कहीं पढ़ा था कि हर पाठक एक यात्री होता है और हर किताब एक यात्रा .....और इस यात्रा में यात्री को जो अच्छे बुरे तजुर्बे होते हैं ,उन्ही के आधार पर वह यात्रा के विषय में अच्छी बुरी राय बनाता है .....कोई यात्रा सफल होती है और कोई असफल .....जब वह इस यात्रा से लौटता है तो सबको इस यात्रा की कहानी सुनाता है .... उसने क्या देखा ? क्या अनुभव किया ? कैसे कहाँ अच्छा लगा ? कहाँ बुरा लगा ..और अंत में हाथ में क्या आया ...यही बात मैं आपसे अमृता की बातें करते हुए महसूस करती हूँ ...जो एक रूहानी एहसास मैं इस यात्रा में महसूस करती हूँ .वह जब आपको सुनाती हूँ तो वही प्यार सा एहसास एक प्यास आप सब में भी महसूस करती हूँ ...मुझे लगता है कि जो ज़िन्दगी हम जी नही पाते हैं वह जब पढ़ते हैं ,अनुभव करते हैं तो वही दिल को एक आत्मिक संतोष दे जाती है ..
अमृता की कविता एक जादू है .उनकी कविता में जो अपने आस पास की झलक मिलती है वह रचना अपनी यात्रा में अंत तक अपना बुनयादी चिन्ह नही छोड़ती है ..वह अपने में डूबो लेती है .अपने साथ साथ उस यात्रा पर ले चलती है .जिस पर हम ख़ुद को बहुत सहज सा अनुभव करते हैं ....आज उनकी कुछ कविताओं से ख़ुद को जोड़ कर देखते हैं ....उनकी एक कविता है ""धूप का टुकडा ""
मुझे वह समय याद है --
जब धूप का एक टुकडा
सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में खो गया ..
अब इस में जो तस्वीर उभर कर आती है वह यह है कि धूप का टुकडा एक बच्चा है ..अंधेरे का मेला देखने चला गया था परन्तु वह अंधेरे में ही कहीं गुम हो गया | अभी इस चिन्ह की तहे खोलने की जरुरत नही हैं | यह एक हिन्दुस्तानी मेला है और एक मेले में वह बच्चा गुम हो गया है जो अमृता का कुछ नही लगता .पर बच्चा तो जहाँ प्यार देखेगा वहां का हो जायेगा इस लिए वह अमृता के साथ हो लिया है ...
सोचती हूँ : सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नही लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया है ..
हम जब यह कविता पढ़ रहे हैं तो महसूस करते हैं कि बच्चे ने अमृता का हाथ पकड़ा जरुर है पर वह डरा हुआ है ..यही इस कविता के अन्दर के एहसास से मिलवा देता है पढने वाले को भी ..अँधेरा है ....मेले के शोर में भी एक चुप्पी ,एक खामोशी है ..उसके बाद वाली पंक्तियाँ जैसे हमारे दिल की बात कह देती है ...
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकडा ....
जिसकी यादो से वह जुड़ी है उसी तरह हम भी किसी न किसी अपनी प्यारी याद से जुड़े हुए हैं ..तेरी याद तो तेरी है .अंधेरे के मेले में तुझ से बिछड कर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया ..तेरी याद मेरे पास है परन्तु वह मुझसे बहलती नहीं है क्यों कि मैं उसकी भला क्या लगती हूँ ..और फ़िर वह कहती है ...
तुम कहीं नही मिलते
हाथ को हाथ छू रहा है ..
धूप का टुकडा सूरज से बिछड गया और सूरज कहीं मिलता नही ..किसी मेले में किसी को तलाश करना आसान काम नही है ...इस पूरी कविता में कोई मेले का चित्र यूँ नही बना है पर पढने वाला उस से ख़ुद को जोड़ लेता है ...क्यों कि वह जो भी लिखती है वह हमारे आस पास का का है .घर है ,.गांव है ,इसलिए पढने वाले ,अमृता से प्यार करने वाले अमृता से ख़ुद का जुडाव महसूस करते हैं ..सूरज अमृता का बहुत प्यारा है .परन्तु आसमान के सूरज को घर बुलाए बिना अमृता उसको अपनी कविता में नही आने देती है ...
आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया
यह सूरज केवल सूरज नहीं हैं ..हम उसको घर में देखते हैं ..वह घबराया हुआ है ..उसने धबरा कर रोशनी की एक खिड़की खोली और बादल की एक खिड़की भेड़ दी और वह अंधेरे की सीढियां उतर गया ..यानी वह एक दो मंजिला मकान में है .यह मकान यह भी बताता है कि सूरज किस वर्ग का है ..वह निचले वर्ग का नहीं है .क्यों कि ऐसा होता तो वह दो मंजिले मकान में नही रहता ..यह सूरज वही है धूप का टुकडा जो हमारे सामने नही आया था ..वह अंधेरों की सीढियाँ उतर गया ..
आसमान के भवों पर
जाने क्यूँ पसीना आ गया
सितारों के बटक खोल कर
उसने चाँद का कुरता उतार दिया ...
रात हो गई है ....आसमान ने तारों का बटन खोल कर चाँद का कुरता उतार दिया ..यहाँ हम ख़ुद को फ़िर से एक घर से ख़ुद को जुडा हुआ सा महसूस करते हैं जैसे गर्मियीं की रात है ....और उसके सोचे पात्र ने अपना कुरता उतार कर रख दिया है .गर्मी के मौसम की एक सहज सी बात है यह ..... परन्तु यह सब तो वह उस तरफ़ जो हो रहा है वह सोच रहीं है ..उनकी तरफ़ क्या वह महसूस करती है ..
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँ
तुम्हारी याद इस तरह आई ---
जैसे गीली लकड़ी में से
गाढा कडुवा धुंआ उठे ...
दिल के कोने का मतलब यहाँ एक एक ऐसी उपमा से है जो हमें घर से बाहर नही निकलने देती है .और तेरी याद कैसे एक धुँए सी उठ कर आँख में लग रही है ...यहाँ अमृता आँखों से पानी बहने की बात नही करती है ..पर पढने वाला ख़ुद की आँखे गीली महसूस करता है ..सूरज डूबा .....चूल्हा जला .गीली लकड़ी जलते जलते आँखे नम कर गई और उसी की याद से जुड़े ख्याल भी धुएँ जैसे सुलग कर जल गए
खाना पक गया और सूखी, गीली सभी लकडियाँ बुझा दी गई ,परन्तु यह उपमा यहीं रुक नही जाती ..
वर्ष कोयलों की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गए ,कुछ बुझने से रह गए
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गए
लकडियाँ तो बुझ गयीं पर उसको बुझाने की कोशिश में जो हाथ की उंगलियाँ जल गई है ..और इसके बाद यह क्या हुआ ..
तेरे इश्क के हाथ से छुट गई
और ज़िन्दगी की हंडिया टूट गई
इतिहास का मेहमान
चौके से भूखा उठ गया ....
खाना पकाने वाली सब कुछ झेल गई परन्तु जब इश्क के हाथ से ज़िन्दगी की हांडी उतरते , उतारते छूट कर गिरी और टूट गई जिस से इतिहास का मेहमान भूखा उठ गया तो वह बिलख उठी ..इस पूरी कविता में न कहीं डोर टूटती है न कहीं उलझती है .और जिस तरह अपने ही आस पास की दुनिया से जुड़ जाती है तो यह अपनी ही लगती है ...और हम सहज जी अमृता से जुड़ जाते हैं ..उस प्यार को उस रूह के एहसास को ख़ुद में महसूस करने लगते हैं ....
किस तरह अमृता अपने लिखे से अपना बना लेती है .....यह इन दो कविताओं के माध्यम से जाना ..कुछ और जुडेंगे हम अगले अंक में अमृता की कुछ और रचनाओं के माध्यम से ....
अमृता की कविता एक जादू है .उनकी कविता में जो अपने आस पास की झलक मिलती है वह रचना अपनी यात्रा में अंत तक अपना बुनयादी चिन्ह नही छोड़ती है ..वह अपने में डूबो लेती है .अपने साथ साथ उस यात्रा पर ले चलती है .जिस पर हम ख़ुद को बहुत सहज सा अनुभव करते हैं ....आज उनकी कुछ कविताओं से ख़ुद को जोड़ कर देखते हैं ....उनकी एक कविता है ""धूप का टुकडा ""
मुझे वह समय याद है --
जब धूप का एक टुकडा
सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में खो गया ..
अब इस में जो तस्वीर उभर कर आती है वह यह है कि धूप का टुकडा एक बच्चा है ..अंधेरे का मेला देखने चला गया था परन्तु वह अंधेरे में ही कहीं गुम हो गया | अभी इस चिन्ह की तहे खोलने की जरुरत नही हैं | यह एक हिन्दुस्तानी मेला है और एक मेले में वह बच्चा गुम हो गया है जो अमृता का कुछ नही लगता .पर बच्चा तो जहाँ प्यार देखेगा वहां का हो जायेगा इस लिए वह अमृता के साथ हो लिया है ...
सोचती हूँ : सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नही लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया है ..
हम जब यह कविता पढ़ रहे हैं तो महसूस करते हैं कि बच्चे ने अमृता का हाथ पकड़ा जरुर है पर वह डरा हुआ है ..यही इस कविता के अन्दर के एहसास से मिलवा देता है पढने वाले को भी ..अँधेरा है ....मेले के शोर में भी एक चुप्पी ,एक खामोशी है ..उसके बाद वाली पंक्तियाँ जैसे हमारे दिल की बात कह देती है ...
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकडा ....
जिसकी यादो से वह जुड़ी है उसी तरह हम भी किसी न किसी अपनी प्यारी याद से जुड़े हुए हैं ..तेरी याद तो तेरी है .अंधेरे के मेले में तुझ से बिछड कर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया ..तेरी याद मेरे पास है परन्तु वह मुझसे बहलती नहीं है क्यों कि मैं उसकी भला क्या लगती हूँ ..और फ़िर वह कहती है ...
तुम कहीं नही मिलते
हाथ को हाथ छू रहा है ..
धूप का टुकडा सूरज से बिछड गया और सूरज कहीं मिलता नही ..किसी मेले में किसी को तलाश करना आसान काम नही है ...इस पूरी कविता में कोई मेले का चित्र यूँ नही बना है पर पढने वाला उस से ख़ुद को जोड़ लेता है ...क्यों कि वह जो भी लिखती है वह हमारे आस पास का का है .घर है ,.गांव है ,इसलिए पढने वाले ,अमृता से प्यार करने वाले अमृता से ख़ुद का जुडाव महसूस करते हैं ..सूरज अमृता का बहुत प्यारा है .परन्तु आसमान के सूरज को घर बुलाए बिना अमृता उसको अपनी कविता में नही आने देती है ...
आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया
यह सूरज केवल सूरज नहीं हैं ..हम उसको घर में देखते हैं ..वह घबराया हुआ है ..उसने धबरा कर रोशनी की एक खिड़की खोली और बादल की एक खिड़की भेड़ दी और वह अंधेरे की सीढियां उतर गया ..यानी वह एक दो मंजिला मकान में है .यह मकान यह भी बताता है कि सूरज किस वर्ग का है ..वह निचले वर्ग का नहीं है .क्यों कि ऐसा होता तो वह दो मंजिले मकान में नही रहता ..यह सूरज वही है धूप का टुकडा जो हमारे सामने नही आया था ..वह अंधेरों की सीढियाँ उतर गया ..
आसमान के भवों पर
जाने क्यूँ पसीना आ गया
सितारों के बटक खोल कर
उसने चाँद का कुरता उतार दिया ...
रात हो गई है ....आसमान ने तारों का बटन खोल कर चाँद का कुरता उतार दिया ..यहाँ हम ख़ुद को फ़िर से एक घर से ख़ुद को जुडा हुआ सा महसूस करते हैं जैसे गर्मियीं की रात है ....और उसके सोचे पात्र ने अपना कुरता उतार कर रख दिया है .गर्मी के मौसम की एक सहज सी बात है यह ..... परन्तु यह सब तो वह उस तरफ़ जो हो रहा है वह सोच रहीं है ..उनकी तरफ़ क्या वह महसूस करती है ..
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँ
तुम्हारी याद इस तरह आई ---
जैसे गीली लकड़ी में से
गाढा कडुवा धुंआ उठे ...
दिल के कोने का मतलब यहाँ एक एक ऐसी उपमा से है जो हमें घर से बाहर नही निकलने देती है .और तेरी याद कैसे एक धुँए सी उठ कर आँख में लग रही है ...यहाँ अमृता आँखों से पानी बहने की बात नही करती है ..पर पढने वाला ख़ुद की आँखे गीली महसूस करता है ..सूरज डूबा .....चूल्हा जला .गीली लकड़ी जलते जलते आँखे नम कर गई और उसी की याद से जुड़े ख्याल भी धुएँ जैसे सुलग कर जल गए
खाना पक गया और सूखी, गीली सभी लकडियाँ बुझा दी गई ,परन्तु यह उपमा यहीं रुक नही जाती ..
वर्ष कोयलों की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गए ,कुछ बुझने से रह गए
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गए
लकडियाँ तो बुझ गयीं पर उसको बुझाने की कोशिश में जो हाथ की उंगलियाँ जल गई है ..और इसके बाद यह क्या हुआ ..
तेरे इश्क के हाथ से छुट गई
और ज़िन्दगी की हंडिया टूट गई
इतिहास का मेहमान
चौके से भूखा उठ गया ....
खाना पकाने वाली सब कुछ झेल गई परन्तु जब इश्क के हाथ से ज़िन्दगी की हांडी उतरते , उतारते छूट कर गिरी और टूट गई जिस से इतिहास का मेहमान भूखा उठ गया तो वह बिलख उठी ..इस पूरी कविता में न कहीं डोर टूटती है न कहीं उलझती है .और जिस तरह अपने ही आस पास की दुनिया से जुड़ जाती है तो यह अपनी ही लगती है ...और हम सहज जी अमृता से जुड़ जाते हैं ..उस प्यार को उस रूह के एहसास को ख़ुद में महसूस करने लगते हैं ....
किस तरह अमृता अपने लिखे से अपना बना लेती है .....यह इन दो कविताओं के माध्यम से जाना ..कुछ और जुडेंगे हम अगले अंक में अमृता की कुछ और रचनाओं के माध्यम से ....
21 comments:
Sach meN ... Jaadoo hi hai un kii kavita .... adbhut hai .. waah !
महान रचनाकारों की कृतियों का विश्लेषण एक चुनौती /जोखिम भरा काम है - लेकिन आपने बहुत ही सहजता और गहराई से इसे अंजाम दिया है -आप दूसरी अमृता प्रीतम ही हैं !
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँ
तुम्हारी याद इस तरह आई ---
जैसे गीली लकड़ी में से
गाढा कडुवा धुंआ उठे ...
oyeeeee.....
dil gaya.
alok singh "sahil"
हर पाठक एक यात्री होता है और हर किताब एक यात्रा।
वाह क्या बात।
इतनी सुन्दर कविता का इतना प्यारा विश्लेषण क्या कहूँ। आपने कितनी गहराई से हर लफ़्ज को सोचा और समझा हैं। पढकर बहुत ही अच्छा लगा।
आप सचमुच बहुत अच्छा काम
कर रही हैं.....अमृता जी को
आपकी शैली की सुघड़ता के साथ
पढ़ना प्रियकर है.
==========================
बधाई
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
आपका लिखना
सिर्फ लिखना नहीं है
उसके समूचे में उतर जाना है
जो समझ आता है
उसे पूरे वजूद में समझाना है
नतीजा
हम कम पढ़ते हैं
पर आपके लेखों से
ज्यादा समझ जाते हैं।
बहुत सुंदर...
sunder post, dil ko chhuti hui...badhai...
मन्त्र मुग्ध हूँ अमृता जी को पढ़कर .....
इस रचना और उसकी व्याख्या के लिए शब्द कहाँ से लाऊं समझ नहीं आ रहा...दिल को भीतर तक छूती हुई पोस्ट...बेहद असरदार.
नीरज
achcha likha hai
प्रभावशाली अभिव्यक्ति एक नये अन्दाज में है।
अम़ता जी की कविता तो सुंदर है ही पर आपका विश्लेषण भी उतने ही दर्द भरे कोमल भाव लिये हुए है । और मेहमान इतिहास का भूखा रह जाना कमाल की सोच है । मेहमान को न खिला पाने का दर्द..........
वाह क्या बात...आनन्द आ गया.
आभार.
unki is pyari si kavita ko pesh karne ka shukriya
ये ब्लॉग आपका बहुत sunder है, हर आलेख एक से बढ़कर एक
इस ब्लॉग के लिए जो आपकी शिद्दत और मेहनत है उसके लिए प्रशंसा का कोई भी शब्द पर्याप्त नही है.. आपकी हर एक पोस्ट से लगता है की आपने अमृता को जिया है.. एक विषय विशेष ब्लॉग पर लिखना और एक फ्लो को बरकरार रखना बहुत मुश्किल होता है.. पर आपने इसे बाँध कर रखा है.. जो वाकई काबिल ए तारीफ़ है..
बहुत बहुत शुक्रिया आपका इतनी सुंदर पोस्ट के लिए..
achcha likhi hai aapney.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
वर्ष कोयलों की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गए ,कुछ बुझने से रह गए
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गए
हमेशा की तरह दिल को छूने वाला लेखन..बहुत अच्छा लगा।
रंजना जी, आपके अमृता प्रीतम के बारे में लिखे लेख जब भी पढता हूँ तो बचपन के वो दिन याद आ जाते हैं जब मुझ पर उनकी गुरमुखी में लिखी रचनाओं को पढने का एक जूनून सा रहता था. मैं संयोगवश उनसे मिल चुका हूँ पंजाब में, एक न भूलने वाला पल. अमृता वाकई में एक महान व्यक्तित्व थीं. उन्हे पढने वाले हमेशा उन्हें अपने दिल में जिंदा रखेंगे.
अमृता जी की लेखनी में तो जादू है ही, आपके चंद शब्दों के आभूषण उनके लिखे में चार चाँद लगा देते हैं. ये सिलसिला जारी रखियेगा.
धन्यवाद
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