Tuesday, February 24, 2009

इमरोज़ चित्रकार

मेरे सामने
ईजल पर एक कैनवस पड़ा है
कुछ इस तरह लगता है --
कि कैनवस पर लगा लाल रंग का एक टुकडा
एक लाल कपड़ा बनकर हिलता है
और हर इंसान के अन्दर का पशु
एक सींग उठाता है
सींग तनता है --
और हर कूचा- गली- बाजार
एक रिंग बनता है
मेरे पंजाबी रगों में
एक स्पेनी परम्परा खौलती है
गोया की मिथ ---
बुल फाइटिंग --टिल डेथ ---


चित्रकार इमरोज़ से जब अमृता की मुलाकात हुई तो उनके कला और व्यक्तितव का एक नया पहलू सामने आया ..वह जो बहुत बार देखा पढ़ा हो कर भी अनकहा सा था ..यहाँ इस में यह उनके उसी साक्षात्कार के रूप में है ॥

अमृता ..इमरोज़ ! हलों कुदाल वाले घराने में जन्म ले कर आपने खेती के औजार थामने की बजाय हाथों में रंग और ब्रश कैसे ले लिए ?

इमरोज़ : यह भी हल ही चला रहा हूँ ,विचारों की जमीन पर .छुटपन में घर में हर वक्त ड्राइंग किया करता था .हलांकि स्कूल में ड्राइंग नहीं थी ..यह ठीक है शुरू में जिन चीजों की ड्राइंग की ,वे सब खेतों और हल कुदाल से ही जुड़ी हुई थी ॥

अमृता : आप औरत की ड्राइंग में माहिर है ? क्या औरत का बुनयादी तसव्वुर खेतों में रोटी ले कर जाने वाली औरत का था ?

इमरोज़ : नहीं जब हलों कुदाल की ड्राइंग करता था ,तब औरत की ड्राइंग नहीं करता था .हल कुदाल भी मेरा सपना कभी नहीं थे - वे सिर्फ़ आब्जेक्ट थे

अमृता : सारे कलाकार यथार्थ की व्याख्या अलग अलग करते हैं .इमरोज़ आपकी नजर में यथार्थ क्या है ?

इमरोज़ :मेरे अनुसार हर यथार्थ एक नए यथार्थ को जन्म देता है वह शायद आम लोगों की पकड़ में नहीं आता पर हर कलाकार उसको जरुर पहचान लेता है ,जब बाहरी चीजों को अन्दर की नजर मिलती है तब वह कई नए आकार लेती है नए यथार्थ जन्म

अमृता : केनवस के रंगों और हाथों के सामने रखने से पहले आप पेन्सिल स्केच बनाते हैं या सिर्फ़ जहनी स्केच ?

इमरोज़ : दोनों

अमृता : अमरीकन चित्रकार इवान अलब्राईट को अपनी एक पेंटिंग पर बीस साल लग गए वह उस पर बीस साल काम करते रहे और उनके लफ्जों में यह सारी दुनिया की यात्रा थी ..क्या आपको भी किसी पेंटिंग ने इस तरह से बरसों बांधे रखा ?

इमरोज़ : औरत की ड्राइंग करते हुए मुझे तीस बरस हो गए हैं .महारत के साथ मैं बहुत जल्दी औरत के नयन नक्श तो बना लेता पर उसका चिंतन उसके माथे में भरने में बहुत बरस लग गए ...सेंकडों तस्वीरें बना कर भी मैं औरत के चित्र को एक चित्र कह सकता हूँ ,जिस पर मैंने तीस बरस लगा दिए हैं ..वह चित्र अब मेरे से इस बरस बना है
अमृता : कौन सा ?

इमरोज़ : वह मेरे कमरे में सिर्फ़ एक पेंटिंग है वही ॥

अमृता : जिस में एक साज की शक्ल में है एक औरत और उसका बदन ऐसे हैं जैसे साज के तार सुर किए हों ॥
इमरोज़ : हाँ सिर्फ़ वही पेंटिंग एक लाइन की पेंटिंग है औरत चिंतन की शकल में भी और औरत साज की शकल में भी ...

अमृता : सो इम ! पिछले तीस सालों से आपकी कला की थीम औरत है आपने कभी इन तीस सालों में इस थीम की पकड़ से मुक्त होना चाहा ?
इमरोज़ : मैं इस थीम की पकड़ में नहीं हूँ मैं ...इसके साथ साथ चल रहा हूँ हम दोनों चल रहे हैं.... हमसफ़र की तरह

अमृता : कई चित्रकारों के लिए कोई खास रंग बहुत लाडला होता है , कोई एक ऐसा रंग जो आपको अपनी और खींचता हो ? जैसे काल्डर को लाल रंग .उसका जी करता है की वह हर चीज को लाल रंग में रंग दे ...
इमरोज़ : धूप का रंग मुझ पर इतना छाया रहता है कि मेरा जी करता है हर चीज धूपी रंग की कर दू ...

अमृता : आपने आज तक अपने चित्रों की एक बार भी नुमाइश नही की क्यों ?

इमरोज़ : दो चीजों के लिए नुमाइश की जाती है ..एक दूसरो की राय लेने के लिए .और दूसरी तस्वीरों को बेचने के लिए ....किसी की राय की मुझे जरुरत नहीं ..मुझे अपनी राय पर यकीन है ..और तस्वीरें मैं बेचने केलिए बनाता नहीं हूँ ..मैं ......मैं नुमाइश क्यूँ करूँ ? वैसे भी मुझे नुमाइश लफ्ज़ से भी एतराज़ है

अमृता : क्यों ?

इमरोज़ : क्यों की इस लफ्ज़ की रूह में हमारी अपनी सभ्यता की रूह नहीं है .कोई इंसान खूबसूरती का मुजस्सिमा हो खुदा की नेमत है .पर उसको शो केस में खड़ा कर दिया जाए ..या मेरी आंखों को कबूल नहीं होता है ...

अमृता : तो फ़िर कला दर्शकों तक कैसे पहुंचे ?

इमरोज़ : यह खूबसूरती का कर्म नहीं है कि वह दर्शकों को तलाश करती फिरे ,यह दर्शकों का कर्म है कि वह खूबसूरती को तलाश करें ॥

सारे रंग
सारे शब्द
मिल कर भी
प्यार की तस्वीर
नहीं बना पाते
हाँ ! प्यार की तस्वीर
देखी जा सकती है
पल पल मोहब्बत जी रही
ज़िन्दगी के आईने में ........

इमरोज़

जारी है आगे भी ...

Sunday, February 15, 2009

अचानक --एक कागज आगे सरकता है
उसके कांपते हुए हाथो को देखता है
एक अंग जलता है ,एक अंग पिघलता है
उसे एक अजनबी गंध आती है
और उसका हाथ
बदन में उतर आई लकीरों को छूता है ..
हाथ रुकता है बदन सिसकता है
एक लम्बी लकीर टूटती सी लगती है
फ़िर जन्म और मौत की
दोहरी सी गंध में वह भीग जाती है
सब काली और पतली लकीरें -
एक लम्बी चीख के कुछ टुकडे दिखते हैं
खामोश और हैरान वह निचुड़ी सी खड़ी
देखती सोचती -
शायद एक क्वारीं का गर्भपात इसी तरह होता है ...
यह कर्ण और कविता का जन्म है ..

एहसास की शिद्दत .एक खामोशी की गार किस तरह गुजरती है और उसका कम्पन कैसे रगों में उतरता है अमृता की इस कविता के लफ्ज़ कुछ अदभुत सा अनुमान देते हैं ,यहाँ लफ्ज़ गर्भपात जन्म के अर्थों में है जिस में हर कविता पुरे होने के एहसास से सिर्फ़ एक कदम की दूरी पर खड़ी रह जाती है ...

हमारे अचेतन मन ने युग युग के एहसास अपने में लिपटाए होते हैं पर किसी गाँठ को यह मन कब अपने पोरों से खोल देता है कोई नही जानता घड़ी पल लम्हा कोई भी नहीं ..अमृता ने अपने ही लिखे कुछ लफ्जों में कुंती की तकदीर का एक बहुत सूक्ष्म सा लम्हा लिख दिया था ..

कविता कभी कागज को देखे
और कभी नजर को चुरा ले
जैसे कागज कोई पराया मर्द होता है ...

यहाँ कुंती को कर्ण अपनी कोख में लिए हुए अपना सा लगता है पर जब उस एहसास को वह दुनिया के हवाले करती है तो वह उसको पराया लगता है .उसी तरह जब तक कविता अपने दिल में है वह अपनी है पर कागज के हवाले होते ही वह कागज पराया लगने लगता है .जैसे कुंती जानती है उसका समाज उसके कर्ण का समाज नही हो सकता है..उसी तरह कविता रचने वाला जानता है कि अंतर्मन का एक टुकडा उस से टूटकर बिल्कुल गैर की आँखों के हवाले हो जायेगा .....कविता का बीज किसी के भीतर अचानक उसी तरह पनप जाता है जिस तरह सूरज ने अपनी किरण का एक टुकडा कुंती की कोख में रख दिया था ....

वह आग का स्पर्श करती ,चौंक जाती ,
जाग उठती ,भरे भरे बदन को छूती
चोली के बटन खोलती
अंजुली -भर चांदनी बदन पर छिडकती
और बदन सुखाते हुए -
उसका हाथ खिसक जाता है ...
बदन का अँधेरा छाती की तरह बिछता
वह औंधी सी छाती पर लेटती
उसके तिनके तोड़ती
और उसका अंग अंग सुलग जाता है
उसे लगता
उसके बदन का अँधेरा
किसी की बाहों में टूटना चाहता है ....

अमृता कहती है कि उनके भीतर एक कवि कैसे जाग गया यह वह नही जानती ..लेकिन जब जाग गया तो उसने अपनी पहचान अक्षरों में उतारी ...कुंती के युग में दुर्वासा ऋषि का आ कर वरदान देना सिर्फ़ कुंती के युग में हो सकता था लेकिन कवि हर युग में होता है ....दुर्वासा हर युग में नही होता फ़िर भी कुछ ऐसा हर कविता लिखने वाले के साथ घटता है ...सूरज तो एक अग्नि कण कुंती को देकर आसमान पर जा बैठा ,लेकिन वह अग्नि कण जब कर्ण बन गया तो उस कर्ण का दर्द कौन जान सकता है ..
मोहब्बत का अग्नि कण कविता रचने वाले को जब मिलता है तो वह कविता बन जाता है अपनी किस्मत का प्याला उसे भी अपने होंठो से पीना होता है ..कुंती के पास जो मन्त्र था वह घड़ी पल के लिए सूरज को धरती पर उतार सकता था ,पर कवि के पास एहसास की शिद्दत का जो मन्त्र होता है वह अपने प्यार करने वाले को धरती पर नहीं उतार सकता वह उसको सिर्फ़ अपनी कल्पना की जमीन पर उतार सकता है ..कल्पना भी कुंती की कोख सी होती है और दोनों अग्निकणों को एक खामोशी में से जन्म लेना होता है और फ़िर कर्ण को बहते हुए पानी के हवाले हो जाना होता है और कविता को बहती हुई पवन के हवाले .....उस के बाद गर्म अफवाहे सिर्फ़ कर्ण के बदन को जलाने के लिए होती है और दिल के खून में भीगी हुई हर कविता के लिए ...कुंती का कर्ण को बहती हुई नदी के हवाले कर देना सारी उम्र के लिए ऐसा दर्द दे गया कि उस दर्द की पहचान के लिए सूरज की परिक्रमा करती हुई धरती भी एक पल के लिए खड़ी हो गई थी .....पर कविता रचने वाले को अपनी आत्मा के टुकड़े को बहती हवा के हवाले अपने हाथों से कर देना एक ऐसा कर्म होता है जिसे शक्ति कण भीगी हुई आँखों से देखते हैं ..

कुंती सूरज का पता जानती है ,पर कर्ण को नही बता सकती है .कविता लिखने वाला अपने प्रिय का पता जानता है पर अपनी ही रची कविता को नहीं बता सकता है .इश्क का यह मौन व्रत इल्हाई पलों का तकाजा होता है ..एक घूंट चाँदनी पी सकने का वक्त भी सिर्फ़ कुंती और कविता लिखने वाले को नसीब होता है ....

Tuesday, February 10, 2009

वनमहोत्सव यानी पेडों का जश्न .... अमृता ने मास्को में उस वक्त देखा ,जब वह मास्को हवाई अड्डे से शहर की और आ रही थी तब ...यहाँ चालीस किलोमीटर लम्बी राह पर जैसे कोई मेला लगा हुआ था ...लोग हाथो में कुदाली और बेलचे पकड़े मोटरों में से उतर रहे थे ....जवान लड़के- लडकियां रंग बिरंगे कपड़े पहने हँसते गाते सड़क की पटरियों के पास मिटटी खोद रहे थे ...पता लगा आज वनमहोत्सव है ...यह यहाँ साल में एक बार आम तौर पर मई के महीने में मनाया जाता है .....इस महीने के पहले इतवार हर मास्कोवासी अपनी धरती पर एक पेड़ बोता है और दोस्ती का जश्न अमृता ने देखा मास्को के सबसे सुंदर शहर बालशोई थियटर में जब टैगोर दिवस मनाया गया ....यहाँ पर जगमग बल्बों से दीवारे जगमगा रही थी और डेढ़ हजार साहित्य प्रेमी यहाँ पर एक डी देश के साहित्य कार की कलम को सत्कार दे कर दोस्ती के बीज बो रहे थे ...

फ़िर अजरबाईजान की राजधानी बाकू से लिखा अमृता ने कि वह यहाँ का राष्ट्रीय अजायबघर देख कर आई है ....एक देश चाहे दूसरे देश से हजारो मील दूर होता है पर इंसान का मन कितना एक जैसा होता है मोहब्बत की लग्न एक जैसी.... मेहनती हाथो के काम एक जैसे , वहम एक जैसे , भ्रम एक जैसे ..
इस अजायबघर घर में चौदह हाल कमरे हैं .....पहले कमरे में वह निशानियाँ संभाली हुई है जिनके बारे में सोचा जाता है कि यह आठवीं सदी की उस से पहले की है ..तब के सिक्के. जेवर ,हथियार मूर्तिकला के नमूने .....इसी कमरे मैं वह तस्वीरें हैं जिन में अय्याशी के निशान मिलते हैं ...इसके आलावा किसी तस्वीर में सूरज पूजा है किसी में गाय पूजा है और किसी में सर्प पूजा

और एक तस्वीर बहुत दिलचस्प हैं यहाँ ,जिस में इजराइल फ़रिश्ता किसी कि जान लेने के लिए आता है पर उसके सगे सम्बन्धी और प्रियजन इजराईल की मिन्नत करते हैं कि उसकी जगह किसी और की जान ले ले पर इसको छोड़ दे इजराइल मान जाता है और उसकी जगह उसके माँ बाप की जान मांगता है सभी डर के पीछे हट जाते हैं ....आख़िर उस आदमी को प्यार करने वाली एक युवती इजराइल को अपनी जान देने के लिए आगे बढती है ....यह तस्वीर देख कर अमृता की आँखे भर आयीं और उनके मुहं से निकला ..हाय औरत ! सचमुच किसी को प्यार करती है ,तो कैसा प्यार करती है .....उसके लिए एक पल में जान हाजिर कर देना कितनी छोटी सी बात हो जाती है उसके लिए ....

अमृता के साथ वहां की शायर जुल्फिया भी साथ थी ....दोनों एक दूजे की नही जानते थे .पर फ़िर भी दोनों रात को एक एक बजे तक बातें करते ..अजीब हैं न दिल का यह जज्बा भी ...उस वक्त दोनों के साथ कोई दूरभाषिया नही होता था ,पर एक निर्भरता बढ़ जाती और अपनी बात समझाने की जैसे एक होड़ सी दोनों में लग जाती ..... जब शब्द नही मिलते तो भावों से काम लिया जाता और ऐसे वक्त पर जुल्फिया एक छुरी पकड लेती और उसक सिरा अपनी तरफ़ कर के अमृता को इशारा करती कि मेरी छाती चीर कर सब बातें निकल लो जो यहाँ पर जज्ब है.... इस तरह तस्वीरों से ,इशारों से, दिल की जुबान से ...उन दोनों कि बातें चलती रहती और कभी कोई शब्द कभी कोई भाषा उस वक्त का गवाह बनता कोई शब्द उर्दू का कोई उजबेक का ,कोई ताजक का ,कोई रुसी तो कोई अन्ग्रेजी ..जुल्फिया इस भाषा को सलाद कहती ...जैसे वह अपने पोते जो उजबेक पुत्र और रुसी बहू से पैदा हुआ है उसकी कहती थी ..

इस पत्र में अमृता ने बताया है कि अरबी और फारसी के कई लफ्ज़ उजबेक भाषा में इस तरह से प्रचलित है जैसे पंजाबी में मसलन ..खुदा .आसमान .जमीन .,हवा ,बाग़ बगीचा , बुलबुल ,गुल दरिया , नहर ,मेहर मोहब्बत रहमत, इल्म ,फेन ,दर्द जहमत, आराम , गुसल ,कर्म, नसीब ,खुश, ख्याल ,तसव्वर , तस्वीर ,हाजिर मुमकिन दावत नज्म ,शेयर ,कलम ,अदीब ,दोस्त ,सलाम ,बच्चा आदि आदि
मिर्च को मुर्च ,समोसे को सनबोसा और चाय को चुए कहा जाता है दूध को यहाँ सूत कहते हैं पुरानी पंजाबी में सूत बेटे को कहते हैं जननी जेते सूत जनि दूध पूत का भाव शायद इतने जुड़ गए कि पंजाबी में पुत्र का सूत और उजबेक में दूध का सूत बन गया है पानी को यहाँ सु कहा जाता है पंजाब में भी बहते पानी को सुआ कहा जाता है
पंजाब में गांव कि बुजुर्ग औरते जैसे अपने अजीजों के सर पर प्यार देती हुई कहती है खेरां नाल सुखां नाल ..यहाँ दोस्त मित्र सम्बन्धी एक दूजे से विदा लेते वक्त अपने दायें हाथ को छाती से लगा कर बड़े प्यार से कहते हैं ख़ैर .. ख़ैर .

यहाँ पर विद्यार्थी बहुत शौक से हिन्दी और उर्दू सीखने में लगे हैं जबेक लड़कियों का स्वभाव पंजाबी लड़कियों के शर्मीले स्वभाव से बहुत मिलता जुलता है...

इस तरह अमृता के खतों के माध्यम से हमने उजबेक स्वभाव और उजबेक रहन सहन के बारे में बहुत कुछ जाना इन खतों की खूबसूरत श्रंखला का अंत करते हैं, वही की कुछ रचनाओं से जो अनुवादित हैं पर यह यहाँ भी हर दिल का हाल यूँ ब्यान करती है जैसे मेरे आपके दिल का ही हाल हो .. पहली कविता निगार खानुम की है

सारस
जब मैं रात के आँगन में जाती हूँ
अपनी नींद से मैं पंख लेती

सपने में मैं सरस बनती हूँ

और
पूरे आसमान मैं उड़ती
फ़िर कहीं से एक आवाज़ आती है

कहीं से एक हसरत बुलाती है

मैं पर्वत के कंधे
छूती हुई
किसी देश में उतर जाती
कितनी
ही आवाजों होंठो में पकडती
मोहब्बत
के चाँद से कहती हूँ
देखो
यह सुगंधी पल्लू से बाँध लो
और
लाखो सितारों में यह सुगंधी बाँट दो
यह
मोहब्बत का चाँद है
और
चाँद में हिजर का दाग है
मैं
उस से भी आगे गुजर जाती हूँ
और
पूरे आसमान में उड़ती हूँ
फ़िर
सूरज की लालिमा आती है
मेरे
तकिये के पास खड़ी होती है
और
मेरा हाथ पकड़ कर मुझे जगाती है
धरती
मुझे कस कर पकड़ लेती है
और
फ़िर मुझे एक बात सुनाती है
प्यार
करती न्योछावर सी होती है
धरती
मुझेडियाती है
मैं
धरती का कन्धा चूम लेती हूँ
और
धरती का माथा चूम लेती हूँ ...(निगार खानुम )
याद

तेरी आँखों की मादकता याद आई
बागों
के पत्ते पर मोती चमकने लगे
पर्वत
एक नाज और अंदाज से सो रहे थे
तेरे
बिरहा ने मेरे दिल को बाहों में ले लिया
पेडो
पर बुलबुल के गीतों की आवाज उग आई
फूलों
के जाम सुगंधी से भरे हुए
शाम
की हवा ने सब जाम छलका दिए
मेरे
दिल में याद का प्याला छलक गया
आज
पानी के किनारे
तेरी
याद मैंने बाँहों में ले ली
तेरी
याद पत्थर सी ठंडी
आज
पानी के किनारे तेरी याद
एक
बेल सी नाजुक
एक
सपना नींद ने बाँहों में भर लिया ..(आइबेक )

Monday, February 2, 2009

तू जब गीत पढ़ती है
दिल का सूरज इस तरह दिखता
जैसे भरी दोपहर को
गीतों की आवाज़ इस तरह लगती
जैसे गंगा की लहर
जैसे बैजू का नगमा
पीड़ा अपनी बाहों में लेती है
तेरे हुनर का इक तारा बजता है
और तेरी मोहब्बत गाती है
तेरी दो आँखे इस तरह
जैसे ख्यालों के दो चश्मे
और चाँद के रेशम जैसी
दो देशों के गीत जोड़ दे
लोक पीड़ा की भट्ठी में
तेरा हर लफ्ज़ पक गया


अमृता की हर पंक्ति यही कहती लगती है ..यह कविता मिरवारद खानम दिलबाजी की लिखी हुई हैं ......यह पत्र अमृता ने सोवियत देश के अजरबाईजान की राजधानी बाकू से लिखा है .....उन्होंने हर जगह यहाँ लेखकों की याद में बने प्रतीक चिन्ह देखे पर यह बाकू एक ऐसा शहर देखा जहाँ एक शायरा का बुत बना हुआ था ..यह शायरा नातवां उन्न्सवी सदी की अपने लोगो में बहुत प्रसिद्ध शायरा थी .......इसी बाकू शहर में एक अजरबाई जानी औरत का बुत बनाया गया है.... जिस में वह अपने चेहरे से नकाब पर्दा उतारती दिखायी गई है ..यह इन्कलाब के बाद की औरत के मन का चिन्ह है कि वह कैसे जिन्दगी के सभी सृजनात्मक पहलू में अपनी मेहनत और अपने श्रम का हिस्सा डालने को तैयार है......


अमृता ने अपने इस ख़त को बाकू से लिखा है ...जब वह यहाँ से चालीस किलोमीटर दूर लोहे के रबर और मजदूरों के बस्ती देखने गई थी ,उस दिन इतवार था मर्द औरते और बच्चे छुट्टी मना रहे थे .....यह बस्ती समुंदर के किनारे हैं .....बस्ती क्या पूरा शहर है .....नई ऊँची इमारते ,उनके रहने के घर ,स्कूल ,क्लब ,थिएटर , सिनेमा घर और दुकाने शहर के चारो और एक छोटी सी रेलवे लाइन हैं .....जिस पर एक छोटे से इंजन वाली गाड़ी एक बड़े से खूबसूरत डिब्बे के साथ चलती है ......यह गाड़ी बच्चे ही चलते हैं और इस से बच्चे ही सैर करते हैं .....यह रेलवे विभाग की और से मजदूर बच्चो को तोहफा है...

औरतो का पुराना पहरावा एक फ्राक नुमा लम्बी और खुली कमीज और सर्दियों में ऊनी और गर्मियों में रेशमी और सूती चाद्दर है .....आज का पहरावा फ्राक या स्कर्ट और सीर पर रेशमी रुमाल है .......मर्द और औरतों ने अक्सर दो तीन दांतों में सोने का पतरा चढ़वाया हुआ है .......जैसा पहले पंजाब में में एक या दो दांतों पर सोने चढ़वाने का रिवाज होता था .....इस तरह से लोग सोचते थे कि मरते दम तक सोना जिस्म के साथ रहेगा .....इसको मरने के बाद कोई नही उतार सकेगा इस लिए यह अगली दुनिया में भी साथ जाता है ...यहाँ भी शायद इसी धारणा के तहत यह रिवाज चला हो ..पर अब यह रिवाज कम हो गया है .जवान लड़के -लडकियां अब सोना नही चढ़वाते हैं ....
बाजू पर अपन नाम और कोई तस्वीर खुदाने का भी रिवाज है यहाँ
आज यहाँ मर्द और औरत समुन्दर के किनारे रेत पर लेटे हैं ...वह थोडी थोडी देर में जा जा कर समुन्द्र में डुबकी लगा आते हैं और फ़िर आ कर रेतपर लेट जाते हैं ... अपना इतवार मना रहे हैं ..मुझे देखते ही बहुत सी औरतों ने कहा हिन्दुस्तानी शायरा .पिछली रात मैंने टेलीविजन पर अपनी दो नज्में पढ़ी थी ,इस लिए इन्होने मुझे पहचान लिया है

श्रामिक जीवन की यह खुशहाली सचमुच यहाँ की व्यवस्था की बहुत बड़ी कामयाबी है ..हर मजदूर की औसत तनख्वाह सतासी रूबल है . ...हिन्दुस्तानी रुपये के हिसाब से करीब साढे चार सौ रूपए ..... रिहायश , डाक्टरी मदद और स्कूल ,कालेज पढ़ाई के खर्चे का सवाल ही नहीं ...इस तनख्वाह से लोगों ने सिर्फ़ खाने पहनावे का खर्च चलाना होता है बेकारी की फ़िक्र से यह लोग पूरी तरह से स्वंतंत्र है
बच्चे रंग बिरंगे कपड़े पहने साईकल चला रहे हैं ... रंग बिरंगी छतरी ले कर आइस क्रीम खा रहे हैं ... कितनी बार मुझे भुलावा हुआ कि अभी तुम भागे भागे हाथो में आईस क्रीम ले कर कहीं से आ जाओगे ......कुछ मजदूर माताएं मेरे पास आ कर कहती है कि हमारे बच्चे आपसे हाथ मिलाना चाहते हैं और हिन्दुस्तान के मजदूर बच्चो को सलाम भेजते हैं
मेरी आँखे इस प्यार से छलक आई और मैं छोटे छोटे बच्चो को दुलारती अपने देश के मजदूर बच्चो के भविष्य के लिए दुआंए मांगती रही .....

बाकू
अजरबाईजान
१४ मई १९६१


इस पत्र में जो उस वक्त की तस्वीर दिखी , उस से अब सोवितय रूस दूर हो चुका है .....भारत के मजदूरो का जीवन इस से कितना अलग है ..रहने को ठीक से घर नही ..खाना नही ..बच्चो की शिक्षा की बात तो दूर हैं ...यह पहले लिखे ख़त आसानी से पहले और अब के माहौल का अन्तर बता देते हैं ...वक्त आगे चला गया है पर हम कहीं बहुत पीछे रह गए हैं कई मामलों में ..सोने के दांत ..अब एक सपना है ....असलियत है एक रोटी वो भी अब कड़ी मेहनत के बाद नसीब नही होती ....आओ दुआ करे कि सब शुभ हो .........आने वाला वक्त कुछ शिक्षा की रौशनी ले कर आए ..और २८० रुपये के लिए एक आठ साल की बच्ची को वहशी तरह से पीटा न जाए .उस के भविष्य के लिए कुछ सोचा जाए ....