Thursday, October 30, 2008

३१ तारीख इसका अमृता के जीवन पर बहुत असर रहा है .जैसे वह ३१ अगस्त को पैदा हुई ..३१ अक्तूबर को उन्होंनेअन्तिम सांस ली ..और उनकी ही ज़िन्दगी से जुडा एक ३१ जुलाई १९३० और है .जब उनकी ज़िन्दगी एक नएमुकाम पर खड़ी हुई होगी .....जिसके बारे में उन्होंने लिखा है ......कोई ग्यारह बरस की थी जब एक दिन अचानकमाँ बीमार हो गई ..बीमारी कोई मुश्किल से सिर्फ़ एक सप्ताह भर रही होगी ,जब मैंने देखा कि माँ की चारपाई के इर्दगिर्द बैठे लोग सभी घबराए हुए हैं ..

मेरी बिन्ना कहाँ है ? कहते हैं ,एक बार मेरी माँ ने पूछा था और जब मेरी माँ की सहेली प्रीतम कौर ने मेरा हाथपकड़ कर मुझे मेरी माँ के सामने कर दिया था तब माँ को होश नही था ..

तू ईश्वर का नाम ले री ..! कौन जाने उसके मन में दया जाए..बच्चो की वह बहुत जल्दी सुनता है .उनका कहानही टालता ..मेरी माँ की सहेली ,मेरी मौसी ने मुझसे कहा ..वर्षों से ईश्वर से ध्यान जोड़ने की आदत थी ,और अबजब मेरे सामने एक सवाल भी था .ध्यान जोड़ना कठिन नही था ...मैंने जाने कितनी देर अपन ध्यान जोड़े रखाऔर ईश्वर से कहा --मेरी माँ को मत मारना .."

माँ की चारपाई से माँ के कहराने की आवाज़ नही रही थी .पर इर्द गिर्द बैठे लोगों में एक खलबली मच गई ..मुझेलगता रहा कि बेकार ही सब घबरा रहे हैं ॥अब माँ को कोई दर्द तो हो नहीं रहा है ।मैंने ईश्वर से अपनी बात कह दीऔर देखो ईश्वर ने भी सुन ली अब तो सब ठीक है ..

और फ़िर माँ की चीखो की आवाज़ नही आई आई तो सिर्फ़ घर के बाकी लोगों के चीखने की आवाज़ .मेरी माँ मरगई थी ..उस दिन मेरे मन में रोष पैदा हो गया ..ईश्वर किसी की नही सुनता है .बच्चो की भी नही ..."

यह वह दिन था और उसके बाद अमृता ने अपना वर्षों का अपना नियम तोड़ दिया .वह अब किसी ध्यान या ईश्वरको मनाने से इनकार कर देती ..उनके .पिता जी कहते ध्यान लगाने को ,पर उनकी जिद ने उनकी पिता कीकठरोता से टक्कर लेने की ठान ली ..

वह उनको पालथी मार कर बैठने को कहते पर वह ऊपर से सिर्फ़ आँखे बंद करती और सोचती की अब मैं आँखे बंदकरे के भी ईश्वर का ध्यान करूँ तो पिता जी क्या करे लेंगे मेरा ...मैं तो सिर्फ़ अपने राजन का ध्यान करुँगी ,जोमेरे साथ सपने में खेलता है .मेरे गीत सुनता है .वह मेरी तस्वीर बनाता है ..बस मैं उसी का ध्यान करुँगी ...

ज़िन्दगी के कितने पड़ाव अमृता ने पार किए ..ठहराव आया इमरोज़ से मिलने के बाद .जिसने अपना सब कुछउनके आँचल में यह कह कर बाँध दिया कि सब कुछ एक नोट बना कर तुम्हारे इस आँचल में बाँध रहा हूँ ..अपनीकामनाएं ,अपने चाव .अपने एतबार ..यह सब अब तुम्हारे ऊपर है कि इसको कैसे खर्च करोगी ..मेरी उम्र भीतुम्हारी है ..अपनी यह अमानत अब मुझसे ले लो ...

वो हमसे दूर हैं ही कहाँ ..महकती हैं आज भी वो अपनी नज्मों में ..जीती है एक ज़िन्दगी अपने उपन्यास के पन्नोमें साथ ही हमारे ...तभी तो इमरोज़ ने लिखा ...कि यह हमारा उनसे मिलने का जश्न जारी है और जारी रहेगा ...

मेरा दूसरा जन्म हुआ
जब पहली मुलाकात के बाद
तूने मेरा जन्मदिन मनाया
और फ़िर
मेरी ज़िन्दगी का जश्न भी
तुमने ही मनाया --
खूबसूरत ख्यालों के साथ
और कविता ,कविता ज़िन्दगी के साथ
शामिल हो कर --
और वह भी चालीस साल ...

आज भी
तेरी वह शमुलियत
मेरी ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी की साँसों की तरह जारी है
और तेरी मेरी ज़िन्दगी के मिलन का
वह जश्न भी ....

Wednesday, October 22, 2008



अमृता के लिखे नावल में मुझे "३६ चक "बहुत पसंद है ...यह उपन्यास अमृता ने १९६३ में लिखा था... जब यह १९६४ में छपा तो यह अफवाह फ़ैल गई कि पंजाब सरकार इसको बेन कर रही है ..पर ऐसा कुछ नही हुआ ..यह १९६५ में हिन्दी में 'नागमणि" के नाम से छपा और १९६६ उर्दू में भी प्रकाशित हुआ ...जब इस उपन्यास पर पिक्चर बनाने की बात सोची गई तो रेवती शरण शर्मा ने कहा कि यह उपन्यास समय से एक शताब्दी पहले लिखा गया है .हिन्दुस्तान अभी इसको समझ नही पायेगा ..और बासु भटाचार्य जी ने कहा कि इस पर पिक्चर बनी तो यह हिन्दुस्तान की पहली एडल्ट पिक्चर होगी ...बाद में इसको १९७४ में अमृता जी की एक दोस्त ने इसको अंगेरजी में अनुवाद किया

यह पूरा उपन्यास दो तरह से दृष्टिकोण पेश करता है ...कुमार का पात्र अपनी शारीरिक आवश्यकता को अपने समूचे व्यक्तित्व से तोड़ कर देखता है ...और अलका का पात्र उसे स्वयं की पहचान में से और स्वयं के मूल्यों और कद्रों से जोड़ कर ...इस में अलका दोनों ही पहलुओं के टकराव में अडोल .सहज हो कर अपने बल पर अडिग रहती है और कुमार अपनी पहचान खोजता हुआ टूट टूट कर जुड़ता है और जुड़ जुड़ कर टूटता है ...

जब कुमार अलका को बताता है कि सिर्फ़ अपने शरीर के लिए बाहर जाता है उस औरत के पास जो रोज़ बीस रूपये लेती थी ...और उसकी स्वंत्रता कभी नही मांगती .....तो अलका कहती है कि कि काश वह औरत मैं होती ...जब यह उपन्यास लिखा अमृता ने तो ,यह पंक्ति वही थी जो कभी इमरोज़ ने अमृता से कही थी ...उनके लिखे लफ्जों में ख़ुद से जुड़े लम्हों की बात होती थी ,तभी वह सहज रूप से हर बात कह जाती थी ....जो शब्द अलका ने उपन्यास में कहे ..वह लफ्ज़ अमृता ने इमरोज़ को कहे थे ...और यह लफ्ज़ सिर्फ़ अमृता ही कह सकती है

अस्वाभाविक हालत की स्भाविकता शायद और किसी औरत के लिए संभव नही हो सकती .अलका ही सिर्फ़ अमृता हो सकती है और अमृता ही सिर्फ़ अलका ..हर पात्र लेखक के साथ गहरा जुडा होता है ..अलका का पात्र रचते हुए वह अमृता के साथ जुड़ी रही ..उसी को संबोधित करते हुए अमृता ने एक कविता लिखी .यही एक ऐसी कविता है जो अमृता ने अपने किसी पात्र को संबोधित करके लिखी ..इसका नाम रखा उन्होंने "'पहचान .."'

कई हजार चाबियाँ मेरे पास थी
और एक -एक चाबी एक एक दरवाज़े को खोल देती थी
दरवाज़े के अन्दर किसी की बैठक भी होती थी
और मोटे परदे में लिपटा किसी का सोने का कमरा भी
और घरवालों का दुःख
जो उनके होते थे ,पर किसी समय मेरे भी होते थे
मेरी छाती की पीड़ा की तरह
पीड़ा ,जो दिन के समय जागूं तो ,जाग पड़ती थी ,
और रात के समय सपनों में उतर जाती थी ,
पर फ़िर भी
पैरों के आगे ,रक्षा की रेखा जैसी .एक लक्ष्मण रेखा होती थी
और जिसकी बदौलत में जब चाहती थी
घरवालों के दुःख घरवालों को दे कर
उस रेखा में लौट जाती थी
और आते समय लोगों के आंसूं लोगों को सौंप आती थी ..
देख ,जितनी कहनियाँ और उनके पात्र हैं !
उतनी ही चाबियाँ मेरे पास थी
और जिनके पीछे
हजारों ही घर ,जो मेरे नहीं ,पर मेरे भी थे ,
शायद वे अब भी है
पर आज एक चाबी का कौतुक
मैंने तेरे घर को खोला तो देखा
वह लक्ष्मण रेखा मेरे पैरों के आगे नहीं ,पीछे हैं
और सामने ,तेरे सोने के कमरे में .तू नहीं मैं हूँ .............

इस उपन्यास को यदि अब तक आपने नही पढ़ा हैं तो जरुर पढ़े ..और यहाँ पढ़ना चाहेंगे तो जरुर लिखे मुझे ..वैसे मैं समय -समय पर इसकी बात करती रहूंगी और भी इनके लिखे उपन्यासों के साथ साथ ....

Wednesday, October 15, 2008

नजर के आसमान से
सूरज कहीं दूर चला गया
पर अब भी चाँद में .
उसकी खुशबु आ रही है ...

तेरे इश्क की एक बूंद
इस में मिल गई थी
इस लिए मैंने उम्र की
सारी कडवाहट पी ली ..

अमृता का कहना था कि दुनिया की कोई भी किताब हो हम उसके चिंतन का दो बूंद पानी जरुर उस से ले लेते हैं ..और फ़िर उसी से अपना मन मस्तक भरते चले जाते हैं .और फ़िर जब हम उस में चाँद की परछाई देखते हैं तो हमें उस पानी से मोह हो जाता है ...हम जो कुछ भी किताबों से लेते हैं वह अपना अनुभव नही होता वह सिर्फ़ सहेज लिया जाता है ....अपना अनुभव तो ख़ुद पाने से मिलता है ...इस में भी एक इबारत वह होती है जो सिर्फ़ बाहरी दुनिया की सच्चाई लिखती है ,पर एक इबारत वह होती है जो अपने अंतर्मन की होती है और वह सिर्फ़ आत्मा के कागज पर लिखी जाती है ....

इस जेहनी और रूहानी लिखने का सिलसिला बहुत लंबा होता है जो परिवार चेतना के विकास की जमीन पर बनता है ....इसी जमीन पर संस्कारों के पेड़ पनपते हैं और इसी में अंतर्मन की एक झील बहती रहती है ..पर इस के तर्क दिल के गहरे में कहीं छिपे होते हैं .जो कभी किसी की पकड़ में आते हैं ..कभी नही आते .....तब उँगलियों के पोरों से यह गांठे खोलनी होती है और यही सच्चे इश्क का तकाजा है ...और यही इस चेतन यात्रा का इश्क कहलाता है .....

अमृता की एक नज्म है जिस में इस सारे अमल को उन्होंने सुइयां चुनना कहा था ...जिसके लिए प्रतीक उन्होंने एक बहुत पुरानी कहानी से लिए थे ....इस कहानी में एक औरत सुबह की बेला में अभी बैठी ही थी कि उसका मर्द बहुत बुरी तरह से जख्मी हालात में घर आया ..किसी दुश्मन ने उसके सारे शरीर में सुइयां पीरों दी थी ....वह औरत अपने मर्द के रोम रोम में सुइयां देख कर तड़प गई ...तभी उसको एक आकाश वाणी सुनाई दी ..अगर वह सारा दिन भूखी प्यासी रह कर अपने मर्द के बदन से सुइयां चुनती रहे तो शाम के वक्त चाँद निकलते ही उसका मर्द ठीक स्वस्थ हो जायेगा ....

अब यह कहानी कब घटित हुई ...किन अर्थों में घटी .इसका कुछ पता नही है ..पर वह एक सुहागन औरत के लिए एक प्रतीक बन गई ..करवा चौथ का व्रत रखने का ..जिस में वह सूरज निकलने से पहले कुछ खा पी कर सारा दिन भूखी प्यासी रहती है उस दिन उसके लिए घर का सारा काम वर्जित होता है ..न वह चरखा कातती है ..न चक्की को हाथ लगाती है .और गहरी संध्या होने पर .चाँद को अर्ध्य दे कर पानी पीती है .और कुछ खाती है ...और यह मान लेती है कि इस तरह से उसने अपने मर्द के सारे दुःख उसके बदन से चुन लिये हैं .....

अमृता ने इस कहानी को चेतन के तौर पर इस्तेमाल किया और एक नज्म लिखी


मैं पल भर भी नही सोयी ,घड़ी भर भी नही सोयी
और रात मेरी आँख से गुजरती रही
मेरे इश्क के बदन में ,जाने कितनी सुइयां उतर गई हैं ..

कहीं उनका पार नही पड़ता
आज धरती की छाया आई थी
कुछ मुहं जुठाने को लायी थी
और व्रत के रहस्य कहती रही

तूने चरखे को नही छूना
चक्की को नही छूना
कहीं सुइयां निकालने की बारी न खो जाए


यौवन ---जो मेरे बदन पर बौर की तरह पडा है
और प्यास से बिलखने लगा
और सुइयां निकालते निकालते ,संध्या की बेला हो गई है

मैं कहाँ अर्ध्य दूँ ! कहीं कोई चाँद नही दिखता
सोचती हूँ --यह जो सुइयां निकाल दी है
शायद यही मेरी उम्र भर की कमाई है ....


अमृता की इस नज्म में इस कहानी की सुइयां --हर तरह के समाज .महजब और सियासत की और से इंसान को दी हुई फितरी ,जेहनी और गुलामी का प्रतीक हैं ..जिनसे उसने अपने आप को आजाद करना है ...

इस पूरी कहानी में दो किरदार दीखते हैं एक मर्द और औरत ..पर ध्यान से देखे और इस चिंतन की गहराई में उतरे तो एक ही किरदार है वह है इंसान ..यह दो पहलू हर इंसान की काया में होते हैं ..मर्द की काया में मर्द उसका चेतन मन होता है और औरत अचेतन मन ..औरत की काया में औरत उसका चेतन मन और मर्द उसका अचेतन मन होता है ..सुइयां निकालना यहाँ चेतन यत्न है ...सिर्फ़ परछाइयों को पकड़ने से जीया नही जा सकता है ..अपने भीतर एक आग ,एक प्यास निरंतर जलाए रखना जरुरी है ....तभी आगे की दास्तान बनती है ....

Thursday, October 9, 2008

अमृता प्रीतम से एक साक्षात्कार में पढ़ा कि ----उनसे किसी ने पूछा उनकी नज्म "मेरा पता " के बारे में .... जब उन्होंने मेरा पता जैसी कविता लिखी तो उनके मन की अवस्था कितनी विशाल रही होगी ..
आदम को या उसकी संभावना को खोज ले तो यही पूर्ण मैं को खोजने वाली संभावना हो जाती है ....यथा ब्रह्मांडे तथा पिंडे को समझने वाला मनुष्य कहाँ खो गया है ,सारा सम्बन्ध उस से से है ...

आज मैंने अपने घर का पता मिटाया है ..
और हर गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है ....


इस में हर यात्रा मैं से शुरू होती है और मैं तक जाती है ..तंत्र के अनुसार यह यात्रा दोहरी होती है ,पहली" अहम से अहंकार तक 'और दूसरी "अहंकार से अहम तक "....आपके अहम की और जाने वाली अवस्था के रास्ते में आज कोई सज्जाद नही ,कोई साहिर नही कोई इमरोज़ नही ...


अमृता ने कहा कि आपने मेरी नज्म मेरा पता नज्म की एक सतर पढ़ी है -----यह एक शाप है .एक वरदान है ..इस में मैं कहना चाहती हूँ कि यह सज्जाद की दोस्ती है ,और साहिर इमरोज की मोहब्बत जिसने मेरे शाप को वरदान बना दिया आपके लफ्जों में शिव का प्रतीक है और शक्ति का ..जिस में से शिव अपना प्रतिबिम्ब देख कर ख़ुद को पहचानते हैं और मैंने ख़ुद को साहिर और इमरोज़ के इश्क से पहचाना है ..वह मेरे है मेरी शक्ति के प्रतीक ...


और यह पढ़ कर जाना कि के इश्क उनके मन की अवस्था में लीन हो चुका है .और यही लीनता उनको ऊँचा और ऊँचा उठा देती है ...

उनके इसी "मैं "से फ़िर हम मिलते हैं उनकी कविता मैं जो तेरी कुछ नही लगती ..यह मैं वही हैं जिसका हाथ अंधेरे के मेले में खोये एक बच्चे ने पकड़ लिया था ...यहाँ इस कविता में इस मैं से हम भरपूर मिलते हैं ...

हथेली पर ,
इश्क की मेहंदी का कोई दावा नहीं ....
हिज्र का एक रंग है
और तेरे ज़िक्र की एक खुशबु

मैं जो तेरी कुछ नही लगती ..................

यह आखिरी पंक्ति लिखना कोई आसान काम नही है मैं जो तेरी कुछ नही लगती यानी पंडित के दो बोल ही सब कुछ है और हर्फे वफ़ा कुछ भी नहीं ..हमारे समाज में यही कुछ तो होता आया है .अगर ऐसा न होता तो प्यार की कोई कहानी भी नही सुनाई देती ,जिसका अंत सिर्फ़ मिलन पर होता ..हिज्र के रंग को कोई नही देखता है .....मेहँदी का रंग सब देख लेते हैं ..कोई नही सोचता है की मेहँदी का रंग ही सही में विरह का रंग भी होता है ......मैं जो तेरी कुछ नही लगती ..यह पंक्ति एक बार नहीं बार बार सुनाई देती है पढने में आती है ..कभी हौले से कभी तेज स्वर में ...

आसमान जब भी रात का
और रौशनी का रिश्ता जोड़ते हैं
सितारे मुबारकबाद देते हैं ..
क्यों सोचती हूँ मैं
अगर कहीं ..
मैं ..जो तेरी कुछ नही लगती ...

यहाँ आसमान .रात और अँधेरा धूप के टुकडे से मैं तक चला आया है ..शादी का वातावरण है ..गीतों के शोर में यह आवाज़ कभी दूर से कभी पास से सुनाई देती है कि मैं तेरी कुछ नही लगती ....आसमान ने रात और रोशनी का गठबंधन कर लिया है .सितारे भी मुबारकबाद दे रहे हैं ..और मैं ??

फ़िर इसी मैं की झलक हम देखते हैं इस कविता में ..

उम्र की सिगरेट जल गई
मेरे इश्क की महक
कुछ तेरी साँसों में
कुछ हवा में मिल गई

ज़िन्दगी की आधी से अधिक सिगरेट जल चुकी है .सिर्फ़ आखिरी टुकडा बचा है

देखो यह आखिरी टुकडा है

उँगलियों में से छोड़ दो
कहीं मेरे इश्क की आंच
तुम्हारी उँगली को न छू ले

सिगरेट पीने वाला यदि न संभले तो यह आखिरी टुकडा जरुर उसकी उंगलियाँ जला देगा ..पर यह मैं क्या करे ...इसके पास तो सिर्फ़ यादों के टुकड़े बचे हैं और एक औरत को तो सपने देखने का हक भी नही हैं ..

जीवन बाला ने कल रात
सपने का एक निवाला तोडा
जाने यह ख़बर कैसे
आसमान के कानों तक जा पहुँची

अमृता की कविता निवाला में यह बात कितनी सुंदर कही गई है ...यहाँ आसमान समाज का प्रतीक है और इसके कान बहुत तेज है यह तो दिल की धड़कने और सपनों की आहट भी सुन लेता है और ..

बड़े पंखों ने यह ख़बर सुनी
लम्बी चोंच ने यह खबर सुनी
तेज जुबानों ने यह ख़बर सुनी
तीखे नाखूनों ने यह ख़बर सुनी ..

कि एक औरत ख्वाब देखने का गुनाह कर रही है और ख़ुद ख्वाब का निवाला किस हाल में है..

इस निवाले का बदन नंगा
खुशबु की ओढनी फटी हुई
मन की ओट नही मिली
तन की ओट नहीं मिली

और फ़िर नतीजा क्या हुआ ..

एक झपट्टे में निवाला छिन गया
दोनों हाथ जख्मी हो गए
गालों पर खराशे आ गई

और सपने देखने वाले का हाथ खाली हो गया ..फ़िर

मुहं में निवाले की जगह
निवाले की बातें रह गयीं
और आसमान की काली रातें
चीलों की तरह उड़ने लगीं ......

फ़िर से वही रात आ गई ..फर्क सिर्फ़ यही है कि यहाँ राते चीलों की तरह उड़ रही है ..बदन की महक भी उड़ रही है ..सूरज बनने को सब तैयार हैं ..पर रोशनी बनने को कोई तैयार नही ..क्यों कि चीलें सूरज नही बन सकती है .....

इस तरह अमृता का लेखन हमें अमृता के और करीब ले जाता है ..क्यों कि हम उस में ख़ुद को महसूस कर लेते हैं ..इस तरह हर इंसान के अन्दर कितने ही तरह के लेवल्स हैं ..अगर इनको एक कर लिया जाए तो वही सबसे खूबसूरत है ..क्यों कि वही मन का संन्यास है और वही है तपस्या ...और वही है मैं से मैं तक की यात्रा

Wednesday, October 1, 2008

कहीं पढ़ा था कि हर पाठक एक यात्री होता है और हर किताब एक यात्रा .....और इस यात्रा में यात्री को जो अच्छे बुरे तजुर्बे होते हैं ,उन्ही के आधार पर वह यात्रा के विषय में अच्छी बुरी राय बनाता है .....कोई यात्रा सफल होती है और कोई असफल .....जब वह इस यात्रा से लौटता है तो सबको इस यात्रा की कहानी सुनाता है .... उसने क्या देखा ? क्या अनुभव किया ? कैसे कहाँ अच्छा लगा ? कहाँ बुरा लगा ..और अंत में हाथ में क्या आया ...यही बात मैं आपसे अमृता की बातें करते हुए महसूस करती हूँ ...जो एक रूहानी एहसास मैं इस यात्रा में महसूस करती हूँ .वह जब आपको सुनाती हूँ तो वही प्यार सा एहसास एक प्यास आप सब में भी महसूस करती हूँ ...मुझे लगता है कि जो ज़िन्दगी हम जी नही पाते हैं वह जब पढ़ते हैं ,अनुभव करते हैं तो वही दिल को एक आत्मिक संतोष दे जाती है ..

अमृता की कविता एक जादू है .उनकी कविता में जो अपने आस पास की झलक मिलती है वह रचना अपनी यात्रा में अंत तक अपना बुनयादी चिन्ह नही छोड़ती है ..वह अपने में डूबो लेती है .अपने साथ साथ उस यात्रा पर ले चलती है .जिस पर हम ख़ुद को बहुत सहज सा अनुभव करते हैं ....आज उनकी कुछ कविताओं से ख़ुद को जोड़ कर देखते हैं ....उनकी एक कविता है ""धूप का टुकडा ""


मुझे वह समय याद है --
जब धूप का एक टुकडा
सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
उस भीड़ में खो गया ..

अब इस में जो तस्वीर उभर कर आती है वह यह है कि धूप का टुकडा एक बच्चा है ..अंधेरे का मेला देखने चला गया था परन्तु वह अंधेरे में ही कहीं गुम हो गया | अभी इस चिन्ह की तहे खोलने की जरुरत नही हैं | यह एक हिन्दुस्तानी मेला है और एक मेले में वह बच्चा गुम हो गया है जो अमृता का कुछ नही लगता .पर बच्चा तो जहाँ प्यार देखेगा वहां का हो जायेगा इस लिए वह अमृता के साथ हो लिया है ...

सोचती हूँ : सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नही लगती
पर इस खोये बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया है ..

हम जब यह कविता पढ़ रहे हैं तो महसूस करते हैं कि बच्चे ने अमृता का हाथ पकड़ा जरुर है पर वह डरा हुआ है ..यही इस कविता के अन्दर के एहसास से मिलवा देता है पढने वाले को भी ..अँधेरा है ....मेले के शोर में भी एक चुप्पी ,एक खामोशी है ..उसके बाद वाली पंक्तियाँ जैसे हमारे दिल की बात कह देती है ...

और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकडा ....

जिसकी यादो से वह जुड़ी है उसी तरह हम भी किसी न किसी अपनी प्यारी याद से जुड़े हुए हैं ..तेरी याद तो तेरी है .अंधेरे के मेले में तुझ से बिछड कर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया ..तेरी याद मेरे पास है परन्तु वह मुझसे बहलती नहीं है क्यों कि मैं उसकी भला क्या लगती हूँ ..और फ़िर वह कहती है ...

तुम कहीं नही मिलते
हाथ को हाथ छू रहा है ..

धूप का टुकडा सूरज से बिछड गया और सूरज कहीं मिलता नही ..किसी मेले में किसी को तलाश करना आसान काम नही है ...इस पूरी कविता में कोई मेले का चित्र यूँ नही बना है पर पढने वाला उस से ख़ुद को जोड़ लेता है ...क्यों कि वह जो भी लिखती है वह हमारे आस पास का का है .घर है ,.गांव है ,इसलिए पढने वाले ,अमृता से प्यार करने वाले अमृता से ख़ुद का जुडाव महसूस करते हैं ..सूरज अमृता का बहुत प्यारा है .परन्तु आसमान के सूरज को घर बुलाए बिना अमृता उसको अपनी कविता में नही आने देती है ...

आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया

यह सूरज केवल सूरज नहीं हैं ..हम उसको घर में देखते हैं ..वह घबराया हुआ है ..उसने धबरा कर रोशनी की एक खिड़की खोली और बादल की एक खिड़की भेड़ दी और वह अंधेरे की सीढियां उतर गया ..यानी वह एक दो मंजिला मकान में है .यह मकान यह भी बताता है कि सूरज किस वर्ग का है ..वह निचले वर्ग का नहीं है .क्यों कि ऐसा होता तो वह दो मंजिले मकान में नही रहता ..यह सूरज वही है धूप का टुकडा जो हमारे सामने नही आया था ..वह अंधेरों की सीढियाँ उतर गया ..

आसमान के भवों पर
जाने क्यूँ पसीना आ गया
सितारों के बटक खोल कर
उसने चाँद का कुरता उतार दिया ...



रात हो गई है ....आसमान ने तारों का बटन खोल कर चाँद का कुरता उतार दिया ..यहाँ हम ख़ुद को फ़िर से एक घर से ख़ुद को जुडा हुआ सा महसूस करते हैं जैसे गर्मियीं की रात है ....और उसके सोचे पात्र ने अपना कुरता उतार कर रख दिया है .गर्मी के मौसम की एक सहज सी बात है यह ..... परन्तु यह सब तो वह उस तरफ़ जो हो रहा है वह सोच रहीं है ..उनकी तरफ़ क्या वह महसूस करती है ..

मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँ
तुम्हारी याद इस तरह आई ---
जैसे गीली लकड़ी में से
गाढा कडुवा धुंआ उठे ...

दिल के कोने का मतलब यहाँ एक एक ऐसी उपमा से है जो हमें घर से बाहर नही निकलने देती है .और तेरी याद कैसे एक धुँए सी उठ कर आँख में लग रही है ...यहाँ अमृता आँखों से पानी बहने की बात नही करती है ..पर पढने वाला ख़ुद की आँखे गीली महसूस करता है ..सूरज डूबा .....चूल्हा जला .गीली लकड़ी जलते जलते आँखे नम कर गई और उसी की याद से जुड़े ख्याल भी धुएँ जैसे सुलग कर जल गए

खाना पक गया और सूखी, गीली सभी लकडियाँ बुझा दी गई ,परन्तु यह उपमा यहीं रुक नही जाती ..

वर्ष कोयलों की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गए ,कुछ बुझने से रह गए
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गए

लकडियाँ तो बुझ गयीं पर उसको बुझाने की कोशिश में जो हाथ की उंगलियाँ जल गई है ..और इसके बाद यह क्या हुआ ..

तेरे इश्क के हाथ से छुट गई
और ज़िन्दगी की हंडिया टूट गई
इतिहास का मेहमान
चौके से भूखा उठ गया ....

खाना पकाने वाली सब कुछ झेल गई परन्तु जब इश्क के हाथ से ज़िन्दगी की हांडी उतरते , उतारते छूट कर गिरी और टूट गई जिस से इतिहास का मेहमान भूखा उठ गया तो वह बिलख उठी ..इस पूरी कविता में न कहीं डोर टूटती है न कहीं उलझती है .और जिस तरह अपने ही आस पास की दुनिया से जुड़ जाती है तो यह अपनी ही लगती है ...और हम सहज जी अमृता से जुड़ जाते हैं ..उस प्यार को उस रूह के एहसास को ख़ुद में महसूस करने लगते हैं ....

किस तरह अमृता अपने लिखे से अपना बना लेती है .....यह इन दो कविताओं के माध्यम से जाना ..कुछ और जुडेंगे हम अगले अंक में अमृता की कुछ और रचनाओं के माध्यम से ....