Tuesday, August 30, 2011




ज़िन्दगी के उन अर्थों के नाम—
जो पेड़ों के पत्तों की तरह
चुपचाप उगते हैं और
झड़ जाते हैं !


सूरज रोज़ ढूंढता है
मुँह कहीं नहीं दिखता है
तेरा मुँह, जो रात को
इक़रार देता है
तड़प किसे कहते हैं,
तू यह नहीं जानती
किसी पर कोई अपनी
ज़िन्दगी क्यों निसार करता है
अपने दोनों जहाँ
कोई दाँव पर लगाता है
नामुराद हँसता है
और हार जाता है
अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
इस तरह लाखों ख्याल
आयेंगे, चले जायेंगे




अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः-

‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो बडी घटनायें हुई। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुख से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों । यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्तरह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।---’’
अपने विचारों को कागज पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुडे एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः-
‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खोला  गया और डायरी को पढा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्ध व्याख्या मांगी गयी। उस दिन को भुगतकर मैंने वह डायरी फाड दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’
विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।

मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा
उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में
कुछ हवा में मिल गयी,
‘‘ पर जिंदगी में तीन  समय ऐसे आए हैं-जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- सांस खिंचा-खिंचा थां उस दिन उसके गले और छाती पर मैने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़ खडे़ पोरों से , उंगिलयों  से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार सकती  हूं। मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता नहीं थी।---
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था।और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकडे़ कमरे में रह जाते थे। कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, मै उसके छोडे हुये सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकडे़ को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं---- ’’
साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुयी हैः-
‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जो मेरे पास धीरे धीरे जुडा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूं तो दबे हुए खजाने की भांति प्रतीत हो रहा है---
---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र परसे लायी थी और एक कागज का गोल टुकडा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर । साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’


विभाजन का दर्द अमृता ने सिर्फ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने  अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा। 1947 में 3 जुलाई को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया और उसके तुरंत बाद 14 अगस्त 1947 को विभाजन का मंजर भी देखा जिसके संदर्भ में उससे लिखा किः-
‘‘ दुखों की कहानियां कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियां उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैने लाशें देखीं थीं , लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब ----एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते कांच के बर्तनों की भांति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थी और मेरे माथे में भी ----- ’’
जीवन के उत्तरार्ध में अम्रता जी इमरोज के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है........
‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज बुखार चढ़ गया। उस दिन- उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था- बहुत बुखार है? इन शब्दों के बाद उसके मुहं  से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बडा हो गया हूं।
--कभी हैरान हो जाती हूं - इमरोज ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं-- एक बार मैने हंसकर कहा था, ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता , तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे , मुझसे भी आगे , अपनाकर कहने लगा:-मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज पढ़ते हुए ढूंढ लेता! सोचती हूं - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’
अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि
‘‘गंगा जल  से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’

अम्रता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-
‘‘ मैं जब अम्रता प्रीतम की कोई रचना पढता हूं, तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’
इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकडा’ के हिंदी में अनुदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः-
‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छांव वीथि में विचरने के समान है इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी, संस्कृत तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’


मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी

       अमृता के आज जन्मदिन पर विशेष यादें ...............इनको कितना भी दुहरा लो ...पर यह हमेशा कुछ नयी सी बात कहती लगती है


Friday, August 19, 2011


अंतरव्यथा(नीचे के कपडे )

जिसके मन की पीडा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी-'नीचे के कपडे" उसका नाम भूल गई हूँ । कहानी में सही नाम लिखना नहीं था, और उससे एक बार ही मुलाकात हुई थी, इसलिए नाम भी याद से उतर गया है...

जब वह मिलने आई थी, बीमार थी। खूबसूरत थी, पर रंग और मन उतरा हुआ था। वह एक ही विश्वास को लेकर आई थी कि मैं उसके हालात पर एक कहानी लिख दूँ...

मैंने पूछा-इससे क्या होगा?

कहने लगी-जहाँ वह चिट्ठियाँ पडीं हैं जो मैं अपने हाथों से नहीं फाड सकती, उन्हीं चिट्ठियों में वह कहानी रख दूँगी...मुझे लगता है, मैं बहुत दिन जिंदा नहीं रहूँगी, और बाद में जब उन चिट्ठियों से कोई कुछ जान पाएगा, तो मुझे वह नहीं समझेगा जो मैं हूँ। आप कहानी लिखेंगी तो वहीं रख दूँगी। हो सकता है, उसकी मदद से कोई मुझे समझ ले मेरी पीडा को संभाल ले। मुझे और किसी का कुछ फिक्र नहीं है, पर मेरा एक बेटा है, अभी वह छोटा है, वह बडा होगा तो मैं सोचती हूँ कि बस वह मुझे गलत न समझे...

उसकी जिंदगी के हालात सचमुच बहुत उलझे हुए थे और मेरी पकड में नहीं आ रहा था कि मैं उन्हें कैसे समेट पाऊँगी। लिखने का वादा तो नहीं किया पर कहा कि कोशिश करूँगी..

मैं बहुत दिन वह कहानी नहीं लिख पाई। सिर्फ एक अहसास सा बना रहा कि उसका बच्चा मेरे जेहन में बडा हो रहा है, इतना बडा कि अब बहुत सी चीजें उसके हाथ लगती हैं, तो वह हैरान उन्हें देखे जा रहा है..

कहानी प्रकाशित हुई और बहुत दिन गुजर गए। मैं जान नहीं पाई कि उसके हाथों तक पहुँची या नहीं। सब वक्त के सहारे छोड दिया। उसका कोई अता-पता मेरे पास नहीं था...

एक अरसा गुजर गया था, जब एक दिन फोन आया, दिल्ली से नहीं था, कहीं बाहर से था। आवाज थी-'आपका बहुत शुक्रिया! मैंने कहानी वहीं रख दी है जहाँ चाहती थी...

इतने भर लफ्जों से कुछ पकड में नहीं आया था, इसलिए पूछा-'आप कौन बोल रही हैं? कौन सी कहानी?

जवाब में बस इतनी आवाज थी-'बहुत दूर से बोल रही हूँ, वही जिसकी कहानी आपने लिखी है-'नीचे के कपडे...और फोन कट गया...

"नीचे के कपडे???"

अचानक मेरे सामने कई लोग आकर खडे हो गए हैं, जिन्होंने कमर से नीचे कोई कपडा नहीं पहना हुआ है।

पता नहीं मैंने कहाँ पढा था कि खानाबदोश औरतें अपनी कमर से अपनी घघरी कभी नहीं उतारती हैं। मैली घघरी बदलनी होतो सिर की ओर से नई घघरी पहनकर, अंदर से मैली घघरी उतार देती हैं और जब किसी खानाबदोश औरत की मृत्यु हो जाती है तो उसके शरीर को स्नान कराते समय भी उसकी नीचे की घघरी सलामत रखी जाती है। कहते हैं, उन्होंने अपनी कमर पर पडी नेफे की लकीर में अपनी मुहब्बत का राज खुदा की मखलूक से छिपाकर रखा होता है। वहाँ वे अपनी पसंद के मर्द का नाम गुदवाकर रखती हैं, जिसे खुदा की ऑंख के सिवा कोई नहीं देख सकता।

और शायद यही रिवाज मर्दों के तहमदों के बारे में भी होता होगा।

लेकिन ऐसे नाम गोदने वाला जरूर एक बार औरतों और मर्दों की कमर की लकीर देखता होगा। उसे शायद एक पल के लिए खुदा की ऑंख नसीब हो जाती है, क्योंकि वह खुदा की मखलूक की गिनती में नहीं जाता...

लेकिन मेरी ऑंख को खुदा की ऑंख वाला शाप क्यों मिल गया? मैं अपने सामने ऐसी औरतें और मर्द क्यों देख रहा हूँ, जिन्होंने कमर से नीचे कोई कपडा नहीं पहन रखा है, जिन्हें देखना सारी मखलूक के लिए गुनाह है?

कल से माँ अस्पताल में है। उसके प्राण उसकी साँसों के साथ डूब और उतरा रहे हैं। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है और दो बार पहले भी उसे अस्पताल ले जाया गया था, पर इस बार शायद उसके मन को जीने का विश्वास नहीं बँध रहा है। अचानक उसने उंगली में से हीरे वाली अंगूठी उतारी और मुझे देकर कहा कि मैं घर जाकर उसकी लोहे वाली अलमारी के खाने में रख दूँ।
अस्पताल में अभी दादी भी आई थी, पापा भी, मेरा बडा भाई भी, लेकिन माँ ने न जाने क्यों, यह काम उन्हें नहीं सौंपा। हम सब लौटने लगे थे, जब माँ ने इशारे से मुझे ठहरने के लिए कहा। सब चले गए तो उसने तकिए के नीचे से एक मुसा हुआ रुमाल निकाला, जिसके कोने से दो चाबियाँ बँधी हुई थीं। रुमाल की कसी हुई गाँठ खोलने की उसमें शक्ति नहीं थी, इसलिए मैंने वह गाँठ खोली। तब एक चाभी की ओर इशारा करके उसने मुझे यह काम सौंपा कि मैं उसकी हीरे की अंगूठी अलमारी के अंदर खाने में रख दूँ। यह भी बताया कि अंदर वाले की चाभी मुझे उसी अलमारी के एक डिब्बे में पडी हुई मिल जाएगी।

और फिर माँ ने धीरे से यह भी कहा कि मैं बम्बई वाले चाचाजी को एक खत डाल दूँ, दिल्ली आने के लिए। और दूसरी चाभी उसने उसी तरह रुमाल में लपेटकर अपने तकिए के नीचे रख ली।और जिस तरह तकदीरें बदल जाती हैं उसी तरह चाभियाँ भी बदल गई...
                   घर में रोज के इस्तेमाल की माँ की एक ही अलमारी है, लेकिन फालतू सामान वाली कोठरी में लोहे की एक और भी अलमारी है, जिसमें फटे-पुराने कपडे पडे रहते हैं। पापा के ट्रांसफर के समय वह अलमारी लगभग टूट ही गई थी, पर माँ ने उसे फेंका नहीं था और साकड-भाकड वाली उस अलमारी को फालतू कपडों के लिए रख लिया था।

घर पहुँचकर जब मैं माँ की अलमारी खोलने लगा, तो वह खुलती ही न थी। चाभी मेरी तकदीर की तरह बदली हुई थी। हाथ में थामी हुई हीरे की अंगूठी को कहीं संभालकर रखना था, इसलिए मैंने सामान वाली कोठरी की अलमारी खोल ली। यह चाभी उस अलमारी की थी। इस अलमारी में भी अंदर का खाना था। मैंने सोचा, उसकी चाभी भी जरूर इसी अलमारी के किसी डिब्बे में ही मिलनी थी...

और मैं फटे-पुराने कपडों की तहें खोलने लगा...

पुराने, उधडे हुए सलमे के कुछ कपडे थे, जो माँ ने शायद उनका सुच्चा सलमा बेचने के लिए रखे हुए थे और पापा के गर्म कोट भी थे, जो शायद बर्तनों से बदलने के लिए माँ ने संभालकर रखे हुए थे। मैंने एक बार गली में बर्तन बेचने वाली औरतों से माँ को एक पुराने कोट के बदले में बर्तन खरीदते हुए देखा था।

पर मैं हैरान हुआ-माँ ने वे सब टूटे हुए खिलौने भी रखे थे, जिनसे मैं छुटपन में खेला करता था। देखकर एक दहशत सी आई-चाभी से चलने वाली रेलगाडी इस तरह उलटी हुई थी, जैसे पटरी से गिर गई हो और उस भयानक दुर्घटना से उसके सभी मुसाफिर घायल हो गए हों-प्लास्टिक की गुडिया, जो एक ऑंख से कानी हो गई थी, रबड का हाथी, जिसकी सूंड बीच में से टूट गई थी, मिट्टी का घोडा, जिसकी अगली दोनों टाँगें जैसे कट गई हों और कुछ खिलौनों की सिर्फ टाँगें और बाहें बिखरी पडी थीं-जैसे उनके धड और सिर उडकर कहीं दूर जा पडे हों- और अब उन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता था..

मेरे शरीर में एक कंपन सी दौड गई-देखा कि इन घायल खिलौनों के पास ही मिट्टी की बनी शिवजी की मूर्ति थी, जो दोनों बाहों से लुंजी हो गई थी और ख्याल आया -जैसे देवता भी अपाहिज होकर बैठा हुआ है।

जहाँ तक याद आया, लगा कि मेरा बचपन बहुत खुशी में बीता था। बडे भाई के जन्म के सात बरस बाद मेरा जन्म हुआ था, इसलिए मेरे बहुत लाड हुए थे। तब तक वैसे भी पापा की तरक्की हो चुकी थी, इसलिए मेरे वास्ते बहुत सारे कपडे और बहुत सारे खिलौने खरीदे जाते थे...लेकिन पूरी यादों के लिए इन टूटे हुए खिलौनों की माँ को क्या जरूरत थी, समझ में नहीं आया...

सिर्फ खिलौने ही नहीं, मेरे फटे हुए कपडे भी तहों में लगे हुए थे-टूटे हुए बटनों वाले छोटे-छोटे कुरते, टूटी हुई तनियों वाले झबले और फटी हुई जुराबें भी...

और फिर मुझे एक रुमाल में बँधी हुई वह चाभी मिल गई, जिसे मैं ढूँढ रहा था। अलमारी का अंदर वाला खाना खोला, ताकि हीरे की अंगूठी उसमें रख दूँ।

यही वह घडी थी जब मैंने देखा कि उस खाने में सिर्फ नीचे पहनने वाले कपडे पडे हुए थे..

और अचानक मेरे सामने वे लोग आकर खडे हो गए हैं जिनके सिर भी ढँके हुए हैं, बाहें भी, ऊपर के शरीर भी- लेकिन कमर से नीचे कोई कपडा नहीं है...

प्रलय का समय शायद ऐसा ही होता होगा, मालूम नहीं। मेरे सामने मेरी माँ खडी हुई है, पापा भी, बम्बई वाले चाचा भी और कोई एक मिसेज चोपडा भी और एक कोई मिस नंदा भी- जिन्हें मैं जानता नहीं।

और खोए हुए से होश से मैंने देखा कि उनके बीच में कहीं भी मैं भी गुच्छा सा बनकर बैठा हुआ हूँ...

न जाने यह कौन सा युग है, शायद कोई बहुत ही पुरानी सदी, जब लोग पेडों के पत्तों में अपने को लपेटा करते थे..और फिर पेडों के पत्ते कागज जैसे कब हो गए, नहीं जानता...

अलमारी के खाने में सिर्फ कागज पडे हुए हैं, बहुत से कागज जिन पर हरएक के तन की व्यथा लिखी हुई है-तन के ताप जैसी, तन के पसीने जैसी, तन की गंध जैसी...

ये सब खत हैं, बम्बई वाले चाचाजी के और सब मेरी माँ के नाम हैं...

तरह-तरह की गंध मेरे सिर को चढ रही है..

किसी खत से खुशी और उदासी की मिली-जुली गंध उठ रही है। लिखा है, 'वीनू! जो आदम और हव्वा खुदा के बहिश्त से निकाले गए थे-वह आदम मैं था और हव्वा तुम थीं...

किसी खत से विश्वास की गंध उठ रही है-'वीनू ! मैं समझता हूँ कि पत्नी के तौर पर तुम अपने पति को इंकार नहीं कर सकती, लेकिन तुम्हारा जिस्म मेरी नजर में गंगा की तरह पवित्र है और मैं शिवजी की गंगा को जटा में धारण कर सकता हूँ...

किसी खत से निराशा की गंध उठ रही है-'मैं कैसा राम हूँ, जो अपनी सीता को रावण से नहीं छुडा सकता...न जाने क्यों, ईश्वर ने इस जनम में राम और रावण को सगे भाई बना दिया!

किसी खत से दिलजोई की गंध उठ रही है-'वीनू! तुम मन में गुनाह का अहसास न किया करो। गुनाह तो उसने किया था, जिसने मिसेज चोपडा जैसी औरत के लिए तुम्हारे जैसी पत्नी को बिसार दिया था..

और अचानक एक हैरानी की गंध मेरे सिर को चढी, जब एक खत पढा-'तुम मुझसे खुशनसीब हो वीनू! तुम अपने बेटे को बेटा कह सकती हो, लेकिन मैं अपने बेटे को कभी भी अपना बेटा नहीं कह सकूँगा।

और अधिक हैरानी की गंध से मेरे सिर में एक दरार पड गई, जब एक दूसरे खत में मैंने अपना नाम पढा। लिखा था-'मेरी जान वीनू! अब तुम उदास न हुआ करो। मैं नन्हें से अक्षय की सूरत में हर वक्त तुम्हारे पास रहता हूँ। दिन में मैं तुम्हारी गोद में खेलता हूँ और रात को तुम्हारे पास सोता हूँ...

सो मैं..मैं...

जिंदगी के उन्नीस बरस मैं जिसे पापा कहता रहा था, अचानक उस आदमी के वास्ते यह लफ्ज मेरे होठों पर झूठा पड गया है...

बाकी खत मैंने पूरे होश में नहीं पढे, लेकिन इतना जाना है कि जन्म से लेकर मैंने जो भी कपडा शरीर पर पहना है, वह माँ ने कभी भी अपने पति की कमाई से नहीं खरीदा था। मिट्टी का खिलौना तक भी नहीं। मेरे स्कूल की और कॉलेज की फीसें भी वह घर के खर्च में से नहीं देती थी..

यह भी जाना है कि बम्बई में अकेले रहने वाले आदमी से कुछ ऐसी बातें भी हुई थीं, जिनके लिए कई खतों में माफियाँ माँगी गई हैं, और उस सिलसिले में कई बार किसी मिस नंदा का नाम लिखा गया है, जो खत लिखने वाले की नजरों में एक आवारा लडकी थी, जिसने मेनका की तरह एक ॠषि की तपस्या भंग कर दी थी...और कई खतों में माँ की झिडकियाँ सी दी गई हैं कि ये सिर्फ उसके मन के वहम हैं, जिनके कारण वह बीमार रहने लगी है...

यह माँ, पापा, चाचा,मिसेज चोपडा, मिस नंदा-कोई भी खानाबदोशों के काफिलों में से नहीं है- पर खानाबदोशों की परंपरा शायद सारी मनुष्य जाति पर लागू होती है, सबकी घघरियों और सबके तहमदों पर, जहाँ उनके शरीर पर पडी उनके नेफे की लकीर पर लिखा हुआ नाम ईश्वर की ऑंख के सिवा किसी को नहीं देखना चाहिए।...और पता नहीं लगता कि आज मेरी ऑंख को ईश्वर की ऑंख वाला शाप क्यों लग गया है..

सिर्फ यह जानता हूँ कि ईश्वर की ऑंख ईश्वर के चेहरे पर हो तो वरदान है, लेकिन इन्सान के चेहरे पर लग जाए तो शाप हो जाती है...।