Tuesday, August 30, 2011

‘‘गंगा जल से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’




ज़िन्दगी के उन अर्थों के नाम—
जो पेड़ों के पत्तों की तरह
चुपचाप उगते हैं और
झड़ जाते हैं !


सूरज रोज़ ढूंढता है
मुँह कहीं नहीं दिखता है
तेरा मुँह, जो रात को
इक़रार देता है
तड़प किसे कहते हैं,
तू यह नहीं जानती
किसी पर कोई अपनी
ज़िन्दगी क्यों निसार करता है
अपने दोनों जहाँ
कोई दाँव पर लगाता है
नामुराद हँसता है
और हार जाता है
अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
इस तरह लाखों ख्याल
आयेंगे, चले जायेंगे




अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः-

‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो बडी घटनायें हुई। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुख से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों । यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्तरह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।---’’
अपने विचारों को कागज पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुडे एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः-
‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खोला  गया और डायरी को पढा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्ध व्याख्या मांगी गयी। उस दिन को भुगतकर मैंने वह डायरी फाड दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’
विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।

मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा
उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में
कुछ हवा में मिल गयी,
‘‘ पर जिंदगी में तीन  समय ऐसे आए हैं-जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- सांस खिंचा-खिंचा थां उस दिन उसके गले और छाती पर मैने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़ खडे़ पोरों से , उंगिलयों  से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार सकती  हूं। मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता नहीं थी।---
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था।और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकडे़ कमरे में रह जाते थे। कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, मै उसके छोडे हुये सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकडे़ को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं---- ’’
साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुयी हैः-
‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जो मेरे पास धीरे धीरे जुडा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूं तो दबे हुए खजाने की भांति प्रतीत हो रहा है---
---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र परसे लायी थी और एक कागज का गोल टुकडा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर । साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’


विभाजन का दर्द अमृता ने सिर्फ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने  अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा। 1947 में 3 जुलाई को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया और उसके तुरंत बाद 14 अगस्त 1947 को विभाजन का मंजर भी देखा जिसके संदर्भ में उससे लिखा किः-
‘‘ दुखों की कहानियां कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियां उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैने लाशें देखीं थीं , लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब ----एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते कांच के बर्तनों की भांति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थी और मेरे माथे में भी ----- ’’
जीवन के उत्तरार्ध में अम्रता जी इमरोज के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है........
‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज बुखार चढ़ गया। उस दिन- उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था- बहुत बुखार है? इन शब्दों के बाद उसके मुहं  से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बडा हो गया हूं।
--कभी हैरान हो जाती हूं - इमरोज ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं-- एक बार मैने हंसकर कहा था, ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता , तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे , मुझसे भी आगे , अपनाकर कहने लगा:-मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज पढ़ते हुए ढूंढ लेता! सोचती हूं - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’
अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि
‘‘गंगा जल  से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’

अम्रता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-
‘‘ मैं जब अम्रता प्रीतम की कोई रचना पढता हूं, तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’
इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकडा’ के हिंदी में अनुदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः-
‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छांव वीथि में विचरने के समान है इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी, संस्कृत तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’


मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी

       अमृता के आज जन्मदिन पर विशेष यादें ...............इनको कितना भी दुहरा लो ...पर यह हमेशा कुछ नयी सी बात कहती लगती है


10 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

फिर उम्दा पोस्ट,आभार.

Kailash Sharma said...

बहुत ख़ूबसूरत और आकर्षक पोस्ट..

Parul kanani said...

main to nishbd ho jati hoon..

शूरवीर रावत said...

अमृता जी के बारे में जितना भी लिखा जाय वह बार बार पढने का मन करता है. .... रंजना जी, इसके लिए आपका बहुत आभार.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

amrita ji ke janmdin 31 agust ko unke ghar jati thee, is saal wo ghar bhi na raha aur main bhi na jaa saki. post padhkar bahut achchha laga. Ranjana ji aapka aabhar.

सदा said...

आपने एक बार फिर हमें अमृता जी से मिलाया है ..हर शब्‍द उनका अहसास कराता हुआ ...इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये आपका आभार ।

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहद उम्दा पोस्ट... हमेशा की तरह...

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहद उम्दा पोस्ट... हमेशा की तरह...

Anupama Tripathi said...

शनिवार (१०-९-११) को आपकी कोई पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर है ...कृपया आमंत्रण स्वीकार करें ....और अपने अमूल्य विचार भी दें ..आभार.

Minakshi Pant said...

मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा
उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में
कुछ हवा में मिल गयी,
बहुत खूबसूरत |