Monday, March 30, 2009

कुछ खुशियाँ इतनी उदास क्यों होती है ?

मैंने दोस्ती का
जराबख्तर पहन लिया है
और नंगे बदन को
अब कुछ नहीं छूता
न दुश्मन का हाथ छूता है
न मेरे दोस्त की बाहें

मैंने दोस्ती का
जराबख्तर पहन लिया है
मैं खुश हूँ
पर आप क्यों पूछते हैं
कि कुछ खुशियाँ
इतनी उदास क्यों होती है ?

अमृता ने एक जगह लिखा है कि दुनिया अदन बाग़ नहीं , पर जरखेज धरती में जहाँ कहीं भी मोहब्बत हक और सच के फूल उगते हैं वह वर्जित बाग़ करार दे दिया जाता है ...सामाजिक कानून के सामने या महजबी कानून के सामने यहाँ इसकी कोई सुनवाई नहीं होती है ..पर सच तो यह है कि ..हर काल में इसी तरह के शायर और आदिब पैदा होते हैं जो इस वर्जित बाग़ में कदम रखते हैं और उसके लिए आवाज़ उठाते हैं .चाहे कोई भी कीमत उन्हें इसको क्यों न चुकानी पड़े

इसी तरह की कड़ी में उन्होंने खलील जिब्रान का जिक्र किया ..जिसने तीन कहानियाँ लिखी .लम्बी और पूरे ब्यौरे से भरी हुई जिनके संग्रह को नाम दिया ..स्प्रिट्स रिबैलियस यह किताब न्यूयार्क में विजडम लाइब्रेरी ,ब्रांच फिलोसोफिकल लाइब्रेरी की औरछापी थी ..१९४७ में .पर यह अंग्रेजी रूप .मूल अरबी किताब का अनुवादित रूप है ..

इसमें कही गयी पहली कहानी है मैडम रोज़ हैनी ..यह एक बहुत सादा सी कहानी है कि एक जवान होती अति सुन्दर लड़की से एक अमीर आदमी विवाह कर लेता है .सोना चांदी हीरे मोती हमेशा उसके पहनने को हाजिर रहते पर कुछ बरसों बाद लड़की सब कुछ होते हुए भी दो बूंद मोहब्बत के लिए तरसती रहती है ...उसी समय एक लड़का उस की जिन्दगी में आता है जिसकी आँखों में उसके सपनों की पूर्ति की रौशनी है ....वह लड़की उस अमीर घर को छोड़ कर उस खुदाई सिफतों वाले उस व्यक्ति के साथ चली जाती है जहाँ के रास्ते कटीले है और एक गरीब सी बस्ती में उस का घर है ...
उस अमीर आदमी की जुबान जैसे कंटीली हो जाती है और उसके साथ ही पूरे गांव और कबीले की भी जुबान उस लड़की को लानतें भेजती थकती नहीं ..इस का ब्यौरा जिस कहानी कार ने दिया वह भी उसी कबीले का था .....सबब बनता है और वह उस लड़की के साथ उस सिफतों वाले मर्द को भी मिलता है और उन दोनों के चमकते चेहरे देख कर उसको गांव कबीले वालों के उफनते चेहरे याद आ जाते हैं ...

उस एक मिनट की खामोशी जैसे उस औरत और उस मर्द को दी गयी नियाज जैसी लगती और उसको लगता है कोई खुदाई चीज है जो इन दोनों को देखने से पहले उसने कभी देखी नहीं है और तब उसको वह नाजुक चीज समझ आती है की औरत ने इतनी बड़ी मुखालफत क्यों सह ली थी .सारे कानून उसके पीछे पड़े थे पर वह देख रहा था की दो तन मन से हसीन व्यक्तियों ने मिल कर कैसी एक आत्मा रच ली थी ..वे दोनों खड़े होते हैं और उनके बीच मोहब्बत का फ़रिश्ता खडा हुआ दिखता है जो दोनों के सर पर अपने पंख फैलाए दोनों को बुरी आवाजों से बचा रहा है ..दो हंसते चेहरे ,सच और हक से चमकते ..ख़ुशी का एक चश्मा उनके पैरों के पास बह रहा है वह चश्मा जो कानून की और मजहब की गलियों से सूखे हुए होंठों को अपना दामन दे रहा है

वह दोनों को सलाम वह दोनों को सलाम दुआ कर लौटता है और सोचता है दुनिया में हर चीज कुदरत के कानून में होती है ....मोहब्बत और आजादी कुदरती वसफ होते हैं पर इंसान इस अमीरी से वंचित क्यों रह जाता है ? खुदा द्वारा दी गयी रूह के लिए जमीनी कानून बनाए जाते हैं ...बहुत तंग बहुत संकरे ..वे एक दुखदायक कैदखाने की सलाखे बनाते हैं ..हारा हुआ इंसान एक गहरी कब्र खोदता है और मन की मुरादें उस में कही गहरे दबा देता है और इस तरह समाज बनता है ...और कोई एक रूह का कहा मान कर समाज के कानूनों को नजरंदाज करता है और उसके बाकी साथी उसको जलावतनी के काबिल समझ लेतें हैं

और तब एक सवाल बहुत तेजी से जहन में घूम जाता है कि क्या इंसान कभी सिर उठा कर सूरज की और देखेगा ? जहाँ उसका साया मुर्दों की बस्ती पर पड़ता नहीं दिखेगा ?

यह किताब थी खलील जिब्रान की ,उस वर्जित फल को तोड़ने जैसी ,जो मोहब्बत ,हक और सच का फल था ...अरबी में छपने पर .सुल्तानों .अमीरों और पादरियों ने बहुत खतरनाक कह कर बैरुत की मण्डी में सरेआम जला दी थी ...साथ ही खलील जिब्रान को गिरजे से बाहर निकाल दिया था .और उसको उसके वतन से जलावतन कर दिया था ...

सिर्फ़ दो राजवाडे थे --
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को हमने त्याग दिया था

नग्न आकाश के नीचे --
मैं कितनी ही देर --
तन के मेह में भीगती रही ,
वह कितनी ही देर
तन के मेह में गलता रहा

फ़िर बरसों के मोह को
इक जहर की तरह पी कर
उसने कांपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा !
चल ! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख ! पर --सामने ,उधर
सच और झूठ के बीच -----
कुछ जगह खाली है .....


वर्जित बाग़ की गाथा (अमृता प्रीतम ) के अंश से

20 comments:

अभिषेक मिश्र said...

वह देख ! पर --सामने ,उधर
सच और झूठ के बीच -----
कुछ जगह खाली है
इस खाली जगह की हकीकत को दर्शाती हैं ये रचनायें.

अनिल कान्त said...

लाजवाब ...एक एक शब्द ना जाने कहीं ले जाता है मुझे ...

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Vineeta Yashsavi said...

फ़िर बरसों के मोह को
इक जहर की तरह पी कर
उसने कांपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा !

Lajwaab aur bahtreen...

L.Goswami said...

हमेसा की तरह सुन्दर और भावनात्मक बनाता शब्द संयोजन..

vandana gupta said...

lajawaab...................lajawaab

सुशील छौक्कर said...

बहुत ही प्यारी सुन्दर पोस्ट। खलील जी कहानियाँ अद्भुत सी होती है।

फ़िर बरसों के मोह को
इक जहर की तरह पी कर
उसने कांपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा !
चल ! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख ! पर --सामने ,उधर
सच और झूठ के बीच -----
कुछ जगह खाली है .

वाह आनंद आ गया पढकर।

शोभा said...

लाज़वाब प्रस्तुति।

Arvind Mishra said...

जादुई अल्फाज !

संध्या आर्य said...

मैंने दोस्ती का
जराबख्तर पहन लिया है
मैं खुश हूँ
पर आप क्यों पूछते हैं
कि कुछ खुशियाँ
इतनी उदास क्यों होती है?
कभी कभी एक सच्चा दोस्त भी मिलता जो सदियो के इंतजार के बाद मिला हो ऐसा लगता है पर खुशी तो एक तरफ होती है पर दोस्त का दर्द इतना है कि उन दर्दो से उसे निजात न दिलाने की सिथति मे गम उस खुशी से ज्यादा हो जाता है ये पंक्तियाँ कुछ यही बयान करती दीखती है..........दिल मे गहरे उतर गयी ये पंक्तियाँ.......... अल्फाज नहीं है बयान करने को..........

ताऊ रामपुरिया said...

ये तो रुहानी रचनाएं हैं. बस पढकर कहीं खो जाते हैं.

रामराम.

ताऊ रामपुरिया said...

ये तो रुहानी रचनाएं हैं. बस पढकर कहीं खो जाते हैं.

रामराम.

दिगम्बर नासवा said...

नग्न आकाश के नीचे --
मैं कितनी ही देर --
तन के मेह में भीगती रही ,
वह कितनी ही देर
तन के मेह में गलता रहा

अमृता जी की रचना पढ़ते ही.....ट्रैक उनकी शेली में सोचने लगता है........या आपकी लेखनी का भी कमाल है जो आपमें, और अमृता जी में फर्क नहीं करने देता.
खलील जिब्रान के बाते में जानना उतना ही सुखद है जितना अमृता जी के बारे में.

कुछ खुशियाँ वाकई में उदास सी होती हैं पर ये अमृता जी की कलम ही सही तरीके से बयां कर सकती है.
सुन्दर और दिलचस्प पोस्ट

डॉ .अनुराग said...

मैंने दोस्ती का
जराबख्तर पहन लिया है
और नंगे बदन को
अब कुछ नहीं छूता
न दुश्मन का हाथ छूता है
न मेरे दोस्त की बाहें

मैंने दोस्ती का
जराबख्तर पहन लिया है
मैं खुश हूँ
पर आप क्यों पूछते हैं
कि कुछ खुशियाँ
इतनी उदास क्यों होती है ?





सुभानाल्लाह !अमृता प्रीतम अमृता है

Manish Kumar said...

शुक्रिया इसे यहाँ बाँटने के लिए

ओम आर्य said...

जराबख्तर का मतलब बतायेंगी, रंजू जी, अर्थ समझ में नहीं आ रहा है.

डॉ. मनोज मिश्र said...

हमेशा की तरह लाजवाब .

pallavi trivedi said...

अद्भुत अंश.....आनंद आ गया!

mehek said...

bahut hi khubsurat kahani aur dono nzm waah lajawab.

विधुल्लता said...

देख लेना प्रिय रंजना...अमृता तुम्हारी रूह मैं है पोस्ट गंभीर और दस्तक देती रहती है हौले हौले अन्दर बस उन्हें पढ़ना अपने दुखों को कमतर कर आंकना हो जाता है...इसके लिए तुम हकदार हो की तुम्हे एक बड़ा सा धन्यवाद दे दिया जाय...बहुत दिनों बाद तुम्हारी पोस्ट पर आई हूँ ..क्योंकि एक बार कोई बात दिमाग में आजाये तो बस लिखने के बाद ही सूकून मिलता है ...ज़रा ...ज़रा बख्तर की बजाय ..जिरह बख्तर ..होना चाहिए मुझे लगता है...

डिम्पल मल्होत्रा said...

speechless.....