Thursday, April 8, 2010

एक आग रगों में सुलगती है ,अक्षरों में ढलती है


जाने कितनी खामोशियाँ आपसे आवाज़ मांगती है
जाने कितने गुमनाम चेहरे आपसे पहचान माँगते हैं
और एक आग आपकी रगों में सुलगती है ,अक्षरों में ढलती है

अमृता के लिखे यह लफ्ज़ वाकई उनके लिखे को सच कर देते हैं ...उनके अनुसार काया के किनारे टूटने लगते हैं सीमा में छलक आई असीम की शक्ति ही फासला तय करती है
जो रचना के क्षण तक का एक बहुत लम्बा फासला है एहसास की एक बहुत लम्बी यात्रा ....मानना होगा कि किसी हकीकत का मंजर उतना है जितना भर किसी के पकड़ आता है ...
अमृता जी की लिखी कहानी धन्नो पढ़ी अभी कुछ दिन पहले ...इस में समाज का छिपा हुआ रूप स्पष्ट रूप से सामने आया है ...इस कहानी का स्थान कोई भी गांव हो सकता है ,पर समय वह है जब चिट्टा रूपया चांदी का होता था ,गांव की एक अधेड़ उम्र की औरत धन्नो कहानी की मुख्य पात्री है ..समाज की मुहं फट चेतना का प्रतीक ..उसके शब्दों में "औरत को तो खुदा ने शुरू से ही धेली बनाया है रूपया साबुत तो कोई कर्मों वाली होती है जिसे मन का मर्द मिल जाये ..पर उसको न किसी ने देखा न किसी ने सुना ..घर -घर बस धेलियाँ ही पड़ी हुई है "
धन्नो सारे गांव की आँखों में चुभती है क्यों कि वह मुहंफट है और सदाचार के पक्ष से गांव की हर औरत को सिले हुए मुहं का होना चाहिए ..यह धन्नो तो सिले हुए मुंहों के धागे उधेड़ती है ....धन्नो के बदन की दुखती रग उसकी ज़िन्दगी का वह हादसा है जो उसकी चढ़ती जवानी के दिनों में हुआ था ..मोहब्बत के नाम पर जो उसको माता पिता के घर से निकाल कर ले गया था ..वह कोई ऐयाश किस्म का था जो दस बीस दिन उसके साथ रहा फिर उसको कहीं बेचने की कोशिश में लग गया ......धन्नो ने यह भांप लिया और उसको मुहं फाड़ कर बता दिया था ..अगर पल्ले से बंधी हुई धेली भुनवा कर ही रोटी खानी है .तो जाते हुए तेरी जेब क्यों भर जाऊं ?और वह अकेले ही अपन जोर पर जीते हुए ,सारी उम्र कहती रही ---"काहे की चिंता है बीबी ! धेली पल्ले से बंधी हुई है ,आड़े वक़्त में भुनवा लूँगी ..."
धन्नो के पास कुछ जमीन है जो एक बार किसी मुरब्बे वाले ने उस पर रीझ कर ,अपने पुत्रों से छिपा कर उसके नाम कर दी थी अलग घर भी बनवा दिया था और जब तक जिंदा रहा उसकी खैर खबर लेता रहा था ..अब जब धन्नो का अंत समय आने को है तो गांव वालों की नजर उसकी जमीन पर लगी हुई है ..धन्नो जानती है सो माँ,मौसी जैसे पुचकारते हुए लफ़्ज़ों की खाल उधेड़ती है और नेक कामों के घूँघट भी उधेड़ती हुई अंत समय राम राम जपने की सलाह शिक्षा को भी दुत्कारती है ...और कहती है ..... भगतानी ! काहे को मेरी चिंता करती है ,धर्मराज को हिसाब देना है दे दूंगी ..यह धेली जो पल्ले बंधी है वह धर्मराज को दे कर कहूँगी ले भुना ले और हिसाब चुकता कर "...सदाचार समझने वाला समाज धन्नो की बातें सुन कर कानों में उंगिलयां दे देता है और धन्नो के मरने के बाद भी उसकी वसीयत पढ़ कर भी अश्लीलता के अर्थ नहीं जान सकता ...धन्नो के अपनी जमीन गांव की पाठशाला के नाम लिख दी है और साथ में एक चाह भी ..कि चार अक्षर लड़कियों के पेट में पड़ जाएँ और उनकी ज़िन्दगी बर्बाद न हो .
अश्लीलता धन्नो के आचरण में नहीं है ,न उसके विचारों में है ..अश्लीलता समाज के उस गठन में है जहाँ घर का निर्माण आधी औरत की बुनियाद पर टिका हुआ है ....आधी औरत --एक धेली ,सिर्फ काम वासना की पूर्ति का साधन
साबुत रुपया तो धन्नो का सपना है ,धन्नो का दर्द उस औरत की कल्पना --जिसके तन को मन नसीब हुआ हो और जिस सपने की पूर्ति के जोड़ तोड़ के लिए वह अपनी सारी जमीन गांव की पाठशाला के नाम कर देती है --भविष्य की किसी समझ बूझ के नाम ,जब औरत को अपने बदनकी धेली भुना कर नहीं जीना पड़ेगा और इस तरह से रोटी नहीं खानी पड़ेगी
अश्लीलता इस समाज के गठन में है जहाँ औरत का जिस्म न सिर्फ रोटी खरीदने का साधन बनता है ,बलिक पूरे समाज की इस स्थापना में घरेलू औरत का आदरणीय दर्ज़ा खरीदने का साधन भी है .धन्नो इसी अश्लीलता को नकारती एक ऊँची ,खुरदरी और रोष भरी आवाज़ है ......

11 comments:

डॉ .अनुराग said...

आखिरी के सारे शब्द ही अपने आप में एक मुकम्मिल बयान है

वाणी गीत said...

अमृता प्रीतम के उपन्यासों या कहानियों की खासियत यही है कि उनकी स्त्री पात्र समाज से बगावत करते हुए भी अपना औरतपन नहीं छोडती ...धेलियों और आदरणीयों के बीच एक स्थान बनाती धन्नो ...अपने आखिरी क्षणों में लड़कियों की शिक्षा के लिए ही जमीन दान कर जाती है ...

mamta said...

रंजना आज बड़े दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा। आजकल हम कुछ व्यस्त ज्यादा है ना। :)

और सच कहे तो बड़े दिनों बाद अमृता जी की कोई कहानी पढ़ी।

vandana gupta said...

abki baar to bahut dino baad aap amrita ji ka likha lekar aayi hain.........aur unke liye to kahne ke liye hamare pass shabd hi nahi hote.......sirf padhkar abhibhoot hote hain hum.......aabhar.

संगीता पुरी said...

अश्लीलता धन्नो के आचरण में नहीं है ,न उसके विचारों में है ..अश्लीलता समाज के उस गठन में है जहाँ घर का निर्माण आधी औरत की बुनियाद पर टिका हुआ है ....आधी औरत --एक धेली ,सिर्फ काम वासना की पूर्ति का साधन
अमृता प्रीतम ने समाज की इसी कुव्‍यवस्‍था को अपनी रचना में दर्शाया है .. बहुत बढिया प्रस्‍तुति !!

Arvind Mishra said...

अमृता के कृतित्व के प्रति आपका एकात्म भाव मन को गहराई से छू जाता है -अच्छी कहानी !

डॉ. मनोज मिश्र said...

और एक आग आपकी रगों में सुलगती है ,अक्षरों में ढलती है...
इस में व्यक्त गहन भाव को कैसे व्यक्त किया जाय....बस महसूस ही किया जा सकता है....

हरकीरत ' हीर' said...

अश्लीलता इस समाज के गठन में है जहाँ औरत का जिस्म न सिर्फ रोटी खरीदने का साधन बनता है ,बलिक पूरे समाज की इस स्थापना में घरेलू औरत का आदरणीय दर्ज़ा खरीदने का साधन भी है .धन्नो इसी अश्लीलता को नकारती एक ऊँची ,खुरदरी और रोष भरी आवाज़ है ......

जी रंजना जी अमृता ने अपने साथ साथ अपनी कहानियों के पात्रों की आवाज़ भी बुलंद रखी..... धन्नो का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है ....!!

प्रिया said...

Amrita ji ki is dhanno ne to rula hi diya samajhiye...Samaaj ka gathan na badla hai na badalne wala...Abhi haal hi mein pune jaise city mein jo hua kisi se chupa nahi....Ham kahan surakshit hai? Kya ye dawa kar sakte hai ki hamarei peedhiyan surakshit hongi ? man dukhi hota hai sochkar bas

rashmi ravija said...

अमृता जी ने औरत के हर रूप पर बेबाकी से अपनी कलम चलाई है ...और हर किरदार की शक्ति और दृढ़ता से परिचित कराया है..उनकी एक नायाब रचना पढवाने का शुक्रिया

Vineeta Yashsavi said...

धन्नो का दर्द उस औरत की कल्पना --जिसके तन को मन नसीब हुआ हो और जिस सपने की पूर्ति के जोड़ तोड़ के लिए वह अपनी सारी जमीन गांव की पाठशाला के नाम कर देती है --भविष्य की किसी समझ बूझ के नाम ,जब औरत को अपने बदनकी धेली भुना कर नहीं जीना पड़ेगा और इस तरह से रोटी नहीं खानी पड़ेगी
Behtreen prstuti...