Sunday, December 28, 2008

यह कलम यह कागज यह अक्षर

अमृता जी की कहानियां और उपन्यास पढ़ते हुए हमेशा ऐसा ही लगता है जैसे कोई कविता पढ़ रहे हों। उनकी हर रचना में उनके काविताओं की झलक मिलती है।

उनके पात्र अनोखे हैं। अपनी किताब ’यह कलम यह कागज यह अक्षर’ में उन्होंने अपनी रचनाओं और पात्रों के बारे में लिखा था :

बोधी गुंपा की तरफ से जब किसी कुसूरवार को सजा दी जाती है, तो वह पत्थरों पर, महात्माबुद्ध के श्लोक अंकित करने की सजा होती है। वह कितने दिन, कितने महीने या कितने साल हाथ में हथौड़ा-छेनी लेकर, पत्थरों पर वह श्लोक अंकति करता रहेगा उसके कसूर की गंभीरता से तय होता है।

मुझे लगता है मुहब्बत ने अपने सुनहरी गुंपा में बैठकर, बोधी गुंपा की तरह, मेरे लिए भी यही सज़ा सुना दी और शायद मेरे तसव्वुर में मेरी मुहब्बत का कसूर बहुत बड़ा है, संगीन जुर्म, इसलिए पूरी जिन्दगी के लिए यह सज़ा मुझे दी गई, और मैं तमाम ज़िंदगी हाथ में कलम लेकर, कागज़ों पर वही लिखती रही जो मेरे चिंतन का और मेरे तरवैयुत का फरमान था.... अपने तरवैयुत से मेरी मुहब्बत का रिश्ता क्या है ? उसी की बात कहने के लिए कुछ पंक्तियाँ सामने आती हैं— हमारे देश की तकसीम के वक्त बहुत कुछ भयानक हुआ। मेरे उपन्यास ‘डाक्टर देव’ के किरदार को जब ज़ख्मी लोगों की महरम पट्टी के लिए बुलाया जाता है तो वह तड़प कर कहता है, ‘‘मनु ! कौन–सा मुंह लेकर उन जख्मियों के पास जाऊं ? वे कहेंगे—आज इन्सान हमें पट्टी बांधने के लिए आया है, इनकी मरहम पट्टी तब कहां थी, जब रास्ता चलते, इसने पीछे से हमारी पीठ पर छुरा घोंप दिया था ? कातिल का चेहरा भी तो मेरे चेहरे जैसा रहा होगा.....’’ यह कलम यह कागज यह अक्षर

इसी तरह ‘पिंजर’ नावल की पूरो, दो मज़हबों की टक्कर में टूट जाती है। लेकिन जानती है कि नफरत के दाग को, नफरत के पानी से नहीं धोया जा सकता, और जब दोनों देशों की अगवाशुदा लड़कियां, अपने-अपने देश को लौटाई जाती हैं, तो पूरो कहती है, ‘‘चाहे कोई लड़की हिन्दू हो या मुसलमान जो भी अपने ठिकाने पर पहुँच रही है, उसी के साथ मेरी आत्मा भी ठिकाने पर पहुंच रही है....’’

नज़्म, कहानी या नावल, मेरी नज़र में एक माध्यम है, बात को कहने का। मेरा एक नावल था ‘दिल्ली की गलिया’ जिसका किरदार नासिर एक मुसव्विर है, और एक अखबार के लिए कार्टून भी बनाता है। उसी के एक कार्टून में, अंग्रेज़ी का एक प्रोफेसर अपने विद्यार्थियों से पूछता है, ‘आजकल कौन-सा लफ़्ज आम जिंदगी में सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है ?’’ तो एक गंभीर विद्यार्थी उठकर कहता है, ‘‘सह ! यह ‘ऐंटी’ लफ़्ज है, क्योंकि आजकल लोग ऐंटी मैरिट होते जा रहे हैं, ऐंटी विमैन, ऐंटी माईंड।’’

इसी उपन्यास में एक किरदार कामिनी है, जो एक अखबार का कालम लिखती है। उसी के एक कालम के अलफाज़ हैं, ‘‘कभी डायर नाम के हाकिम ने गोलियां चलाई थीं, जिनके कुछ एक निशान आज भी जलियांवाला की दीवार पर दिखाई देते हैं। लेकिन सिस्टम नाम की चीज, यानी वक्त का निज़ाम, जो गोलियां चला रहा है—मेहनत, हक, सचाई, ईमान और कद्र-ओ-कीमत जैसे कितने ही अल्फाज़ हो रहे हैं। यह बात अलग है कि उन गोलियों के निशान किसी दीवार पर दिखाई नहीं देते।’’

औरत की पाकीज़गी का ताल्लुक, समाज ने कभी भी, औरत के मन की अवस्था से नहीं पहचाना, हमेशा उसके तन से जोड़ दिया। इसी दर्द को लेकर मेरे ‘एरियल’ नावल की किरदार ऐनी के अलफाज़ हैं, ‘‘मुहब्बत और वफा ऐसी चीज़ें नहीं है, जो किसी बेगाना बदन के छूते ही खत्म हो जाएं। हो सकता है—पराए बदन से गुज़र कर वह और मज़बूत हो जाएं जिस तरह इन्सान मुश्किलों से गुज़र कर और मज़बूत हो जाता है.....’’ औरत और मर्द का रिश्ता और क्या हो सकता था, मैं इसी बात को कहना चाहती थी कि एक कहानी लिखी, ‘मलिका’। मलिका जब बीमार है, सरकारी अस्पताल में जाती है, तो कागज़ी कार्रवाई पूरी करने के लिए डाक्टर पूछता है तुम्हारी उम्र क्या होगी ?

मलिका कहती है, ‘‘वही, जब इन्सान हर चीज के बारे में सोचना शुरू करता है, और फिर सोचता ही चला जाता है.....’’ डाक्टर पूछता है, ‘‘तुम्हारे मालिक का नाम ?’’ मलिका कहती है, ‘‘ मैं घड़ी या साइकिल नहीं, जो मेरा मालिक हो, मैं औरत हूं....’’ डाक्टर घबराकर कहता है, ‘‘मेरा मतलब है—तुम्हारे पति का नाम ?’’ मलिका जवाब देती है, ‘‘मैं बेरोज़गार हूं।’’ डाक्टर हैरान–सा कहता है, ‘‘भई, मैं नौकरी के बारे में नहीं पूछ रहा...’’ तो मलिका जवाब देती है, ‘‘वही तो कह रही हूं। मेरा मतलब है किसी की बीवी नहीं लगी हुई’’, और कहती है, ‘‘हर इन्सान किसी-न-किसी काम पर लगा हुआ होता है, जैसे आप डाक्टर लगे हुए हैं, यह पास खड़ी हुई बीबी नर्स लगी हुई है। आपके दरवाजे के बाहर खड़ा हुआ आदमी चपरासी लगा हुआ है।

इसी तरह लोग जब ब्याह करते हैं—जो मर्द खाविंद लग जाते हैं, और औरतें बीवियां लग जाती हैं...’’ समाज की व्यवस्था में किस तरह इन्सान का वजूद खोता जाता है, मैं यही कहना चाहती थी, जिसके लिए मलिका का किरदार पेश किया। जड़ हो चुके रिश्तों की बात करते हुए, मलिका कहती है, ‘‘क्यों डाक्टर साहब, यह ठीक नहीं ? कितने ही पेशे हैं—कि लोग तरक्की करते हैं, जैसे आज जो मेजर है, कल को कर्नल बन जाता है, फिर ब्रिगेडियर, और फिर जनरल। लेकिन इस शादी-ब्याह के पेशे में कभी तरक्की नहीं होती। बीवियां जिंदगी भर बीवियां लगी रहती है, और खाविंद ज़िंदगी भर खाविंद लगे रहते हैं....’’

उस वक्त डाक्टर पूछता है, ‘इसकी तरक्की हो तो क्या तरक्की हो ?’’ तब मलिका जवाब देती है, ‘‘डाक्टर साहब हो तो सकती है, पर मैंने कभी होते हुए देखी नहीं। यही कि आज जो इन्सान खाविंद लगा हुआ है, वह कल को महबूब हो जाए, और कल जो महबूब बने वह परसों खुदा हो जाए....’’ इसी तरह-समाज, मजहब और रियासत को लेकर वक्त के सवालात बढ़ते गए, तो मैंने नावल लिखा, ‘यह सच है’ इस नावल के किरदार का कोई नाम नहीं, वह इन्सान के चिन्तन का प्रतीक है, इसलिए वह अपने वर्तमान को पहचानने की कोशिश करता है, और इसी कोशिश में वह हज़ारों साल पीछे जाकर—इतिहास की कितनी ही घटनाओं में खुद को पहचानने का यत्न करता है—

उसे पुरानी घटना याद आई, जब वह पांच पांडवों में से एक था, और वे सब द्रौपदी को साथ लेकर वनों में विचर रहे थे। बहुत प्यास लगी तो युधिष्ठीर ने कहा था, ‘जाओ नकुल पानी का स्रोत तलाश करो !’’ जब उसने पानी का स्रोत खोज लिया था, तो किनारे पर उगे हुए पेड़ से आवाज़ आई थी, ‘‘हे नकुल ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी मत पीना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी’’—लेकिन उसने आवाज़ की तरफ ध्यान नहीं दिया, और जैसे ही सूखे हुए हलक से पानी की ओक लगाई, वह मूर्च्छित होकर वहीं गिर गया था....

और मेरे नावल का किरदार, जैसे ही पानी का गिलास पीना चाहती है, यह आवाज़ उसके मस्तक से टकरा जाती है, ‘‘हे आज के इन्सान ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना गिलास का पानी मत पीना....’’ और उसे लगता है—वह जन्म-जन्म से नकुल है, और उसे मूर्च्छित होने का शाप लगा हुआ है...वह कभी भी तो वक्त के सवालों का जवाब नहीं दे पाया...

इसी नावल में उसे याद आता है, ‘‘मैंने एक बार जुआ खेला था। सारा धन, हीरे, मोती दांव पर लगा दिए थे, और मैं हार गया था मैंने अपनी पत्नी भी दांव पर लगा दी थी...’’ और हवा में खड़ी हुई आवाज़ उससे पूछती है, ‘‘मैं दुर्योधन की सभा में खड़ी हुई द्रौपदी हूं, पूछना चाहती हूं—कि युधिष्ठिर जब अपने आपको हार चुके, तो मुझे दांव पर लगाने का उन्हें क्या अधिकार था ?’’ मैं इस सवाल के माध्यम से कहना चाहती हूं, कि जब इन्सान अपने आपको दांव पर लगा चुका, और हार चुका है—तो समाज के नाम पर दूसरे इन्सानों को मजहब के नाम पर खुदा की मखलूक को, और रियासत के नाम पर अपने-अपने देश के वर्तमान भविष्य को दांव पर लगाने का उसे क्या अधिकार है ?

इन्सान जो है, और इन्सान जो हो सकता है—यही फासला ज़हनी तौर पर मैंने जितना भी तय किया, उसी की बात ज़िंदगी भर कहती रही....बहुत निजी अहसास को कितनी ही नज़्मों के माध्यम से कहना चाहा— हथेलियों पर इश्क की मेंहदी का कुछ दावा नहीं हिज्र का एक रंग है, खुशबू तेरे जिक्र की.... एक दर्द, एक ज़ख्म एक कसक दिल के पास थी रात को सितारों की रकम—उसे ज़रब दे गई... और वक्त-वक्त पर जितने भी सवालात पैदा होते रहे—उसी दर्द का जायज़ा लेते हुए कितनी ही नज़्में कहीं— गंगाजल से लेकर, वोडका तक—यह सफरनामा है मेरी प्यास का... सादा पवित्र जन्म के सादा अपवित्र कर्म का—सादा इलाज.... किसी महबूब के चेहरे को—एक छलकते हुए गिलास में देखने का यत्न.... और अपने बदन पर—बिलकुल बेगाना ज़ख्म को भूलने की ज़रूरत... यह कितने तिकोन पत्थर हैं

जो किसी पानी की घूंट से—मैंने गले में उतारे हैं कितने भविष्य हैं—जो वर्तमान से बचाए हैं और शायद वर्तमान भी—वर्तमान से बचाया है.... इलहाम के धुएं से लेकर, सिगरेट की राख तक.... हर मज़हब बरड़ाए हर फलसफा लंगड़ाए हर नज़्म तुतलाए— और कहना-सा चाहे— कि हर सल्तनत  सिक्के की होती है, बारूदी की होती है और हर जन्मपत्री—आदम की जन्म की एक झूठी गवाही देती है...

पैर में लोहा डले कान में पत्थर ढले सोचों का हिसाब रुके सिक्के का हिसाब चले...

और लगा—

आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है

गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है

हर सड़क की हर दिशा का नाम पोंछ दिया है......

गर आपने मुझे कभी तलाश करना है...

तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ

यह एक शाप है

एक वर है और जहां भी स्वतंत्र रूह की झलक पड़े

समझना वह मेरा घर है....

बोधी गुंपा का मैंने हमेशा शुक्रिया अदा किया है—जिसने अपने कशूरवार के लिए पत्थरों पर महात्मा बुद्ध के श्लोक अंकित करने की सज़ा कायम की—और उसी खूबसूरत रिवायत में साए में खड़े होकर, मुहब्बत में भी अपने सुनहरी गुंपा में बैठकर, मेरे लिए वही सज़ा सुना दी और मेरे चिन्तन का जो भी फरमान था—मैं उसे तमाम ज़िंदगी कागज़ों पर लिखती रही। सोचती हूं—खुद के तरवैयुल से, अपने देश से, अपने देश के लोगों से, और तमाम दुनिया के लोगों से—यानी खुदा की तखलीक से, मेरी मुहब्बत का गुनाह सचमुच बहुत बड़ा है, बहुत संगीन....

7 comments:

अजित वडनेरकर said...

अमृताजी के अल्फाज़ पढ़ कर ही हमने शब्दज्ञान सीखा है...
शुक्रिया...

Anonymous said...

bahut sundar lekh,bas nisthabdh hokar ek saans ein padh liya.

ताऊ रामपुरिया said...

अमृता जी का लिखा पढ कर ऐसा लग रहा है कि एक साथ कई कविताएं पढ ली हों ! थोडी देर के लिये मन अमृता मय हो जाता है ! बहुत आभार आपका !

रामराम !

सुशील छौक्कर said...

अमृता जी का लिखा पढना ऐसे है जैसे किसी पवित्र ग्रंथ को पढ़ रहे हो।

MANVINDER BHIMBER said...

हर बार अच्छा लगता है
उनका lekhan ही कुछ asa है

कुश said...

लगता है आपने.. अमृता को जिया है...

दिगम्बर नासवा said...

अम्रता जी के लोखने में इतनी संजीदगी है, कि उसे महसूस किए बिना नही रहा जा सकता.
ऊपर से आप का लिक्खा सोने पर सुहागे का काम करता है.

शुक्रिया क्योंकि आपका ब्लॉग पढ़ कर रूहानी एहसास होता है