Saturday, April 10, 2010
Thursday, April 8, 2010
न जाने कितनी खामोशियाँ आपसे आवाज़ मांगती है
न जाने कितने गुमनाम चेहरे आपसे पहचान माँगते हैं
और एक आग आपकी रगों में सुलगती है ,अक्षरों में ढलती है
अमृता के लिखे यह लफ्ज़ वाकई उनके लिखे को सच कर देते हैं ...उनके अनुसार काया के किनारे टूटने लगते हैं सीमा में छलक आई असीम की शक्ति ही फासला तय करती है
धन्नो सारे गांव की आँखों में चुभती है क्यों कि वह मुहंफट है और सदाचार के पक्ष से गांव की हर औरत को सिले हुए मुहं का होना चाहिए ..यह धन्नो तो सिले हुए मुंहों के धागे उधेड़ती है ....धन्नो के बदन की दुखती रग उसकी ज़िन्दगी का वह हादसा है जो उसकी चढ़ती जवानी के दिनों में हुआ था ..मोहब्बत के नाम पर जो उसको माता पिता के घर से निकाल कर ले गया था ..वह कोई ऐयाश किस्म का था जो दस बीस दिन उसके साथ रहा फिर उसको कहीं बेचने की कोशिश में लग गया ......धन्नो ने यह भांप लिया और उसको मुहं फाड़ कर बता दिया था ..अगर पल्ले से बंधी हुई धेली भुनवा कर ही रोटी खानी है .तो जाते हुए तेरी जेब क्यों भर जाऊं ?और वह अकेले ही अपन जोर पर जीते हुए ,सारी उम्र कहती रही ---"काहे की चिंता है बीबी ! धेली पल्ले से बंधी हुई है ,आड़े वक़्त में भुनवा लूँगी ..."
धन्नो के पास कुछ जमीन है जो एक बार किसी मुरब्बे वाले ने उस पर रीझ कर ,अपने पुत्रों से छिपा कर उसके नाम कर दी थी अलग घर भी बनवा दिया था और जब तक जिंदा रहा उसकी खैर खबर लेता रहा था ..अब जब धन्नो का अंत समय आने को है तो गांव वालों की नजर उसकी जमीन पर लगी हुई है ..धन्नो जानती है सो माँ,मौसी जैसे पुचकारते हुए लफ़्ज़ों की खाल उधेड़ती है और नेक कामों के घूँघट भी उधेड़ती हुई अंत समय राम राम जपने की सलाह शिक्षा को भी दुत्कारती है ...और कहती है .....ओ भगतानी ! काहे को मेरी चिंता करती है ,धर्मराज को हिसाब देना है दे दूंगी ..यह धेली जो पल्ले बंधी है वह धर्मराज को दे कर कहूँगी ले भुना ले और हिसाब चुकता कर "...सदाचार समझने वाला समाज धन्नो की बातें सुन कर कानों में उंगिलयां दे देता है और धन्नो के मरने के बाद भी उसकी वसीयत पढ़ कर भी अश्लीलता के अर्थ नहीं जान सकता ...धन्नो के अपनी जमीन गांव की पाठशाला के नाम लिख दी है और साथ में एक चाह भी ..कि चार अक्षर लड़कियों के पेट में पड़ जाएँ और उनकी ज़िन्दगी बर्बाद न हो .
अश्लीलता धन्नो के आचरण में नहीं है ,न उसके विचारों में है ..अश्लीलता समाज के उस गठन में है जहाँ घर का निर्माण आधी औरत की बुनियाद पर टिका हुआ है ....आधी औरत --एक धेली ,सिर्फ काम वासना की पूर्ति का साधन
साबुत रुपया तो धन्नो का सपना है ,धन्नो का दर्द उस औरत की कल्पना --जिसके तन को मन नसीब हुआ हो और जिस सपने की पूर्ति के जोड़ तोड़ के लिए वह अपनी सारी जमीन गांव की पाठशाला के नाम कर देती है --भविष्य की किसी समझ बूझ के नाम ,जब औरत को अपने बदनकी धेली भुना कर नहीं जीना पड़ेगा और इस तरह से रोटी नहीं खानी पड़ेगी
अश्लीलता इस समाज के गठन में है जहाँ औरत का जिस्म न सिर्फ रोटी खरीदने का साधन बनता है ,बलिक पूरे समाज की इस स्थापना में घरेलू औरत का आदरणीय दर्ज़ा खरीदने का साधन भी है .धन्नो इसी अश्लीलता को नकारती एक ऊँची ,खुरदरी और रोष भरी आवाज़ है ......