अमृता जी के उपन्यास तथा कहानियां भी जैसे कविता की तरह हैं। अपनी कहनियों और उपन्यासों में अमृता जी ने बहुत से सामाजिक मुद्दे बड़ी शिद्दत के साथ उठाये हैं।
आज आप को उनके उपन्यास "आक के पत्ते" का एक अंश पढ़वाते हैं। आक के पत्ते कहानी है उर्मी की जिसे प्यार करने की सजा मिलती है। उर्मी के अपने पिता ही उसके ससुराल वालों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर देते हैं। उर्मी का छोटा भाई सच खोजने की कोशिश कर रहा है। उसका प्रेमी पगला सा गया है। इस सब का वर्णन पाठकों को झकझोड़ देता है। यदि आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा हो तो जरूर पढ़ियेगा। फिलहाल आपको इस उपन्यास का एक अंश पढ़वाते हैं:
उपन्यास अंश - आक के पत्ते
यहां जहां मैं खड़ा हूं, एक चौराहा है।
एक राह एक अंन्धे कूंएं की तरफ जाती है, जिसमें उर्मी की लाश पड़ी हुई है....
एक राह एक नदी की तरफ जाती है, जिसमें उर्मी की लाश बह रही है....
एक राह धरती के एक गढ़े की तरफ जाती है, जिसमें उर्मी की लाश दबी हुई है....
एक राह एक चिता की तरफ जाती है, जिसकी आग में उर्मी की लाश जल रही है....
और मैं जैसे चारों राहों पर चल रहा हूं.....
चारों तरफ बेहद बू है, पर दुनिया के काम काज उसी तरह चल रहे हैं, किसी को यह बू नहीं आती।
मैं हार कर इस देश के कानून के पास गया था, सुना था कि वह बू का निशान भी सूंघ लेता है ! पर मुझे देख कर उसने जल्दी से नोटों की एक पोटली नाक के आगे रख ली, और मुझसे हंस कर कहने लगा - कहां ? बू तो कहीं से भी नहीं आ रही।
मैं हार कर इस देश के कानून के पास गया था, सुना था कि वह बू का निशान भी सूंघ लेता है ! पर मुझे देख कर उसने जल्दी से नोटों की एक पोटली नाक के आगे रख ली, और मुझसे हंस कर कहने लगा - कहां ? बू तो कहीं से भी नहीं आ रही।
उर्मी एक खुशबू थी, पर उसे किसी ने बू बना दिया है.....
दोनों गांव पास-पास हैं - एक उर्मी के पीहर का, एक उर्मी के ससुराल का। और दोनों गावों को जैसे दांती लग गयी है, वे मूंह से कुछ भी नहीं बोलते।
नहीं यह दांती नहीं, यह मिर्गी है, क्योंकि दोनो गांवों के मूंह से झाग निकल रहा है.....
यह सच है....कि एक गांव ने उर्मी को जबर्दस्ती ढोली में डाल कर दूसरे गांव में धकेल दिया था। और अब एक गांव ने उर्मी की एक बांह पकड़ी और दूसरे गांव ने दूसरी बांह पकड़ी, और उसे घसीट घसीट कर मार डाला।
इन दोनों गावों को उर्मी की कोई चिंता नहीं।
ठीक है मिर्गी के रोगी को चिंता नहीं करनी चाहिये...
उर्मी का कहीं नाम निशान नहीं, जैसे उर्मी कभी थी ही नहीं। मैं उर्मी की बात करूं तो उसके लगे लिपटे मुझे ऐसे देखते हैं जैसे मैं जिन्न भूतों की बात कर रहा हूं। और जैसे उर्मी को सिर्फ मैंने ही कभी देखा हो, और किसी ने कभी आंखों से देखा ही ना हो।
सब गवाहियां खत्म हो गयी हैं, सिर्फ एक गवाही यहां गांव के स्कूल के कागजों में पड़ी हुई है, जहां उर्मी को दाखिल करते वक्त लिखा गया था- उर्मी , उम्र छः साल, पिता का नाम हरीशचन्द्र।
एक दिन पूछता हूं "पिताजी, राजा हरीशचन्द्र सत्यवादी था। आप चाहे फिर कभी सच ना बोलना, पर एक बार सच बता दो - उर्मी कहां है?"
पिताजी खटिया की अदवायन को इतने जोर से खींचते हैं कि अदवायन टूट जाती है।
पिताजी खटिया की अदवायन को गांठ लगाने लगते हैं, तो मूढ़े पर पड़ी हुई गठरी धीरे से रोने लगती है, "हाय री बेटी, कौन टूटी को जोड़े...." गठरी ही कहूंगा....मां होती तो जोर जोर से विलाप ना करती....... सोचता हूं - उर्मी अगर एक सुंदर सजीली लड़की ना होती, किसी खाट की खुरदरी अदवायन होती तो उसकी उम्र को गांठ लग जाती.....
मां मूढ़े पर एक गठरी की तरह बैठी हुई है। गांव का हकीम उसकी रीढ़ की हड्डी पर रोज लेप करता है, और कहता है कि उसे कभी ढीली खाट पर ना सुलाना।
इसलिये पिता जी रोज उसकी खाट कसते हैं.....
पिताजी खटिया की अदवायन को गांठ लगाने लगते हैं, तो मूढ़े पर पड़ी हुई गठरी धीरे से रोने लगती है, "हाय री बेटी, कौन टूटी को जोड़े...."
गठरी ही कहूंगा....मां होती तो जोर जोर से विलाप ना करती.......
सोचता हूं - उर्मी अगर एक सुंदर सजीली लड़की ना होती, किसी खाट की खुरदरी अदवायन होती तो उसकी उम्र को गांठ लग जाती.....
फिर कमरे का आला मेरी तरफ देखता है और मैं कमरे के आले की तरफ। उसकी भी छाती में किसी ने ऐसे बुटका भरा है, जैसे मेरी छाती में। वहां - आले में एक तस्वीर थी, मेरी और उर्मी की। एक बार पिताजी, हम दोनों की अंगुली पकड़ कर एक मेले पर ले गये थे। उर्मी तब कोई सात बरस की थी, और मैं पांच बरस का। और वहां मेले में हम दोनों बहन भाई की तस्वीर उतरवायी ती। पर आज वह तस्वीर वहां पर नहीं रही। मैं और यह आला, दोनों मिल कर पूछते हैं, "पिताजी, वह तस्वीर कहां चली गयी?"
"तुझे क्या करनी है तस्वीर?" पिताजी गुस्से में अदवायन को इस तरह खींचते हैं, मुझे लगता है कि अदवायन फिर टूट जायेगी।
कहता हूं,"उसकी एक ही तो निशानी थी!"
पिताजी खीज कर बोलते हैं, "निशानी अब सिर से मारनी है?"
मैं ढीठों की तरह कहता हूं, " आपको नहीं जरूरत थी, तो ना रखते, मुझे दे देते, मैं शहर वाले कमरे में लगा लेता।"
"डूब जाये तेरा शहर..." पिता का सारा बदन खुरदरी अदवायन की तरह कस जाता है। और शायद अनके अपने बदन की छिलतरें उनके हांथों में चुभ आती हैं, वह हाथों को मलते से मेरी तरफ देखते हैं।
जानता हूं - मैं शहर में कमरा ले कर जब कॉलेज में पढ़ने लगा था तो , उर्मी ने अपने पिहरियों और ससुरालियों के आगे हाथ जोड़े थे कि उसका आदमी अगर कुछ बरसों के लिये कीनिया कमाने चला गया था , तो वह गांव में पड़ी क्या करेगी, उसे शहर जा कर आगे पढ़े लेने दें। और वह शहर जाकर आगे पढ़ने के लिये कॉलेज में दाखिल हो गयी थी। हम बहन भाई दोनों शहर में कमरा ले कर रहते थे....
और मां हमेशा इन्हें तख्ते पर चमका कर रखती हुई कहती थी, "यह थाली मेरी उर्मी की, यह उर्मी के भाई की, यह मेरी और यह तुम्हारे बापू की....." उस दिन पिताजी ने जब तख्ते पर से तीन थालियां उतारीं, तो मेरे मूंह से अचानक निकल गया, "वह थाली उर्मी की......" पिता जी ने क्रोधी आंखों से देखा, पता नहीं मुझे कि थाली को.......
निशानी से याद आता है कि उर्मी अगर जिंदा होती....सिर्फ तीन चार महीने और जिंदा रहती - तो उसका बच्चा भी एक निशानी होता......
पिताजी खटिया पर खेस बिछा कर, गठरी सी बनी मां को मूढ़े पर से उठा कर खटिया पर लिटा देते हैं और फिर हाथ धो कर तीनों थालियों में रोटी परोस देते हैं।
रसोई के तख्ते पर कांसे की चार थालियां हमेशा पास पास रखी होती हैं। मां हमेशा इन्हें मांज कर चमकाती थी। यह कंगूरे वाली थालियां बिल्कुल नयी कतह की थीं, एक बार एक मेले में से खरीदीं थीं। और मां हमेशा इन्हें तख्ते पर चमका कर रखती हुई कहती थी, "यह थाली मेरी उर्मी की, यह उर्मी के भाई की, यह मेरी और यह तुम्हारे बापू की....."
उस दिन पिताजी ने जब तख्ते पर से तीन थालियां उतारीं, तो मेरे मूंह से अचानक निकल गया, "वह थाली उर्मी की......"
पिता जी ने क्रोधी आंखों से देखा, पता नहीं मुझे कि थाली को.......