से नही जुड़ी है ,वह तो जुड़ी है हर उस धरती से जहाँ धरती दिल की तरह विशाल होती है और जज्बात से महकती है .... अमृता का जुडाव है हर उस देश से जहाँ अदब और कल्चर रात दिन बढ़ते हैं ,हर तरह की हदबंदी से मुक्त .... अमृता तुम पहचान हो हर उस जबान की जहाँ दिलों की सुनना भी आता है देखना भी .....और पहचानना भी ......अमृता नाम है आज में जीने का उस कौम का जहाँ सिर्फ़ आज में वर्तमान में जीया जाता है और आज के लोगों के साथ अपन आपके साथ जीने का जज्बा रखते हैं .....अमृता नाम है उस हर दिन और रात का जहाँ हर रात एक नई कृति के ख्याल को कोख में डाल कर सोती है और हर सवेरा एक नया गीत गुनगुनाते हुए दिन की सीढियां चढ़ता है .....

एक सूरज आसमान में चढ़ता है ,आम सूरज ,सारी धरती के लिए सांझे का सूरज ,जिसकी रौशनी से धरती पर सब कुछ दिखायी देता है जिसकी तपिश से सब कुछ जीता है जन्मता है फलता है .... लेकिन एक सूरज धरती पर भी उगता है ख़ास सूरज सिर्फ़ एक मन की धरती के लिए ..... सिर्फ़ के मन के लिए ,सारे का सारा ..... इस से एक बात रिश्ता बन जाती है, एक ख्याल - एक कृति और एक सपना -एक हकीकत ...... इस सूरज का रूप भी इंसान का होता है..... इंसान के कई रूपों की तरह इसके भी कई रूप हो सकते हैं ......आमतौर पर यह सूरज एक ही धरती के लिए होता है ,लेकिन कभी कभी आसमान के सूरज की तरह आम भी हो जाता है -सबके लिए -जब यह देवेता ,गुरु ,या पैगम्बर के रूप में आता है ..... इमरोज़ ने इस सूरज को पहली बार एक लेखिका के रूप में देखा था ,एक शायरा के रूप में ....और उसको अपना बना लिया एक औरत के रूप में .एक दोस्त के रूप में .एक आर्टिस्ट के रूप में और एक महबूबा के रूप में .....

अमृता की अमृता से मुलाकात .उनके व्यक्तित्व का एक ख़ास पहलू--उसके मन की फकीरी - बड़ा उभर कर आया है उनकी पुस्तक जंग जारी है में ----एक दर्द है कि .''मैं सिर्फ़ एक शायरा बन कर रह गई - एक शायर ,एक अदीब ........ हजारी प्रसाद दिवेद्धी के नावल में एक राजकुमारी एक ऋषिपुत्र को प्यार करती है ,और इस प्यार को छाती में वहां छिपा लेती है जहाँ किसी की दृष्टि नही जाती ..पर एक बार उसकी सहेलियों जैसी बहन उस से मिलने आती है ,और वह उस प्यार की गंध पा जाती है ..
उस समय राजकुमारी उस से कहती है ..अरु ! तुम कवि बन गई हो ,इस लिए सब कुछ गडबडा गया ......आदिकाल से तितली फूल के इर्द गिर्द घुमती हैं ,बेल पेड़ के गले लगती है ,रात को खिलाने वाले कमल चाँद की चांदनी के लिए व्याकुल होता है .... बिजली बादलों से खेलती है ....पर यह सब कुछ सहज मन में होता था ,कभी इसकी और कोई उंगली नहीं उठाता था और न ही इसको कोई समझने का दावा करता था , न ही कोई इसके भेद को समझने कादावा करता था ..........पर एक दिन कवि आ गया ,वह चीख चीख कर कहने लगा ,
मैं इस चुप की भाषा समझता हूँ ..सुनो सुनो दुनिया वालों ! मैं आंखों की भाषा भी समझता हूँ .....बाहों की बोली जानता हूँ ......और जो कुछ भी लुका छिपी है वह भी सब जानता हूँ ! और उसी दिन से कुदरत का सारा पसारा गडबडा गया ...यह एक बहुत बड़ा सच है ..कुछ बातें सचमुच ऐसी होती हैं ,जिन्हें खामोशी की बोली नसीब होनी चाहिए ..पर हम लोग ,हम शायर ,और अदीब उनको बोली से निकला कर बाहर शोर में ले जाते हैं ..

जानते हो उस राजकुमारी ने फ़िर अपनी सखी से क्या कहा था ? ....कहा अरु ! तुमने जो समझा है ,उसे चुपचाप अपन पास रख लो ..तुम कवि से बड़ी हो जाओ !""मेरा यही दर्द है कि मैं कवि से बड़ी नही हो सकी .जो भी मन की तहों में जीया सब कागजों के हवाले कर दिया ..लेखक के तौर पर सिर्फ़ इतना ही नहीं रचना के क्षणों का भी इतिहास लिख दिया ..रसीदी टिकट मेरी प्राप्ति है ,पर मैं केवल लेखक बनी बड़ी नही हो सकी ....

पर हम जानते हैं कि वह क्या थी ... साहित्यिक
इर्ष्या जैसी चीज अमृता कि समझ में कभी नही आई | वह कहती थी कि ,''दुनिया में जहाँ भी कोई अच्छाई है ,जहाँ भी कोई खूबसूरती है ,वह मेरी है ..मैंने क्रीट टापू नही देखा है पर वहां का काजनजाकिस मेरा है ..कमलेशवर जब कितने अच्छे दिन जैसी कहानी लिखता है वह मुझे अपनी कहानी लगती है ..डॉ लक्ष्मी नारायण लाल जब यक्ष प्रश्न लिखता है ,निर्मल वर्मा जब डेढ़ इंच ऊपर लिखता है ..कृष्णा सोबती जब सूरज मुखी अंधेरे के .लिखती है तो तो ..वह भी सब मेरा है ...उस वक्त अमृता का कहा सुन कर ऐसा लगता है वह सचमुच एक धरती के समान है जिसकी बाहों में पर्वत भी है और समुन्द्र भी .....


मुझे वह समय याद है ---
जब धूप का एक टुकडा
सूरज कि उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में खो गया ...

सोचती हूँ : सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नही लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया ..

तुम कहीं नही मिलते
हाथ छु रहा है
एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है
न हाथ छोड़ता है ..

अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे के धूप का टुकडा ....

अमृता के बारे में हमेशा मैंने कहा है की जितना लिखा जाए कम है ..आज उनका जन्मदिन है और उनसे जुड़े न जाने कितने किस्से ,मेरे जहन में एक चलचित्र की तरह चलते जा रहे हैं ....वो बातें जो उन्होंने कभी अपने साक्षत्कार में कहीं ....या वह किस्से जो उनकी कहानी में ढल गए .और वह नज्म जो मोहब्बत का ,दर्द का पैगाम बन गयीं ..जितना लिखूंगी मेरे लिए तो उतना ही कम है ..चलते चलते उन्ही के लफ्जों में .जो मैंने लिखा है वह लिखने की खातिर नही लिखा है ,सहज लिखा है ..जो जी रही थी वही कलम ने उतारा है ...मेरे दिल की बात आप समझ जायेंगे इन पंक्तियों से ..

खामोशी के पेड़ से
मैंने अक्षर नही तोडे
यह तो जो पेड़ से झरे थे
मैं वही अक्षर चुनती रही
आप से या किसी से मैंने
कुछ नही कहा
ये तो जो खून में से बोले थे
मैं वही अक्षर गिनती रही
बिजली की एक लम्बी
लकीर थी
छाती से गुजरी थी
कुछ उसी के टुकडे
मैं उँगलियों पर रखती रही
चाँद ने आसमान में बैठ कर
जो बादलों की रुई काती
यह उसी के धागे हैं
जो मैं बुनती रही ......



Monday, August 25, 2008

तसव्वुर की खिड़की से तुम्हे मैं देख रहा हूँ | तुम खामोश हो ,सर झुकाए हुए |तुम तो तब भी मुझसे सब बात कर लिया करती थी ,जब मैं तुम्हारा कुछ नही लगता था | अब तो मैं तुम्हारा बहुत कुछ हूँ | जन्म से तुम्हारा अपना .सिर्फ़ कुछ दिनों से कुछ गैर | एक खामोशी एक अंधेरे की तरह मेरे तसव्वुर पर छा जाती है कई बार .कितनी कितनी देर तक खिड़की में से कुछ नही दिखायी देता है | कब तुम मुझे नज़र भर कर देखोगी .और कब मेरी रौशनी मेरी तरफ देखेगी ? कब मैं और मेरा तसव्वुर रोशन होंगे ?

२१ -११- ६० सुबह यह ख़त इमरोज़ ने अमृता को लिखा था | जाने कितने दर्द के कितने एहसास लिए ,जब किसी की आंखों के सामने तसव्वुरात की परछाई उभरती है ,तो कौन जान सकता है ,की उस कितने सितारे आसमान पर भी बनते हुए दिखायी देते हैं और टूटते हुए भी ...

उन्ही टूटते बनते सितारों की राख से जब कुछ परछाइयां उभरती हैं ,तो वह खामोशी से भी उतरती हैं ,और कभी कभी अक्षरों से भी ...और शायद वही आलम होगा जब साहिर ने लिखा होगा ...

जवान रात के सीने में दुधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख्वाबे - मरमरीं की तरह
हसीं फूल ,हसीं पत्तियाँ,हसीं शाखें
लचक रही है किसी जिस्में-नाजनीं की तरह
फिजा में घुल गएँ हैं उफक के नार्म खुतूत
जमीन हसीं है .ख्वाब की सरजमीं की तरह
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ...

यही फिजा थी ,यही रुत यही ज़माना था
यहीं से हमने मोहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से ,लरजती हुई निगाहों से
हजुरे -गैब में नन्ही सी इल्तिजा की थी
कि आरजू के कंवल खिल के फूल हो जाएँ
दिलो नज़र की दुआएँ काबुल हो जाएँ
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है .....

तुम आ रही हो जमाने की आँख से बच कर
नजर झुकाए हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने क़दमों की आहट से झेपती,डरती
ख़ुद अपने साए की जुंबिश से खौफ खाए हुए ..
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....

मैं फूल टांक रहा हूँ तुम्हारे जूडे में
तुम्हारी आँख मुसरत से झुकी जाती हैं
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
जुबान खुश्क में आवाज़ रुकती जाती हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....

मेरे गले में तुम्हारी गुदाज बाहें हैं
तुम्हारे होंठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीन हैं कि हम अब कभी न बिछडेंगे
तुम्हे गुमान है कि हम मिल कर भी पराए हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....

मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को
अदाए -अज्जो -कर्म से उठा रही हो तुम
सुहाग - रात जो ढोलक पे गाए जाते हैं
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....


खुदा ने साहिर को जाने कितनी तौफीक दी होगी ,कि वे अपने तसव्वुरात की परछाइयां अक्षरों में उतार पाए ..और यही परछाइयां देखते -बुनते वे न जाने किस आकाश में खो गए ..

वह नही जानते थे कि उनके अक्षरों में उतरने वाले ,कितनी परछाइयों से घिर जाते हैं ,और फ़िर खामोश हो जाते हैं ...यही इमरोज़ के हाथों से रचने वाले रंग भी कहते होंगे ...!!



Tuesday, August 19, 2008

अमृता के खतों के साथ साथ आप ,""रसीदी टिकट "'के अंश भी पढ़ते रहे हैं | किसी भी प्यार ,उलाहना का जिक्र एक के खतों से पूरा नही होता है | इमरोज़ भी बराबर अपनी माजा को ख़त के जवाब देते रहे | जब इमरोज़ ने अमृता के खतों का उल्लेख किया तो इमरोज़ को लगा कि खतों का भी जिक्र होना जरुरी है ,ठीक वैसे ही जैसे काफ्का की महबूबा पर लिखी हुई एक प्रस्तावना में आर्थर कोस्लर कहता है ---काफ्का के लिखे हुए ख़त तो मिल गए ,पर मिलेना के खतों के बिना काफ्का की पोट्रेट अधूरी रह गई है |वह मिलेना के खतों जलते हुए सर पर पर वर्षा की बुँदे कहा करता था और वही वर्षा की बूंदे खो गयीं हैं ,लेकिन गनीमत है कि इमरोज़ के अमृता को लिखे ख़त कहीं गुम नहीं हुए |वह अमृता के पास रहे जिसे इमरोज़ ने उस से उधार ले कर एक जगह अमृता के खतों के साथ ही रख दिया है |

बम्बई २-१०-५९

इतनी पुख्ता जुबान लिखने वाली ! इतना अनोखा सोचने वाली ! तुम्हारे साथ डर और सहम अच्छे नही लगते हैं और न ही देखे जाते हैं |फ़िर मेरे होते हुए ? ऐसे नही हो सकता | मेरी मानों एतबार को और बड़ा करो ! और देखो ,ज्यूँ ज्यूँ एतबार को बड़ा करती जाओगी डर छोटे और छोटे होते जायेंगे | क्यूँ उम्र को सालों के हिसाब से गिनती हो ? क्यूँ नहीं मेरे लगन के हिसाब से गिनती ? मेरी सारी इन्टेसिटी और सारी धड़कने तुम अपना लो |मेरी लगन तुम्हारी उम्र है |मेरी इन्टेसिटी तुम्हारी सेहत |

अब तुम अपने आतीत को और आतीत की तल्खियों को छोड़ने की तकलीफ सह रही हो ,यह छोड़ने की आरजी तकलीफ है | आओ! मुस्तकबिल में आ जाओ | मुस्तकबिल अपनी सारी मुस्कराहट के साथ अपना दर और दिल खोले इन्तजार कर रहा है ...
किस्मत का इन्तजार कर रहा मुस्तकबिल
जीती


ऐ हजारी लगाने वाली !

आ कर रजिस्टर क्यूँ नही संभाल लेती हो | एक मकान बहुत सुंदर जगह लिया है ,आ कर इसको घर बना दो | अपना और अपने सपनों का घर |ज़िन्दगी में पहली बार मैंने घर चाहा है | तुम नामुमकिन जैसी जगह पर थी, जब मैं तुमसे मिला था | मुझ पर भरोसा करो ,मेरे अपनत्व पर पूरा एतबार करो | जीने की हद तक तुम्हारा ,तुम्हारे जीवन का जामिन ,तुम्हारा जीती !
मैं अपने आतीत ,वर्तमान और भविष्य का पल्ला तुम्हारे आगे फैलाता हूँ -- इस में अपने आतीत .वर्तमान और भविष्य डाल दो!

मेरे जुनूं मेरी वहशत का इम्तहान ले लो !
अपने हुस्न की अजमत का इम्तहान तो दो !

Sunday, August 17, 2008

अमृता जी को पढ़ना एक अनोखा अनुभव है। पर उन्हें सुनना बहुत ही बेहतरीन अनुभव होगा। उनकी एक नज़्म, उन्ही की आवाज़ में....

मैं इक गिरज़े दी मोमबत्ती

मैं इक गिरज़े दी मोमबत्ती
रोज़ छाती दी अग्ग नू  
पैरां च बाल के मैं  
गिरज़े तों बाहर जांदी हां
ते जगदियां बुझदियां अक्खां चों गुजर के
मैं अखरां दे हुस्न तक पहुंच जानी हां
पर अखरां दा  हुस्न कागज़ दी अमानत है,
जद किसी कागज चों बाहर आंदा है
धरती दा बदन छूंदा है,
तां धरती दे लहू विच भिजदा है,
अखरां दा  हुस्न कागज़ दी अमानत है,
जद किसी कागज चों बाहर आंदा है
धरती दा बदन छूंदा है,
तां धरती दे लहू विच भिजदा है,
ओ मेरे आज्ज दे मसीहा,
तुं नही लबदा किथे
तां मैं टिमटिमांदी जही
सिर्फ गोलियां ते बंदूकां दी आवाज सुन
उस गिरजे विच परत आंदी हां
जो  हाली वी किसे देश विच  नहीं बनया
मैं इक गिरज़े दी मोमबत्ती........

मैं इक गिरज़े की मोमबत्ती

मैं इक गिरज़े की मोमबत्ती
रोज़ छाती की आग को  
पैरां में जला कर
गिरज़े से बाहर जाती हूं
और जागती बुझती आखों से गुजर के
मैं अक्षरों के हुस्न तक पहुंच जाती हूं
पर अक्षरों का  हुस्न कागज़ की अमानत है,
जब किसी कागज से बाहर आता है
धरती का बदन छूता है,
तो  धरती के  लहू में  भीग जाता है,
अक्षरों का  हुस्न कागज़ की अमानत है,
जब किसी कागज से बाहर आता है
धरती का बदन छूता है,
तो  धरती के  लहू में  भीग जाता है,
ओ मेरे आज के मसीहा,
तू नही मिलता कहीं
और मैं टिमटिमाती सी
सिर्फ गोलियां और बंदूकों की आवाज सुन
उस गिरजे में पलट आती हूं
जो  अभी भी किसी  देश में   नहीं बना
मैं इक गिरज़े की मोमबत्ती........

Monday, August 11, 2008

पिछली कड़ी में पिंजर का ज़िक्र हुआ |यह वह उपन्यास है जो दुनिया की आठ भाषाओँ में प्रकाशित हुआ |इस में लिखी एक पंक्ति इस में लिखी घटनाओं का आइना नजर आती है .'' कोई भी लड़की जो ठिकाने पहुँच रही है .वह हिंदू है या मुसलमान ,समझना की मेरी आत्मा ठिकाने पहुँच रही है|"

यह पंक्ति दिल में गहरा असर छोड़ जाती है | और याद आती है उनकी लिखी वह घटना जहाँ उन्होंने लिखा कि आज से लगभग चालीस साल पहले की एक रात | मेरे विवाह की रात ,जब मैं मकान की छत पर जा कर अंधेरे में बहुत रोई थी | मन में केवल एक ही बात आती थी ,अगर मैं किसी तरह मर सकूँ तो ? पिता जी को मेरे मन की दशा ज्ञात थी ,इस लिए मुझे तलाश करते हुए वह ऊपर आ गए | मैंने एक ही मिन्नत की ,मैं विवाह नही करुँगी |

बरात आ चुकी थी रात का खाना हो चुका था कि पिता जी को एक संदेश मिला की अगर कोई रिश्ते दार पूछे तो कह देना कि आपने इतने हज़ार रुपया नकद भी दहेज़ में दिया है |

इस विवाह से मेरे पिता जी को गहरा संतोष था ,मुझे भी पर इस सन्देश को पिता जी ने एक इशारा समझा |उनके पास इतना नकद रुपया हाथ में नहीं था इस लिए घबरा गए | मुझसे कहा | बस इसी कारण मेरे मन में यह विचार आया कि काश आज की रात में मर सकूँ |

कई घन्टों कि हमारी इस घबराहट को उस रात मेहमान के तौर पर आई मेरी मृत माँ की सहेली ने पहचान लिया और अकेले में हो कर अपने हाथ की सारी चूडियाँ उतार कर मेरे पिता जी के सामने रख दी | पिता जी की आँख भर आई | पर यह सब देखना मुझे मरने से भी ज्यादा मुश्किल लगा ...

फ़िर मालूम हुआ ,यह संदेशा किसी प्रकार का इशारा नही था ,उन्होंने नकद रुपया नहीं चाहा था ,सिर्फ़ कुछ रिश्तदारों की तस्सली के लिए यह बात फैला दी थी | माँ की सहेली ने वह चूडियाँ फ़िर हाथों में पहन ली | पर मुझे ऐसा लगा कि वह चूडियाँ उतराने का क्षण दुनिया की अच्छाई के रूप में वही कहीं एक प्रतीक बन कर ठहर गया है | विश्वास टूटते हुए देखती हूँ ,परन्तु निराशा मन के अंत तक नही पहुंचती है | इधर ही कहीं राह में रुक जाती है ,और उसके आगे मन के अन्तिम छोर के निकट दुनिया की अच्छाई का विशवास बचा रह जाता है ...

और चलते चलते उनकी एक नज़्म जो बहुत कुछ कह जाती है ...

बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे

अकस्मात एक पाया टूटा
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में कंकड़ छितरा गए
और नजर जख्मी हो गई
कुछ दिखायी नही देता
दुनिया शायद अब भी बसती होगी|

Thursday, August 7, 2008

Pinjar   अमृता प्रीतम का उपन्यास ’पिंजर’ मैंने  तब  पढ़ा था पहली बार जब में स्कूल में ही था। उसके बाद जाने कितनी ही बार पढ़ लिया। आज जब हम आजादी की सालगिरह मना रहे हैं तो मन कहता है कि इस उपन्यास के बारे में कुछ लिखूं। बंटवारे की पृष्टभूमी पर लिखे गये इस उपन्यास पर फिल्म भी बन चुकी है। आप ने यदि यह उपन्यास नहीं पढ़ा और यदि इन्सानी दुखों से आपके हृदय पर सिलवटें पड़ती हैं तो इस उपन्यास को जरूर पढ़ें। यह उपन्यास आपके अस्तिस्व और आपकी सोच पर एक गहरा असर जरूर छोड़ कर जायेगा। जब मैंने पढ़ा तो कच्ची उम्र थी मेरी। उपन्यास का असर और भी गहरा हुआ।

पिंजर कहानी है बंटवारे से पूर्व के हिंन्दुस्तान के पंजाब के एक गांव कि लड़की पूरो के दुखों की। हालांकि उपन्यास पूरी तरह पूरो की कहानी कहता है मगर साथ ही आपको उस समय की राजनैतिक हलचलों के कारण हो रहे घटनाक्रम के प्रभावों से बेचैन कर देता है। पूरे उपन्यास में अमृता जी ने कहीं भी कोई राजनैतिक बयान नहीं दिया, कहीं कोई पात्र कोई राजनैतिक वाक्य नहीं बोलता, मगर जैसे जैसे आप कहानी को पढ़ते जाते हैं, आपके अंदर एक गुस्सा उत्पन्न होता जाता है। आप जैसे जैसे पूरो के दुखों को पढ़ते हैं आप के अंदर वो गुस्सा धधकने लगता है, आप नफरत करने लगते हैं दुनिया भर के उन जिन्नाओं और नैहरूओं से जो अपनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण जमीनों, देशों, समाजों और लोगों में बंटवारे करवाते हैं।

दुख की बात यह है की आज भी हमारे राजनेता यही कर रहे हैं।  यह बात सही है कि हमारा लोकतंत्र एक मजबूत लोकतंत्र है मगर हमारे राजनेता अभी भी जाति, धर्म और वर्गों के नाम पर हमें बांट रहे हैं। जातियों और धर्म के नाम पर चुनावों में टिकट दिये जाते हैं और जातियों और धर्मों के नाम पर ही चुनाव जीते जाते हैं। क्या  हमारे बुजुर्गों ने इसी जातियों, धर्मों, वर्गों और भाषाओं में बंटे हुए लोकतंत्र का सपना देखा था?

अफसोस तो यह है कि सत्ता के लिये नफरत की यह कहानियां  अभी भी दोहरायी जाती हैं। कभी दिल्ली में  तो कभी गुजरात में ।

इसी उपन्यास से एक अंश:

(साफ न पढ़ पा रहे हों तो इमेज पर क्लिक करें)

 

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Monday, August 4, 2008

यह कैसी कशमकश है जिंदगी में
किसी को ढूढते हैं हम किसी में !

अमृता और इमरोज़ के ख़त पढ़ते वक्त यह देखा कि सिर्फ़ प्यार ही उनके इश्क की जुबान नही थी | कुछ ख़त उनकेशिकवे शिकायत भी थे ,पर वह भी जैसे किसी रूहानी दुनिया का एक ख्वाब सा जगाते हुए ...|
इमरोज़ लिखते हैं कि ..

यह १९६१ के शुरू के ख़त हैं ,जिन पर कोई तारीख है , कोई दस्तखत |उन्ही दिनों अमृता ने एक कहानी लिखकर मुझे भेजी थी ,"" रौशनी का हवाका ''| इस में उसका एक ख़त था |फ़िर वह एक कविता लिख भेजी थी सालमुबारक | यह भी उसका एक ख़त थी |और फ़िर एक नावल भेजा आइनेरेंड का' फाउन्टेन हेड '|यह भी मैंने उसकाएक ख़त समझकर पढ़ा था |यह ख़त जिन पर अमृता ने तारीख लिखी है अपना नाम ..|उसने यह ख़त अपनेगुस्से की शिखर दोपहरी में लिखे हैं --शायद प्यार में ही नही गुस्से में भी वक्त याद रहता है नाम |


आप ख़ुद ही पढ़े ..



तुम्हारे और मेरे नसीबों में बहुत फर्क है |तुम वह खुशनसीब इंसान हो ,जिसे तुमने मोहब्बत कि ,उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी | पर मैं वह बदनसीब इंसान हूँ ,जिसे मैंने मोहब्बत की ,उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया |दुखं ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी | अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलोने के साथ खेल नही सकता है |

हर तीसरे दिन पंजाब के किसी न किसी अखबार में मेरे बम्बई बिताये दिनों का जिक्र होता है बुरे से बुरे शब्दों में | पर मुझे उनसे कोई शिकायत नही है क्यूंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नही हैं केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नही समझा .जिसने कभी मुझसे कहा था --"" मुझे जवाब बना लो सारे का सारा |''
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मुझे अगर किसी ने समझा है तो वह है तुम्हारी मेज की दराज में पड़ी हुई रंगों की शीशियाँ .जिनके बदन में रोज़ साफ़ करती और दुलारती थी | वह रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कराते थे |क्यूंकि उन्होंने मेरी आँखों कि नजर का भेद पा लिया था | उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रियटिव पावर से ऐसी ही मोहब्बत है | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श के लिएय तरसते रहे थे और मेरी आँखे उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इस लिए माँगते थे क्यूंकि ""दे वांटेड टू जस्टिफाई देयर एगिजेंट्स "'| मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि तुम्हारी कृतियों में मुझे अपने अस्तित्व के अर्थ भी मिलते थे |यह अर्थ मुझे अपनी कृतियों में भी मिलते थे ,पर तुम्हारे साथ मिल कर यह अर्थ बहुत तगडे हो जाते थे | तुम एक दिन अपनी मेज पर काम करने लगे थे कि तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी रंग की शीशी को खोला मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा ,तुमने हाथ में लिए हुए ब्रश में थोड़ा सा रंग लगा कर मेरे माथे को छुआ दिया | न जाने वह मेरे माथे की कैसी खुदगर्ज मांग थी ,आज मुझे उसको सजा मिल रही है |आदम ने जैसे गेहूं का दाना खा लिया हो या सेब खा लिया था, तो उसको बहिश्त से निकाल दिया गया था ....
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कल तुम्हारा ख़त मिला | जीती दोस्त ! मैं तुमसे गुस्सा नही हूँ ! तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छू गया |दोस्ती मोहब्बत की हद तक गई | मोहब्बत इश्क की हद तक गई | और इश्क जनून की हद तक | और जिसने जनून की हद देखी हो ... .वह कभी गुस्सा नही हो सकता |

अगर अलगाव कोई सजा है .तो यह सजा मेरे लिए हैं .क्यूंकि यह रास्ता मेरा चुना हुआ नही हैं | मेरा चुना हुआ रास्ता मेल था | अलगाव का रास्ता तुम्हारा चुना हुआ है ,तुम्हारा अपना चुनाव ...इस लिए तुम्हारे लिए यह सजा नही है|

यह मैंने कभी नही सोचा कि मोहब्बत पाक नही थी ,लेकिन उस मोहब्बत में एक प्यास थी ..इस प्यास को तुम्हे तृप्त करना होगा जीती ! तुम और मैं दोनों इस प्यास का भयानक रूप देख चुके हैं |तुम जैसे मुझ तडपती को छोड़ गए यह तुम्हारा रूप नही तुम्हारी प्यास का भयानक रूप है | तुम दस बरस जी भर इस प्यास को मिटा लो | फ़िर तुम्हारे बदन पर पड़े हुए सारे दाग में अपने होंठो से पोंछ लूंगी| और अगर तुमने फ़िर भी चाहा तो मैं तुम्हारे साथ जीने को भी तैयार रहूंगी और मरने को भी |

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उनके लिखे यह ख़त पढ़ कर मुझे उनके एक उपन्यास धरती ,सागर और सीपियाँ की कुछ पंक्तियाँ याद गई ...
उस में उन्होंने लिखा था कि "" ,जब इंसान अपने अन्दर से पाता है तो उस को इस कद्र प्यार करता है जैसे कोई अपनी महबूबा को प्यार करता है ,पर जब वह अपने भीतर से पाने की जगह दुनिया से पाता है तो उसको ऐसे प्यार करता है जैसे कोई किसी वेश्या को प्यार करता है |

कोई रिश्ता शरीर पर पहने हुए कपड़े की तरह होता है जो कभी भी शरीर से उतारा जा सकता है | पर कोई रिश्ता नसों में चलने वाले लहू की तरह होता है जिसके बिना इंसान जीवित नहीं रह सकता है |"'

चलते चलते साहिर की पंक्तियाँ अमृता के लिए ...

तू भी कुछ परेशाँ है /तू भी सोचती होगी
तेरे नाम की शोहरत तेरे काम क्या आई ,
मैं भी कुछ पशेमाँ हूँ /मैं भी गौर करता हूँ
मेरे काम की अजमत मेरे काम क्या आई |
...