हर कोई कह रहा है
कि वह नही रही
मैं कहता हूँ
वह है
कोई सबूत?
मैं हूँ
अगर वह न होती
तो मैं भी न होता ....
इमरोज़...
इमरोज़ के इन्ही लफ्जों का सच ही सबसे बड़ा सच है .,अमृता तो यही है .कहाँ वह दूर हो पायी है वो हमसे ...आज के दिन उनको याद करते हैं उन्ही के रूमानी लफ्जों में बुनी कुछ कविताओं से जरिये से ..हर कविता इश्क की गहराई को छू जाती है ,हर लफ्ज़ एक नया अर्थ दे जाता है ....
एक गुफा हुआ करती थी --
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजूओं में ले कर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह कसम !
यही महक थी -
जो उसके होंठो से आई थी -
यह कैसी माया .कैसी लीला
कि शायद तुम भी कभी वह योगी थे
या वही योगी है --
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूँ --और वही महक है ...
और यह महक इश्क की थी जिसे हर प्यार करने वाले ने अपने दिल में बसा ली ..
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के उपर उभर आयीं
केसर की लकीरें
सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें
पर तकदीरों का लिखा कौन पढ़ पाया न ..साहिर का अमृता के लिए प्यार भी उनके लफ्जों से ब्यान होता रहा ...
तुम आ रही हो जमाने की आँख से बच कर
नजर झुकाए हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने क़दमों की आहट से झेपती,डरती
ख़ुद अपने साए की जुंबिश से खौफ खाए हुए ..
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मैं फूल टांक रहा हूँ तुम्हारे जूडे में
तुम्हारी आँख मुसरत से झुकी जाती हैं
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
जुबान खुश्क में आवाज़ रुकती जाती हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
और अमृता भी अपने लफ्जों में उस मोहब्बत का जवाब देती रहीं ..
कई बरसो के बाद
अचानक एक मुलाकात ,
हम दोनों के प्राण
एक नज्म की तरह कांपे..
सामने एक पूरी रात थी ..
पर आधी नज्म
एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज्म
एक कोने में बैठी रही ....
फ़िर सुबह सुबह --
हम कागज के फटे हुए
टुकडों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में
उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाहँ में
मेरी बाहँ डाली ..
और हम दोनों
एक सेंसर की तरह हँसे
और कागज को
एक ठंडी मेज पर रख कर
उस सारी नज्म पर
लकीर फेर दी.......
लकीर फेर दी .....पर इश्क का दरिया बहता रहा ..और अपनी बात कहता रहा .. तुम कहीं नही मिलते
हाथ छु रहा है
एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है
न हाथ छोड़ता है ..
अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे के धूप का टुकडा ....
फिर वह इमरोज़ से मिली और उनके लफ्ज़ कुछ इस तरह से अपनी बात कह गए ..
यह मैं की मिटटी की प्यास थी
कि उसने तू का दरिया पी लिया
यह मैं की मिटटी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
या मैं की माटी की गंध थी
और तू के अम्बर का इश्क था
कि तू नीला सा सपना
मिटटी की सेज पर सोया |
और यह तेरे मेरे मांस की सुंगंध थी ...
और यही हकीकत की आदि रचना थी
संसार की रचना
तो बहुत बाद की बात है !!
अमृता का जीवन जैसा जैसा बीता वह उनकी नज्मों कहानियों में ढलता रहा ..जीवन का एक सच उनकी इस कविता में उस औरत की दास्तान कह गया जो आज का भी एक बहुत बड़ा सच है ..एक एक पंक्ति जैसे अपने दर्द के हिस्से को ब्यान कर रही है ..
मैंने जब तेरी सेज पर पैर रखा था
मैं एक नहीं थी--- दो थी
एक समूची ब्याही
और एक समूची कुंवारी
तेरे भोग की खातिर ..
मुझे उस कुंवारी को कत्ल करना था
मैंने ,कत्ल किया था --
ये कत्ल
जो कानूनन ज़ायज होते हैं ,
सिर्फ उनकी जिल्लत
नाजायज होती है |
और मैंने उस जिल्लत का
जहर पिया था
फिर सुबह के वक़्त --
एक खून में भीगे हाथ देखे थे ,
हाथ धोये थे --
बिलकुल उसी तरह
ज्यूँ और गंदले अंग धोने थे ,
पर ज्यूँ ही मैं शीशे के सामने आई
वह सामने खड़ी थी
वही .जो मैंने कत्ल की थी
ओ खुदाया !
क्या सेज का अँधेरा बहुत गाढा था ?
मुझे किसे कत्ल करना था
और किसे कत्ल कर बैठी थी ..
अमृता, तुम तुम थी ...तुमने ज़िन्दगी को अपनी शर्तो पर जीया ,.तुम आज भी हो हमारे साथ हर पल हर किस्से में ,हर नज्म में ..जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो अमृता तुम्हे ..
कि वह नही रही
मैं कहता हूँ
वह है
कोई सबूत?
मैं हूँ
अगर वह न होती
तो मैं भी न होता ....
इमरोज़...
इमरोज़ के इन्ही लफ्जों का सच ही सबसे बड़ा सच है .,अमृता तो यही है .कहाँ वह दूर हो पायी है वो हमसे ...आज के दिन उनको याद करते हैं उन्ही के रूमानी लफ्जों में बुनी कुछ कविताओं से जरिये से ..हर कविता इश्क की गहराई को छू जाती है ,हर लफ्ज़ एक नया अर्थ दे जाता है ....
एक गुफा हुआ करती थी --
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजूओं में ले कर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह कसम !
यही महक थी -
जो उसके होंठो से आई थी -
यह कैसी माया .कैसी लीला
कि शायद तुम भी कभी वह योगी थे
या वही योगी है --
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूँ --और वही महक है ...
और यह महक इश्क की थी जिसे हर प्यार करने वाले ने अपने दिल में बसा ली ..
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के उपर उभर आयीं
केसर की लकीरें
सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें
पर तकदीरों का लिखा कौन पढ़ पाया न ..साहिर का अमृता के लिए प्यार भी उनके लफ्जों से ब्यान होता रहा ...
तुम आ रही हो जमाने की आँख से बच कर
नजर झुकाए हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने क़दमों की आहट से झेपती,डरती
ख़ुद अपने साए की जुंबिश से खौफ खाए हुए ..
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
मैं फूल टांक रहा हूँ तुम्हारे जूडे में
तुम्हारी आँख मुसरत से झुकी जाती हैं
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
जुबान खुश्क में आवाज़ रुकती जाती हैं
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है ....
और अमृता भी अपने लफ्जों में उस मोहब्बत का जवाब देती रहीं ..
कई बरसो के बाद
अचानक एक मुलाकात ,
हम दोनों के प्राण
एक नज्म की तरह कांपे..
सामने एक पूरी रात थी ..
पर आधी नज्म
एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज्म
एक कोने में बैठी रही ....
फ़िर सुबह सुबह --
हम कागज के फटे हुए
टुकडों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में
उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाहँ में
मेरी बाहँ डाली ..
और हम दोनों
एक सेंसर की तरह हँसे
और कागज को
एक ठंडी मेज पर रख कर
उस सारी नज्म पर
लकीर फेर दी.......
लकीर फेर दी .....पर इश्क का दरिया बहता रहा ..और अपनी बात कहता रहा .. तुम कहीं नही मिलते
हाथ छु रहा है
एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है
न हाथ छोड़ता है ..
अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी
एक खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे के धूप का टुकडा ....
फिर वह इमरोज़ से मिली और उनके लफ्ज़ कुछ इस तरह से अपनी बात कह गए ..
यह मैं की मिटटी की प्यास थी
कि उसने तू का दरिया पी लिया
यह मैं की मिटटी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
या मैं की माटी की गंध थी
और तू के अम्बर का इश्क था
कि तू नीला सा सपना
मिटटी की सेज पर सोया |
और यह तेरे मेरे मांस की सुंगंध थी ...
और यही हकीकत की आदि रचना थी
संसार की रचना
तो बहुत बाद की बात है !!
अमृता का जीवन जैसा जैसा बीता वह उनकी नज्मों कहानियों में ढलता रहा ..जीवन का एक सच उनकी इस कविता में उस औरत की दास्तान कह गया जो आज का भी एक बहुत बड़ा सच है ..एक एक पंक्ति जैसे अपने दर्द के हिस्से को ब्यान कर रही है ..
मैंने जब तेरी सेज पर पैर रखा था
मैं एक नहीं थी--- दो थी
एक समूची ब्याही
और एक समूची कुंवारी
तेरे भोग की खातिर ..
मुझे उस कुंवारी को कत्ल करना था
मैंने ,कत्ल किया था --
ये कत्ल
जो कानूनन ज़ायज होते हैं ,
सिर्फ उनकी जिल्लत
नाजायज होती है |
और मैंने उस जिल्लत का
जहर पिया था
फिर सुबह के वक़्त --
एक खून में भीगे हाथ देखे थे ,
हाथ धोये थे --
बिलकुल उसी तरह
ज्यूँ और गंदले अंग धोने थे ,
पर ज्यूँ ही मैं शीशे के सामने आई
वह सामने खड़ी थी
वही .जो मैंने कत्ल की थी
ओ खुदाया !
क्या सेज का अँधेरा बहुत गाढा था ?
मुझे किसे कत्ल करना था
और किसे कत्ल कर बैठी थी ..
अमृता, तुम तुम थी ...तुमने ज़िन्दगी को अपनी शर्तो पर जीया ,.तुम आज भी हो हमारे साथ हर पल हर किस्से में ,हर नज्म में ..जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो अमृता तुम्हे ..