अचानक --एक कागज आगे सरकता है
उसके कांपते हुए हाथो को देखता है
एक अंग जलता है ,एक अंग पिघलता है
उसे एक अजनबी गंध आती है
और उसका हाथ
बदन में उतर आई लकीरों को छूता है ..
हाथ रुकता है बदन सिसकता है
एक लम्बी लकीर टूटती सी लगती है
फ़िर जन्म और मौत की
दोहरी सी गंध में वह भीग जाती है
सब काली और पतली लकीरें -
एक लम्बी चीख के कुछ टुकडे दिखते हैं
खामोश और हैरान वह निचुड़ी सी खड़ी
देखती सोचती -
शायद एक क्वारीं का गर्भपात इसी तरह होता है ...
यह कर्ण और कविता का जन्म है ..
एहसास की शिद्दत .एक खामोशी की गार किस तरह गुजरती है और उसका कम्पन कैसे रगों में उतरता है अमृता की इस कविता के लफ्ज़ कुछ अदभुत सा अनुमान देते हैं ,यहाँ लफ्ज़ गर्भपात जन्म के अर्थों में है जिस में हर कविता पुरे होने के एहसास से सिर्फ़ एक कदम की दूरी पर खड़ी रह जाती है ...
हमारे अचेतन मन ने युग युग के एहसास अपने में लिपटाए होते हैं पर किसी गाँठ को यह मन कब अपने पोरों से खोल देता है कोई नही जानता घड़ी पल लम्हा कोई भी नहीं ..अमृता ने अपने ही लिखे कुछ लफ्जों में कुंती की तकदीर का एक बहुत सूक्ष्म सा लम्हा लिख दिया था ..
कविता कभी कागज को देखे
और कभी नजर को चुरा ले
जैसे कागज कोई पराया मर्द होता है ...
यहाँ कुंती को कर्ण अपनी कोख में लिए हुए अपना सा लगता है पर जब उस एहसास को वह दुनिया के हवाले करती है तो वह उसको पराया लगता है .उसी तरह जब तक कविता अपने दिल में है वह अपनी है पर कागज के हवाले होते ही वह कागज पराया लगने लगता है .जैसे कुंती जानती है उसका समाज उसके कर्ण का समाज नही हो सकता है..उसी तरह कविता रचने वाला जानता है कि अंतर्मन का एक टुकडा उस से टूटकर बिल्कुल गैर की आँखों के हवाले हो जायेगा .....कविता का बीज किसी के भीतर अचानक उसी तरह पनप जाता है जिस तरह सूरज ने अपनी किरण का एक टुकडा कुंती की कोख में रख दिया था ....
वह आग का स्पर्श करती ,चौंक जाती ,
जाग उठती ,भरे भरे बदन को छूती
चोली के बटन खोलती
अंजुली -भर चांदनी बदन पर छिडकती
और बदन सुखाते हुए -
उसका हाथ खिसक जाता है ...
बदन का अँधेरा छाती की तरह बिछता
वह औंधी सी छाती पर लेटती
उसके तिनके तोड़ती
और उसका अंग अंग सुलग जाता है
उसे लगता
उसके बदन का अँधेरा
किसी की बाहों में टूटना चाहता है ....
अमृता कहती है कि उनके भीतर एक कवि कैसे जाग गया यह वह नही जानती ..लेकिन जब जाग गया तो उसने अपनी पहचान अक्षरों में उतारी ...कुंती के युग में दुर्वासा ऋषि का आ कर वरदान देना सिर्फ़ कुंती के युग में हो सकता था लेकिन कवि हर युग में होता है ....दुर्वासा हर युग में नही होता फ़िर भी कुछ ऐसा हर कविता लिखने वाले के साथ घटता है ...सूरज तो एक अग्नि कण कुंती को देकर आसमान पर जा बैठा ,लेकिन वह अग्नि कण जब कर्ण बन गया तो उस कर्ण का दर्द कौन जान सकता है ..
मोहब्बत का अग्नि कण कविता रचने वाले को जब मिलता है तो वह कविता बन जाता है अपनी किस्मत का प्याला उसे भी अपने होंठो से पीना होता है ..कुंती के पास जो मन्त्र था वह घड़ी पल के लिए सूरज को धरती पर उतार सकता था ,पर कवि के पास एहसास की शिद्दत का जो मन्त्र होता है वह अपने प्यार करने वाले को धरती पर नहीं उतार सकता वह उसको सिर्फ़ अपनी कल्पना की जमीन पर उतार सकता है ..कल्पना भी कुंती की कोख सी होती है और दोनों अग्निकणों को एक खामोशी में से जन्म लेना होता है और फ़िर कर्ण को बहते हुए पानी के हवाले हो जाना होता है और कविता को बहती हुई पवन के हवाले .....उस के बाद गर्म अफवाहे सिर्फ़ कर्ण के बदन को जलाने के लिए होती है और दिल के खून में भीगी हुई हर कविता के लिए ...कुंती का कर्ण को बहती हुई नदी के हवाले कर देना सारी उम्र के लिए ऐसा दर्द दे गया कि उस दर्द की पहचान के लिए सूरज की परिक्रमा करती हुई धरती भी एक पल के लिए खड़ी हो गई थी .....पर कविता रचने वाले को अपनी आत्मा के टुकड़े को बहती हवा के हवाले अपने हाथों से कर देना एक ऐसा कर्म होता है जिसे शक्ति कण भीगी हुई आँखों से देखते हैं ..
कुंती सूरज का पता जानती है ,पर कर्ण को नही बता सकती है .कविता लिखने वाला अपने प्रिय का पता जानता है पर अपनी ही रची कविता को नहीं बता सकता है .इश्क का यह मौन व्रत इल्हाई पलों का तकाजा होता है ..एक घूंट चाँदनी पी सकने का वक्त भी सिर्फ़ कुंती और कविता लिखने वाले को नसीब होता है ....
उसके कांपते हुए हाथो को देखता है
एक अंग जलता है ,एक अंग पिघलता है
उसे एक अजनबी गंध आती है
और उसका हाथ
बदन में उतर आई लकीरों को छूता है ..
हाथ रुकता है बदन सिसकता है
एक लम्बी लकीर टूटती सी लगती है
फ़िर जन्म और मौत की
दोहरी सी गंध में वह भीग जाती है
सब काली और पतली लकीरें -
एक लम्बी चीख के कुछ टुकडे दिखते हैं
खामोश और हैरान वह निचुड़ी सी खड़ी
देखती सोचती -
शायद एक क्वारीं का गर्भपात इसी तरह होता है ...
यह कर्ण और कविता का जन्म है ..
एहसास की शिद्दत .एक खामोशी की गार किस तरह गुजरती है और उसका कम्पन कैसे रगों में उतरता है अमृता की इस कविता के लफ्ज़ कुछ अदभुत सा अनुमान देते हैं ,यहाँ लफ्ज़ गर्भपात जन्म के अर्थों में है जिस में हर कविता पुरे होने के एहसास से सिर्फ़ एक कदम की दूरी पर खड़ी रह जाती है ...
हमारे अचेतन मन ने युग युग के एहसास अपने में लिपटाए होते हैं पर किसी गाँठ को यह मन कब अपने पोरों से खोल देता है कोई नही जानता घड़ी पल लम्हा कोई भी नहीं ..अमृता ने अपने ही लिखे कुछ लफ्जों में कुंती की तकदीर का एक बहुत सूक्ष्म सा लम्हा लिख दिया था ..
कविता कभी कागज को देखे
और कभी नजर को चुरा ले
जैसे कागज कोई पराया मर्द होता है ...
यहाँ कुंती को कर्ण अपनी कोख में लिए हुए अपना सा लगता है पर जब उस एहसास को वह दुनिया के हवाले करती है तो वह उसको पराया लगता है .उसी तरह जब तक कविता अपने दिल में है वह अपनी है पर कागज के हवाले होते ही वह कागज पराया लगने लगता है .जैसे कुंती जानती है उसका समाज उसके कर्ण का समाज नही हो सकता है..उसी तरह कविता रचने वाला जानता है कि अंतर्मन का एक टुकडा उस से टूटकर बिल्कुल गैर की आँखों के हवाले हो जायेगा .....कविता का बीज किसी के भीतर अचानक उसी तरह पनप जाता है जिस तरह सूरज ने अपनी किरण का एक टुकडा कुंती की कोख में रख दिया था ....
वह आग का स्पर्श करती ,चौंक जाती ,
जाग उठती ,भरे भरे बदन को छूती
चोली के बटन खोलती
अंजुली -भर चांदनी बदन पर छिडकती
और बदन सुखाते हुए -
उसका हाथ खिसक जाता है ...
बदन का अँधेरा छाती की तरह बिछता
वह औंधी सी छाती पर लेटती
उसके तिनके तोड़ती
और उसका अंग अंग सुलग जाता है
उसे लगता
उसके बदन का अँधेरा
किसी की बाहों में टूटना चाहता है ....
अमृता कहती है कि उनके भीतर एक कवि कैसे जाग गया यह वह नही जानती ..लेकिन जब जाग गया तो उसने अपनी पहचान अक्षरों में उतारी ...कुंती के युग में दुर्वासा ऋषि का आ कर वरदान देना सिर्फ़ कुंती के युग में हो सकता था लेकिन कवि हर युग में होता है ....दुर्वासा हर युग में नही होता फ़िर भी कुछ ऐसा हर कविता लिखने वाले के साथ घटता है ...सूरज तो एक अग्नि कण कुंती को देकर आसमान पर जा बैठा ,लेकिन वह अग्नि कण जब कर्ण बन गया तो उस कर्ण का दर्द कौन जान सकता है ..
मोहब्बत का अग्नि कण कविता रचने वाले को जब मिलता है तो वह कविता बन जाता है अपनी किस्मत का प्याला उसे भी अपने होंठो से पीना होता है ..कुंती के पास जो मन्त्र था वह घड़ी पल के लिए सूरज को धरती पर उतार सकता था ,पर कवि के पास एहसास की शिद्दत का जो मन्त्र होता है वह अपने प्यार करने वाले को धरती पर नहीं उतार सकता वह उसको सिर्फ़ अपनी कल्पना की जमीन पर उतार सकता है ..कल्पना भी कुंती की कोख सी होती है और दोनों अग्निकणों को एक खामोशी में से जन्म लेना होता है और फ़िर कर्ण को बहते हुए पानी के हवाले हो जाना होता है और कविता को बहती हुई पवन के हवाले .....उस के बाद गर्म अफवाहे सिर्फ़ कर्ण के बदन को जलाने के लिए होती है और दिल के खून में भीगी हुई हर कविता के लिए ...कुंती का कर्ण को बहती हुई नदी के हवाले कर देना सारी उम्र के लिए ऐसा दर्द दे गया कि उस दर्द की पहचान के लिए सूरज की परिक्रमा करती हुई धरती भी एक पल के लिए खड़ी हो गई थी .....पर कविता रचने वाले को अपनी आत्मा के टुकड़े को बहती हवा के हवाले अपने हाथों से कर देना एक ऐसा कर्म होता है जिसे शक्ति कण भीगी हुई आँखों से देखते हैं ..
कुंती सूरज का पता जानती है ,पर कर्ण को नही बता सकती है .कविता लिखने वाला अपने प्रिय का पता जानता है पर अपनी ही रची कविता को नहीं बता सकता है .इश्क का यह मौन व्रत इल्हाई पलों का तकाजा होता है ..एक घूंट चाँदनी पी सकने का वक्त भी सिर्फ़ कुंती और कविता लिखने वाले को नसीब होता है ....
15 comments:
कविता और कर्ण के जन्म की समानता रोचक और सार्थक है। दोनों की चमक भी बराबर ही होती है। उत्तम अभिव्यक्ति
निश्चय ही कवि और कुंती एक सी पीडा के सहभागी हैं.
फ़िर जन्म और मौत की
दोहरी सी गंध में वह भीग जाती है
सब काली और पतली लकीरें -
एक लम्बी चीख के कुछ टुकडे दिखते हैं
खामोश और हैरान वह निचुड़ी सी खड़ी
देखती सोचती -
शायद एक क्वारीं का गर्भपात इसी तरह होता है ...
यह कर्ण और कविता का जन्म है ..
" इन शब्दों और लेख को पढ़कर दिल दिमाग मे एक सन्नाटा सा छा गया है....कुछ कहते नही बनता......."
Regards
आपके लिखे को पढ़ते हुए दोबारा अमृता प्रीतम को पढने की चाह जाग गई है ।
sahc ek ajeeb si kshish ek ajeeb si sirhan mann mein uthi hai,ye alfaaz hai yaa jadu,in se moh badhta jaata hai bahut khubsurat
कर्ण शायद इतिहास के सबसे प्रिय पात्रो में से एक है .उन्हें जब कोई परिभाषित करता है वो भी अमृता जैसा तो ओर अच्छा लगता है
अमृता प्रीतम की कविता व्याख्या बजरिये आपके ! आनंद आया !
अमृता प्रीतम की कविता और व्याख्या-बहुत आनन्द आया. जारी रखिये.
भावों के साथ साथ भाषा भी अमृता प्रीतम की कविता की व्याख्या के उपयुक्त ही है !
स्नेह के लिए आभार !
आगे भी आशा रहेगी !
amrita pritam aur shivani do aisi sahityakaar hain jinhen maine unme doob kar padha hai, kintu yeh ekdam se alag si vyakhya apne samne rakhi hai. panktiyaan-----
फ़िर जन्म और मौत की
दोहरी सी गंध में वह भीग जाती है
सब काली और पतली लकीरें -
एक लम्बी चीख के कुछ टुकडे दिखते हैं
खामोश और हैरान वह निचुड़ी सी खड़ी
देखती सोचती -
शायद एक क्वारीं का गर्भपात इसी तरह होता है ...
यह कर्ण और कविता का जन्म है ..
kitani gambheer hai inme doob kar hi pataa chal payega.
sadhuwaad.
काफ़ी दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आना हुवा...............मुझे लग रहा था बहुत कुछ खो न दिया हो मैंने.
एक और सुंदर व्याख्या अमृता जी कविता और उनकी सोच पर .....पढ़ कर लगता है जैसे अमृता जी ख़ुद अपने ही लिखे की ख़ुद समीक्षा कर रहीं हो..........अपनी कलम का जादू ऐसे ही चलाती रहें
Ranjna ji aapko pehle bhi kai bar pdha hai bhot accha likhti hain aap...Digambar ji sahi kha aapki lekhni me jadu hai ...is sunder lekhni pr Bdhai...!!
कुंती सूरज का पता जानती है ,पर कर्ण को नही बता सकती है .कविता लिखने वाला अपने प्रिय का पता जानता है पर अपनी ही रची कविता को नहीं बता सकता है .इश्क का यह मौन व्रत इल्हाई पलों का तकाजा होता है ..एक घूंट चाँदनी पी सकने का वक्त भी सिर्फ़ कुंती और कविता लिखने वाले को नसीब होता है ....kyaa kahoon sundar...shukriyaa..aaj kaa din saarthak ho gyaa ji...
this is a very nice blog. maine kai bar is blog ke bare me news paper me padha hai
Post a Comment