३१ तारीख इसका अमृता के जीवन पर बहुत असर रहा है .जैसे वह ३१ अगस्त को पैदा हुई ..३१ अक्तूबर को उन्होंनेअन्तिम सांस ली ..और उनकी ही ज़िन्दगी से जुडा एक ३१ जुलाई १९३० और है .जब उनकी ज़िन्दगी एक नएमुकाम पर खड़ी हुई होगी .....जिसके बारे में उन्होंने लिखा है ......कोई ग्यारह बरस की थी जब एक दिन अचानकमाँ बीमार हो गई ..बीमारी कोई मुश्किल से सिर्फ़ एक सप्ताह भर रही होगी ,जब मैंने देखा कि माँ की चारपाई के इर्दगिर्द बैठे लोग सभी घबराए हुए हैं ..
मेरी बिन्ना कहाँ है ? कहते हैं ,एक बार मेरी माँ ने पूछा था और जब मेरी माँ की सहेली प्रीतम कौर ने मेरा हाथपकड़ कर मुझे मेरी माँ के सामने कर दिया था तब माँ को होश नही था ..
तू ईश्वर का नाम ले री ..! कौन जाने उसके मन में दया आ जाए..बच्चो की वह बहुत जल्दी सुनता है .उनका कहानही टालता ..मेरी माँ की सहेली ,मेरी मौसी ने मुझसे कहा ..वर्षों से ईश्वर से ध्यान जोड़ने की आदत थी ,और अबजब मेरे सामने एक सवाल भी था .ध्यान जोड़ना कठिन नही था ...मैंने न जाने कितनी देर अपन ध्यान जोड़े रखाऔर ईश्वर से कहा --मेरी माँ को मत मारना .."
माँ की चारपाई से माँ के कहराने की आवाज़ नही आ रही थी .पर इर्द गिर्द बैठे लोगों में एक खलबली मच गई ..मुझेलगता रहा कि बेकार ही सब घबरा रहे हैं ॥अब माँ को कोई दर्द तो हो नहीं रहा है ।मैंने ईश्वर से अपनी बात कह दीऔर देखो ईश्वर ने भी सुन ली अब तो सब ठीक है ..
और फ़िर माँ की चीखो की आवाज़ नही आई आई तो सिर्फ़ घर के बाकी लोगों के चीखने की आवाज़ .मेरी माँ मरगई थी ..उस दिन मेरे मन में रोष पैदा हो गया ..ईश्वर किसी की नही सुनता है .बच्चो की भी नही ..."
यह वह दिन था और उसके बाद अमृता ने अपना वर्षों का अपना नियम तोड़ दिया .वह अब किसी ध्यान या ईश्वरको मनाने से इनकार कर देती ..उनके .पिता जी कहते ध्यान लगाने को ,पर उनकी जिद ने उनकी पिता कीकठरोता से टक्कर लेने की ठान ली ..
वह उनको पालथी मार कर बैठने को कहते पर वह ऊपर से सिर्फ़ आँखे बंद करती और सोचती की अब मैं आँखे बंदकरे के भी ईश्वर का ध्यान न करूँ तो पिता जी क्या करे लेंगे मेरा ...मैं तो सिर्फ़ अपने राजन का ध्यान करुँगी ,जोमेरे साथ सपने में खेलता है .मेरे गीत सुनता है .वह मेरी तस्वीर बनाता है ..बस मैं उसी का ध्यान करुँगी ...
ज़िन्दगी के कितने पड़ाव अमृता ने पार किए ..ठहराव आया इमरोज़ से मिलने के बाद .जिसने अपना सब कुछउनके आँचल में यह कह कर बाँध दिया कि सब कुछ एक नोट बना कर तुम्हारे इस आँचल में बाँध रहा हूँ ..अपनीकामनाएं ,अपने चाव .अपने एतबार ..यह सब अब तुम्हारे ऊपर है कि इसको कैसे खर्च करोगी ..मेरी उम्र भीतुम्हारी है ..अपनी यह अमानत अब मुझसे ले लो ...
वो हमसे दूर हैं ही कहाँ ..महकती हैं आज भी वो अपनी नज्मों में ..जीती है एक ज़िन्दगी अपने उपन्यास के पन्नोमें साथ ही हमारे ...तभी तो इमरोज़ ने लिखा ...कि यह हमारा उनसे मिलने का जश्न जारी है और जारी रहेगा ...
मेरा दूसरा जन्म हुआ
जब पहली मुलाकात के बाद
तूने मेरा जन्मदिन मनाया
और फ़िर
मेरी ज़िन्दगी का जश्न भी
तुमने ही मनाया --
खूबसूरत ख्यालों के साथ
और कविता ,कविता ज़िन्दगी के साथ
शामिल हो कर --
और वह भी चालीस साल ...
आज भी
तेरी वह शमुलियत
मेरी ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी की साँसों की तरह जारी है
और तेरी मेरी ज़िन्दगी के मिलन का
वह जश्न भी ....
मेरी बिन्ना कहाँ है ? कहते हैं ,एक बार मेरी माँ ने पूछा था और जब मेरी माँ की सहेली प्रीतम कौर ने मेरा हाथपकड़ कर मुझे मेरी माँ के सामने कर दिया था तब माँ को होश नही था ..
तू ईश्वर का नाम ले री ..! कौन जाने उसके मन में दया आ जाए..बच्चो की वह बहुत जल्दी सुनता है .उनका कहानही टालता ..मेरी माँ की सहेली ,मेरी मौसी ने मुझसे कहा ..वर्षों से ईश्वर से ध्यान जोड़ने की आदत थी ,और अबजब मेरे सामने एक सवाल भी था .ध्यान जोड़ना कठिन नही था ...मैंने न जाने कितनी देर अपन ध्यान जोड़े रखाऔर ईश्वर से कहा --मेरी माँ को मत मारना .."
माँ की चारपाई से माँ के कहराने की आवाज़ नही आ रही थी .पर इर्द गिर्द बैठे लोगों में एक खलबली मच गई ..मुझेलगता रहा कि बेकार ही सब घबरा रहे हैं ॥अब माँ को कोई दर्द तो हो नहीं रहा है ।मैंने ईश्वर से अपनी बात कह दीऔर देखो ईश्वर ने भी सुन ली अब तो सब ठीक है ..
और फ़िर माँ की चीखो की आवाज़ नही आई आई तो सिर्फ़ घर के बाकी लोगों के चीखने की आवाज़ .मेरी माँ मरगई थी ..उस दिन मेरे मन में रोष पैदा हो गया ..ईश्वर किसी की नही सुनता है .बच्चो की भी नही ..."
यह वह दिन था और उसके बाद अमृता ने अपना वर्षों का अपना नियम तोड़ दिया .वह अब किसी ध्यान या ईश्वरको मनाने से इनकार कर देती ..उनके .पिता जी कहते ध्यान लगाने को ,पर उनकी जिद ने उनकी पिता कीकठरोता से टक्कर लेने की ठान ली ..
वह उनको पालथी मार कर बैठने को कहते पर वह ऊपर से सिर्फ़ आँखे बंद करती और सोचती की अब मैं आँखे बंदकरे के भी ईश्वर का ध्यान न करूँ तो पिता जी क्या करे लेंगे मेरा ...मैं तो सिर्फ़ अपने राजन का ध्यान करुँगी ,जोमेरे साथ सपने में खेलता है .मेरे गीत सुनता है .वह मेरी तस्वीर बनाता है ..बस मैं उसी का ध्यान करुँगी ...
ज़िन्दगी के कितने पड़ाव अमृता ने पार किए ..ठहराव आया इमरोज़ से मिलने के बाद .जिसने अपना सब कुछउनके आँचल में यह कह कर बाँध दिया कि सब कुछ एक नोट बना कर तुम्हारे इस आँचल में बाँध रहा हूँ ..अपनीकामनाएं ,अपने चाव .अपने एतबार ..यह सब अब तुम्हारे ऊपर है कि इसको कैसे खर्च करोगी ..मेरी उम्र भीतुम्हारी है ..अपनी यह अमानत अब मुझसे ले लो ...
वो हमसे दूर हैं ही कहाँ ..महकती हैं आज भी वो अपनी नज्मों में ..जीती है एक ज़िन्दगी अपने उपन्यास के पन्नोमें साथ ही हमारे ...तभी तो इमरोज़ ने लिखा ...कि यह हमारा उनसे मिलने का जश्न जारी है और जारी रहेगा ...
मेरा दूसरा जन्म हुआ
जब पहली मुलाकात के बाद
तूने मेरा जन्मदिन मनाया
और फ़िर
मेरी ज़िन्दगी का जश्न भी
तुमने ही मनाया --
खूबसूरत ख्यालों के साथ
और कविता ,कविता ज़िन्दगी के साथ
शामिल हो कर --
और वह भी चालीस साल ...
आज भी
तेरी वह शमुलियत
मेरी ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी की साँसों की तरह जारी है
और तेरी मेरी ज़िन्दगी के मिलन का
वह जश्न भी ....