Monday, February 22, 2010

राँझा -राँझा कहन्दी नि मैं आपे रांझा होई से आगे ...

पैरों की कंकड़ी निकालती ,झाड़ियों का सहारा लेती जब मैं पहाड़ की चोटी के करीब पहुँच गयी तो ऊपर से आती चिरागों की रोशनी ने जैसे मेरा हाथ थाम लिया मैंने उसका सहारा लेते हुए छोटी पर कदम रखा तो सामने वही गडरिया बाबा दिखाई दिया |उसने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा--- पहुँच गयी है !
मैंने चिरागों की रोशनी में उसकी और देखा वह कहने लगा दूध ले आया था दो बड़ी बड़ी मश्के उठा कर अभी गुफा में रखी है ,और अब लौटने लगा था |
मैं हैरान हुई कि मुझे तो रास्ते में कहीं नहीं दिखाई दिया ,फिर इतनी जल्दी कैसे पहुँच गया ,दूध की मश्के भी उतार आया .पूछा तुम कौन से रास्ते से आये बाबा ? मैंने तो तुम्हे कहीं रास्ते में नहीं देखा ?
वह हँस दिया --बेटी मेरे लिए तो सारे रास्ते पहचाने हुए हैं तुम्हे तो मैंने कुछ आसान रास्ते से आने के लिए कह दिया था ,लेकिन मैं तो खड़ी चढ़ाई से भी आ सकता हूँ और जल्दी पहुँच गया
मुझे लगा जैसे वह मेरा ही कोई पुरखा हो इस लिये आराम से उसकी बाहँ पकड़ी और कहा यह तो मैं जानती हूँ बाबा कि आज की रात यहाँ चिरागों की रात है और यहाँ कर आशिक और दरवेश अपने अपने कलाम का चिराग जलाते हैं ..लेकिन क्या यह सच है ?क्या यहाँ कई बार मीर दाद की आवाज़ भी सुनाई देती है ?
गडरिया बाबा हँस दिया कहने लगा तुम जानती हो कि लामा लोग एक बार बहुत ऊँची और बहुत सी मुशकिल पहाड़ी पर साल में इक बार जाते हैं ,जहाँ महात्मा बुद्ध की आवाज़ सुनाई देती है
मैंने कहा --हाँ बाबा सुना पड़ा तो है ,लेकिन .....
वह कहने लगा -फिर आज की रात खुद देख लेना और सुन लेना कि यहाँ मीर दाद की आवाज़ आती है ? वह न पैदा हुआ था , न यहाँ मरा है ,इसलिए यहं कोई मजार नहीं है ,कोई दरगाह नहीं है ,बस मीर दाद का आस्तना है
मैंने कहा हाँ बाबा जानती हूँ वही तो जल प्रलय के समय नुह की किश्ती में बैठा था ....
बाबा हंसने लगा ,कहने लगा चोरी का मुसाफ़िर .किसी ने उसको इस किश्ती में बैठते हुए नहीं देखा था और कहता है जो भी दुखों में किसी किश्ती का चप्पू थाम लेगा ,मैं उसकी किश्ती में बैठ जाऊँगा ..किश्ती को पार लगाने के लिए
लगा ,बाबा भी मेरी तरह एतकाद से भरा हुआ है
इतने में एक दरवेश के गाने की आवाज़ आई ,जरा दूर से चिरागों की लपट के ऊपर से तैरती हुई ....
मेरा दीन भी तू ,ईमान भी तू
मेरा इश्क भी तू ,इरफ़ान भी तू

गडरिया बाबा पूछने लगा -----तुम पहचानती हो इस आवाज़ को कि यह किसकी है ?
मैंने कहा हाँ बाबा ,पहचानती हूँ ,यह गुलाम फरीद की आवाज़ है ,जो कभी रेत थलों में ...
और मेरी बात काट कर कहने लगा मैं सब जानता हूँ ,यह बड़ी अजमतों वाला है ..रेत थल में जिस भानु पर आशिक हो गया वह मेरे ही काबिले की बेटी थी ..मेरे काबिले ने बड़ी हील हुज्जत की ,लेकिन इसकी अजमते देख कर अपनी भानु उसको दे दी .निकाह के लिए
मन में आया गडरिया बाबा के पैर छुं लूँ पर उसने मेरे झुके हुए हाथ पकड़ लिए ,कहने लगा जिसका मुर्शिद मीरदाद हो ,उसको यह शोभा नहीं देता कि कोई उसके पैरों को हाथ लगाए ,यह तो मठ वालों की जरुरत होती है जो मठों के मुजावर होते हैं
और गडरिया बाबा हँस कर जल्दी से पहाड़ की पगडण्डी उतरने लगा ...

Tuesday, February 16, 2010


जवानी आई रे
मेरे बचपन के इस गांव में
बातें उडती है
इन बहती हुई हवाओं में

वह ऊँचे ऊँचे पहाड़ों में घिरी हुई वादी थी ,जहाँ सूरज तेजी से उतर जाता है .लेकिन वहां अभी उसके सुर्ख रंग ने नदी के पानी में एक तिलस्म बिछाया हुआ था | देखा वादी के गांव की एक मासूम सी लड़की नदी के पानी से खेलती हुई यह गा रही थी .और हवा के एक झोंके से याद आया यही वह वक़्त है जो कभी मुझ पर आया था .लेकिन नहीं जानती ,वह कब मुझे छोड़ कर चला गया ,कहाँचला गया -अब लगा ,वह तो इस नदी के किनारे से बेगाना हो कर मुझसे खेल रहा है ..
तभी पास से एक गडरिया गुजरा ,मैंने रास्ते के मुसाफिर की तरह उस से दुआ सलाम कहा.... उसने कहा उस लड़की को देख रही हो वह मेरी बेटी है ,बहुत मासूम है अभी नहीं जानती कि अगर कभी उसने भी मेरी तरह दरवेशों के टीले पर जाना है तो उसका रास्ता बहुत मुश्किल है ....दुश्वार रास्ता
मुझे लगा ,मुझे इस रास्ते पर जाने वाला कोई मित्र मिल गया .पूछा ..बाबा !क्या तुम दरवेशों के टीले का रास्ता जानते हो ?
वह बदन की झुरियों तक हँस पड़ा ,पूछने लगा --तुम वहां जाने के लिए आई हो ?

मैंने कहा हाँ बाबा ,बरसों से चली हूँ वहां जाने के लिए |
कहने लगा मैं तो रोज़ जाता हूँ वहां भेड़ों का दूध ले कर लेकिन तुम्हे एक बात बताना ....खाली हाथ आई हो न ?
हाँ बाबा देखो मैं खाली हाथ आई हूँ ..
गडरिया बाबा मुझे गौर से देखता रहा और कहने लगा -तुमने शोहरत का कोई छाप छल्ला तो नहीं पहना न ?
मैंने दोनों हाथ आगे किये ,खाली उँगलियों और खाली बाहों वाले
वह फिर मेरे माथे की तरफ देखता रहा ,और पूछने लगा --कोई मगरुरी का कण तो माथे पर नहीं रखा हुआ है ना ?
मैं हँस दी और कहा --राँझा -राँझा कहन्दी नि मैं आपे रांझा होई
अब गडरिया बाबा भी हंसने लगा और कहा लोग कितना कितना भार उठाये फिरते हैं ,तभी तो टीले तक नहीं पहुँच पाते .अच्छा फिर अंजुरी आगे कर
मैंने दोनों हाथों की अंजुरी बना कर आगे की तो उसने कंधे पर डाली हुई छोटी सी मश्क से मेरी अंजुरी को दूध से भर दिया साथ ही कहा कि पीती जाओ जाओ जितना पी सकती फिर चल देना उस सफ़ेद पर्वतकी पगडण्डी पर ..
डूबते सूरज की लाली अब जाने पहाड़ों की ओट में हो गयी थी ,रास्ता बिलकुल अँधेरा हो गया और मैं पगडण्डी को पैरों से टटोलती चलने लगी
आसमान पर चाँद भी खो गया था कोई बताने पूछने वाला वहां नहीं था
इतने में दूर से आवाज़ आई आज तो शगुनों वाली रात है ...
मैंने चारों तरफ दूर तक देखा ,कोई नहीं था लेकिन आवाज़ वाले ने कहा सूरज की बेटी ने जब चाँद को देख लिया ,तो उसको चाँद का विरह सताने लगा बाप ने जब बेटी की यह हालत देखी तो इक रथ तैयार किया जिसमें बुध और शुक्र नाम के दो धोड़े बंधे हुए थे ,और बाप ने बेटी को रथ में बैठा कर चाँद के घर भेज दिया वह रात थी जब चाँद के पास सूरज की बेटी आई तो उसको गले से लगा कर वह किसी कन्दरा में चला गया
मैंने कहा तभी चाँद की फांक भी कहीं नहीं दिखाई देती और और पूछा --देवी तुम कौन हो ?जो अँधेरी रात में राह गीरों का दिल रखने के लिए यहकहानी सुनाती हो ?
वह हँस दी और कहने लगी तुमने मुझे पहचाना नहीं ?मैं सूर्य सावित्री हूँ ,वही ऋग्वेद की सूर्य सावित्री
मेरा सिर नमन से झुक गया .अब कोई आवाज़ कहीं नहीं थी ..मुश्किल पगडण्डी वाले रास्ते पर भी दोनों तरफ पेड़ उगे हुए थे कभी कभी हाथ डालने के लिए और चढ़ाई वाले रास्ते पर जरा साँस लेने के लिए ....

आगे जारी है .....