Thursday, May 14, 2009

एक "मैं "मेरा समकालीन नहीं

अमृता के लिखे ने हमेशा आम इंसान की भावनाओं ,वहां के माहौल को इस तरह से अपनी कलम से लिखा है कि हर किसी को वह अपने ही घर की .... कहानी लगती है ...वह परिवार मध्यवर्गी हो या चाहे है सिर्फ़ हर किसी को उस में अपना ही अक्स नजर आता है ...उनके उपन्यास एक खाली जगह से आज की कड़ी के लिए कुछ पंक्तियाँ .जिनको मैंने कई बार पढा और हर बार मुझे उस में एक नया अर्थ मिला ...

" निम्न मध्य श्रेणी के घरों की एक ख़ास गंध होती है ,चारपाइयों के नीचे रखे हुए ट्रंकों में और टीन के डिब्बे एक तरह हर समय घर में छिप कर बैठी रहती है और कीलों पर लटकते हुए मटमैले कपडों में ,राम -कृष्ण के और हनुमान के कैलेंडरों में तरह घर की दीवारों को हथिया कर निशंक खड़ी हुई भी ... "

एक सुख ,सिर्फ एक तरफा ,विचार की गुलामी का सुख होता है ,जहाँ सब कुछ इकहरा होता है ,रिश्ते का रथ भी इकहरा .और इंसान के अस्तित्व का अर्थ भी इकहरा ..कोई भी रिश्ता जब बाहरी चीजों के सहारे खडा होता है ,जैसे मजहब के दौलत के या बने बनाये कानून के सहारे उसको कभी मन की पीडा का वरदान नहीं मिलता है .गुलामी का सुख मिलता है पर स्वंत्रता की पीडा नहीं मिलती ..

हर लड़की विवाह की पहली रात जिस कमरे में दाखिल होती है ,कभी उस कमरे का मालिक उसके स्वागत के लिए वहां नहीं होता है .और वह लड़की एक अपरिचित कमरे में एक दखलंदाजी की तरह कदम रखती है ..

शायद जिस समय जिस्म की आग जलती है ,तब सिर्फ आग के जलने की होती है ,और किसी चीज की नहीं और शायद तब सब कुछ उस में भस्म हो जाता है ..

कुछ विचार केवल गंध के समान होते हैं जिन्हें हाथ से पकड़ कर किसी को दिखाया नहीं जा सकता है हर समय होते भी नहीं ,मेह की बूंद पड़ते ही स्वयं आ जाते हैं ।घरों के कोनों में गुच्छा से हो कर बैठ जाते हैं और फ़िर धूप के समय जाने कहाँ चले जाते हैं ....

कुछ फूल किसी कब्र पर चढ़ने के लिए उगते हैं ----शायद मैं भी !
हवन की अग्नि हाथ में एक रिश्ता थमा सकती है ,पर उसकी लौ मन के अँधेरे कोनों तक कभी पहुँच नहीं पाती और वे कोने किसी भी रिश्ते की हद से बाहर रह जाते हैं ..
कोई ऐसी खबर भी सच्ची हो सकती है ,जो अखबार के बाहर रह जाए ...इंसान के मन को अखबार की तरह साधारण आँखों से नहीं पढा जा सकता है ..

उपन्यास एक खाली जगह से ली गयीं यह पंक्तियाँ घर ,रिश्ते की नाजुकता का उसी बखूबी से ब्यान करते हैं जितना ज़िन्दगी खुद सच से रूबरू होती है .....

मैं ...

बहुत समकालीन है
सिर्फ एक "मैं "मेरा समकालीन नहीं
"मैं "बिना मेरा जन्म
पुण्य की थाली में पड़ा
अपराध का एक शगुन है
मांस में बंदी हुआ
मांस का एक क्षण है

और मांस की हर जीभ पर
जब भी कोई लफ्ज आता
खुदकशी करता
जो खुदकशी से बचता
कागज़ पर उतरता
तो कत्ल होता है
और एक धुंआ हवा में तैरता है
और मेरा "मैं "
अठवान्सें बच्चे की तरह मरता है
क्या किसी दिन यह मेरा "मैं "
मेरा समकालीन बनेगा ?

14 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

बेहतरीन प्रस्तुति .

ghughutibasuti said...

अमृता प्रीतम के तो शब्दों में जादू था और सोच तो हम सबसे न जाने कितनी शताब्दी आगे की।
घुघूती बासूती

P.N. Subramanian said...

बहुत सुन्दर तरीके से पेश किया. आभार

विजय तिवारी " किसलय " said...

रंजू जी
अभिवंदन
माननीय अमृता जी के बारे में व्यक्त आपके भावः और उनकी "एक "मैं "मेरा समकालीन नहीं
" बहुत ही संवेदन शील लगी.
- विजय

ताऊ रामपुरिया said...

हमेशा की तरह अमृता जी को पढना एक सुखद एहसास दे गया. उनका सोच अपने आप मे बहुत बडा था.

रामराम.

अभिषेक मिश्र said...

वाकई निम्न मध्य श्रेणी के घरों की एक ख़ास गंध होती है और थोडी सी खाली जगह भी, कुछ यादों, कुछ बातों के लिए.

"अर्श" said...

कुछ फूल किसी कब्र पर चढ़ने के लिए उगते हैं ----शायद मैं भी !

ye pankti kitni gahari bhav liye hai apne aap me kah nahi saktaa.. aap jis tarah se amrita ji ke baare me likhti hai sach me aap unki rooh hai .. badhaayee


arsh

Vineeta Yashsavi said...

Aap humesha Amrita ji ke naye naye pahluwo ko samne le aati hai...

vandana gupta said...

bahut hi gahri soch thi unki..........lajawab.

दिगम्बर नासवा said...

और मांस की हर जीभ पर
जब भी कोई लफ्ज आता
खुदकशी करता
जो खुदकशी से बचता
कागज़ पर उतरता
तो कत्ल होता है

अमृता जी के शब्दों को समझना, उनकी रूह तक जाना...........शयेद आपकी ही बस में है............नए नए आयाम ले कर आती हैं उनकी कहानी, रचनाओं से आप............जादू की तरह असर करती हैं ये रचनाएं .............
शुक्रिया है आपका इस रचना की लिए...........

sada said...

अमृता प्रीतम की याद में एक और बेहतरीन प्रस्‍तुति आपकी ।
आभार

Manish Kumar said...

कभी कभी अमृता जी को एकबारगी में समझना काफी कठिन हो जाता है। आज ऍसी ही कठिनाई उनकी कविता को पढ़ कर लगी।

प्रिया said...

lajawaab! Aapke ander Amrita ji aisi basi hain ki lagta hain ki aap unke likhe ko jeene lagi hain...aur ye sach bhi hain..Really vishwas karna muskil hain ki aaj ke daur mein IMROZ Ji jaisa koi shaks dharti par hain......ye sab ek nazar mein to kahani kissey lagte hain par utne hi sach hai jitney hum aur aap...Amrita - IMroz ke ki katha, kavita aur vicharon se parichit karwati rahiye... Humko to bhaut intezaar rahta hain

शारदा अरोरा said...

कितने ही अनकहे सच उजागर कर दिये हैं , सचमुच कोई दरवाजे पर इंतजार नहीं करता | मैं खुदकशी करे या उसकी हत्या हो , होता तो तमाशा ही है न ? धन्यवाद , दर्द की इस गहराई का अनुभव कराने का |