अक्ल इल्म की माटी भीगी
कलम मेरी कुम्हारिन हुई
गीत जिस तरह जाम ,चाक से ----
अभी अभी हो गये हो उतारे ...
दिल की भट्ठी आग जलाई
दोनों हाथ उम्र खर्च कर
एक शराब हज़ार - आताशा
महफ़िल में हम ले कर आये
सदियों ने निश्वास लिया इक
कैसा शाप दिया है हमको
जीवन बाला रूठ गयी है
एक घूंट न होंठ छुआये..
इस दावत को क्या संज्ञा दे
इश्क शराब इस तरह लगती
हर इक जाम की आंखों में हो
जैसे कुछ आंसू भर आये ..
"हर एक जाम की आंखों में हो ,जैसे कुछ आंसूं भर आए ."...........एक कलम का सच जो सदियों दिल को अपनी भावों की गहराई में डुबोता रहेगा ......अमृता की कलम का जादू कब नहीं दिल को छू गया है ...
"किसी भी मनुष्य को अगर अपनी सही जीवनी लिखनी हो ,तो उस को चाहिए वह खाली कागजों पर लहू मल दे लहू से भीगे हुए पन्नों पर यह साफ़ पढा जा सकता है कि लहू रोटी की फ़िक्र में कैसे सूखता रहा था ,यह लहू हजारों चिंताओं में कैसे सहमत रहा था और यह लहू ज़ंग के मैदान में किस तरह बहता -बिखरता रहा था ,और ,या नसों में व्यर्थ घूमता रहा था ...."
अमृता की लिखी यह पंक्तियाँ उनके लिखे उपन्यास जिलावतन से हैं ...
अमृता जी का लिखा अक्सर भटकते दिल का सहारा बन जाता है ..इन पंक्तियों में ज़िन्दगी को दर्शन दे सकने का होंसला है और दर्द से पीड़ित मानव दिल की व्यथा भी है ...एक पाठक ने तो यहाँ तक कहा कि अमृता के लिखे में कहावतें बन सकने का जज्बा है ......आज उन्हीं के लिखे उपन्यासों और नज्मों की वह पंक्तियाँ जो ..दिल में कभी सकून कभी दर्द की लहर पैदा कर देती हैं ....
"हमारी मंडियों में गेहूं भी बिकता है ,ज्वार भी बिकती है ,और औरत भी बिकती है .....आर्थिक गुलामी जब औरत को दास बनाती है ,वही दासता फिर मानसिक गुलामी बन जाती ..मानसिक गुलामी जब नासूर बनती है तब लोग नासूर के बदन पर पवित्रता कि रंगीन पोशाक पहना देते हैं ,और यह पवित्रता जो खुद मुख्तारी में से नहीं ,मज़बूरी में से जन्म लेती है .समाजी खजाने का सिक्का बन जाती है ,और समाज हर औरत को इस सिक्के से तोलता हैं .."
कहानी ( *आखिरी ख़त से )
"औरत का पाप फूल के समान होता है ,पानी में डूबता नहीं ,तैर कर मुहं से बोलता है ..मर्दों का क्या है ,उनके पाप तो पत्थरों के समान पानी में डूब जाते हैं ..."
कहानी ( *न जाने कौन रंग रे से )
"मर्द मर जाए तो भले ही औरत के सभी अंग जीवित रहते हैं ,पर उनकी कोख अवश्य मर जाती है .."
कहानी (* तीसरी औरत से )
"इस दुनिया के सुनार सोने में खोट मिलातें हैं ,दुनिया उनसे कुछ नहीं कहती है पर जब इस दुनिया के प्रेमी सोने में सोना मिलाते हैं ,तो दुनिया उनके पीछे पड़ जाती है .."
कहानी (*मिटटी की जात से )
"मिटटी की जात किसी ने न पूछी ..एक कल्लर घोडी पर चढ़ कर एक चिकनी मिटटी को ब्याहाने आ गया"
कहानी (* मिटटी की जात से )
"ब्याह के पेशे में किसी की तरक्की नहीं होती ....बीबियाँ सारी उम्र बीबियाँ ही रहती है ..खाविंद सारी उम्र खाविंद ही बने रहते हैं ..तरक्की हो सकती है ,पर होते कभी देखा नहीं ..यही कि आज जो खाविंद लगा हुआ है ,कल महबूब बन जाए .कल जो महबूब बने ,परसों वह खुदा बन जाए .रिश्ता जो सिर्फ रस्म के सहारे खडा रहता है ,चलते चलते दिल के सहारे खडा हो जाए ...आत्मा के सहारे ......"
कहानी (* मलिका से )
कुछ उदासियों की कब्रें होतीं हैं ,जिनमे मरे हुए नहीं जीवित लोग रहते हैं ..अर्थों का कोई खड्का नहीं होता है .वे पेडों के पत्तों की तरह चुपचाप उगते हैं .और चुपचाप झड़ जाते हैं ...
कहानी (* दो खिड़कियाँ से )
औरत जात का सफरनामा : कोख के अँधेरे से लेकर कब्र के अँधेरे तक होता है ?
उपन्यास (* दिल्ली की गलियाँ से )
औरत की कोख कभी बाँझ नहीं होगी ॥अगर औरत कि कोख बाँझ हो गयी तो ज़िन्दगी के हादसे किसके साथ खेलेंगे ?
उपन्यास (* बंद दरवाजा से )
है न इन पंक्तियों में कुछ कहने का वह अंदाज़, जो अपनी ही ज़िन्दगी के करीब महसूस होता है .....उनका कहना था कि आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है ,जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती ..समाजिक और राजनीतिक सच्चाई के हाथों मनुष्य रोज़ कांपता है टूटता है ...सोचती हूँ कोई भी रचना ,कोई भी कृति ,धूप की एक कटोरी के पीने के समान है या धूप का एक टुकडा कोख में डालने की तरह है और कुछ नहीं ,सिर्फ़ ज़िन्दगी का जाडा काटने का एक साधन ...
उन्हीं की लिखी एक नज्म है ,जो उनकी यह पंक्तियाँ पढ़ कर याद आई ...
बदन का मांस
जब गीली मिटटी की तरह होता
तो सारे लफ्ज़ ----
मेरे सूखे होंठों से झरते
और मिटटी में
बीजों की तरह गिरते ....
मैं थकी हुई धरती की तरह
खामोश होती
तो निगोड़े
मेरे अंगों में से उग पड़ते
निर्लज्ज
फूलों की तरह हँसते
और मैं ..........
एक काले कोस जैसी
महक महक जाती .....
जारी है आगे भी ...
कलम मेरी कुम्हारिन हुई
गीत जिस तरह जाम ,चाक से ----
अभी अभी हो गये हो उतारे ...
दिल की भट्ठी आग जलाई
दोनों हाथ उम्र खर्च कर
एक शराब हज़ार - आताशा
महफ़िल में हम ले कर आये
सदियों ने निश्वास लिया इक
कैसा शाप दिया है हमको
जीवन बाला रूठ गयी है
एक घूंट न होंठ छुआये..
इस दावत को क्या संज्ञा दे
इश्क शराब इस तरह लगती
हर इक जाम की आंखों में हो
जैसे कुछ आंसू भर आये ..
"हर एक जाम की आंखों में हो ,जैसे कुछ आंसूं भर आए ."...........एक कलम का सच जो सदियों दिल को अपनी भावों की गहराई में डुबोता रहेगा ......अमृता की कलम का जादू कब नहीं दिल को छू गया है ...
"किसी भी मनुष्य को अगर अपनी सही जीवनी लिखनी हो ,तो उस को चाहिए वह खाली कागजों पर लहू मल दे लहू से भीगे हुए पन्नों पर यह साफ़ पढा जा सकता है कि लहू रोटी की फ़िक्र में कैसे सूखता रहा था ,यह लहू हजारों चिंताओं में कैसे सहमत रहा था और यह लहू ज़ंग के मैदान में किस तरह बहता -बिखरता रहा था ,और ,या नसों में व्यर्थ घूमता रहा था ...."
अमृता की लिखी यह पंक्तियाँ उनके लिखे उपन्यास जिलावतन से हैं ...
अमृता जी का लिखा अक्सर भटकते दिल का सहारा बन जाता है ..इन पंक्तियों में ज़िन्दगी को दर्शन दे सकने का होंसला है और दर्द से पीड़ित मानव दिल की व्यथा भी है ...एक पाठक ने तो यहाँ तक कहा कि अमृता के लिखे में कहावतें बन सकने का जज्बा है ......आज उन्हीं के लिखे उपन्यासों और नज्मों की वह पंक्तियाँ जो ..दिल में कभी सकून कभी दर्द की लहर पैदा कर देती हैं ....
"हमारी मंडियों में गेहूं भी बिकता है ,ज्वार भी बिकती है ,और औरत भी बिकती है .....आर्थिक गुलामी जब औरत को दास बनाती है ,वही दासता फिर मानसिक गुलामी बन जाती ..मानसिक गुलामी जब नासूर बनती है तब लोग नासूर के बदन पर पवित्रता कि रंगीन पोशाक पहना देते हैं ,और यह पवित्रता जो खुद मुख्तारी में से नहीं ,मज़बूरी में से जन्म लेती है .समाजी खजाने का सिक्का बन जाती है ,और समाज हर औरत को इस सिक्के से तोलता हैं .."
कहानी ( *आखिरी ख़त से )
"औरत का पाप फूल के समान होता है ,पानी में डूबता नहीं ,तैर कर मुहं से बोलता है ..मर्दों का क्या है ,उनके पाप तो पत्थरों के समान पानी में डूब जाते हैं ..."
कहानी ( *न जाने कौन रंग रे से )
"मर्द मर जाए तो भले ही औरत के सभी अंग जीवित रहते हैं ,पर उनकी कोख अवश्य मर जाती है .."
कहानी (* तीसरी औरत से )
"इस दुनिया के सुनार सोने में खोट मिलातें हैं ,दुनिया उनसे कुछ नहीं कहती है पर जब इस दुनिया के प्रेमी सोने में सोना मिलाते हैं ,तो दुनिया उनके पीछे पड़ जाती है .."
कहानी (*मिटटी की जात से )
"मिटटी की जात किसी ने न पूछी ..एक कल्लर घोडी पर चढ़ कर एक चिकनी मिटटी को ब्याहाने आ गया"
कहानी (* मिटटी की जात से )
"ब्याह के पेशे में किसी की तरक्की नहीं होती ....बीबियाँ सारी उम्र बीबियाँ ही रहती है ..खाविंद सारी उम्र खाविंद ही बने रहते हैं ..तरक्की हो सकती है ,पर होते कभी देखा नहीं ..यही कि आज जो खाविंद लगा हुआ है ,कल महबूब बन जाए .कल जो महबूब बने ,परसों वह खुदा बन जाए .रिश्ता जो सिर्फ रस्म के सहारे खडा रहता है ,चलते चलते दिल के सहारे खडा हो जाए ...आत्मा के सहारे ......"
कहानी (* मलिका से )
कुछ उदासियों की कब्रें होतीं हैं ,जिनमे मरे हुए नहीं जीवित लोग रहते हैं ..अर्थों का कोई खड्का नहीं होता है .वे पेडों के पत्तों की तरह चुपचाप उगते हैं .और चुपचाप झड़ जाते हैं ...
कहानी (* दो खिड़कियाँ से )
औरत जात का सफरनामा : कोख के अँधेरे से लेकर कब्र के अँधेरे तक होता है ?
उपन्यास (* दिल्ली की गलियाँ से )
औरत की कोख कभी बाँझ नहीं होगी ॥अगर औरत कि कोख बाँझ हो गयी तो ज़िन्दगी के हादसे किसके साथ खेलेंगे ?
उपन्यास (* बंद दरवाजा से )
है न इन पंक्तियों में कुछ कहने का वह अंदाज़, जो अपनी ही ज़िन्दगी के करीब महसूस होता है .....उनका कहना था कि आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है ,जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती ..समाजिक और राजनीतिक सच्चाई के हाथों मनुष्य रोज़ कांपता है टूटता है ...सोचती हूँ कोई भी रचना ,कोई भी कृति ,धूप की एक कटोरी के पीने के समान है या धूप का एक टुकडा कोख में डालने की तरह है और कुछ नहीं ,सिर्फ़ ज़िन्दगी का जाडा काटने का एक साधन ...
उन्हीं की लिखी एक नज्म है ,जो उनकी यह पंक्तियाँ पढ़ कर याद आई ...
बदन का मांस
जब गीली मिटटी की तरह होता
तो सारे लफ्ज़ ----
मेरे सूखे होंठों से झरते
और मिटटी में
बीजों की तरह गिरते ....
मैं थकी हुई धरती की तरह
खामोश होती
तो निगोड़े
मेरे अंगों में से उग पड़ते
निर्लज्ज
फूलों की तरह हँसते
और मैं ..........
एक काले कोस जैसी
महक महक जाती .....
जारी है आगे भी ...
19 comments:
इस दावत को क्या संज्ञा दे
इश्क शराब इस तरह लगती
हर इक जाम की आंखों में हो
जैसे कुछ आंसू भर आये ..
waah dil se nikle bhav sunder lines,aur alag alag kahani ki choti choti panktiyaan bhi bahut achhi lagi padhne.
इस दावत को क्या संज्ञा दे
इश्क शराब इस तरह लगती
हर इक जाम की आंखों में हो
जैसे कुछ आंसू भर आये ..
sunder post...
"मिटटी की जात किसी ने न पूछी ..एक कल्लर घोडी पआर चढ़ कर एक चिकनी मिटटी को ब्याहाने आ गया"
आज तो सारी बरसात ही होगई. लगता है सब कुछ छोड छाडकर इन्हे पढने बैठ जायें. बहुत आभार आपका ये छोटे २ टुकडे यहां पढवाने के लिये.
रामराम.
"हर एक जाम की आंखों में हो ,जैसे कुछ आंसूं भर आए ."...........एक कलम का सच जो सदियों दिल को अपनी भावों की गहराई में डुबोता रहेगा ......अमृता की कलम का जादू कब नहीं दिल को छू गया है ...
ऐसी पंक्ति भला अमृता प्रीतम के अलावा कौन लिख सकता है !
मुझे तो ज़रा सा भी इनका लिखा पढने को मिल जाए तो मैं सुध बुश खो बैठता हूँ
बहुत ही सुंदर और मनभावन पोस्ट .
इस दावत को क्या संज्ञा दे
इश्क शराब इस तरह लगती
हर इक जाम की आंखों में हो
जैसे कुछ आंसू भर आये ..
eske baad kahne ko kaya rah gya...
हरबार की तरह लाजवाब !
bahut sunder ranju mam. aap ki script padh kar to amrita ji ko wo rachna yaad aa gai " kalam ne ajj toriya geetan da qafiyaan, isq mera pauchiyan ek tedha mukkam pe "
अमृता प्रीतम की जादुई दुनिया से रु ब रु करवाने के लिये ......आपको तहे दिल से शुक्रिया अदा करती हुँ!
har shabd lajawab hai..............unke kahne ke baad kahne ko kuch bachta hi nhi.........hum to aapke aabhari hain unke itni kimti khajane se jo 2 boond aap pilati hain to dil baag baag ho jata hai.
बहुत खूब.. अगली कड़ी का इंतजार है..
इन पंक्तियों को पढकर वो दिन याद आ गए जब मैं अमृता जी को पढते हुए ऐसी पंक्तियों पर लाईन खींच दिया करता था। पढकर अच्छा लगा। अगली कड़ी का इंतजार।
अति सुंदर । आपने इस पोस्ट में इस पोस्ट में अमृता जी की कहानियों से जो मोती चुने हैं वो लाजवाब कर देने वाले हैं।
अमृता जी की कलम का जादू सचमुच आपके ब्लॉग में पढ़ने को मिल रहा है . अदभुत रोचक संग्रह है . आभार.
वाह!! बहुत सुन्दर पोस्ट..हर बार की तरह!
क्या कहें....बहुत खूब। अमृताजी की हर पंक्ति में जिंदगी का फ़लसफ़ा होता है...
गोया जिंदगी तो सबने जी.......पर कागज पर लहू के छींटे उनके ही पड़े....रंग लाल नहीं था.....रंग बिरंगा तितलियों सा....खूने जिगर जो था
"औरत का पाप फूल के समान होता है ,पानी में डूबता नहीं ,तैर कर मुहं से बोलता है ..मर्दों का क्या है ,उनके पाप तो पत्थरों के समान पानी में डूब जाते हैं ..."
औरत जात का सफरनामा : कोख के अँधेरे से लेकर कब्र के अँधेरे तक होता है ?
आह.....!!!
रंजना जी , आपकी प्रस्तुति ने फिर आँखें नम कर दीं .....!!
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