Wednesday, September 22, 2010

सन १९५८ -५९ के आस पास अमृता और इमरोज़ की  मुलकात हुई ,एक किताब के सिलसिले में जब उन्हें उसका मुखपृष्ट बनवाना था ,तब उन्हें किसी ने इन्द्रजीत चित्रकार के बारे में बताया था ,तब इमरोज़ का नाम इन्द्रजीत ही था ,आगे चल कर यह मुलाक़ात .दोस्ती में तब्दील हो गयी ,दोस्ती दिल के रिश्तों में बदल गयी और यह रिश्ता फिर उम्र भर में ..उन दिनों अमृता ने इमरोज़ के लिए काफी कवितायें लिखी ..
 अरे ! किस्मत को कोई आवाज़ दो 
करीब से गुजरती जा रही है ..........
यह गीत उन्होंने रेडियो के लिए दिवाली फीचर में लिखा था ,और लिखते समय सिर्फ इमरोज़ आँखों के सामने थे ,तब यह उम्मीद नहीं थी कि वह उन्हें मिल जायेंगे ,और उनके साथ उनके लिए खुदा के साथ रहने के बराबर था ...इमरोज़ की एक कलाकृति पर सफेद काले अंगूठे का एक चित्र है और उस अंगूठे की  रेखाओं के नीचे अमृता का चित्र है ..ऐसा लगता है देखने में जैसे अमृता जी के चित्र पर इमरोज़ ने अंगूठा लगा दिया है .और उस पर यह पंक्तियाँ लिखी हुई है ..
रब बख्शे ,न बख्शे 
उस दी रजा 
असी यार नूं  
सजदा कर बैठे ..
(रब माफ़ करे या न करे 
उसकी मर्ज़ी 
हम तो यार को 
सजदा कर बैठे  )
यह कृति अपने आप में पूरी कहानी समेटे है ,जब इमरोज़ अमृता की ज़िन्दगी में आये तो अमृता ने बहुत एहसास के साथ लिखा
उम्रा  दे कागज़ उत्ते 
इश्क तेरे अंगूठा लाया 
कौन हिसाब चुकाएगा ....

पंजाबी में एक लोक गीत है ...
सद्द पटवारी नूं ज़िन्द माहिए दे नां लावा ....
(पटवारी को बुला लो .मैं अपनी जान तेरे नाम कर दूँ )
पुराने समय में पंजाब और सारे भारत में यही चलन था इसी के चलते सारी खरीद फरोख्त होती थी ,पटवारी की मौजदूगी में दोनों पक्षों के अंगूठे लगते थे ...
अमृता ने इमरोज़ के लिए लिखा उम्र के इस कागज पर तेरे इश्क ने अंगूठा लगा दिया ,अब कौन हिसाब चुकाएगा...और इन्ही पक्तियों को इमरोज़ ने अपनी तुलिका से कैनवास पर उतार दिया .लेकिन जब अमृता जी के उम्र के कागज़ पर इमरोज़ के इश्क ने अंगूठा लगाया तो वहां कोई पटवारी मौजूद नहीं था .न कोई धार्मिक रस्म .न कोई क़ानूनी विधान ......न कोई समाज की रस्म ....सिर्फ गैर जिम्मे दार आदमी को मजहब ,कानून की जरुरत होती है ,जिम्मेदार आदमी इन दोनों से मुक्त होता है ....
पहले शादियाँ आदमी तय करते थे ,अब अखबार तय करते हैं ,तब आदमी से आदमी अधिक जुडा था ,आज इंसान अखबार से जुडा है ...आज आपसी रिश्तों में कमी आ गयी है  ,एक दूसरे से कोई सरोकार नहीं रहा ,अखबार से सरोकार अधिक हो गया है ..ऐसी बात कहने वाले इमरोज़ समाज से गहरा सरोकार रखते हैं यही महसूस होता है ....
उन्होंने अपनी बात एक शेर के जरिये कही ...
या तो मौजों के सनाशां न बनो 
या किनारों को बहा कर गुजरो ........

Wednesday, September 1, 2010


अमृता जी के जन्मदिन पर इमरान खान जी की तरफ से इमरोज़ के संग की गयी एक ख़ास मुलाकात .जो उन्होंने  कल हमें अमृता जी के जन्मदिन पर इस ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए भेजी .शुक्रिया इमरान जी ....
 
 
आम लोगों के लिए अमृता प्रीतम इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन वे आज भी जिंदा हैं। हंसती-बोलती। उन्हें देखने जाना होगा साऊथ दिल्ली के हौज खास इलाके में। जहां मशहूर आर्टिस्ट इमरोज अमृता को जी रहे हैं। शायराना लफ्जों में कहें तो एक जिस्म में दो शख्स जिंदा हैं। इमरोज की जुबान से बोलतीं अमृता का अहसास उस घर की दरो-दीवार में यूं समाया हैं जैसे अमृता-इमरोज के भीतर मुहब्बत का समुन्दर।  इमरान खान ने की इमरोज से खास मुलाकात, जिसमें इन दो शख्ससीयतों के कई पहलु दिखाई दिये। पेश हैं इस मुलाकात के चंद अहम हिस्सों के लफ्ज।
आप कलाकार हैं, पर आज तक आपने अपनी कोई पेंटिंग बेची नहीं और ना ही कोई एग्जीबिशन लगाई, ऐसा क्यों?
मैं आर्टिस्ट हूं यह बात मुझे पता है। मैं ये लोगों को क्यों बताऊं कि मैं आर्टिस्ट हूं। जिसे मेरी पेंटिंग पसंद होगी वो खुद आकर देख लेगा। ना मुझे शौक है कि लोग मेरे बारे में जानें और ना ही अमृता को। और हां अगर हम एग्जीबिशन लगाएं तो ऐसे लोग आएंगे जो हमें जानते ही नहीं, इसका क्या मतलब? ये सब फिजूल है। मुझे पता होना चाहिए कि मैं आर्टिस्ट हूं और किसी को पता नहीं तो भी कोई बात नहीं। मैं और अमृता दोनों इसी तरह ही रहे हैं। हर लेखक की किताब पर पहले 3-4 पेज की भूमिका होती है, जो दूसरे लोगों ने लिखी होती है। जो सीधा लेखक को ओब्लाइज करती हैं। अमृता की लगभग 75 किताबें छपी हैं पर उसकी एक भी किताब पर मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा। हम सिर्फ अपने लिए जिए हैं। मैं अमृता को जानता हूं, अमृता मुझे जानती है। दुनिया में एक ही आदमी काफी है आपको जानने के लिए। सब समाज का रोना रोते हैं, आखिर समाज है कहां? आम आदमियों को ही आपने समाज का नाम दे रखा है। मैं ही अमृता का समाज हूं और वो मेरी समाज है। बाकी किसी से हमें कुछ नहीं लेना।
आपका रहन-सहन कैसा था?
हम सादे जीवन में ही यकीन रखते हैं। मैं और अमृता किसी को खाने पर नहीं बुलाते। ये तो हमारी मर्जी है कि हमें किसी को बुलाना है या नहीं। हम दोनों एक ही सब्जी से खाना खाते हैं। अगर किसी को बुलाते हैं तो उसके लिए सब्जी भी बनानी पड़ेगी। क्या जरूरत है ये सब करने की। लोग नौकर क्यों रखते हैं, क्योंकि वह उन्हें आराम देते हैं। वह उनका ध्यान रखते हैं। मैं अपने कमरे में पेंटिंग बना रहा होता हूं। अमृता अपने कमरे में लिख रही होती है तो हमें नौकर का ध्यान रखना पड़ता, कि वो क्या कर रहा हैं, इसलिए हम नौकर नहीं रखते। अगर औरत घर में रहती है तो वो खाना क्यों नहीं बनाती। अमृता इनती बड़ी लेखिका है, आखिरी समय तक उसने खुद खाना बनाया है। मैं उसके साथ रसोई में काम करता हूं, दोनों मिल के सारा काम करते हैं। जो काम दो घंटों में होना था, वो एक घंटे में हो जाता है। हमें नहीं लगता लोगों को घर बुलाना जरूरी है। हां अगर हम खाना खा रहे हैं और कोई आ जाए तो वह भी हमारे साथ खा ले, जो हम खा रहे हैं।
आप खुदा में यकीन रखते हैं?लोग मंदिर, मस्जिद या गुरद्वारे क्यों जाते हैं? क्योंकि उन्होंने भगवान से कुछ मांगना होता है। क्या भगवान किसी का नौकर है? वह किस-किस के काम करता रहेगा। आप भगवान के पास सिर्फ मांगने जाते हैं। हमें किसी चीज की जरूरत नहीं, हम नहीं जाते। आप ऐसा क्यों कहते हैं कि अगर हमारा ये काम हो जाए तो हम हवन या और कुछ करवाएंगे, आप सीधा-सीधा भगवान को रिश्वत दे रहे हैं। अरे भगवान को तो छोड़ दीजिए। कोई कहता है भगवान मेरी शादी करवा दो। कोई कहता है मुझे पास करवा दो। और तो और चोर कहता है कि मेरी चोरी पर पर्दा डाले रखना। वो ये नहीं कहता कि मेरी चोरी की आदत छुड़वा दो। अगर आप सोचते हैं कि खुदा है तो आप सब चीजें उस पर छोड़ देते हैं। अगर सोचते हैं कि नहीं है तो आप दो तरीकों से सोचते हैं। लोग कहते हैं कि सब कुछ भगवान की मर्जी से ही होता है। तो अगर किसी का मर्डर होता है, तो फिर वो भी भगवान की मर्जी से हुआ होगा। तो उसको क्यों पकड़ते हो? भगवान को पकड़ो जाकर। मर्डर पर आकर बात बदल जाती है।
आप और अमृता मुशायरों में नहीं जाते, क्यों?मुशायरा और मूड का होता है, हम उसमें फिट नहीं बैठते। मैं कभी मुशायरे में नहीं जाता, शायद अमृता एक बार गई है। मुशायरा सब शायरों को पसंद भी नहीं। शायर पर्दे के पीछे शराब पी रहे होते हैं और फिर शायरी शुरू कर देते हैं। पहले तो छोटे-मोटे शायरों को पढ़वाया जाता है, बड़े शायर तो आखिर में आते हैं, ताकि भीड़ बनी रहे। ऐसा करने की क्या जरूरत है, क्यों न उन अच्छे शायरों की ही ज्यादा नज्में सुन ली जाएं।
आपने अमृता जी के साथ अपना पहला जन्मदिन मनाया था, कैसा महसूस हुआ?
अच्छा लगा। वो तो बाइचांस ही मना लिया। उसके और मेरे घर में सिर्फ एक सड़क का फासला था। मैं उससे मिलने जाता रहता था। उस दिन हम बैठे बातें कर रहे थे, तो मैंने उसे बताया कि आज के दिन मैं पैदा भी हुआ था। वो उठ कर बाहर गई और फिर आकर बैठ गई। हमारे गांव में जन्मदिन मनाने का रिवाज नहीं है, अरे पैदा हो गए तो हो गए। ये रिवाज तो अंग्रेजों से आया है। थोड़ी देर के बाद उसका नौकर केक लेकर आया, उसने केक काटा थोड़ा मुझे दिया और थोड़ा खुद खाया। ना उसने मुझे हैप्पी बर्थडे कहा, ना मैंने उसे थैंक्यू। बस दोनों एक-दूसरे को देखते और मुस्कुराते रहे।
आप लगभग 40 सालों तक एक साथ रहे, फिर भी कभी प्यार का इजहार नहीं किया?
इजहार करने की जरूरत क्या है। अगर कोई बिना कुछ बोले ही सब कुछ बोल दे तो क्या जरूरत है। 40 सालों में हमने एक-दूसरे को आई लव यू नहीं कहा। प्यार है तो है, बताने की क्या जरूरत है। अगर मुझे कोई खूबसूरत लगता है तो लगता है। उसको खुद-ब-खुद अहसास हो जाएगा। अगर हम किसी को कहते हैं कि तुम मुझे खूबसूरत लगती हो, इसका मतलब कि हम कहना चाहते हैं कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं और तुम भी मुझे प्यार करो। प्यार को इजहार की जरूरत नहीं, इजहार तो कोशिश है प्यार बनाने की।
अमृता जी खाना बनाना कब शुरू किया था?
अमृता ने पहले कभी खाना नहीं बनाया था पर जब हम इक्ट्ठे रहते थे तो उसने खाना बनाना शुरू किया और आखिर तक बनाती रही। उसने मुझे बताया नहीं कि मैं खाना बनाऊंगी, बस बनाना शुरू कर दिया, जब आपकी आखें सब कुछ बोल रही हों तो लबों से बोलने की जरूरत नहीं होती। मुझे भी उसके साथ काम करना अच्छा लगता है। आम घरों में क्या होता है आदमी अखबार पढ़ रहा होता है और औरत अकेले खाना बनाती है। वो सिर्फ ऑर्डर करता है, कभी चाय लाओ तो कभी पानी। मदद करने किचन में नहीं जाता। वो तो सिर्फ हुक्म देता रहता है। औरत जिस्म से भी बहुत आगे है और ऐसे लोगों को पूरी औरत नहीं मिलती। पूरी औरत उसी को मिलती है जिसे वो चाहती है।
उनका कमरा घर की शुरुआत में और आपका आखिर में, ऐसा क्यों?
मैं एक आर्टिस्ट हूं और वो लेखिका। पता नहीं कब वो लिखना शुरू कर दे और मैं पेंटिंग करना। इतना बड़ा घर होता है। फिर भी पति-पत्नी एक बिस्तर पर क्यों सोते हैं? क्योंकि उनका मकसद कुछ और होता है। हमारा ऐसा कुछ मकसद नहीं, इसलिए हम अलग सोते हैं। सोते वक्त अगर मैं हिलता तो उसे परेशानी होती और अगर वो हिलती तो मुझे। हम एक-दूसरे को कोई परेशानी नहीं देना चाहते। आज शादियां सिर्फ औरत का जिस्म पाने के लिए होती हैं। मर्द के लिए औरत सिर्फ सर्विंग वूमैन है, क्योंकि वह नौकर से सस्ती है। ऐसे लोगों को औरत का प्यार कभी नहीं मिलता। आम आदमी को औरत सिर्फ जिस्म तक ही मिलती है। प्यार तो किसी किसी को ही मिलता है।
अब आपका रहन-सहन कैसा है?
अब मैं घर में ही रहता हूं, क्या जरूरत है बाहर जाने की। कविताएं लिखता हूं, पेंटिंग करता हूं, खुश हूं अपनी जिंदगी से। हां कभी-कभी सब्जी लेने जरूर चला जाता हूं।
आज कल के लोगों के बारे में क्या कहेंगे?आज कल कोई जिंदा नहीं है। सब डेड हो चुके हैं। जो सॉरी नहीं कहता वो मर चुका है क्योंकि जिंदा आदमी कभी न कभी एक बार तो अपनी गलती का अहसास करता ही है। गुजरात दंगों में एक हजार से ज्यादा मुसलमान मारे गये पर आज तक गुजरात के किसी एक भी व्यक्ति ने गलती नहीं मानी, क्यों? क्योंकि वो मर चुके हैं। आज कोई भी मजहब इंसान नहीं बना रहा, सब अपने इस्तेमाल के लिए आदमी बना रहे हैं। कोई ये नहीं कह सकता है हम दूसरों से अच्छे हैं क्योंकि सब वहशी हो चुके हैं।