Thursday, January 1, 2009

और नदी बहती रही

इनसानी रिश्तों को अमृता जी इस तरह से कागज पर उतार देतीं हैं कि वह सीधे जा कर पढ़ने वाले की आत्मा को छू जाता है। उनके कितने ही कहानियां और उपन्यास हैं जो पढ़ने वालों की सोच को झकझोड़ कर रख देते हैं। कहानी समाप्त होती है और पढ़ने वाला अवाक हो जाता है उनके लेखन पर। अपने कॉलेज के दिनों में जब उनका उपन्यास ’आग की लकीर’ पढ़ा तो अवाक सा रह गया। जहन पर उस कहानी का असर कई महीनों तक रहा। आज भी उस कहानी को याद कर हैरान हो जाता हूं। मगर  ’ आग की लकीर’ की बात फिर कभी  करेंगे। आज आपको पढ़वायेंगे अमृता जी की कहानी ’और नदी बहती रही।’

यह कहानी कैसे लिखी गयी इसके बारे में अमृता जी नें स्वंय ही लिखा :

किसी काल का सत्य, जो पानी की सहज बहती हुई धारा की तरह, सहज मान लिया जा सकता है - वो आने वाले वक्त में भी ऐसा मान लिया जाये, यह नहीं होता....

मेरे सामने एक ऐसा ही वाक्या था, और मैं उस व्यक्ति को देखती रह गयी थी - जो अपने एक हाथ में उस वाक्या के दर्द को लेकर आया था, और दूसरे हाथ में वो मुझ पर एक ऐसा विश्वास लिये आया था कि अपनी दोनों हथेलियां मेरे सामने रखते हुए उसने कहा था कि मैं उसकी जिंदगी के उस वाकये को एक कहानी में उतार दूं।

वह जानता था कि आज के युग में उसका सत्य, सह्ज नहीं लिया जा सकता लेकिन यह उसके मानसिक तनाव का तकाज़ा था कि वह अपने दर्द को एक दस्तावेज़ की तरह अपने पास चाहता था....

मैं नहीं जानती थी कि मैं उसे लिख पाऊंगी कि नहीं, फिर भी हंस कर पूछा- अगर कहानी लिखा पायी तो उसमें आपका सही नाम नहीं होगा - फिर आप कैसे एक नये नाम की छाया में अपने को देख पांयेंगे?

उसके लिये अजीब स्थिति थी - उसे कहानी में अपना सही परिचय भी नहीं देना था- और एक नये नाम की छाया भी उसे मंजूर नहीं थी। इसी मुश्किल में से उसने एक रास्ता खोज लिया - अपना आधा सा नाम मेरे सामने रखा, और कहा- इससे लोगों की नजर में मेरी पहचान नहीं जायेगी, लेकिन मेरे लिये यह मेरा आधा सा नाम - मेरे पूरे नाम से भी ज्यादा ’मेरा’ हो जायेगा...

नाम की मुश्किल तो बड़ी मुश्किल नहीं थी, एक रास्ता मिल गया था, अब मुश्किल उसके लिये नहीं थी - मेरे लिये थी, कि मैं उसे किस पहलू से लिखूं कि वो हकीकत आज के काल में बहुत नहीं, तो कुछ हद तक सहज मन से ली जा सके।

और फिर प्राचीन काल ने किस तरह मेरी मदद की, बात को अपनी ओट में ले लिया, और में वो कहानी लिख पायी, यह सब कहानी के अक्षर अक्षर में देखा जा सकता है। वह कहानी थी - "और नदी  बहती रही।"

और नदी  बहती रही

एक घटना थी - जो नदी के पानी में बहती हुई किसी उस युग के किनारे के पास आकर खड़ी हो गयी, जहां एक घने जंगल में वेद्व्यास तप कर रहे थे.....

समाधी की लीनता टूटी तो सामने रानी सत्यवती उदास पर दिव्य सुंदरी के रूप में खड़ी हुई थी।

वृक्ष के पत्तों की तरह झुककर वेदव्यास ने प्रणाम किया, कहा- मेरी शास्वत सुंदरीं मां आज उदासी का यह वेश क्यों?

मां ने ऋषिपुत्र को मोह से भरी छाती से लगाया, कहा - तुम ऋषि कुल से हो, तुम मोह की पीड़ा नहीं जानते। राज का दर्द मैंने राजा शान्तनू से पाया और उसके राज्य की रक्षा के लिये मैंने जिस कोख् से तुम्हें जन्म दिया, उसी कोख से राजा शान्तनू के दो पुत्रों को जनम दिया।
पर एक मेरा राजकुमार युद्ध में मारा गया, और दूसरा, दो रानियों को रोती छोड़ कर क्षय में मर गया।

वृक्ष के सारे पत्ते जैसे कुम्हला कर वेदव्यास के तापस चेहरे की और देखने लगे......

रानी सत्यवती का मन गंगा की निर्मल लहरों की तरह बहने लगा, उस ने कहा- महर्षि पराशर ने गंगा के पानी की तरह मुझे अंग से लगाया था, तुम उसी पानी का मोती हो, जल थल में क्रीड़ा करते हो, जंगल, वन और बीहड़ तुम्हारे अधीन हैं, तुम ताज में जड़े मोती का दर्द नहीं जानते। वृक्ष के हरे रंग की तरह वेदव्यास के होंठ मुस्कुराये- मैं राज्य का दर्द नहीं जानता, पर मां का दर्द जानता हूं।

सत्यवती वृक्ष से लिपटी हुई बेल की तरह झूम गयी, बोली - ताज के मोती को तख्त का वारिस चाहिये। मेरी दोनों बहुएं आज विधवा हैं, आज में उनके लिये तुम्हारे पास पुत्र दान मांगनें आयी हूं। वेदव्यास ने सिर के ऊपर फैले हुए वृक्ष की ओर देखा और सारा वृक्ष  जैसे खिल सिमट कर धरती की छाती में पड़े हुए अपने बीज की और देखने लगा....

ऋषि के होंठ हंस पड़े, कहा- यह मां का हुक्म और धरती का हुक्म पूरा होगा....

और वेदव्यास ने वचन पूरा किया- अंबिका और अंबालिका दोनों को एक एक पुत्र का दान दिया....

नदी का पानी बंच्चों की किलकारी की तरह हंसता हुआ जब फिर बहने लगा तो वही घटना युगों से गुजरती हुई कलयुग के एक किनारे के पास खड़ी हो गयी -वहां, जहां बलदेव का साधारण सा घर था, जहां उसकी मेज पर पड़ी हुई किताबों में सिर्फ महाभारत के पर्व नहीं थे, कामू भी था, काफ्का भी था, पास्तरनाक भी....

और उसके सामने उसका मित्र काशीनाथ वृक्ष  के एक टूटे हुए पत्ते की तरह खड़ा था, बोला - जो दान मुझे ईश्वर ना दे सका, ना किसी वैद्य की दवा, वह दान मैं तुमसे मांगने आया हूं........ एक पुत्र का दान....
सिर के ऊपर कोई वृक्ष  नहीं था, पर बलदेव के कानों में वृक्ष  के पत्तों की शां शां भर गयी....

काशीनाथ कह रहा था- मेरी औरत के निरोग तन को एक मर्द के रोगी तन का श्राप लगा हुआ है..... मेरे मित्र ! बस यह श्राप एक घड़ी के लिये उतार दो...

बलदेव का सारा बदन वृक्ष  की जड़ की तरह हो गया....
काशीनाथ एक रुलते हुए पत्ते की तरह जैसे उसके पांव के पास आ गिरा - यह भेद सिर्फ मैं जानूं, तुम जानो, और वह जानेगी, और कोई नहीं....कोई नहीं...

बलदेव के वृक्ष  की जड़ की तरह हो गये बदन में से एक संकल्प प्रस्फुटित हुआ- यह शायद इतिहास का हुक्म है, मैं शायद एक वेदव्यास हूं, एक ऋषि.....

और वही युगों की घटना फिर घटी - टूटे हुए पत्तों के घर फूलों का वंश चला...

काशीनाथ के घर पुत्र जन्मा.....रिश्तेदारों संबंधियों के मुंह बधाईयों से भर गये, और जब बलदेव ने पालने में पड़े हुए बच्चे को झुक कर देखा.... उसके होंठ वेदव्यास के होठों की तरह बंद हो गये।

नहीं नहीं मैं वेदव्यास नहीं हूं, बलदेव की अपनी ही चीख जैसी आवाज से उसकी नींद टूट गयी.....

(जारी...)