.........................भाग १
.......................भाग २
"यह कहानी नही ....भाग ३ "
चाँद सूरज जिस तरह एक झील में उतरते हैं
मैंने तुम्हे देखा नही ,कुछ नक्श उभरते हैं ...
माना की रात लम्बी है और नजर कुछ आता नहीं
कितनों के सारे काफिले ,इस राह से गुजरते हैं ..
वायदों को तोड़ती है .हर बार ही ये ज़िन्दगी
कुछ लोग हैं मेरी तरह ,फ़िर एतबार करते हैं ....
यह पंक्तियाँ जैसे यह कहानी न हो कर भी एक कहानी बुन जाती है ....सड़कें मिलती है राहें भी मिलती है .पर न जाने उन पर चलने वाले क्यों नही मिल पाते ....
और फ़िर एक बार अचानक चलती हुई रेलगाडी में मिलाप हो गया अ का स से ...स के साथ माँ भी थी और उसका एक दोस्त भी ..अ की सीट बहुत दूर थी ..पर स के उस दोस्त ने सीट बदल ली थी ,उसका सूटकेस उठा कर स के पास रख दिया था .गाड़ी में दिन एक समय में ठण्ड नही थी पर रात ठंडी थी ............माँ ने दोनों को एक कम्बल दिया आधा अ के लिए आधा स के लिए ..और चलती हुई उस गाड़ी में उस सांझे कम्बल के किनारे जादू की दीवारें बन गई थी ............
जादू की दीवारें बनती थी .मिटती थी और आख़िर उनके बीच खंडहरों की खामोशी का एक ढेर लग जाता था ..
स को कोई बंधन नही था ,अ को था .पर वह तोड़ सकती थी ..फ़िर यह क्या था कि वे तमाम उम्र सड़कों पर चलते रहे ..
अब तो उम्र बीत गई अ ने उम्र के तपते दिनों के बारे में भी सोचा .और अब ठंडे दिनों के बारे में भी ..लगा सब दिन सब बरस "पाम के पत्तो "की तरह हवा में खड़े कांप रहे थे
बहुत दिन हुए एक बार अ ने बरसों की खामोशी को तोड़ कर पूछा था ..तुम बोलते क्यों नहीं ? कुछ कहते क्यों नहीं ? कुछ तो कहो ...!"
पर स हंस दिया था और बोला .यहाँ रोशनी बहुत है हर जगह रोशनी होती है और रोशनी में मुझसे बोला नही जाता है ...
और अ का जी किया था --वह एक बार सूरज को पकड़ कर बुझा दे ..सड़कों पर सिर्फ़ दिन चढ़ते हैं रातें तो घरों में होती है .पर घर तो कोई था नहीं ..इसलिए रात भी कहीं न थी ...उनके पास सिर्फ़ सड़कें थी और सूरज था और स तो सूरज की रोशनी में बोलता नहीं था ....
एक बार बोला था ----
वह चुप बैठा हुआ था .क्या सोच रहे हो ..? तो वह बोला था कि सोच रहा हूँ ...कि मैं और लड़कियों से फ्लर्ट करूँ और तुम्हे दुखी करूँ ...
पर इस तरह अ दुखी नही सुखी हो जाती ..इस लिए अब अ भी हंसने लगी और स भी ....
और फ़िर एक लम्बी खामोशी .....
कई बार अ के जी में आता था हाथ आगे बढ़ा कर स को उसकी खामोशी से बाहर ले आए ,वहां तक जहाँ तक दिल का दर्द है ..पर वह सिर्फ़ अपने हाथों को देखती रहती थी ...उसने हाथों से कभी कुछ कहा ही नहीं था ..
एक बार स ने कहा था .."चलो!चीन चलें !"
"चीन ?"
जायेंगे , पर आयेंगे नहीं
"पर चीन ही क्यों ?"
यह" क्यों "भी पाम के पेड़ के समान था .जिसके पत्ते हवा में कांपने लगे ..उस समय अ ने तकिये पर सर रखा हुआ था पर नींद नहीं आ रही थी ..स बराबर के कमरे में सोया हुआ था, शायद नींद की गोली खा कर ..
अ को न अपने जागने पर गुस्सा आया न स की नींद पर ..वह सिर्फ़ सोच रही थी कि वे सड़कों पर चलते हुए मिल जाते हैं तो घड़ी पहर के लिए जादू का घर क्यों बन कर खड़ा हो जाता है ?
अ को हँसी आ गई ..तपती जवानी के समय तो ऐसा होता था ,ठीक है ..,लेकिन अब क्यों होता है ? आज क्यों हुआ ?
यह न जाने क्या था जो उम्र की पकड़ में नहीं आ रहा था ..
बाकी रात न जाने कब बीत गई ..अब दरवाजे पर धीरे से खटका हुआ ....ड्राइवर कह रहा था कि एयरपोर्ट जाने का समय हो गया है ..
अ ने साड़ी पहनी ,सूटकेस उठाया स भी जाग कर अपने कमरे से बाहर आया और वे दोनों उस दरवाज़े की और बढे जो बाहर सड़क पर जा कर खुलता है ..
ड्राइवर ने अ के हाथ से सूटकेस ले लिया था और अब अ को अपने हाथ और भी खाली खाली लग रहे थे ..वह दहलीज के पास आ कर अटक सी गई ,फ़िर जल्दी से अन्दर गई और बैठक में सोयी माँ को प्रणाम कर के बाहर आ गई ...
फ़िर एयरपोर्ट वाली सड़क शुरू हो गई ,ख़त्म होने को भी आ गई पर स भी चुप था अ भी ......
अचानक स ने कहा .."तुम्हे कुछ कहने जा रही थी न ..? "
"नहीं तो "
और वह चुप हो गया
फ़िर अ को लगा ..शायद स को भी बहुत कुछ कहना था ,बहुत कुछ सुनना था ,पर अब बहुत देर हो गई थी अब सब शब्द जमीन में गढ़ गए थे ..पाम के पेड़ बन गए थे .और मन के समुन्द्र के पास लगे हुए उन पेडों के पत्ते तब तक कांपते रहेंगे जब तक हवा चलेगी ...
एयरपोर्ट आ गया और पांवों के नीचे स के शहर की सड़क भी टूट गई
अब सामने एक नई सड़क थी जो हवा से गुजर कर अ के शहर की एक सड़क से जा मिलने को थी .....
और वहां जहाँ दो सड़कें एक दूसरे के पहलू से निकलती है ,स ने अ को धीरे से अपने कंधे से लगा लिया ..और फ़िर वे दोनों कांपते हुए पांवों के नीचे की जमीन इस तरह से देखने लगे ,जैसे उन्हें उस घर का ध्यान आ गया हो जो कभी बना ही नही था .....!!!!
समाप्त
.......................भाग २
"यह कहानी नही ....भाग ३ "
चाँद सूरज जिस तरह एक झील में उतरते हैं
मैंने तुम्हे देखा नही ,कुछ नक्श उभरते हैं ...
माना की रात लम्बी है और नजर कुछ आता नहीं
कितनों के सारे काफिले ,इस राह से गुजरते हैं ..
वायदों को तोड़ती है .हर बार ही ये ज़िन्दगी
कुछ लोग हैं मेरी तरह ,फ़िर एतबार करते हैं ....
यह पंक्तियाँ जैसे यह कहानी न हो कर भी एक कहानी बुन जाती है ....सड़कें मिलती है राहें भी मिलती है .पर न जाने उन पर चलने वाले क्यों नही मिल पाते ....
और फ़िर एक बार अचानक चलती हुई रेलगाडी में मिलाप हो गया अ का स से ...स के साथ माँ भी थी और उसका एक दोस्त भी ..अ की सीट बहुत दूर थी ..पर स के उस दोस्त ने सीट बदल ली थी ,उसका सूटकेस उठा कर स के पास रख दिया था .गाड़ी में दिन एक समय में ठण्ड नही थी पर रात ठंडी थी ............माँ ने दोनों को एक कम्बल दिया आधा अ के लिए आधा स के लिए ..और चलती हुई उस गाड़ी में उस सांझे कम्बल के किनारे जादू की दीवारें बन गई थी ............
जादू की दीवारें बनती थी .मिटती थी और आख़िर उनके बीच खंडहरों की खामोशी का एक ढेर लग जाता था ..
स को कोई बंधन नही था ,अ को था .पर वह तोड़ सकती थी ..फ़िर यह क्या था कि वे तमाम उम्र सड़कों पर चलते रहे ..
अब तो उम्र बीत गई अ ने उम्र के तपते दिनों के बारे में भी सोचा .और अब ठंडे दिनों के बारे में भी ..लगा सब दिन सब बरस "पाम के पत्तो "की तरह हवा में खड़े कांप रहे थे
बहुत दिन हुए एक बार अ ने बरसों की खामोशी को तोड़ कर पूछा था ..तुम बोलते क्यों नहीं ? कुछ कहते क्यों नहीं ? कुछ तो कहो ...!"
पर स हंस दिया था और बोला .यहाँ रोशनी बहुत है हर जगह रोशनी होती है और रोशनी में मुझसे बोला नही जाता है ...
और अ का जी किया था --वह एक बार सूरज को पकड़ कर बुझा दे ..सड़कों पर सिर्फ़ दिन चढ़ते हैं रातें तो घरों में होती है .पर घर तो कोई था नहीं ..इसलिए रात भी कहीं न थी ...उनके पास सिर्फ़ सड़कें थी और सूरज था और स तो सूरज की रोशनी में बोलता नहीं था ....
एक बार बोला था ----
वह चुप बैठा हुआ था .क्या सोच रहे हो ..? तो वह बोला था कि सोच रहा हूँ ...कि मैं और लड़कियों से फ्लर्ट करूँ और तुम्हे दुखी करूँ ...
पर इस तरह अ दुखी नही सुखी हो जाती ..इस लिए अब अ भी हंसने लगी और स भी ....
और फ़िर एक लम्बी खामोशी .....
कई बार अ के जी में आता था हाथ आगे बढ़ा कर स को उसकी खामोशी से बाहर ले आए ,वहां तक जहाँ तक दिल का दर्द है ..पर वह सिर्फ़ अपने हाथों को देखती रहती थी ...उसने हाथों से कभी कुछ कहा ही नहीं था ..
एक बार स ने कहा था .."चलो!चीन चलें !"
"चीन ?"
जायेंगे , पर आयेंगे नहीं
"पर चीन ही क्यों ?"
यह" क्यों "भी पाम के पेड़ के समान था .जिसके पत्ते हवा में कांपने लगे ..उस समय अ ने तकिये पर सर रखा हुआ था पर नींद नहीं आ रही थी ..स बराबर के कमरे में सोया हुआ था, शायद नींद की गोली खा कर ..
अ को न अपने जागने पर गुस्सा आया न स की नींद पर ..वह सिर्फ़ सोच रही थी कि वे सड़कों पर चलते हुए मिल जाते हैं तो घड़ी पहर के लिए जादू का घर क्यों बन कर खड़ा हो जाता है ?
अ को हँसी आ गई ..तपती जवानी के समय तो ऐसा होता था ,ठीक है ..,लेकिन अब क्यों होता है ? आज क्यों हुआ ?
यह न जाने क्या था जो उम्र की पकड़ में नहीं आ रहा था ..
बाकी रात न जाने कब बीत गई ..अब दरवाजे पर धीरे से खटका हुआ ....ड्राइवर कह रहा था कि एयरपोर्ट जाने का समय हो गया है ..
अ ने साड़ी पहनी ,सूटकेस उठाया स भी जाग कर अपने कमरे से बाहर आया और वे दोनों उस दरवाज़े की और बढे जो बाहर सड़क पर जा कर खुलता है ..
ड्राइवर ने अ के हाथ से सूटकेस ले लिया था और अब अ को अपने हाथ और भी खाली खाली लग रहे थे ..वह दहलीज के पास आ कर अटक सी गई ,फ़िर जल्दी से अन्दर गई और बैठक में सोयी माँ को प्रणाम कर के बाहर आ गई ...
फ़िर एयरपोर्ट वाली सड़क शुरू हो गई ,ख़त्म होने को भी आ गई पर स भी चुप था अ भी ......
अचानक स ने कहा .."तुम्हे कुछ कहने जा रही थी न ..? "
"नहीं तो "
और वह चुप हो गया
फ़िर अ को लगा ..शायद स को भी बहुत कुछ कहना था ,बहुत कुछ सुनना था ,पर अब बहुत देर हो गई थी अब सब शब्द जमीन में गढ़ गए थे ..पाम के पेड़ बन गए थे .और मन के समुन्द्र के पास लगे हुए उन पेडों के पत्ते तब तक कांपते रहेंगे जब तक हवा चलेगी ...
एयरपोर्ट आ गया और पांवों के नीचे स के शहर की सड़क भी टूट गई
अब सामने एक नई सड़क थी जो हवा से गुजर कर अ के शहर की एक सड़क से जा मिलने को थी .....
और वहां जहाँ दो सड़कें एक दूसरे के पहलू से निकलती है ,स ने अ को धीरे से अपने कंधे से लगा लिया ..और फ़िर वे दोनों कांपते हुए पांवों के नीचे की जमीन इस तरह से देखने लगे ,जैसे उन्हें उस घर का ध्यान आ गया हो जो कभी बना ही नही था .....!!!!
समाप्त
15 comments:
man ko achchhi ,lagi.
vijay
कहानी के साथ पहली बार ऐसे हसीन घर के कोने-कोने के दीदार किए। दीवारों पर प्यार के चटख रंग, जज्बात की आंतरिक साज-सज्जा और एक विंड चार्म.. इस घर को किसी की नजर न लगे..
बहुत लाजवाब ! धन्यवाद इसके लिये !
राम राम !
अम्रता जी की कहानियो मैं इंसानी रिश्तों की गहरे को बहुत बारीकी से देखा जा सकता हैं
तीन खंड अभी ही पढ़े हैं, वाकई ही बहुत अच्छी कहानी है.
कहानी को सब तक पहुँचने के लिए शुक्रिया
अद्भुत ......कहानी कहना जैसे उस जीवन को जीना है
बहुत अच्छा प्रयास ..........लिखते रहिये
आपको मेरी शुभ-कामनाएं
इन पोस्ट्स को पढने में आराम से वक्त गुजरना पड़ता है... आजकल इतना समय ही नहीं मिल पाता. एक दिन सब आराम से बैठ कर पढूंगा.
माना की रात लम्बी है और नजर कुछ आता नहीं
कितनों के सारे काफिले ,इस राह से गुजरते हैं ..
वायदों को तोड़ती है .हर बार ही ये ज़िन्दगी
कुछ लोग हैं मेरी तरह ,फ़िर एतबार करते हैं ....
waah bahut achhi lagi gazal aur kahani bhi.
ek uljhati suljhti zindagi..kuchh haath aaya kuchh nahin........achchi kahani hai
amrtaa par aapki har post padhti hoon ...behad sundar ye bhi andaaj ..badhai
is kahani ko hum tak pahuchane ka aabhaar
Very well written. Pl. keep it up.
कहानी पढ़ते हुए ऐसा लगा मानो इसे पढ़ नहीं बल्कि जी रहा हूँ
bahut hi khubsoorat, dil ko cho jane wali
इसके लिए माफी चाहूँगा कि हर कड़ी हर बार नही पढी और आज पढी। वजह पहले ही बता चुका हूँ। और हाँ इनकी कहानिंयो को पढना सच ऐसा ही लगता है कि जी रहा हूँ मैं इन कहानियों में। इस कहानी की कई बातें दिल को छू गई। और जादू का घर तो सच में ही जादू कर गया।
और आखिर में आपका भी शुक्रिया ।
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