Thursday, April 30, 2009

अक्ल इल्म की माटी भीगी
कलम मेरी कुम्हारिन हुई
गीत जिस तरह जाम ,चाक से ----
अभी अभी हो गये हो उतारे ...

दिल की भट्ठी आग जलाई
दोनों हाथ उम्र खर्च कर
एक शराब हज़ार - आताशा
महफ़िल में हम ले कर आये

सदियों ने निश्वास लिया इक
कैसा शाप दिया है हमको
जीवन बाला रूठ गयी है
एक घूंट न होंठ छुआये..

इस दावत को क्या संज्ञा दे

इश्क शराब इस तरह लगती
हर इक जाम की आंखों में हो
जैसे कुछ आंसू भर आये ..


"हर एक जाम की आंखों में हो ,जैसे कुछ आंसूं भर आए ."...........एक कलम का सच जो सदियों दिल को अपनी भावों की गहराई में डुबोता रहेगा ......अमृता की कलम का जादू कब नहीं दिल को छू गया है ...

"किसी भी मनुष्य को अगर अपनी सही जीवनी लिखनी हो ,तो उस को चाहिए वह खाली कागजों पर लहू मल दे लहू से भीगे हुए पन्नों पर यह साफ़ पढा जा सकता है कि लहू रोटी की फ़िक्र में कैसे सूखता रहा था ,यह लहू हजारों चिंताओं में कैसे सहमत रहा था और यह लहू ज़ंग के मैदान में किस तरह बहता -बिखरता रहा था ,और ,या नसों में व्यर्थ घूमता रहा था ...."

अमृता की लिखी यह पंक्तियाँ उनके लिखे उपन्यास जिलावतन से हैं ...

अमृता जी का लिखा अक्सर भटकते दिल का सहारा बन जाता है ..इन पंक्तियों में ज़िन्दगी को दर्शन दे सकने का होंसला है और दर्द से पीड़ित मानव दिल की व्यथा भी है ...एक पाठक ने तो यहाँ तक कहा कि अमृता के लिखे में कहावतें बन सकने का जज्बा है ......आज उन्हीं के लिखे उपन्यासों और नज्मों की वह पंक्तियाँ जो ..दिल में कभी सकून कभी दर्द की लहर पैदा कर देती हैं ....


"हमारी मंडियों में गेहूं भी बिकता है ,ज्वार भी बिकती है ,और औरत भी बिकती है .....आर्थिक गुलामी जब औरत को दास बनाती है ,वही दासता फिर मानसिक गुलामी बन जाती ..मानसिक गुलामी जब नासूर बनती है तब लोग नासूर के बदन पर पवित्रता कि रंगीन पोशाक पहना देते हैं ,और यह पवित्रता जो खुद मुख्तारी में से नहीं ,मज़बूरी में से जन्म लेती है .समाजी खजाने का सिक्का बन जाती है ,और समाज हर औरत को इस सिक्के से तोलता हैं .."
कहानी ( *आखिरी ख़त से )

"औरत का पाप फूल के समान होता है ,पानी में डूबता नहीं ,तैर कर मुहं से बोलता है ..मर्दों का क्या है ,उनके पाप तो पत्थरों के समान पानी में डूब जाते हैं ..."

कहानी ( *न जाने कौन रंग रे से )

"मर्द मर जाए तो भले ही औरत के सभी अंग जीवित रहते हैं ,पर उनकी कोख अवश्य मर जाती है .."

कहानी (* तीसरी औरत से )

"इस दुनिया के सुनार सोने में खोट मिलातें हैं ,दुनिया उनसे कुछ नहीं कहती है पर जब इस दुनिया के प्रेमी सोने में सोना मिलाते हैं ,तो दुनिया उनके पीछे पड़ जाती है .."

कहानी (*मिटटी की जात से )

"मिटटी की जात किसी ने न पूछी ..एक कल्लर घोडी पर चढ़ कर एक चिकनी मिटटी को ब्याहाने आ गया"

कहानी (* मिटटी की जात से )


"ब्याह के पेशे में किसी की तरक्की नहीं होती ....बीबियाँ सारी उम्र बीबियाँ ही रहती है ..खाविंद सारी उम्र खाविंद ही बने रहते हैं ..तरक्की हो सकती है ,पर होते कभी देखा नहीं ..यही कि आज जो खाविंद लगा हुआ है ,कल महबूब बन जाए .कल जो महबूब बने ,परसों वह खुदा बन जाए .रिश्ता जो सिर्फ रस्म के सहारे खडा रहता है ,चलते चलते दिल के सहारे खडा हो जाए ...आत्मा के सहारे ......"

कहानी (* मलिका से )

कुछ उदासियों की कब्रें होतीं हैं ,जिनमे मरे हुए नहीं जीवित लोग रहते हैं ..अर्थों का कोई खड्का नहीं होता है .वे पेडों के पत्तों की तरह चुपचाप उगते हैं .और चुपचाप झड़ जाते हैं ...

कहानी (* दो खिड़कियाँ से )

औरत जात का सफरनामा : कोख के अँधेरे से लेकर कब्र के अँधेरे तक होता है ?

उपन्यास (* दिल्ली की गलियाँ से )

औरत की कोख कभी बाँझ नहीं होगी ॥अगर औरत कि कोख बाँझ हो गयी तो ज़िन्दगी के हादसे किसके साथ खेलेंगे ?

उपन्यास (* बंद दरवाजा से )


है न इन पंक्तियों में कुछ कहने का वह अंदाज़, जो अपनी ही ज़िन्दगी के करीब महसूस होता है .....उनका कहना था कि आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है ,जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती ..समाजिक और राजनीतिक सच्चाई के हाथों मनुष्य रोज़ कांपता है टूटता है ...सोचती हूँ कोई भी रचना ,कोई भी कृति ,धूप की एक कटोरी के पीने के समान है या धूप का एक टुकडा कोख में डालने की तरह है और कुछ नहीं ,सिर्फ़ ज़िन्दगी का जाडा काटने का एक साधन ...

उन्हीं की लिखी एक नज्म है ,जो उनकी यह पंक्तियाँ पढ़ कर याद आई ...

बदन का मांस
जब गीली मिटटी की तरह होता
तो सारे लफ्ज़ ----
मेरे सूखे होंठों से झरते
और मिटटी में
बीजों की तरह गिरते ....
मैं थकी हुई धरती की तरह
खामोश होती
तो निगोड़े
मेरे अंगों में से उग पड़ते
निर्लज्ज
फूलों की तरह हँसते
और मैं ..........
एक काले कोस जैसी
महक महक जाती .....


जारी है आगे भी ...

Tuesday, April 21, 2009

तेरी नज्म से गुजरते वक्त खदशा रहता है
पांव रख रहा हूँ जैसे ,गीली लैंडस्केप पर इमरोज़ के
तेरी नज्म से इमेज उभरती है
ब्रश से रंग टपकने लगता है

वो अपने कोरे कैनवास पर नज्में लिखता है ,
तुम अपने कागजों पर नज्में पेंट करती हो


-गुलजार

अमृता की लिखी नज्म हो और गुलजार जी की आवाज़ हो तो इसको कहेंगे सोने पर सुहागा .....दोनों रूह की अंतस गहराई में उतर जाते हैं ..रूमानी एहसास लिए अमृता के लफ्ज़ हैं तो मखमली आवाज़ में गुलजार के कहे बोल हैं इसको गाये जाने के बारे में गुलजार कहते हैं कि यह तो ऐसे हैं जैसे "दाल के ऊपर जीरा" किसी ने बुरक दिया हो ..गुलजार से पुरानी पीढी के साथ साथ आज की पीढी भी बहुत प्रभावित है ..उनके लिखे बोल .गाए लफ्ज़ हर किसी के दिल में अपनी जगह बना लेते हैं ..पर गुलजार ख़ुद भी कई लिखने वालों से बहुत ही प्रभावित रहे हैं ..अमृता प्रीतम उन में से एक हैं ...अमृता प्रीतम पंजाबी की जानी मानी लेखिका रही हैं ...

गुलजार जी पुरानी यादों में डूबता हुए कहते हैं कि .मुझे ठीक से याद नही कि मैं पहली बार उनसे कब मिला था ...पर जितना याद आता है .तो यह कि तब मैं छात्र था और साहित्य कारों को सुनने का बहुत शौक था ..अमृता जी से शायद में पहली बार "एशियन राईटर की कान्फ्रेंस" में मिला था ....एक लिफ्ट मैं जब मैं वहां ऊपर जाने के लिए चढा तब उसी लिफ्ट मैं अमृता प्रीतम और राजगोपालाचारी भी थे .जब उनसे मिला तो उनसे बहुत प्रभावित हुआ ......उनकी नज्मों को पढ़ते हुए ही वह बड़े हुए और उनकी नज्मों से जुड़ते चले गए और जब भी दिल्ली आते तो उनसे जरुर मिलते ..तब तक गुलजार भी फ़िल्म लाइन में आ चुके थे.

अमृता जी की लिखी यह नज्में गुलजार जी की तरफ़ से एक सच्ची श्रद्धांजली है उनको ..उनकी लिखी नज्में कई भाषा में अनुवादित हो चुकी है ......पर गुलजार जी आवाज़ में यह जादू सा असर करती हैं ..इस में गाई एक नज्म अमृता की इमरोज़ के लिए है .

मैं तुम्हे फ़िर मिलूंगी ...
कहाँ किस तरह यह नही जानती
शायद तुम्हारे तख्यिल की कोई चिंगारी बन कर
तुम्हारे केनवास पर उतरूंगी
या शायद तुम्हारे कैनवास के ऊपर
एक रहस्यमय रेखा बन कर
खामोश तुम्हे देखती रहूंगी


गुलजार कहते हैं कि यदि इस में से कोई मुझे एक नज्म चुनने को कहे तो मेरे लिए यह बहुत मुश्किल होगा ..क्यों कि मुझे सभी में पंजाब की मिटटी की खुशबू आती है ..और मैं ख़ुद इस मिटटी से बहुत गहरे तक जुडा हुआ हूँ ..यह मेरी अपनी मातृ भाषा है .. अमृता की लिखी एक नज्म दिल को झंझोर के रख देती है ...और उसको यदि आवाज़ गुलजार की मिल गई हो तो ..दिल जैसे सच में सवाल कर उठता है ...

आज वारिस शाह से कहती हूँ
अपनी कब्र से बोलो !
और इश्क की किताब का कोई नया वर्क खोलो !
पंजाब की एक बेटी रोई थी ,
तूने उसकी लम्बी दास्तान लिखी
आज लाखों बेटियाँ रो रही है वारिस शाह !
तुमसे कह रही है :.......


इसकी एक एक नज्म अपने में डुबो लेती है ..और यह नशा और भी अधिक गहरा हो जाता है ..जब गुलजार जी की आवाज़ कानों में गूंजने लगती है ..यह नज्में वह बीज है इश्क के जो दिल की जमीन पर पड़ते ही कहीं गहरे जड़े जमा लेते हैं ..और आप साथ साथ गुनगुनाने पर मजबूर हो जाते हैं ..

एक जमाने से
तेरी ज़िन्दगी का पेड़
कविता ,कविता
फूलता फलता और फैलता
तुम्हारे साथ मिल कर देखा है
और जब
तेरी ज़िन्दगी के पेड़ ने
बीज बनना शुरू किया
मेरे अन्दर जैसे कविता की
पत्तियां फूटने लगीं है ..

और जिस दिन तू पेड़ से
बीज बन गई
उस रात एक नज्म ने
मुझे पास बुला कर पास बिठा कर
अपना नाम बताया
अमृता जो पेड़ से बीज बन गई....


रंजना ( रंजू ) भाटिया

Thursday, April 16, 2009

उमा त्रिलोक द्वारा लिखी"अमृता -इमरोज़"किताब की समीक्षा

उमा त्रिलोक की किताब को पढ़ना मुझे सिर्फ़ इस लिए अच्छा नही लगा कि यह मेरी सबसे मनपसंद और रुह में बसने वाली अमृता के बारे में लिखी हुई है ..बल्कि यह मेरे इस लिए भी ख़ास है कि इसको इमरोज़ ने ख़ुद अपने हाथो से हस्ताक्षर करके मुझे दिया है ...उमा जी ने इस किताब में उन पलों को तो जीवंत किया ही है जो इमरोज़ और अमृता की जिंदगी से जुड़े हुए बहुत ख़ास लम्हे हैं ,साथ ही साथ उन्होंने इस में उन पलों को समेट लिया है जो अमृता जी की जीवन के आखरी लम्हे थे. और उन्होंने हर पल उस रूहानी मोहब्बत के जज्बे को अपनी कलम में समेट लिया है

फ़िर सुबह सवेरे
हम कागज के फटे हुए टुकडों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया
उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया

और फ़िर हम दोनों एक सेंसर की तरह हँसे
और फ़िर कागज को एक ठंडी मेज पर रख कर
उस सारी नज़्म पर लकीर फेर दी !

मैंने इस किताब को पढ़ते हुए इसके हर लफ्जे को रुह से महसूस किया ....एक तो मैं उनके घर हो कर आई थी यदि कोई न भी गया हो तो वह इस किताब को पढ़ते हुए शिद्दत से अमृता के साथ ख़ुद को जोड़ सकता है ...उनके लिखे लफ्ज़ अमृता और इमरोज़ की जिंदगी के उस रूहानी प्यार को दिल के करीब ला देते हैं ..जहाँ वह लिखती है इमरोज़ की पेंटिंग और अमृता जी की कविताओं में, किरदारों में एक ख़ास रिश्ता जुडा हुआ दिखायी देता है ..एक ऐसा प्यार का रिश्ता जिसे सामाजिक मंजूरी की जरुरत नही पड़ती है ...

मैं एक लोकगीत
बेनाम ,हवा में खड़ा
हवा का हिस्सा
जिसे अच्छा लगूं
वो याद कर ले
जिसे और अच्छा लगूं
वो अपना ले --
जी में आए तो गा भी ले
मैं एक लोकगीत
जिसको नाम की
जरुरत नही पड़ी...


प्यार के कितने रंग हैं और कितनी दिशाएँ और कितनी ही सीमायें हैं...कौन जान सकता है...

उमा जी का हर बार अमृता जी के यहाँ जाना रिश्तो की दुनिया का एक नया सफर होता...यह उन्होंने न केवल लिखा है बलिक इस को उनके लिखे में गहराई से महसूस भी किया जा सकता है...इस किताब में अमृता का अपने बच्चो के साथ रिश्ता भी बखूबी लिखा है उन्होंने..और इमरोज़ से उनके बच्चो के रिश्ते को बखूबी दर्शाया है लफ्जों के माध्यम से..उमा उनसे आखरी दिनों में मिली जब वह अपनी सेहत की वजह से परेशान थी तब उमा जी जो की रेकी हीलर भी है ,इस मध्याम से उनके साथ रहने का मौका मिला जिससे वह हर लम्हे को अपनी इस किताब में लिख पायी .....अपने आखिरी दिनों की कविता "मैं तेनु फेर मिलांगी" जो उन्होंने इमरोज़ के लिए लिखी थी ,उसका अंग्रेजी में अनुवाद करने को बोला था

इमरोज़ के भावों को उस आखरी वक्त के लम्हों को बहुत खूबसूरती से उन्होंने लिखा है...सही कहा है उमा जी ने कि प्यार में मन कवि हो जाता है वह कविता को लिखता ही नही कविता को जीता है ,तभी उमा के संवेदना जताने पर इमरोज़ कहते हैं कि एक आजाद रुह जिस्म के पिंजरे से निकल कर फ़िर से आज़ाद हो गई...

अमृता इमरोज़ के प्यार को रुह से महसूस करने वालों के लिए यह किताब शुरू से अंत तक अपने लफ्जों से बांधे रखती है...और जैसे जैसे हम इस के वर्क पलटते जाते हैं उतने ही उनके लिखे और साथ व्यतीत किए लम्हों को ख़ुद के साथ चलता पाते हैं...

आज से कुछ साल पहले अमृता इमरोज़ ने समाज को धता बता कर साथ रहने का फैसला किया था. यह दस्तावेज है उनकी जुबानी उनकी कहानी का..इमरोज़ कहते हैं..."एक सूरज आसमान पर चढ़ता है. आम सूरज सारी धरती के लिए. लेकिन एक सूरज ख़ास सूरज सिर्फ़ मन की धरती के लिए उगता है,इस से एक रिश्ता बन जाता है,एक ख्याल,एक सपना,एक हकीक़त..मैंने इस सूरज को पहली बार एक लेखिका के रूप में देखा था,एक शायरा के रूप में,किस्मत कह लो या संजोग,मैंने इस को ढूंढ़ कर अपना लिया,एक औरत के रूप में,एक दोस्त के रूप में,एक आर्टिस्ट के रूप में,और एक महबूबा के रूप में !"

कल रात सपने में एक
औरत देखी
जिसे मैंने कभी नही देखा था
इस बोलते नैन नक्श बाली को
कहीं देखा हुआ है ..

कभी कभी खूबसूरत सोचे
खूबसूरत शरीर भी धारण कर लेती है...


अमृता इमरोज
लेखिका – उमा त्रिलोक
मूल्य – 120
प्रकाशक – पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि. भारत

Thursday, April 9, 2009

दोस्त ! तुमने ख़त तो लिखा था
पर दुनिया की मार्फत डाला
और दोस्त ! मोहब्बत का ख़त
जो धरती के माप का होता है
जो अम्बर के माप का होता है
वह दुनिया वालों से पकड़ कर
एक कौम जितना क़तर डाला
कौम के नाप का कर डाला
और फिर शहर में चर्चा हुई
वह तेरा ख़त जो मेरे नाम था
लोग कहते हैं
कि मजहब के बदन पर
वह बहुत ढीला लगता
सो ख़त की इबारत को उन्होंने
कई जगह से फाड़ लिया था ....

और आगे तू जानता
कि वे कैसे माथे
जिनकी समझ के नाप
हर अक्षर ही खुला आता
सो उन्होंने अपने माथे
अक्षरों पर पटके
और हर अक्षर को उधेड़ डाला था ....

और मुझे जो ख़त नहीं मिला
वह जिसकी मार्फ़त आया
वह दुनिया दुखी है --कि मैं
उस ख़त के जवाब जैसी हूँ ....

अमृता की यह नज्म सच में उस ख़त के जैसी है जो जाने कैसी मोहब्बत की भूख ले कर दुनिया में आता है .एक ऐसा शख्स जिसने अपनी कल्पना की पहचान तो कर ली .एक परछाई की तरह ,लेकिन रास्ता चलते चलते उसने वह परछाई देखी नहीं कभी ....उसने वह पगडंडियाँ खोज ली हैं जिन पर सहज चला जा सकता है लेकिन उस राह को खोज लेना उसके बस में नहीं है जो कल्पित मोहब्बत की राह हो ...एक अजीब सा खालीपन हो जाता है .बाहर भीड़ है दुनिया कि पर अन्दर मन खाली वह न इस भीड़ में खो सकता है .और न ही उसके खालीपन को कोई भर सकता है ..वह एक दहलीज पर खड़े हुए इंसान जैसा हो जाता है जहाँ न अन्दर आया जा सकता है और न ही उससे बाहर जाया जा सकता है ...

अमृता की वर्जित बाग़ की गाथा में एक चरित्र है सुरेंदर ...बहुत रोचक लगा उस शख्स के बारे में पढना ...खुद अमृता ने एक दिन उसको कहा था कि मैं तुम्हारी कहानी लिखना चाहूंगी तुम कोई ऐसी बात सुना दो ,जिसके तारो में तुम्हारी सारी ज़िन्दगी लिपट गयी हो ...

सुरेंदर अमृता जी के मुहं से यह सुन कर कुछ देर खामोश हो गया .फिर कहने लगा ...कि एक कहानी सुनाता हूँ दीदी आपको .....एक आदमी मोटर साईकल पर कहीं जा रहा था .रास्ते में वह किसी आदमी से टकरा गया उस दूसरे बन्दे को कोई जख्म नहीं आया पर थोडी सी खरोंच लग गयी ...उसने उठ कर उस मोटर साईकल वाले को पकड़ लिया और पीटने लगा ..जब मारते मारते थक गया तो जहाँ वह मोटर साईकल वाला खडा था वहां एक लाइन उसके चारों तरफ खींच दी ..और कहा इस से बाहर मत आना ..बस वहीँ खड़े रहना ...
और वह दूसरी तरफ इंट कर उसकी मोटर साईकल को तोड़ने लगा ..पहले उसकी लाईट तोडी फिर शीशा लकीर में खडा आदमी कुछ हँसा ..मोटर साईकल तोड़ने वाले ने एक नजर उसको देखा फिर उसकी मोटर साईकल का पैडल तोड़ दिया ..लकीर में खडा आदमी फ़िर हंसा उसने अब उसकी मोटर साईकल का हेंडल तोड़ दिया
वह मोटर साईकल तोड़ने वाला बन्दा हैरान कि यह हँस क्यों रहा है ..वह जितना हँसता वह और जोर से उसकी मोटर साईकल तोड़ने लगता ...आखिर उस से रहा नहीं गया ..उसने उस से पूछा कि मैं तो तेरा नुकसान कर रहा हूँ तू हँस क्यों रहा है ? देख मैंने तेरी मोटर साईकल का क्या हाल कर दिया है ?
वह लकीर में खडा हुआ आदमी कहने लगा कि मैं इस बात पर हँस रहा हूँ कि जब तू मोटर साईकल तोड़ने में ध्यान देता था तो मैं आहिस्ता से अपना पैर लकीर के बाहर निकल लेता था ..
सुरेंदर अमृता से यह कहानी सुना कर बोला कि वह लकीर में खडा हुआ आदमी मैं हूँ ..जो ज़िन्दगी के कीमती बरस टूटते हुए देख रहा हूँ ...बस इसको टूटते हुए देखते रहता हूँ ,,कभी कभी हँस भी लेता हूँ ...जब तोड़ने फोड़ने वाले की नजर उस तरफ होती है तो अपना पैर लकीर से बाहर कर लेता हूँ ...
अब तुम मुझ पर क्या कहानी लिखोगी ....अमृता ने सुन कर कहा ..अब कुछ न कहो ..आगे कहने को कुछ नहीं रहा ...हम सब इसी तरह की दहलीज पर खड़े हैं ..जो खुद को भरम भुलावे में उलझाए रखते हैं ......और ज़िन्दगी को जीते रहते हैं ...कभी हँसते हुए .कभी ....बस यूँ ही ....

Wednesday, April 1, 2009

मैंने दोस्ती का
ज़राबख्तर पहन लिया है
और नंगे बदन को
अब कुछ नहीं छूता
न दुश्मन का हाथ छूता है
न मेरे दोस्त की बाहें

मैंने दोस्ती का
ज़राबख्तर लिया है
मैं खुश हूँ ,
पर आप क्यों पूछते हैं
कि कुछ खुशियाँ
इतनी उदास क्यों होती है ?

अभी कुछ उड़ती चिडियाँ
मेरे माथे पर बैठ गयी थी
शायद ज़राबख्तर को
एक पेड़ की हरियाली समझ कर
पर लोहे के पत्तो को चोंच मारकर
अव अभी चिचियाई थी
और मेरे माथे से उड़ गयी हैं

बावरी चिडियां
ज़राबख्तर भी कभी
चिडियों से डरा है ?
पर शायद कोई चोंच
मांस पर भी लगी थी
मेरे माथे का मांस
कुछ दुखता सा लगता है
वक़्त ने अब गले से
हर वस्त्र उतार दिया है
सिर्फ तीन जोड़े ही थे
एक भूत का
एक वर्तमान का
और एक भविष्य का
और नंगा वक़्त
अब कोने में खडा
कुछ लजाया सा लगता है
या उसकी नंगी पीठ पर
यह जो कुछ सिसकता है
यह मेरी आँखों का अक्स है ?
या उसने अपनी नहीं
मेरी नग्नता को पीया है ?
पर मैं ....
मैं तो इस समय नग्न नहीं
मैंने दोस्ती का ज़राबख्तर पहन लिया है --

@विदु जी
ओम् जी यहाँ "ज़राबख्तर '"ही है और इसका मतलब होता है "कवच ."..अमृता की यह नज्म बेहद पसंद है मुझे ..इतने गहरे अर्थ लिए और अपनी बात इस तरह से सिर्फ़ वही कह सकती हैं ......