Thursday, January 29, 2009

 

अमृता जी के उपन्यास तथा कहानियां भी जैसे कविता की तरह हैं। अपनी कहनियों और उपन्यासों में अमृता जी ने बहुत से सामाजिक मुद्दे बड़ी शिद्दत के साथ उठाये हैं।

आज आप को उनके उपन्यास "आक के पत्ते" का एक अंश पढ़वाते हैं। आक के पत्ते कहानी है उर्मी की जिसे प्यार करने की सजा मिलती है। उर्मी के अपने पिता ही उसके ससुराल वालों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर देते हैं। उर्मी का छोटा भाई सच खोजने की कोशिश कर रहा है। उसका प्रेमी पगला सा गया है। इस सब का वर्णन पाठकों को झकझोड़ देता है। यदि आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा हो तो जरूर पढ़ियेगा। फिलहाल आपको इस उपन्यास का एक अंश पढ़वाते हैं:

उपन्यास अंश - आक के पत्ते

aakयहां जहां मैं खड़ा हूं, एक चौराहा है।

एक राह एक अंन्धे कूंएं की तरफ जाती है, जिसमें उर्मी की लाश पड़ी हुई है....

एक राह एक नदी की तरफ जाती है, जिसमें उर्मी की लाश बह रही है....

एक राह धरती के एक गढ़े की तरफ जाती है, जिसमें उर्मी की लाश दबी हुई है....

एक राह एक चिता की तरफ जाती है, जिसकी आग में उर्मी की लाश जल रही है....

और मैं जैसे चारों राहों पर चल रहा हूं.....

चारों तरफ बेहद बू है, पर दुनिया के काम काज उसी तरह चल रहे हैं, किसी को यह बू नहीं आती।

मैं हार कर इस देश के कानून के पास गया था, सुना था कि वह बू का निशान भी सूंघ लेता है ! पर मुझे देख कर उसने जल्दी से नोटों की एक पोटली नाक के आगे रख ली, और मुझसे हंस कर कहने लगा - कहां ? बू तो कहीं से भी नहीं आ रही।

मैं हार कर इस देश के कानून के पास गया था, सुना था कि वह बू का निशान भी सूंघ लेता है ! पर मुझे देख कर उसने जल्दी से नोटों की एक पोटली नाक के आगे रख ली, और मुझसे हंस कर कहने लगा - कहां ? बू तो कहीं से भी नहीं आ रही।

उर्मी एक खुशबू थी, पर उसे किसी ने बू बना दिया है.....

दोनों गांव पास-पास हैं - एक उर्मी के पीहर का, एक उर्मी के ससुराल का। और दोनों गावों को जैसे दांती लग गयी है, वे मूंह से कुछ भी नहीं बोलते।

नहीं यह दांती नहीं, यह मिर्गी है, क्योंकि दोनो गांवों के मूंह से झाग निकल रहा है.....

यह सच है....कि एक गांव ने उर्मी को जबर्दस्ती ढोली में डाल कर दूसरे गांव में धकेल दिया था। और अब एक गांव ने उर्मी की एक बांह पकड़ी और दूसरे गांव ने दूसरी बांह पकड़ी, और उसे घसीट घसीट कर मार डाला।

इन दोनों गावों को उर्मी  की कोई चिंता नहीं।
ठीक है मिर्गी के रोगी को चिंता नहीं करनी चाहिये...

उर्मी का कहीं नाम निशान नहीं, जैसे उर्मी  कभी थी ही नहीं। मैं उर्मी की बात करूं तो उसके लगे लिपटे मुझे ऐसे देखते हैं जैसे मैं जिन्न भूतों की बात कर रहा हूं। और जैसे उर्मी  को सिर्फ मैंने ही कभी देखा हो, और किसी ने कभी आंखों से देखा ही ना हो।
सब गवाहियां खत्म हो गयी हैं, सिर्फ एक गवाही यहां गांव के स्कूल के कागजों में पड़ी हुई है, जहां उर्मी को दाखिल करते वक्त लिखा गया था- उर्मी , उम्र छः साल, पिता का नाम हरीशचन्द्र।

एक दिन पूछता हूं "पिताजी, राजा हरीशचन्द्र सत्यवादी था। आप चाहे फिर कभी सच ना बोलना, पर एक बार सच बता दो - उर्मी  कहां है?"

पिताजी खटिया की अदवायन को इतने जोर से खींचते हैं कि अदवायन टूट जाती है।

पिताजी खटिया की अदवायन को गांठ लगाने लगते हैं, तो मूढ़े पर पड़ी हुई गठरी धीरे से रोने लगती है, "हाय री बेटी, कौन टूटी को जोड़े...." गठरी ही कहूंगा....मां होती तो जोर जोर से विलाप ना करती....... सोचता हूं - उर्मी अगर एक सुंदर सजीली लड़की ना होती, किसी खाट की खुरदरी अदवायन होती तो उसकी उम्र को गांठ लग जाती.....

मां  मूढ़े पर एक गठरी की तरह बैठी हुई है। गांव का हकीम उसकी रीढ़ की हड्डी पर रोज लेप करता है, और कहता है कि उसे कभी ढीली खाट पर ना सुलाना।
इसलिये पिता जी रोज उसकी खाट कसते हैं.....

पिताजी खटिया की अदवायन को गांठ लगाने लगते हैं, तो मूढ़े पर पड़ी हुई गठरी धीरे से रोने लगती है, "हाय री बेटी, कौन टूटी को जोड़े...."

गठरी ही कहूंगा....मां होती तो जोर जोर से विलाप ना करती.......

सोचता हूं - उर्मी  अगर एक सुंदर सजीली लड़की ना होती, किसी खाट की खुरदरी अदवायन होती तो उसकी उम्र को गांठ लग जाती.....

फिर कमरे का आला मेरी तरफ देखता है और मैं कमरे के आले की तरफ। उसकी भी छाती में किसी ने ऐसे बुटका भरा है, जैसे मेरी छाती में। वहां - आले में एक तस्वीर थी, मेरी और उर्मी की।  एक बार पिताजी, हम दोनों की अंगुली पकड़ कर एक मेले पर ले गये थे। उर्मी  तब कोई सात बरस की थी, और मैं पांच बरस का। और वहां मेले में हम दोनों बहन भाई की तस्वीर उतरवायी ती। पर आज वह तस्वीर वहां पर नहीं रही। मैं और यह आला, दोनों मिल कर पूछते हैं, "पिताजी, वह तस्वीर कहां चली गयी?"

"तुझे क्या करनी है तस्वीर?" पिताजी गुस्से में अदवायन को इस तरह खींचते हैं, मुझे  लगता है कि अदवायन फिर टूट जायेगी।

कहता हूं,"उसकी एक ही तो निशानी थी!"

पिताजी खीज कर बोलते हैं, "निशानी अब सिर से मारनी है?"

मैं ढीठों की तरह कहता हूं, " आपको नहीं जरूरत थी, तो ना रखते, मुझे दे देते, मैं शहर वाले कमरे में लगा लेता।"

"डूब जाये तेरा शहर..." पिता का सारा बदन खुरदरी अदवायन की तरह कस जाता है। और शायद अनके अपने बदन की छिलतरें उनके हांथों में चुभ आती हैं, वह हाथों को मलते से मेरी तरफ देखते हैं।

जानता हूं - मैं शहर में कमरा ले कर जब कॉलेज में पढ़ने लगा था तो , उर्मी ने अपने पिहरियों और ससुरालियों के आगे हाथ जोड़े थे कि उसका आदमी अगर कुछ बरसों के लिये कीनिया कमाने चला गया था , तो वह गांव में पड़ी क्या करेगी, उसे शहर जा कर आगे पढ़े लेने दें। और वह शहर जाकर आगे पढ़ने के लिये कॉलेज में दाखिल हो गयी थी। हम बहन भाई दोनों शहर में कमरा ले कर रहते थे....

और मां हमेशा इन्हें तख्ते पर चमका कर रखती हुई कहती थी, "यह थाली मेरी उर्मी की, यह उर्मी के भाई की, यह मेरी और यह तुम्हारे बापू की....." उस दिन पिताजी ने जब तख्ते पर से तीन थालियां उतारीं, तो मेरे मूंह से अचानक निकल गया, "वह थाली उर्मी की......" पिता जी ने क्रोधी आंखों से देखा, पता नहीं मुझे कि थाली को.......

निशानी से याद आता है कि उर्मी  अगर जिंदा होती....सिर्फ तीन चार महीने और जिंदा रहती - तो उसका बच्चा भी एक निशानी होता......

पिताजी खटिया पर खेस बिछा कर, गठरी सी बनी मां को मूढ़े पर से उठा कर खटिया पर लिटा देते हैं और फिर हाथ धो कर तीनों थालियों में रोटी परोस देते हैं।

रसोई के तख्ते पर कांसे की चार थालियां हमेशा पास पास रखी होती हैं। मां हमेशा इन्हें मांज कर चमकाती थी। यह कंगूरे वाली थालियां बिल्कुल नयी कतह की थीं, एक बार एक मेले में से खरीदीं थीं। और मां हमेशा इन्हें तख्ते पर चमका कर रखती हुई कहती थी, "यह थाली मेरी उर्मी की, यह उर्मी के भाई की, यह मेरी और यह तुम्हारे बापू की....." 

उस दिन पिताजी ने जब तख्ते पर से तीन थालियां उतारीं, तो मेरे मूंह से अचानक निकल गया, "वह थाली उर्मी की......"
पिता जी ने क्रोधी आंखों से देखा, पता नहीं मुझे कि थाली को.......

Monday, January 26, 2009

एक मुलाकात

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान
समुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..

याद

आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….

आसमान की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….

मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….

साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं

वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….

तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….

हादसा

बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है

आत्ममिलन

मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……

शहर

मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….

Tuesday, January 20, 2009

मेरे प्यारे नवराज -कंदला!

आज मैंने सतलानाबाद में एक इस तरह का स्कूल देखा है कि उसके बारे में तुम्हे लिखने का मन हो आया है ...इस स्कूल का नाम है लेनिन बोर्डिंग स्कूल ....१६० एकड़ जमीन में इस स्कूल की ईमारत बगीचा झील और खेत है ...पढने के कमरे और उनके बरमादे चित्रकारी की कला से सजे हुए हैं ॥ सोने के कमरे हंसो के पंखों की तरह उज्जवल हैं .....खाने के कमरे मुहं से बोल कर दावत देते हैं और क्लब घर शाही महल जैसा है एक तरफ़ छोटा सा चिडिया घर , तरफ़ छोटा सा सुनहरी मछलियों का तालाब ,रंग बिरंगे बेंच और जहाँ तक नजर आए हरियाली ही हरियाली .....वैसे भी यह धरती का टुकडा पहाडी के पहलू में है ...इसके साथ एक नदी बहती है जिसका नाम है वरज आब वरज आब का अर्थ है "नाचता हुआ पानी "

जैसे मैं हैरान और खुश हुई इसी तरह तुम भी होंगे कि इस स्कूल में सिर्फ़ वही बच्चे लिए जाते हैं ,जिनके माँ बाप जंग में मारे गए या अपंग हो गए हैं ...इसके आलावा उस माँ बाप के बच्चे जो ज्यादा बच्चे होने के कारण उनका लालन पालन अच्छी तरह से करने में असमर्थ हैं .....स्कूल में दाखिला लेने में मुश्किल का सवाल ही नही ,स्कूल वाले गांव गांव घूम घूम कर जरुरत मंद बच्चो को ढूंढ़ते हैं .....इस वक्त इस स्कूल में २९० बच्चे हैं और अगले महीने तीन सौ बच्चे और आ रहे हैं ...

एक साल से लेकर चार साल तक के बच्चों के लिए नर्सरी स्कूल चार साल के साथ लेकर किंडर गार्डन और सात साल से आठरह साल की उम्र के लिए स्कूल की पढ़ाई .. उसके बाद बच्चे यूनिवर्सटी भेजे जायेंगे
सात साल की उम्र तक यह बच्चे घरों में किसी को मिलने नही जाते ..माँ बाप या कोई सम्बन्धी इन से आ कर सप्ताह में एक बार मिल लेते हैं ...सात साल से बड़े बच्चे घर जा सकते हैं ....दस दिन की छुट्टियों में ,पर स्कूल की एक इंचार्ज बताती है कि यह बच्चे भी तीसरे चौथे दिन तक स्कूल वापस आ जाते हैं क्यों कि एक बार स्कूल आने के बाद उनका घर में मन नही लगता है....... गर्मी की छुट्टियाँ तीन महीने की होती हैं पर यह तीन महीने बच्चे बोर्डिंग में रहते हैं .......इन में अधिकतर के तो माँ बाप ही नही है तो यह कहाँ जाए औ र जिनके माँ बाप है उनको इन दिनों खेतो में काम इतना होता है कि वह बच्चो पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं...
मैंने बच्ची की कपडों की अलमारियां देखी हैं ....स्कूल यूनीफोर्म को छोड़ कर बाकी सभी बड़े रंग बिरंगे कपड़े और लडकियां के रिबन उनके बालों से मेल खाते हैं .....बाल मनोविज्ञान से बहुत सलाह ली जाती हैं यहाँ पर

किसी बच्चे को बीमारी हो जाए तो बात अलग है .....नहीं तो किसी भी कक्षा में बच्चे फ़ेल हो जाए यह सवाल ही पैदा नही होता है ...कोई बच्चा अगर काम से कमजोर हो तो बच्चे का कसूर नहीं गिना जाता है ....यह कसूर अध्यापक का समझा जाता है कोई बच्चा अगर किसी कक्षा में पास न हो सके तो अध्यापक की तरक्की रोक ली जाती है..
नाच संगीत दस्तकारी और खेती बाडी के अलावा बच्चो को मेहमान नवाजी भी सिखाई जाती है .....एक कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा के बच्चो को दावत देते हैं और सीखतें हैं कि मेजबान कैसे बना जाता है ...

बच्चों को तीन भाषा सीखना जरुरी होता है ...ताजक उनकी अपनी भाषा रुसी देश की भाषा और बाकी दुनिया से संवाद रखने के लिए अंग्रेजी भाषा यह तीनो भाषाएं बच्चे चार साल की उम्र से सीखना शुरू कर देते हैं ...

एक छोटी सी बच्ची हंसती हंसती मेरी बाहों में आ गई है इस नाम वाइला है.... छ सात साल के छोटे छोटे बच्चे जो थोडी सी रुसी और थोडी सी अंगेरजी जानते हैं वह रुसी में कहते हैं जद्रासतबिच नमस्ते ,सलाम और अंगेरजी में कहते हैं हाउ डू यु डू ...इन्होने सभी हिन्दुस्तानी बच्चों के लिए सलाम भेजा है मेरे हाथों

तुम्हारी अम्मी
सतालनाबाद
ताजिकस्तान
५ मई १९ ६१


इस तरह के पत्र यह साफ़ ब्यान करते हैं कि अमृता बच्चो को कभी जहन से दूर नही कर पायी ...वह जहाँ भी गई बच्चे उनके साथ उस सफर में ख्याल में चलते रहे ....वह वहां की एक एक बात से बच्चों को वाकिफ करा देना चाहती है ,चाहे वह बात प्रकति से जुड़ी जो चाहे वहां की संस्कृति और समाज से ....वह हर जगह जुड़ के ख़ुद को को वहां से जोड़ कर देखती लिखती रही और यही बात हम पढ़ते हुए भी महसूस करते हैं .,कहीं भी उनके लिखे से ख़ुद को अलग नहीं कर पाते हैं ..और वहां के बारे में सब कुछ जान जाते हैं ...मुझेउनके पत्र में भाषा की बात और लड़ाई में अकेले हुए बच्चो की इतनी अच्छी देखभाल ने बहुत प्रभावित किया ..इन्ही पत्र के एक हिस्से में उन्होंने बच्चो को वहां के मशहूर कवियों की कवितायें भी अनुवादित कर के भेजी हैं ...उन में में एक एक करके यहाँ दे रही हूँ इस बार वहां की जुल्फिया की कविता है

तूने लिखा था मैं आऊंगा
देशो की सरहदे लाँघ कर
आसमान की चीर कर
तुम मेरा इन्तजार करना
मेरा सारा वजूद मेरी आँखों में समाया है
और मेरी आँखे आसमान को टा टो लने लगी है
तेरे जहाज का पंछी उड़ता रहा
और फ़िर उसने मेरे दिल का कहा मान लिया
तेरे दिल का कहा मान लिया
दो दिलों की मिनटों के सामने
उसके पंखों ने जिद छोड़ दी
तू आया और मुझे लगा
कि मैंने सूरज को उतार लिया हो
तेरा रोशन चहेरा धरती पर देखा
तो रोशनी से मैंने अंजलि भर ली
मेरे बदन को तेरा साँस छू गए
टो सारी कायनात झूम गई
मेरी यह काली झुल्फे
खुश नसीबी में भीग गई
अभी दिल की बात होंठो में नही आई थी
कि मिलन के क्षण जाने कहाँ चल दिए
दिल की बांसुरी से स्वर जगे थे
उन्होंने मिलन का जश्न मानाया था
तू चला गया
तो तेरा ख्याल मेरे पास रह गया
एक क्षण की चिंगारी
कि उम्र का चिराग जल गया

जुल्फिया

Tuesday, January 13, 2009



अमृता के ख़त हो या उसकी नज्म ..पढ़ते जाओ तो एक इबादत बनती जाती है ..इस किताब खिड़कियों में जैसे जैसे मैं अमृता के खतों को पढ़ती गई ..वैसे वैसे ख़ुद को एक बच्ची समझती गई जैसे अमृता ने यह ख़त मुझे लिखे हों ...:) हर ख़त अपने में एक कहानी कहता है और नई बातो को सामने खोल के रख देता है ...पिछली पोस्ट पर आए आपके कॉमेंट्स भी कुछ ऐसा ही इशारा कर रहे हैं ..कि आपको भी उनके लिखे यह ख़त अपने दिल के करीब महसूस हुए ..इसी से उत्साहित हो कर मैं कुछ कड़ियों में उनके लिखे कुछ ख़ास ख़त लिखना चाहूंगी ..अंदाज उनका ,भाव उनका और साथ आपका होगा तो मेरी कलम भी सहजता से उनकी बात कह जायेगी ....वह अपने बच्चो के बहुतकरीब थी ,एक अच्छी माँ की झलक उनके लेखन में कई जगह साफ़ साफ़ दिखी है ...

यह ख़त उन्होंने लिखा है फरगाना घाटी {उज्बेकिस्तान से }
वह लिखती है ..मेरे प्यारे बच्चों ,

तुमने बचपन में कहानी सुनी होगी कि एक थी शाहजादी उसको किसी दुरात्मा का शाप लगा और वह सौ बरस तक सोयी रही .फ़िर दूर देश से एक शहजादा आया और उसने जादू की छड़ी से उस शहजादी को जगा लिया .मैं तुम्हें आज जिस घाटी से पत्र लिख रही हूँ इस घाटी की कहानी भी उस परी की कहानी जैसी है .इसका पहले नाम होता था खाबीदा हसीना ...खाबीदा हसीना का भाव है सोयी हुई सुंदरी .. बादशाह और जागीरदारों ने इसको श्राप दिया और यह बरसों सोयी रही| फ़िर एक दिन शहजादा आया और उसने कामों की छड़ी से इसको छू लिया ।यह जाग गई ,अब इसका नाम है फरगाना घाटी

पंजाब की लडकियां दूर दराज के रेशम का गीत गाती थी ''तेरे पैरां नूं देवां मखमल दी जुत्ती ते अतलस दा जामा सुझावां ''यह फरगाना घाटी वह रेशम कातती है |
लोग कहते हैं कि एक बरस में यह घाटी जितना रेशम कातती है उसका एक कोना अगर धरती पर रखे तो दूसरा कोना चाँद तक पहुँच जाता है

कल पहली मई का जश्न होगा ,इसलिए आज हर एक चेहरे पर जश्न का चाव झलक रहा है अतलस के कारखाने देखते हुए मैंने अतलस बुनने वाली लड़कियों को एक छोटी सी नज्म में पहली मई की मुबारक दी है

रेशम बुनती हुई सुंदरी
मई का महीना
तेरी लाख मुरादें
पूरी करने को आया है
सपने बुनती हुई लड़की
तू अपनी पिटारी में
मेरी लाख दुआएं रख ले

अतलस के इन दोनों बड़े कारखानो की निर्देशक औरतें हैं ,फरगाना जिले की डिप्टी भी औरते हैं और म्यूनिस्पेलिटी की प्रधान भी औरते ही है ॥..यह एक गौरवमयी बात है कि सारे उज्बेक्सितान गणतंत्र की प्रधान भी औरत है | अभी अभी फरगाना के सयुंक्त फ्राम की प्रधान ऐना खान से मिल कर आई हूँ जिसने पिछले पचास सालों में चार एकड़ शहर को आबाद किए है ......एक हजार छह सौ एकड़ में कपास ,छह सौ एकड़ में चारा ,घास साढे चार सौ एकड़ में मक्का ,साढे तीन सौ एकड़ में खुमानियाँ ग्लास और सेबों के पेडों और डेढ़ सौ एकड़ में शहतूत लगें हैं ...
इस ऐना खान के साथ मिल कर डेढ़ हजार श्रमिक काम करते हैं इन श्रमिकों के लिए फार्म में चौबीस शीपान है शीपान का मतलब यहाँ आरामगाह से है ..हर आराम गाह में अखबारें .किताबें .रेडियो और टेलीविजन है ....ऐना खान की छाती पर सोने के दो तमगे लगे हुए हैं और उसका सादा किसान चेहरा मेहनत की लालिमा से दमक रहा है ..

इस पत्र के साथ ही उन्होंने कुछ कविताएं भी जो उस वक्त उज्बेकिस्तान के सबसे बड़े कवि माने जाते थे जैसे गफूर गुलाम .आईबेक .जुल्फिया हमीद गुलाम और असकड़ मुख्तार .उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद मैं तुम्हे भेजतीरहूंगी ...इस बार पढ़े गफूर गुलाम की एक कविता

सलाम

दुनिया में किस्मत अजमाई एक बार
उम्र एक माला नहीं
कि जिनके मनके बार बार फेर लें
आसमान में चमकती बिजली का एतबार एक बार
मैं पूर्व का कवि हूँ
मेरी कल्पना का क्षितिज
कुरील से ले कर अफ्रीका तक
अरब के किसानों और मजदूरों की आरजू
यह सब परछाई इयाँ मेरी कलम में हिलती है
बाद्शाओं के ताज की जीनत :लोगों के धन की चोरी
पाँच सौ साल की गुलामी
जैसे कोई हाथी खुजली का मारा हो
मैं तो एक घोडे का बच्चा
रेगिस्तान में घूमता हूँ
कंटीली झाडियाँ चरता हूँ
आजादी की सलामती मांगता हूँ !!!

फरगाना घाटी
उज्बेकिस्तान
३० अप्रैल १९६१


Wednesday, January 7, 2009

पंडित जवाहर लाल जी के शब्दों में " अपने देश की जानकारी और साहित्य वह घर है, जहाँ मनुष्य रहता है .पर इस घर की खिड़कियाँ दूसरे देशों की जानकारी की और खुलती है ..जो मनुष्य अपने घर की खिड़कियाँ बंद कर लेगा ,उसको कभी ताज़ी हवा में साँस लेना नसीब नही होगा ..ज़िन्दगी की सेहतमंद रखने के लिए यह जरुरी है कि हम अपने घर की खिड़कियाँ खोल कर रखें "
अमृता जी के कुछ पत्र मुझे उनके लिखी किताब "खिड़कियाँ "में मिले जो उन्होंने अपने बच्चो नवराज और कंदला के नाम लिखे थे ,तब जब जब वह विदेश यात्रा पर गई ....वहां की तहजीब ,वहां के लोग और वहां के बारे में जिस तरह से अमृता ने लिखा है वह सिर्फ़ नवराज और कंदला के लिए नहीं हैं .वह देश के हर बच्चे के नाम है इस दुआ के साथ की देश के बच्चों का अपना घर [अपने देश की जानकारी और साहित्य ] बड़ा सुंदर और सुखद हो , और इसकी खिड़कियाँ दूसरे देश की जानकरी की और हमेशा खुली रहें और उनकी ज़िन्दगी सेहतमंद हो ....

उन्ही का एक ख़त ताशकंद के उज्बेकिस्तान से ३ मई ,१९६१ को लिखा हुआ यहाँ लिख रही हूँ ....

प्यारे नवराज और कंदला !
तुम जब बड़े होगे ,मेरे से भी अधिक दुनिया देखोगे .और मेरे से बहुत छोटी उम्र में देखोगे ,पर अभी जब तक तुम पढ़ाई की छोटी छोटी सीढियाँ चढ़ रहे हो ,मैं दूर देश में खड़ी तुम्हारी जानकारी के लिए कुछ परिचय पत्रों में दे रहीं हूँ ...
आज मैं यहाँ ताशकंद में विज्ञान की उजबेक अकादमी में गई थी ..इस अकदमी की निदेशक एक औरत है उसका नाम सबाहत खानम है ,बड़ी अक्लमंद और गंभीर औरत है ..यह अकादमी १९४४ में बनी थी ,मध्य एशिया ,हिन्दुस्तान ,अफगानिस्तान ईरान और चीन के बारे में इस अकादमी के पास बहुत सारा इतिहास है ..कई पांडुलिपियाँ दसवीं शताब्दी की भी हैं ,आज मैंने यहाँ कई पांडुलिपियाँ देखी ,बाबर नामा ,अकबर नामा .जहाँगीर नामा हुमायूं नामा .तुमने अपने इतिहास में इनको सिर्फ़ बाद्शाओं के रूप में देखा है ,मैंने भी इसी रूप में देखा था .पर आज मैंने इनको शायरों के रूप में देखा है .बाबर के एक दो शेरों के भाव लिख रही हूँ ....

अगर मुझे अपना सिर ..
तेरे क़दमों में रखना नसीब न हो
तो मैं अपना सिर अपने हाथ में लिए
वहां तक चलता जाऊं
जहाँ तक तेरे कदम दिखायी दे
अगर भीतर में कोई चिंगारी है
तो हर मिनट ज़िन्दगी की खुशी के हवाले कर दे
एक मिनट भी गम के लिए न हो ...


सोलहवीं सदी के अमीर खुसरो देहलवी का खमसा देखा ..खमसा उस दीवान को कहते हैं जिस में पाँच दास्तानें हो .अमीर खुसरो के इस दीवान में लैला -मजनू ,शीरी खुसरो ,आइना ऐ सिकंदरी ,मतला ऊल अनवर और खश्त बहिश्त पाँच दास्ताने हैं ..खश्त बहिश्त का मतलब है आठ स्वर्ग ...अब तुम कहोगे की हमने पंजाबी कलाम में सात बहिश्तों का जिक्र पढ़ा है ,यह आठवां बहिश्त कौन सा आ गया ? यहाँ के लोग कहते हैं कि एक बादशाह को बहुत घमंड हो गया था की मैं खुदा से कम नहीं हूँ उसने सात बहिश्त बनायी है तो एक मैं भी बना सकता हूँ उसने अपनी सारी दौलत खर्च कर के एक बहिश्त बनवाई और जब घोडे पर चढ़ कर उसके अन्दर दाखिल होने लगा तो अचानक बिजली गिर गई ,वह भी मर गया और बहिश्त भी उजाड़ गई .सो बहिश्त वही सात की सात रह गयीं .वैसे आठवीं बहिश्त मनुष्य की अच्छाइयों को कहा जा सकता है ..

तुम सोचोगे कि फरहाद का नाम तो हमने सुना है यह शीरी खुसरो कौन थे ? क्या यह कोई और कहानी है ?
वही है पर पहले यह शीरी खुसरो के नाम से लिखी जाती थी ,खुसरो उस बादशाह का नाम था जो शीरी से जबरदस्ती विवाह करना चाहता था ..अमीर खुसरो उस कहानी की रचना में शीरी का एक पत्र है खुसरो के नाम ..इस पत्र से एक शेर में तुम्हारे पढने के लिए अनुवाद कर रही हूँ ...

अगर दो दिल मिल जाएँ
तो कोई खंजर उन्हें चीर नही सकता
अगर दो बदन एक दूसरे को नहीं चाहते
तो सौ जंजीरे भी बाँध कर उन्हें मिला नही सकती है


इब्बन सलाम का नसीहत नामा देखा .यह पाण्डुलिपि एक हजार बरस पुरानी है ..पंद्रहवीं सदी के जामी का लिखा युसूफ जुलेखा देखा ..हर पृष्ठ बड़ा रंगीन और चित्रित है .एक अजीब बात मैंने इस अकादमी की निदेशक सबाहत खानुम से पूछा कि."' तुम्हारे उज्बेकिस्तान से बुखारे का शाहजादा इज्जत बेग हिन्दुस्तान गया ,उसने पंजाब की सोहनी से मोहब्बत की ..क्या इस प्यार की कहानी के बारे में आपके पास कोई किस्सा नही है ? इस कहानी को किसी उजबेक कवि ने नहीं लिखा ?'' इस पर सबाहत खानुम हंस पड़ी .और कहने लगी कि ''हमारे देश में तो वह सिर्फ़ शाहजादा था ,प्रेमी तो वह आपके देश में जा कर बना ..इस लिए आप पंजाबी कवियों का ही फ़र्ज़ बनता था कि
उस कहानी को संभाल कर रख ले ,हमारा नहीं '' सुन कर मैं मुस्करा पड़ी ..हम बहुत देर तक बातें करते रहे ,मैंने सबाहत से पूछा कि इतनी शायरी संभालती हो क्या कभी शायर बनने का ख्याल नहीं आया ..?
सबाहत हंसने लगी ..और कहा कि जब मैं अठारह साल की थी मैंने कुछ नज्में लिखी थीं .सोचा था शायर बनूँगी ,पर मेरी नज्मों को किसी ने न समझा .मैं हार कर इतिहास कार बन गई सोचा सदियों की छाती से संभाल कर रखी हुई शायरी को खोजती रहूंगी ...आजकल सबाहत खानुम ने हुमायूं नामे का फारसी से उजबेक में अनुवाद किया है
हिन्दुस्तान के कई साहित्यकारों की किताबें उजबेक भाषा में मिलती हैं .टैगोर .प्रेमचंद .ख्वाजा अहमद अब्बास अली .सरदार जाफरी .कृष्ण चंदर .इस्मत चुग़ताई और कुछ भी भारतीय लेखकों की रचनाएं अनुवाद हो चुकी हैं ..दिन प्रतिदिन यह साहित्यिक मेल बढ़ रहा है

प्यार से तुम्हारी अम्मी
ताशकंद [उज्बेकिस्तान ]
३ मई १९६१

Sunday, January 4, 2009

पहले भाग से आगे:

चारपाई के पास तिपाई पर अभी तक रात की बची हुई व्हिस्की पड़ी हुई थी। उसने कांपते हुए हाथों से गिलास में व्हिस्की डाली और एक घूंट में पी गया, बौराया हुआ सा बोलने लगा - तुम देव पुत्र थे वेदव्यास, तुम मानव पुत्र नहीं थे...

बलदेव की कल्पना उसे सदियों से दूर एक जंगल में ले गईं और वह जंगल में विलाप की  तरह बोला- ऋषिराज ! तुम्हारे पास समाधी, निरी समाधी, पर मेरे पास सपने हैं, बहुत सारे सपने  ...
बलदेव के बोल  छाती में से उठ उठ कर पेड़ों से टकराते रहे- देखो ऋषिपुत्र, मेरी ओर देखो। यह देखो मेरी अंबिका - तुम्हें तो अपनी अंबिका की दूसरे दिन पहचान भी नहीं रही थी, पर देखो यह मेरी परछाईं नहीं, मेरी अंबिका है, मैं जहां जाता हूं मेरे साथ जाती है.....

और बलदेव बड़ी जोर से हंसां- देखो ऋषिपुत्र, तुम्हारी कोई परछाईं नहीं है। लोग सच कहते हैं कि देवताओं की परछाईं नहीं होती। पर इन्सान को तो परछाईं का श्राप होता है.......देखो मेरी परछाईं, मुझसे भी बड़ी....

फिर बलदेव की आवाज़ अति की खामोशी से टकरा कर बुझ सी गयी- तुम्हारी समाधी टूट गयी थी, जब सत्यवती ने आवाज दी थी, पर मेरी आवाज से नहीं टूटती। क्यों नहीं टूटती? तुमने अंबिका की गोदी में खेलता हुआ अपना पुत्र कभी अपनी बाहों में उठा कर नहीं देखा, मैंने देखा है उसे, बाहों में उठा कर, गले से लगा कर...और तुम नहीं जानते, फिर उसे अपने गले से हटाना, अपने मांस से मांस के टुकड़े को तोड़ने जैसा होता है.....

बलदेव का सारा शरीर, शरीर में बहते हुए लहू में भीग गया - तुमने कभी लहू की गंध नहीं देखी, ऋषिपुत्र ! आदमी के लहू की एक गंध भी होती है - जब वह धुर मन तक जख्मी हो जाता है....और लहू की एक सुगंध भी होती है, जब बच्चे के कोमल नरम होंठ हंसते हैं तब अपने ही शरीर में से लहू की एक सुंगधं उठती है....

और एक और तीखी सुगंध बलदेव के माथे की नसों में फैल गयी और वह अर्ध चेतना में बोला- मेरी अंबिका के शरीर की सुगंध चाहे कहीं चली जाये मैं उसे ढूंढ सकता हूं...उसकी कांपतीं हुई सांसें यहां मेरे कंधे के पास, मेरी बाहों के पास, मेरी गर्दन के पास पड़ी हुई हैं।

एक अमानत की तरह पड़ी हुई हैं- और देखो मेरे भीतर भी...

मैंने उसके होठॊं से पूरी एक घूंट पी थी...

बलदेव के माथे की एक नस चीस की तरह कस गयी और वह निचले होंठ को दातों में लेकर कह उठा- ऋषिपुत्र ! तुम सिर्फ देना जानते थे, तुम्हें कुछ भी लेने की, कुछ भी अंगिकार करने की पहचान ना थी, मैंने वह पहचान पायी है, मैं जब अपनी अंबिका के जिस्म की तहों में उतर गया था, वह तहें मुझे ले कर एक मुट्ठी की तरह बंद हो गयी थीं, और फिर जब फूल की पंखुड़ियों की तरह खुलीं थी, मैं वापिस लौटते हुए उनकी गंध अपने साथ ले आया था....
वस सिर्फ कुछ देने का नहीं, कुछ लेने का पल भी था-मैने वह पल देखा है ऋषिपुत्र ! तुमने नहीं देखा। देना दर्द नहीं होता, लेना एक दर्द होता है, तुम वह दर्द नहीं जानते मेरे ऋषिराज !...

चेतना के अंधेरे में एक आकार सा उभरा- कोई पत्थर की मूर्ती जैसा, शायद समय से सचमुच पत्थर हो चुका, या अभी भी जीवित और तपस्या में लीन बैठा हुआ....
बलदेव ने अंधेरे में बांह फैलायी, नीचे जमीन को टटोल कर उसके पैंरों को छूने के लिये, और कांपती हुई बांह की तरह उसकी आवाज कांपी- मैं भूल गया ऋषिराज! मैंने आदम पुत्र हो कर तुम्हारी  रीस की थी... मैंने एक पल तुम बन कर देखा, सिर्फ एक पल, मैंने जैसे एक पल के लिये तुम्हारा आसन चुरा लिया, पर मैं तुम नहीं हो सकता...तुम अपने जंगल में अभी भी निश्छल बैठे हुए हो...मैं अपने जंगल में भटक रहा हूं....मुझे सिर्फ देने का वरदान नहीं मिला है, लेने का श्राप भी मिला है,मैं अपनी अंबिका को  अपने पास चाहता हूं...अपना बच्चा भी...देखो ! मेरी आंखें सिर्फ मेरे मूंह पर नहीं, मेरी पर पीठ भी हैं- वह पीछे दूर वहां देख रही हैं, जहां मेरी अंबिका मेरे पास थी, मेरे पहलू से सटी हुयी- और मैं उसकी कोख में उग रहा था....

बलदेव की अर्धचेना फिर नींद का  झोंका बन गयी तो कमरे की खामोशी ने एक चैन की सांस ली।

अचानक कमरे की खामोशी चौंक कर बलदेव की और  देखने लगी, वह तड़प कर बिस्तर से उठते हुए कह रहा था-यह कैसा श्राप है, वेदव्यास ! जब भी सोता हूं, आग की तरह जलने लगता हूं, मैं भी, मेरी अंबिका भी-और जब भी जागता हूं, राख का एक ढेर बन जाता हूं.....बताओ, मेरी बच्चा बड़ा हो कर इस राख मेंसे अपना वंश कैसे ढूंढे गा?
और नदी उसी तरह बहती रही, सिर्फ उसके पानी ने कुछ उदास हो कर देखा कि वह घटना राख बनकर परले किनारे पर पड़ी हुई है...

Thursday, January 1, 2009

इनसानी रिश्तों को अमृता जी इस तरह से कागज पर उतार देतीं हैं कि वह सीधे जा कर पढ़ने वाले की आत्मा को छू जाता है। उनके कितने ही कहानियां और उपन्यास हैं जो पढ़ने वालों की सोच को झकझोड़ कर रख देते हैं। कहानी समाप्त होती है और पढ़ने वाला अवाक हो जाता है उनके लेखन पर। अपने कॉलेज के दिनों में जब उनका उपन्यास ’आग की लकीर’ पढ़ा तो अवाक सा रह गया। जहन पर उस कहानी का असर कई महीनों तक रहा। आज भी उस कहानी को याद कर हैरान हो जाता हूं। मगर  ’ आग की लकीर’ की बात फिर कभी  करेंगे। आज आपको पढ़वायेंगे अमृता जी की कहानी ’और नदी बहती रही।’

यह कहानी कैसे लिखी गयी इसके बारे में अमृता जी नें स्वंय ही लिखा :

किसी काल का सत्य, जो पानी की सहज बहती हुई धारा की तरह, सहज मान लिया जा सकता है - वो आने वाले वक्त में भी ऐसा मान लिया जाये, यह नहीं होता....

मेरे सामने एक ऐसा ही वाक्या था, और मैं उस व्यक्ति को देखती रह गयी थी - जो अपने एक हाथ में उस वाक्या के दर्द को लेकर आया था, और दूसरे हाथ में वो मुझ पर एक ऐसा विश्वास लिये आया था कि अपनी दोनों हथेलियां मेरे सामने रखते हुए उसने कहा था कि मैं उसकी जिंदगी के उस वाकये को एक कहानी में उतार दूं।

वह जानता था कि आज के युग में उसका सत्य, सह्ज नहीं लिया जा सकता लेकिन यह उसके मानसिक तनाव का तकाज़ा था कि वह अपने दर्द को एक दस्तावेज़ की तरह अपने पास चाहता था....

मैं नहीं जानती थी कि मैं उसे लिख पाऊंगी कि नहीं, फिर भी हंस कर पूछा- अगर कहानी लिखा पायी तो उसमें आपका सही नाम नहीं होगा - फिर आप कैसे एक नये नाम की छाया में अपने को देख पांयेंगे?

उसके लिये अजीब स्थिति थी - उसे कहानी में अपना सही परिचय भी नहीं देना था- और एक नये नाम की छाया भी उसे मंजूर नहीं थी। इसी मुश्किल में से उसने एक रास्ता खोज लिया - अपना आधा सा नाम मेरे सामने रखा, और कहा- इससे लोगों की नजर में मेरी पहचान नहीं जायेगी, लेकिन मेरे लिये यह मेरा आधा सा नाम - मेरे पूरे नाम से भी ज्यादा ’मेरा’ हो जायेगा...

नाम की मुश्किल तो बड़ी मुश्किल नहीं थी, एक रास्ता मिल गया था, अब मुश्किल उसके लिये नहीं थी - मेरे लिये थी, कि मैं उसे किस पहलू से लिखूं कि वो हकीकत आज के काल में बहुत नहीं, तो कुछ हद तक सहज मन से ली जा सके।

और फिर प्राचीन काल ने किस तरह मेरी मदद की, बात को अपनी ओट में ले लिया, और में वो कहानी लिख पायी, यह सब कहानी के अक्षर अक्षर में देखा जा सकता है। वह कहानी थी - "और नदी  बहती रही।"

और नदी  बहती रही

एक घटना थी - जो नदी के पानी में बहती हुई किसी उस युग के किनारे के पास आकर खड़ी हो गयी, जहां एक घने जंगल में वेद्व्यास तप कर रहे थे.....

समाधी की लीनता टूटी तो सामने रानी सत्यवती उदास पर दिव्य सुंदरी के रूप में खड़ी हुई थी।

वृक्ष के पत्तों की तरह झुककर वेदव्यास ने प्रणाम किया, कहा- मेरी शास्वत सुंदरीं मां आज उदासी का यह वेश क्यों?

मां ने ऋषिपुत्र को मोह से भरी छाती से लगाया, कहा - तुम ऋषि कुल से हो, तुम मोह की पीड़ा नहीं जानते। राज का दर्द मैंने राजा शान्तनू से पाया और उसके राज्य की रक्षा के लिये मैंने जिस कोख् से तुम्हें जन्म दिया, उसी कोख से राजा शान्तनू के दो पुत्रों को जनम दिया।
पर एक मेरा राजकुमार युद्ध में मारा गया, और दूसरा, दो रानियों को रोती छोड़ कर क्षय में मर गया।

वृक्ष के सारे पत्ते जैसे कुम्हला कर वेदव्यास के तापस चेहरे की और देखने लगे......

रानी सत्यवती का मन गंगा की निर्मल लहरों की तरह बहने लगा, उस ने कहा- महर्षि पराशर ने गंगा के पानी की तरह मुझे अंग से लगाया था, तुम उसी पानी का मोती हो, जल थल में क्रीड़ा करते हो, जंगल, वन और बीहड़ तुम्हारे अधीन हैं, तुम ताज में जड़े मोती का दर्द नहीं जानते। वृक्ष के हरे रंग की तरह वेदव्यास के होंठ मुस्कुराये- मैं राज्य का दर्द नहीं जानता, पर मां का दर्द जानता हूं।

सत्यवती वृक्ष से लिपटी हुई बेल की तरह झूम गयी, बोली - ताज के मोती को तख्त का वारिस चाहिये। मेरी दोनों बहुएं आज विधवा हैं, आज में उनके लिये तुम्हारे पास पुत्र दान मांगनें आयी हूं। वेदव्यास ने सिर के ऊपर फैले हुए वृक्ष की ओर देखा और सारा वृक्ष  जैसे खिल सिमट कर धरती की छाती में पड़े हुए अपने बीज की और देखने लगा....

ऋषि के होंठ हंस पड़े, कहा- यह मां का हुक्म और धरती का हुक्म पूरा होगा....

और वेदव्यास ने वचन पूरा किया- अंबिका और अंबालिका दोनों को एक एक पुत्र का दान दिया....

नदी का पानी बंच्चों की किलकारी की तरह हंसता हुआ जब फिर बहने लगा तो वही घटना युगों से गुजरती हुई कलयुग के एक किनारे के पास खड़ी हो गयी -वहां, जहां बलदेव का साधारण सा घर था, जहां उसकी मेज पर पड़ी हुई किताबों में सिर्फ महाभारत के पर्व नहीं थे, कामू भी था, काफ्का भी था, पास्तरनाक भी....

और उसके सामने उसका मित्र काशीनाथ वृक्ष  के एक टूटे हुए पत्ते की तरह खड़ा था, बोला - जो दान मुझे ईश्वर ना दे सका, ना किसी वैद्य की दवा, वह दान मैं तुमसे मांगने आया हूं........ एक पुत्र का दान....
सिर के ऊपर कोई वृक्ष  नहीं था, पर बलदेव के कानों में वृक्ष  के पत्तों की शां शां भर गयी....

काशीनाथ कह रहा था- मेरी औरत के निरोग तन को एक मर्द के रोगी तन का श्राप लगा हुआ है..... मेरे मित्र ! बस यह श्राप एक घड़ी के लिये उतार दो...

बलदेव का सारा बदन वृक्ष  की जड़ की तरह हो गया....
काशीनाथ एक रुलते हुए पत्ते की तरह जैसे उसके पांव के पास आ गिरा - यह भेद सिर्फ मैं जानूं, तुम जानो, और वह जानेगी, और कोई नहीं....कोई नहीं...

बलदेव के वृक्ष  की जड़ की तरह हो गये बदन में से एक संकल्प प्रस्फुटित हुआ- यह शायद इतिहास का हुक्म है, मैं शायद एक वेदव्यास हूं, एक ऋषि.....

और वही युगों की घटना फिर घटी - टूटे हुए पत्तों के घर फूलों का वंश चला...

काशीनाथ के घर पुत्र जन्मा.....रिश्तेदारों संबंधियों के मुंह बधाईयों से भर गये, और जब बलदेव ने पालने में पड़े हुए बच्चे को झुक कर देखा.... उसके होंठ वेदव्यास के होठों की तरह बंद हो गये।

नहीं नहीं मैं वेदव्यास नहीं हूं, बलदेव की अपनी ही चीख जैसी आवाज से उसकी नींद टूट गयी.....

(जारी...)