Saturday, January 2, 2010

मैं आसमान बेच कर चाँद नहीं कमाती ....

सारा का पहला ख़त अमृता को १६ सितम्बर १९८० में मिला उस में लिखा था ...

अमृता बाजी ! मेरे तमाम सूरज आपके
मेरे परिंदों की शाम भी चुरा ली गयी है !आज दुःख भी रूठ गया है कहते हैं ...

फैसले कभी भी फासलों के सपुर्द मत करना !
मैंने तो फासला आज तक नहीं देखा
यह कैसी आवाजें हैं जैसे रात जले कपड़ों में घूम रही है
जैसे कब्र पर कोई आँखे रख गया हो !

मैं दीवार के करीब मीलों मील चली और इंसानों से आज़ाद हो गयी
मेरा नाम कोई नहीं जानता ..दुश्मन इतने वसीह क्यों हो गए हैं
मैं औरत --अपने चाँद में आसमान का पैबंद क्यों लगाऊं !

मील पत्थर ने किसका इन्तजार किया !
औरत रात में रच गयी अमृता बाजी !
आखिर खुदा अपने मन में क्यों नहीं रहता !

आग पूरे बदन को छू गयी है
संगे मील .मीलों चलता है और साकत है
मैं अपनी आग में एक चाँद रखती हूँ
और नंगी आँख से मर्द कमाती हूँ
लेकिन मेरी रात मुझसे पहले जाग गयी है
मैं आसमान बेच कर चाँद नहीं कमाती .....

ख़त उर्दू में था .अमृता इमरोज़ की मदद से इसको पढ़ रही थी उन्होंने ख़त पर हाथ रख दिया ..और इमरोज़ से कहा ठहरो और नहीं ...और वह लड़की कह रही थी ..मैं आसमान बेचकर चाँद नहीं कमाती ..अमृता की रगों में उतरने लगी ...लगा आसमान फरोशों की इस दुनिया में यह सारा नाम की लड़की कहाँ से आ गयी ? आ गयी है तो इस दुनिया में जीएगी कैसे ?आगे लिखा था उस ख़त में ...

कदम कदम पर घूँघट की फरमाइश है ,
लेकिन मेरे नजदीक शर्म का एक अँधेरा है ........."

सारा की एक नज्म में ठीक इसी अँधेरे की तफसील है "शर्म क्या होती है औरत ! शर्म मरी हुई गैरत होती है "
इमरोज़ ख़त पढ़ रहे थे --जिस्म के अलावा मैं शेर भी कहती हूँ .शहवत में मरे हुए लोग मुझे दाद देते हैं तो मेरे गुनाह जल उठते हैं ...अमृता बाजी ! दिल बहुत उदास है ,सो आपसे बात कर ली आज कल मेरे पास दीवारें हैं और वक़्त है ...हमने तो आपकी मोहब्बत में किनारे गंवा दिए और समुन्द्र की हामी भर ली .....आँखे मुझे क्यों नापती है ?क्या इंसान के जिस्म में ही सारे राज रह गए हैं ?
मिटटी बोली लगाती है मौसम की ...सच्च है .कायनात के खातमे पर जो चीज रह जायेगी ,वह सिर्फ वक़्त होगा ...मैं अपने रब का ख्याल हूँ ,और मरी हुई हूँ ...

अमृता ने तड़प कर ख़त रख दिया और जैसे कभी खुद से कहती थी ..आओ अमृता मेरे पास आओ ..वैसे कहा आओ !सारा मेरे पास आओ ...
और सारा की एक नजम अमृता ने यूँ पढ़ी ....

अभी औरत ने सिर्फ रोना ही सीखा है
अभी पेड़ों ने फूलों की मक्कारी ही सीखी है
अभी किनारों ने सिर्फ समुन्द्र को लूटना सीखा है
औरत अपने आंसुओं से वुजू कर लेती है
मेरे लफ़्ज़ों ने कभी वुजू नहीं किया
और रात खुदा ने मुझे सलाम किया ...

अमृता के साथ मेरे दिल ने भी सारा से कहा ! आज खुदा से मिल कर मैं भी तुम्हे सलाम कहती हूँ ....

10 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत बेहतरीन ! नववर्ष की ढेरो शुभकामनाये !

डॉ .अनुराग said...

अमृता एक नज़्म थी.....जो हर मौसम में रूह से होकर गुजरती है

vandana gupta said...

nishabd hun

वाणी गीत said...

मैं औरत .....अपने चाँद में आसमान का पैबंद क्यों लगाऊं ...
मैं आसमान बेचकर चाँद नहीं कमाती ....
कदम कदम पर घूँघट की फरमाइश है ,
लेकिन मेरे नजदीक शर्म का एक अँधेरा है ........."
क्या क्या नहीं कह जाती थी अमृता ....उन्हें पढ़ती हूँ तो कई बार लफ्ज़ आँखों से दूर हो जाते हैं ...भरी जो होती है आंसुओं से ...इतना प्रेम कहाँ से जुटा लाई थी ...

aarya said...

सादर वन्दे
क्या कहें?

डॉ. मनोज मिश्र said...

कदम कदम पर घूँघट की फरमाइश है ,
लेकिन मेरे नजदीक शर्म का एक अँधेरा है ........."
bahut kuchh kh gyee ye laine.nv varsha kee anant shubh kamnaye.

rashmi ravija said...

एक एक लफ्ज़ ऐसा की रूह तक उतरता चला जाए....और सांस रुक जाए एक पल को

अबयज़ ख़ान said...

वाह... मैं औरत अपने चांद में आसमान का पैबंद क्यों लगाऊं.. मेरे पास तारीफ के लिए अल्फाज़ नहीं हैं...

निर्मला कपिला said...

लेकिन मेरी रात मुझसे पहले जाग गयी है
मैं आसमान बेच कर चाँद नहीं कमाती .....
लाजवाब प्रस्तुति। ओह अमृता आज भी तुम सब के दिलों मे जिन्दा हो। धन्यवाद्

Ivy Peck said...

This was greatt to read