Friday, May 22, 2009

आज की कविता अमृता प्रीतम के आखिरी दिनों में लिखी गयी कविता में से हैं ...अमृता अपने सपनों पर बहुत विश्वास करती थी ,और उनके अर्थो में ज़िन्दगी के मायने तलाश लेती थी .. अपने
देखे कई सपनों को उन्होंने नज्मों और कहानी में ढाल लिया ...हर सपना जैसे ज़िन्दगी को नए अर्थ दे जाता था ....इस कविता में उनकी तौसिफ से हुई बात कविता के रूप में हैं .पकिस्तान से आने के बाद भी उनकी रूह वहीँ रमती थी , न वह मंटों को भूली ही फैज़ को ..इस में किस शिद्दत से उन्होंने न केवल उन्हें याद किया है वरन बंटवारे के उस दर्द का एहसास भी करवा दिया है .....इसी कविता में लिखी पंक्तियाँ बहुत कुछ अनकहा भी कह गयीं हैं ......

वह आई थी ....
वह आई थी
शिनाख्त के कागजों पर मोहरें लगवाती हुई
और सफर के लिए
उँगलियों पर गिने जा सकने योग्य
दिनों की मोहलत मांग कर ....

मैंने उसको बाहों में भर लिया
तो सूरज अस्त होने को था --
जो आलते की एक मुट्ठी
मेरी मुंडेर पर छिडकता
उसको मेरे हवाले करता हुआ

आसमान से गुजर गया ....


उसने सिर पर ओढे हुए
काले दुपट्टे को
कंधे पर रख लिया
और चाय के गर्म घूंट लेती हुई
इत्मीनान से बैठ गयी ..


उस वक़्त मैंने
अपने हाथो पर पड़ी
वक्त की सलवटों को देखा
कहा --अच्छा हुआ ,तू गयी
अब वक़्त बहुत बाकी नहीं रहा

कहने लगी-- यह क्या है !
यह मिटटी की रेखा
पार करने के लिए
निगोडी इजाज़त थी
कि मिलती ही नहीं थी ..
मेरे पल्लू में किताबें थी
और यह किताबें शिनाख्त नहीं बनती
न मेरी शिनाख्त ,न तेरी ---

वहां एक सख्त सी आवाज़ थी
जो पूछने लगी --
उस पार रहने का ठिकाना क्या होगा ?
तो मैंने तेरा नाम ले लिया
आवाज़ कहने लगी --एक नाम से क्या होगा ,
कुछ और नाम भी लो !

मैंने कहा --
यह सौ नामों से एक बड़ा नाम है
पर उनके कान थे
जो कुछ सुनते नहीं थे
खुदा खुदा करके कहीं मोहरे लगीं
तो आना हो सका
फिर भी रास्ते में
दो -दो जिरहगाहों से गुजरना पड़ा ...

मैंने जब काले अंगूरों की प्लेट
उसके सामने रखी
तो हैरान सी कहने लगी --
इतने ताजे और काले अंगूर !
ये किस मौसम के हैं ?
मैंने कहा इस जमीन पर
कई मौसम एक साथ चलते हैं
कुछ मीलों का फासला
तो महजब की तरह
मौसम भी बादल जाता है

और पूछा ,यह बताओ
कि एक गीत था
लाहौर शहर का ऊँचा बुर्ज
नीचे उसके बहता दरिया
बदन रगड़ रगड़ कर हसीनाएं नहाती हैं
और गुरु का नाम लेती हैं
उस दरिया का क्या हाल है
और उस गीत का ?

कहने लगी ---
वे पानी दरिया के किनारों से
कब के बह चुके हैं
और गुरु का नाम ?
वह भी कबसे कुफ्र हो चूका
मैंने कहा हाय अल्लाह !
गुरु मुर्शिद का नाम भी
कभी कुफ्र हुआ है ?
फिर पूछा ---
एक रफूगर होता था
फटी हुई धरती को सिलता और रोता ,
--वह मंटो ?
कहने लगी
होता था ,पूरा हो गया है ..
मैंने कहा --और वह
जो नीम अँधेरी राहों में
मारे जाने वालों कि बात कहता ,
वह फैज़ ?
कहने लगी क़्त की याददाशत बस इतनी होती है
एक बरस --मुश्किल से दो
और फिर शहरे खामोशां---

और वह ?
में कुछ और कहने लगी थी
कि तौसिफ ने शहरे खामोशां कहा
तो मेरे बदन में कहीं
कुछ दीये से जलने लगे ----
शायद कुछ कब्रों पर रखने के लिए ...

अमृता की यह नज्म न जाने कितनी बातें अपने अन्दर समेटे हुए हैं ...लाहौर शहर का ऊँचा बुर्ज ,इधर से उधर जाने की सिर्फ़ एक लकीर ,जो कई मोहरों की मोहताज हैं ...फैज़ ,मंटों की यादों की खुशबु ..और फ़िर शहरे खामोशां ..यही अंदाज़ जो अन्दर रूह तक खामोश कर जाता है ...सच में कहीं बदन में दीये जलने लगते हैं ,जिसकी आंच को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है ......


Thursday, May 14, 2009

अमृता के लिखे ने हमेशा आम इंसान की भावनाओं ,वहां के माहौल को इस तरह से अपनी कलम से लिखा है कि हर किसी को वह अपने ही घर की .... कहानी लगती है ...वह परिवार मध्यवर्गी हो या चाहे है सिर्फ़ हर किसी को उस में अपना ही अक्स नजर आता है ...उनके उपन्यास एक खाली जगह से आज की कड़ी के लिए कुछ पंक्तियाँ .जिनको मैंने कई बार पढा और हर बार मुझे उस में एक नया अर्थ मिला ...

" निम्न मध्य श्रेणी के घरों की एक ख़ास गंध होती है ,चारपाइयों के नीचे रखे हुए ट्रंकों में और टीन के डिब्बे एक तरह हर समय घर में छिप कर बैठी रहती है और कीलों पर लटकते हुए मटमैले कपडों में ,राम -कृष्ण के और हनुमान के कैलेंडरों में तरह घर की दीवारों को हथिया कर निशंक खड़ी हुई भी ... "

एक सुख ,सिर्फ एक तरफा ,विचार की गुलामी का सुख होता है ,जहाँ सब कुछ इकहरा होता है ,रिश्ते का रथ भी इकहरा .और इंसान के अस्तित्व का अर्थ भी इकहरा ..कोई भी रिश्ता जब बाहरी चीजों के सहारे खडा होता है ,जैसे मजहब के दौलत के या बने बनाये कानून के सहारे उसको कभी मन की पीडा का वरदान नहीं मिलता है .गुलामी का सुख मिलता है पर स्वंत्रता की पीडा नहीं मिलती ..

हर लड़की विवाह की पहली रात जिस कमरे में दाखिल होती है ,कभी उस कमरे का मालिक उसके स्वागत के लिए वहां नहीं होता है .और वह लड़की एक अपरिचित कमरे में एक दखलंदाजी की तरह कदम रखती है ..

शायद जिस समय जिस्म की आग जलती है ,तब सिर्फ आग के जलने की होती है ,और किसी चीज की नहीं और शायद तब सब कुछ उस में भस्म हो जाता है ..

कुछ विचार केवल गंध के समान होते हैं जिन्हें हाथ से पकड़ कर किसी को दिखाया नहीं जा सकता है हर समय होते भी नहीं ,मेह की बूंद पड़ते ही स्वयं आ जाते हैं ।घरों के कोनों में गुच्छा से हो कर बैठ जाते हैं और फ़िर धूप के समय जाने कहाँ चले जाते हैं ....

कुछ फूल किसी कब्र पर चढ़ने के लिए उगते हैं ----शायद मैं भी !
हवन की अग्नि हाथ में एक रिश्ता थमा सकती है ,पर उसकी लौ मन के अँधेरे कोनों तक कभी पहुँच नहीं पाती और वे कोने किसी भी रिश्ते की हद से बाहर रह जाते हैं ..
कोई ऐसी खबर भी सच्ची हो सकती है ,जो अखबार के बाहर रह जाए ...इंसान के मन को अखबार की तरह साधारण आँखों से नहीं पढा जा सकता है ..

उपन्यास एक खाली जगह से ली गयीं यह पंक्तियाँ घर ,रिश्ते की नाजुकता का उसी बखूबी से ब्यान करते हैं जितना ज़िन्दगी खुद सच से रूबरू होती है .....

मैं ...

बहुत समकालीन है
सिर्फ एक "मैं "मेरा समकालीन नहीं
"मैं "बिना मेरा जन्म
पुण्य की थाली में पड़ा
अपराध का एक शगुन है
मांस में बंदी हुआ
मांस का एक क्षण है

और मांस की हर जीभ पर
जब भी कोई लफ्ज आता
खुदकशी करता
जो खुदकशी से बचता
कागज़ पर उतरता
तो कत्ल होता है
और एक धुंआ हवा में तैरता है
और मेरा "मैं "
अठवान्सें बच्चे की तरह मरता है
क्या किसी दिन यह मेरा "मैं "
मेरा समकालीन बनेगा ?

Wednesday, May 6, 2009

पिछली कड़ी में " कलम मेरी कुम्हारिन हुई " में कुछ अमृता जी कि लिखी पंक्तियाँ जो मुझे विशेष रूप से पसंद है वह मैंने वहां पोस्ट की ,पर देखा हर किसी को किसी न किसी पंक्ति ने छुआ ,अमृता का लिखा यही असर करता है ,कि व्यक्ति विशेष अपने आस पास खुद को उसी से जुड़ा हुआ महसूस करता है ....आज इसी कड़ी में कुछ और असर दिल पर अपनी छाप छोड़ जाने वाली पंक्तियों का जिक्र कुछ इन्हीं पक्तियों की तरह ...

जीने लगो
तो करना
फूल ज़िन्दगी
के हवाले
जाने लगो
तो करना
बीज धरती के हवाले

अमृता ने क्या कब हवाले कर दिया अपने लिखे के जरिये वह जो पढ़े समझे वही जाने ..

उनकी कहानी पांच बरस लम्बी सड़क से कुछ पंक्तियाँ है ...चिंतन की माखी डंक मारती ,लेकिन शहद भी इकठ्ठा करती है ..सड़कें वहीँ की वहीँ रहती है ,सिर्फ राही गुजर जाते .राही भी सिर्फ चलते हैं ,पहुँचते कहीं नहीं ..
धरतीकी भांति मन के सफ़र की सड़क भी गोल होती है ,अपने से चलती है अपने तक पहुंचती है
चिमटे से कोयला तो पकडा जा सकता है ,पर आग की लपटें नहीं पकड़ी जा सकती ,आग की लपट सिर्फ आग की लपट से ही पकड़ी जा सकती है ..

यहाँ अगर किसी को चलना है तो किसी और से पैर ले कर चलता है ..पहला दूसरे से .दूसरा तीसरे से ,तीसरा चौथे से ,उधार पैर ले कर अपाहिज हो कर ..

कहानी सड़क नंबर ५ से ..


ताकत ,जब इंसान अपन भीतर से पाता ,तो उसको इस तरह से प्यार करता है जैसे कोई महबूबा को प्यार करता है .पर जब अपने भीतर से पाने की जगह वह दुनिया से पाता है ,तो उसको इस तरह से प्यार करता है जैसे कोई वेश्या से प्यार करता है
कोई रिश्ता शरीर पर पहने हुए कपडे की तरह होता है जो कभी भी शरीर से उतरा जा सकता है ,पर कोई रिश्ता नसों में चलने वाले लहू की तरह होता है जिसके बगैर इंसान जीवित नहीं रह सकता है ..
और कोई रिश्ता शरीर पर पैदा हुई खुजली की तरह होता है ......

उपन्यास (" धरती सागर और सीपियाँ )

मनुष्य को समाज चाहिए ,लेकिन समाज को मनुष्य नहीं चाहिए ..

सड़क नम्बर ५ से

सारी दुनिया कपडों में बंटी हुई है ..धरती के टुकड़े भी भेसो से पहचाने जाते हैं ,अपने अपने झंडों से ..और उनकी रक्षा भी मनुष्य नहीं करते ,वर्दियां करती है .भला कहीं सचमुच का मनुष्य सचमुच के मनुष्य को मार सकता है ? यह सिर्फ वर्दियों .पोशाकों और झंडों की लड़ाई है .
ज्ञान को धारण करना शिव के सामान सिर पर गंगा धारण करने के बराबर है ,हम सब रेत को बुहार रहे हैं ...यह और बात है कि कोई हल जुआ ले कर रेत बुहारता है ,कोई तराजू बाट लेकर और कोई कागज कलम ले कर .

उपन्यास यात्री से ली गयी पंक्तियाँ, क्या यह आज के वक़्त के सच को उजागर नहीं करती क्या ?

आज और कल में एक गरीबी का लम्बा फासला होता है जो कई बार एक जन्म में तय नहीं होता ,पर समझ की हद में आ कर कई बातें ऐसी भी होती है जो समझ के परे होती हैं ....घर बदल सकते हैं ,पर इस से क्या होता है ..कहीं भी जाओ ,वही घरों के कोने होते हैं और वही कोनों के अँधेरे .और वही अंधेरों में लटकने वाले सवाल ....
कई बातें ऐसी होती है ,जिन्हें शब्दों की सजा नहीं देनी चाहिए ..देखा जाए तो यह धरती मजबूरियों का लम्बा इतिहास है
दुर्योधन की भरी सभा में द्रौपदी ने पूछा था कि युधिष्टर जब स्वयं को हार चुके ,तब मुझे दांव पर लगाने का उन्हें क्या अधिकार था ? और यह सवाल हजारों सालों से हवा में खडा हुआ है ..

एतराज़ का सम्बन्ध कानून से होता संकोच का मन से ..
यह युग का अंतर है .आज की मोहब्बत को कोई हवन कुंड नहीं कहता .आज के राक्षसों को कोई राक्षस नहीं कहता है .आज की भलाई को कोई वरदान नहीं कहता ..आज की बुराई कोई कोई श्राप नहीं कहता है ...
खामोशी का दोष बहुत बड़ा और बहुत दूर तक फैला हुआ है ,इंसान के बिस्तर से दुनिया के राजसिहासन तक ....
कई सवाल सदियों से हवा में खड़े हुए हैं ..पर इंसान सदियों से चुप है ..
इन गलत राहो पर चलने के लिए इंसान को हिम्मत नहीं चाहिए ,इन पर न चलने के लिए हिम्मत चाहिए ..
अगर भगवान पत्थर का बनाया जा सकता है .तो इन्साफ क्यों नहीं ! जबकि वही तो सच होगा ..
जीभ सिर्फ हुकोमतों की होती है ,इन्सान तो कब का चुप है ...

उपन्यास यह सच है
से यह पंक्तियाँ न जाने कितने सवाल जहाँ में छोड़ जाती है .....और तब एक सोच पैदा होती है ...

भारत की गलियों में भटकती हवा
चूल्हे की आग को कुरेदती
उधार लिए अन्न का एक ग्रास तोड़ती
और घुटनों पे हाथ रख कर
फिर उठती है ..

चीन के पीले
और जर्द होंठों के छाले
आज बिलख कर
एक आवाज़ देते हैं
वह जाती और हर एक गले से सख्ती
और चीख मार कर वियतनाम में गिरती है

श्मशान घरों में से एक गंध सी आती
और सागर पार बैठे
श्मशान घरों के वारिस
बारूद के इस गंध को
शराब की गंध में भिगोते हैं
बिलकुल उसी तरह ,जिस तरह
कि श्मशान घरों के दूसरे वारिस
भूख की गंध को तक़दीर की गंध में भिगोते हैं

और इजराइल की नई सी माटी
या पुराने रेत अरब की
जो खून में भीगती
और जिसकी गंध
खामखाँ सहादत के जाम में डूबती

छाती की गलियों में भटकती हवा
यह सभी गंधे सूंघती और सोचती
कि धरती के अनगन से
सूतक की महक कब आएगी
कोई इडा - किसी माथे की नाडी
----कब गर्भवती होगी ?
गुलाबी मांस का सपना --
----आज सदियों के ज्ञान से
वीर्य की बूंद मांगता है .....

अपने आस पास के देशों और माहौल में यही सब तो आज भी हम देख रहे हैं ..चाहे वह स्वात घाटी हो या नेपाल का कोई कोना या श्रीलंका का जंगल ..सब किसी आस में है ....